बात मुगल काल की है, नवरात्र में विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मेला लगा हुआ था. चारों ओर चहल-पहल थी, दूर-दूर से लोग भगवती के दर्शन करने चले आ रहे थे, एक चौदह वर्षीय बालक ने अपने जूते उतारे हाथ पैर धोए और एक डालिया लेकर देवी की पूजा के लिए पुष्प चुनने वाटिका जा पहुँचा. उसके साथ उसके हमउम्र दूसरे बालक भी थे. पुष्प चुनते हुए वे कुछ दूर निकल गए, इतने हीं में वहाँ कुछ मुगल सैनिक घोड़े पर चढ़ कर आए, पास आकर वे घोड़े से उतर पड़े और पूछने लगे- “ विन्ध्यवासिनी का मंदिर किधर है ? “
बालक ने पूछा- “ क्यों, क्या तुम्हें भी देवी की पूजा करनी है ? “
मुगल सरदार ने कहा- “ छिः हम तो मंदिर को तोड़ने आए हैं. “
बालक ने फूलों की डालिया दूसरे बालक को पकड़ायी और गरज उठा- “मुँह संभाल कर बोल. ऐसी बात कही तो जीभ खींच लूँगा.”
सरदार हँसा और बोला- “ तू भला क्या कर सकता है ? तेरी देवी भी......?” लेकिन बेचारे का वाक्य भी पूरा नहीं हुआ कि उस साहसी बालक की तलवार उसकी छाती में होकर पीछे तक निकल गई थी. एक युद्ध छिड़ गया उस पुष्प वाटिका में. जिन बालकों के पास तलवारें नहीं थी, वे वे तलवारें लेने गए.
मंदिर में इस युद्ध का समाचार पहुँचा, लोगों ने कवच पहने और तलवारें सम्हाली, किन्तु उन्होंने देखा कि वह वीर बालक हाथ में फूल की डालिया लिए हँसते हुए चला आ रहा है. इसके वस्त्र रक्त से लाल हो गए हैं, अकेले उसने मुगल सैनिकों को भूमि पर सुला दिया था. इस वीर बालक का नाम छत्रसाल था. आज भगवती विन्ध्यवासिनी अपने सच्चे पुजारी के शौर्य- पुष्प को पाकर प्रसन्न हो गईं थीं
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