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मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

एक दिन एक कुत्ता श्रीराम के दरबार में आया और उसने प्रभु से शिकायत की –

एक दिन एक कुत्ता श्रीराम के दरबार में आया और उसने प्रभु से शिकायत की – “राजन, कितने दुख की बात है कि जिस राज्य की कीर्ति चहुंओर रामराज्य के रूप में फैली हुई है वहीं लोग हिंसा और अन्याय का सहारा लेते हैं. मैं आपके महल के पास ही एक गली में लेटा हुआ था जब एक साधू आया और उसने मुझे पत्थर मारकर घायल कर दिया. देखिए मेरे सिर पर लगे घाव से अभी भी रक्त बह रहा है. वह साधू अभी भी गली में ही होगा. कृपया मेरे साथ न्याय कीजिए और अन्यायी को उसके दुष्कर्म का दंड दीजिए.”

श्रीराम के आदेश पर साधु को दरबार में लिवा लाया गया. साधू ने कहा – “यह कुत्ता गली में पूरा मार्ग रोककर लेटा हुआ था. मैंने इसे उठाने के लिए आवाज़ें दीं और ताली बजाई लेकिन यह नहीं उठा. मुझे गली के पार जाना था इसलिए मैंने इसे एक पत्थर मारकर भगा दिया.”

श्रीराम ने साधु से कहा – “एक साधू होने के नाते तो तुम्हें किंचित भी हिंसा नहीं करनी चाहिए थी. तुमने गंभीर अपराध किया है और इसके लिए दंड के भागी हो.” श्रीराम ने साधू को दंड देने के विषय पर दरबारियों से चर्चा की. दरबारियों ने एकमत होकर निर्णय लिया – “चूंकि इस बुद्धिमान कुत्ते ने यह वाद प्रस्तुत किया है अतएव दंड के विषय पर भी इसका मत ले लिया जाए.”


कुत्ते ने कहा – “राजन, इस नगरी से पचास योजन दूर एक अत्यंत समृद्ध और संपन्न मठ है जिसके महंत की दो वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है. कृपया इस साधू को उस मठ का महंत नियुक्त कर दें.”


श्रीराम और सभी दरबारियों को ऐसा विचित्र दंड सुनकर बड़ी हैरानी हुई. उन्होंने कुत्ते से ऐसा दंड सुनाने का कारण पूछा.


कुत्ते ने कहा – “मैं ही दो वर्ष पूर्व उस मठ का महंत था. ऐसा कोई सुख, प्रमाद, या दुर्गुण नहीं है जो मैंने वहां रहते हुए नहीं भोगा हो. इसी कारण इस जन्म में मैं कुत्ता बनकर पैदा हुआ हूं. अब शायद आप मेरे दंड का भेद जान गए होंगे.”

बात मुगल काल की है, नवरात्र में विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मेला लगा हुआ था.


बात मुगल काल की है, नवरात्र में विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मेला लगा हुआ था. चारों ओर चहल-पहल थी, दूर-दूर से लोग भगवती के दर्शन करने चले आ रहे थे, एक चौदह वर्षीय बालक ने अपने जूते उतारे हाथ पैर धोए और एक डालिया लेकर देवी की पूजा के लिए पुष्प चुनने वाटिका जा पहुँचा. उसके साथ उसके हमउम्र दूसरे बालक भी थे. पुष्प चुनते हुए वे कुछ दूर निकल गए, इतने हीं में वहाँ कुछ मुगल सैनिक घोड़े पर चढ़ कर आए, पास आकर वे घोड़े से उतर पड़े और पूछने लगे- “ विन्ध्यवासिनी का मंदिर किधर है ? “

बालक ने पूछा- “ क्यों, क्या तुम्हें भी देवी की पूजा करनी है ? “

मुगल सरदार ने कहा- “ छिः हम तो मंदिर को तोड़ने आए हैं. “

बालक ने फूलों की डालिया दूसरे बालक को पकड़ायी और गरज उठा- “मुँह संभाल कर बोल. ऐसी बात कही तो जीभ खींच लूँगा.”

सरदार हँसा और बोला- “ तू भला क्या कर सकता है ? तेरी देवी भी......?” लेकिन बेचारे का वाक्य भी पूरा नहीं हुआ कि उस साहसी बालक की तलवार उसकी छाती में होकर पीछे तक निकल गई थी. एक युद्ध छिड़ गया उस पुष्प वाटिका में. जिन बालकों के पास तलवारें नहीं थी, वे वे तलवारें लेने गए.

मंदिर में इस युद्ध का समाचार पहुँचा, लोगों ने कवच पहने और तलवारें सम्हाली, किन्तु उन्होंने देखा कि वह वीर बालक हाथ में फूल की डालिया लिए हँसते हुए चला आ रहा है. इसके वस्त्र रक्त से लाल हो गए हैं, अकेले उसने मुगल सैनिकों को भूमि पर सुला दिया था. इस वीर बालक का नाम छत्रसाल था. आज भगवती विन्ध्यवासिनी अपने सच्चे पुजारी के शौर्य- पुष्प को पाकर प्रसन्न हो गईं थीं

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

समाज में शिक्षक का स्तर ऊपर क्यों नहीं उठ रहा है


समाज में शिक्षक का स्तर ऊपर क्यों नहीं उठ रहा है


कुछ समय पहले तेलुगू दैनिक 'ईनाडु' में एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसमें युवतियों से पूछा गया था कि वे किस प्रोफेशन वाले व्यक्ति को अपना जीवन साथी बनाना पसंद करेंगी। इसके उत्तर में 40 प्रतिशत ने बिजनेस मैन और 20 प्रतिशत ने डॉक्टर, इंजीनियर या चार्टर्ड अकाउंटेंट को अपनी पसंद बताया। शेष 40 प्रतिशत ने कहा कि वे आईएएस, आईपीएस या एमनसी में
कार्यरत किसी अधिकारी का चयन करना चाहेंगी। मगर उनमें से किसी ने भी अध्यापक से विवाह करने की इच्छा जाहिर नहीं की।

स्टेटस के लिहाज से शिक्षक का दर्जा आज काफी छोटा हो गया है। शिक्षकों की कई शिकायतें हैं। जिम्मेदारी और काम के लिहाज से उनका वेतन काफी कम है। समाज के मूल्य बदल गए हैं। पहले जिस प्रकार गुरु का सम्मान होता था, वह अब नहीं रहा। पैरंट्स स्कूल आते हैं तो अपने बच्चे के टीचर से व्यापारी की तरह बर्ताव करते हैं। हमने फीस दी, तुमको सैलरी मिली, अब अपना काम ढंग से करो। टीचर किसी विद्यार्थी को पढ़ाने उसके घर जाता है तो अभिभावकों का लहजा कुछ इस प्रकार का होता है, 'चल टिंकू, तेरा ट्यूटर आ गया है!' जब घरों में इस प्रकार का वातावरण होगा तो बच्चा भी अध्यापक का सम्मान क्यों करेगा। एक दंत मंजन कंपनी के विज्ञापन में तो एक अध्यापक के दांत गंदे दिखाए गए हैं और विद्यार्थी उनकी हंसी उड़ा रहे हैं। यह विज्ञापन शिक्षक को लेकर समाज के नजरिए को ही व्यक्त करता है।

लेकिन इस स्थिति के लिए कुछ अध्यापक भी जिम्मेदार हैं। अनेक शिक्षक अपने छात्रों को निष्ठा से नहीं पढ़ाते हैं। देर से जाना, कम पढ़ाना, अधिक समय गप मारना उनकी आदत में शुमार होता है। बच्चों की अभ्यास पुस्तिकाएं न जांचना, स्कूल में राजनीति या बिजनेस करना आदि सामान्य बातें हो चुकी हैं। कई शिक्षक पुस्तकों से नहीं कुंजियों से पढ़ाते हैं क्योंकि जिसे स्वयं नहीं आता वह दूसरों को क्या पढ़ाएगा। असल दिक्कत यह है कि आजाद हिंदुस्तान में शिक्षा का महत्व स्वीकार नहीं किया गया है।

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