🌹🌷🚩 श्री राम जय राम जय जय राम🌹🌹🚩 जय जय विघ्न हरण हनुमान 🌹🌷🚩
...........!! *श्रीराम: शरणं मम* !!.........
।।श्रीरामकिंकर वचनामृत।।
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*जब ईश्वर से राग हो जाता है तो*
*बाकी सब से द्वेष नहीं हो जाता।*
*भगवान् से राग करने वाले में वैराग्य*
*आ सकता है द्वेष नहीं आ सकता।*
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'मानस' में अरण्यकाण्ड के पात्रों में जितनी विचित्रता और विभिन्नता है वह किसी अन्य काण्ड में नहीं है। इस काण्ड में एक विचित्र पात्र सामने आता है जिसके विषय में यह सोचना पड़ता है कि 'उसे बुरा कहा जाय या भला कहा जाय ?' वह पात्र हैं -- मारीच। मारीच के विषय में जो प्रारम्भिक वर्णन आता है उसमें यह कहा जाता है कि वह मुनियों का यज्ञ नष्ट कर दिया करता था । पर एक बार जब भगवान् राम के बाण के द्वारा उसे दूर समुद्र के किनारे फेंक दिया गया, वह सर्वत्र भगवान् राम के दर्शन करने लगा।
रावण सीताजी के हरण की योजना में मारीच से जब सहायता माँगने आता है तो मारीच उसे समझाने की चेष्टा करता है। वह रावण से कहता है कि मैंने श्रीराम के बिना फल के बाण का प्रभाव देख लिया है, अतः उनसे बैर रखना ठीक नहीं होगा ! तुम क्यों ऐसा अनर्थकारी कार्य करते हो ? रावण उसकी बात नहीं मानता, उल्टे सहायता न देने की स्थिति में उसके सामने मृत्यु का भय उपस्थित कर देता है। मारीच यद्यपि नहीं चाहता, पर वह रावण के साथ मायामृग बनकर चल पड़ता है । वह सोचता है कि मेरी मृत्यु का समय तो आ ही गया है, अतः अच्छा है कि रावण के हाथों मरने के स्थान पर भगवान् राम के हाथों मरूँ ! उसके हृदय में भगवान् राम के प्रति प्रेम है पर वह रावण के पक्ष में और प्रभु के विरूद्ध कार्य करता हुआ दिखायी देता है।
गीता में अर्जुन ने भगवान् कृष्ण से एक प्रश्न करते हुए कहा था कि प्रभु ! एक व्यक्ति तो ऐसा होता है कि जिसकी पाप में रूचि है, दूसरा व्यक्ति ऐसा है कि जिसकी पुण्य में रूचि है । पर ऐसा भी तो देखा जाता है कि कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो पाप नहीं करना चाहते, बुराई नहीं करना चाहते पर -
*अथ केन प्रयुक्तोऽय॑ पाप॑ चरति पूरूष:।*
*अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:।।* गीता-3/36
ऐसा लगता है कि बतपूर्वक उनको उस दिशा में प्रेरित किया जाता है। मारीच के जीवन में इस श्लोक का पूरी तरह से निर्वाह होता हुआ दिखायी देता है। मारीच अंत में प्रभु के हाथों मृत्यु को प्राप्त करता है। पर सबसे बड़ी विचित्रता खर-दूषण और त्रिशिरा आदि चौदह हजार राक्षसों की मृत्यु के रूप में दिखायी देती है। मन की भूमि दण्डकारण्य में ही ऐसी विचित्रता संभव है।
ये सब राक्षस भगवान् राम को देखकर सम्मोहित हो जाते हैं, भगवान् के सौन्दर्य से अभिभूत हो जाते हैं। मन की भूमि में जब वासना का उदय हो जाता है, उस समय सौन्दर्य दिखायी दे यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लंका में रावण या किसी अन्य राक्षस को भगवान् राम में न तो रूप-सौन्दर्य ही दिखायी देता है और न ही कोई गुण दिखायी देता है। इसका कारण यही है कि लंका अहंकार की भूमि है। मन की भूमि में तो दूसरे की सुंदरता दिखायी दे सकती है, पर *अहंकारी किसी को सुंदर, गुणी या अपने से श्रेष्ठ मान ले, यह तो संभव ही नहीं है।*
वर्णन आता है कि भगवान् राम उन चौदह हजार राक्षसों को अपना रूप प्रदान कर देते हैं। और वे राक्षसगण आपस में एक-दूसरे का सिर काटकर समाप्त हो जाते हैं। ये सब जानते थे कि हम सब परस्पर राम के द्वारा दृढ़ता से बँधे हुए हैं इसलिये आपस में न लडेंगे और न मरेंगे। पर यह मात्र एक भ्रान्ति ही सिद्ध होती है। इसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि राग भी मारता है। इस संदर्भ में उपनिषद् का एक बड़ा प्रसिद्ध वाक्य आता है जिसमें इस प्रश्न के उत्तर में कि “कौन रूलाता है ?” कहा गया है कि --
*'प्रिय: त्वां रौस्यसि'*
तुम्हारा जो प्रिय है, वही तुम्हें रूलायेगा। यद्यपि साधारणतया यही माना जाता है कि विरोधी ही दुःख देता है पर यह पूरा सत्य नहीं आधा सत्य है। यह दिखायी भी देता है। संसार में ऐसा हो नहीं सकता कि कोई भी राग सर्वथा एक रस बना रहे, पर जहाँ एक रस राग हो सकता है वह तो एकमात्र ईश्वर ही है।
संसार में राग से जुड़ा हुआ एक दोष यह है कि जब किसी एक से राग हो जाता है तो दूसरे से द्वेष हो जाता है, पर *जब ईश्वर से राग हो जाता है तो बाकी सब से द्वेष नहीं हो जाता। भगवान् से राग करने वाले में वैराग्य आ सकता है द्वेष नहीं आ सकता। और यदि द्वेष आ गया तो फिर वह भक्त नहीं है।*
कहा जाता है कि ममता बड़ी दुःखदायी है। संतों को भी यही उलाहना रही कि --
*ममता तू न गई मेरे मन से।*
इस पर प्रभु ने बड़ी मीठी बात कहीं कि अगर ममता करनी ही है तो मुझसे करो।
“महाराज ! यदि ममता करना अच्छी बात नहीं है तो फिर आपसे क्यों करें ? आप ममता के स्थान पर भक्ति करने के लिये क्यों नहीं कह रहे हैं ? तो क्या हम संसार से जैसी ममता करते हैं, वैसी ममता आपसे भी कर लें ?
प्रभु ने कहा -- “संसार से ममता करने में और मुझसे ममता करने में एक अंतर है। संसार में जिससे तुम ममता करते हो, वह तुम्हें बाँघता है, पर जब मुझसे ममता करते हो तो मैं बँँध जाता हूँ। प्रभु विभीषणजी से कहते हैं कि मेरे चरणों को बाँध लेने का एक ही उपाय है कि --
*जननी जनक बंधु सुत दारा।*
*तनु धनु भवन सुहद परिवारा।।*
*सब कै ममता ताग बटोरी।* 5/47/4, 5
और यह जो रस्सी बने उसे मेरे चरणों में बाँध दो --
*मम पद मनहिं बाँध बरि डोरी।।* 5/47/5
संसार से ममता बाँधती है और भगवान् से ममता हमें तो मुक्त करती है, पर भगवान् बँध जाते हैं। भगवान् से राग की विशेषता यही है कि --
*जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी,*
वह (संसार से ) वैराग्य प्रदान करता है। यही राग खरदूषणादि राक्षसों के विनाश का कारण बन जाता है। जहाँ राग नहीं होना चाहिये वहाँ वे राग किये हुए हैं और भगवान् के प्रति द्वेष भाव रखते हैं। इसीलिये भगवान् के द्वारा अपना रूप प्रदान करने पर भी वे आपस में लड़कर मर जाते हैं। यदि उनका भगवान् में राग होता तो वे उन्हें सामने और सबमें एवं अपने में भी देखकर आनंदित हो जाते, फिर न तो विरोध शेष रहता और न ही विनाश की स्थिति आती । प्रभु में जिनका राग होता है उनकी वृत्ति क्या होती है, यह बताते हुए भगवान् शंकर यही कहते हैं कि --
*उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।*
*निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध।।* 7112 (ख)
पर जीवन में जब ऐसी खरवृत्ति आ जाती है, दूषणवृत्ति आ जाती है तो व्यक्ति स्वयं अपना विनाश कर लेता है। इन चौदह हजार राक्षसों का वध भगवान् राम को नहीं करना पड़ा, उन्होंने स्वयं अपना वध कर लिया, मानो आत्महत्या कर ली। गोस्वामीजी यही कहते हैं कि प्रभु तो बड़े कौतुकी हैं --
*सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्यो।*
और इस खेल-खेल में ही --
*देखहिं परस्पर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर्यो।।* 3/16/छं.
सारे राक्षसों का विनाश हो गया।.
भगवान् राक्षसों को अपना रूप देते हैं यह उनकी कृपा ही है। क्योंकि मुक्ति के जो चार प्रकार बताये गये हैं उनमें से एक मुक्ति *'सारूप्य मुक्ति'* है। प्रभु उन्हें यह दुर्लभ मुक्ति बड़ी सहजता से प्रदान कर देते हैं पर वे इसे पाकर भी अपने जीवन को धन्य नहीं बना पाते, सार्थक नहीं बना पाते। मनुष्य शरीर के विषय में भी ऐसी ही बात 'मानस' में कही गयी है।
भगवान् राम अयोध्या के नागरिकों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि 'व्यक्ति का यह सबसे बड़ा सौभाग्य है कि उसे मनुष्य का शरीर प्राप्त हुआ है। इससे बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है --
*बड़े भाग मानुष तन पावा।*
*सुर दुर्लभ सद ग्रंथहि गावा।।* 7/42/7
व्यक्ति इस शरीर का सदुपयोग करके क्या नहीं पा सकता। लोगों को बहुधा जो वस्तु कठिनता से प्राप्त होती है, उसी का मूल्य लगाते हैं और जो सरलता से मिल जाय उसे मूल्यवान् नहीं मानते। मनुष्य शरीर प्रदान कर ईश्वर ने उसे कितना बड़ा सौभाग्य प्रदान किया है, व्यक्ति का ध्यान इस ओर नहीं जाता। वस्तुतः --
*कबहुँक करि करूना नर देही।*
*देत ईस बिनु हेतु सनेही।।* 7/43/6
यह तो ईश्वर की अहैतुकी कृपा है। पर व्यक्ति इसे पाकर भी जब अपने आप को धन्य नहीं बना पाता, तो वह इस शरीर का दुरूपयोग करता है, मानो आत्महत्या करता है --
*सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।*
7/44
व्यक्ति यदि अपने शरीर की रचना पर ध्यान दे, अंग-प्रत्यंग के कार्यों पर ध्यान दे तो वह चकित रह जायेगा। बाहर होने वाले आविष्कारों की कार्य-प्रणाली को देखकर आश्चर्यचकित होना भी स्वाभाविक है, पर व्यक्ति यदि अपने शरीर की ओर एक बार ध्यान से देख ले तो उसे यह सबसे बड़ा आश्चर्य प्रतीत होगा !
👤 जय गुरुदेव जय सियाराम 🙏
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