चतुर्थी तिथि छय होने के कारण कल 18.10.2012 को तीसरा और चौथा नवरात्र एक साथ : यहाँ तीसरी शक्ति 'चंद्रघंटा' और चौथी 'कुष्मांडा', दोनों ही दिये जा रहे हैं l
तीसरी शक्ति चन्द्रघंटा माता की आराधना.......
चंद्रघंटा : चंद्रघंटा अर्थात् जिनके मस्तक पर चंद्र के आकार का तिलक है।
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तीसरी शक्ति चन्द्रघंटा माता की आराधना.......
चंद्रघंटा : चंद्रघंटा अर्थात् जिनके मस्तक पर चंद्र के आकार का तिलक है।
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पिण्डज प्रवरारुढ़ा चण्डकोपास्त्र कैर्युता |
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्र घंष्टेति विश्रुता ||
नवरात्र के तीसरे दिन माता चंद्रघंटा की पूजा-वंदना इस मंत्र के द्वारा की जाती है l इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है तथा इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है l माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक एवं दिव्य सुगंधित वस्तुओं के दर्शन तथा अनुभव होते हैं, इस दिन साधक का मन 'मणिपूर' चक्र में प्रविष्ट होता है, सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। यह क्षण साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं l
मां दुर्गा की 9 शक्तियों की तीसरी स्वरूपा भगवती चंद्रघंटा की पूजा नवरात्र के तीसरे दिन की जाती है l माता के माथे पर घंटे आकार का अर्धचन्द्र है, जिस कारण इन्हें चन्द्रघंटा कहा जाता है l इनका रूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है l माता का शरीर स्वर्ण के समान उज्जवल है l इनका वाहन सिंह है और इनके दस हाथ हैं जो की विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से सुशोभित रहते हैं l सिंह पर सवार मां चंद्रघंटा का रूप युद्ध के लिए उद्धत दिखता है और उनके घंटे की प्रचंड ध्वनि से असुर और राक्षस भयभीत करते हैं l भगवती चंद्रघंटा की उपासना करने से उपासक आध्यात्मिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त करता है और जो श्रद्धालु इस दिन श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक दुर्गा सप्तसती का पाठ करता है, वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान को प्राप्त करता है l माता चंद्रघंटा की पूजा-अर्चना भक्तो को सभी जन्मों के कष्टों और पापों से मुक्त कर इसलोक और परलोक में कल्याण प्रदान करती है और भगवती अपने दोनों हाथो से साधकों को चिरायु, सुख सम्पदा और रोगों से मुक्त होने का वरदान देती हैं l मनुष्य को निरंतर माता चंद्रघंटा के पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयास करना चाहिए और इस दिन महिलाओं को घर पर बुलाकर आदर सम्मान पूर्वक उन्हें भोजन कराना चाहिए और कलश या मंदिर की घंटी उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान करना चाहिए l इससे भक्त पर सदा भगवती की कृपा दृष्टि बनी रहती है l दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी इनका स्वरूप दर्शक और अराधक के लिए अत्यंत सौम्यता एवं शान्ति से परिपूर्ण रहता है । चंद्रघंटा देवी का यह तीसरा स्वरूप भक्तों का कल्याण करता है। इन्हें ज्ञान की देवी भी माना गया है।
बाघ पर सवार मां चंद्रघंटा के चारों तरफ अद्भुत तेज है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। यह तीन नेत्रों और दस हाथों वाली हैं। इनके दस हाथों में कमल, धनुष-बाण, कमंडल, तलवार, त्रिशूल और गदा जैसे अस्त्र-शस्त्र हैं। कंठ में सफेद पुष्पों की माला और शीर्ष पर रत्नजड़ित मुकुट विराजमान हैं। यह साधकों को चिरायु, आरोग्य, सुखी और संपन्न होने का वरदान देती हैं। कहा जाता है कि यह हर समय दुष्टों के संहार के लिए तैयार रहती हैं और युद्ध से पहले उनके घंटे की आवाज ही राक्षसों को भयभीत करने के लिए काफी होती है।
इनकी अराधना से प्राप्त होने वाला सदगुण एक यह भी है कि साधक में वीरता-निर्भरता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होता है। उसके मुख, नेत्र तथा सम्पूर्ण काया में कान्ति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य, अलौकिक, माधुर्य का समावेश हो जाता है। माँ चन्द्रघंटा के साधक और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं। ऐसे साधक के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का दिव्य अदृश्य विकिरण होता है। यह दिव्य क्रिया साधारण चक्षुओं से दिखलायी नहीं देती, किन्तु साधक और सम्पर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव भलीभांति कर लेते हैं साधक को चाहिए कि अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णत: परिशुद्ध एवं पवित्र करके उनकी उपासना-अराधना में तत्पर रहे । उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं । हमें निरन्तर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सदगति देने वाला है। माँ चंद्रघंटा की कृपा से साधक की समस्त बाधायें हट जाती हैं।
चतुर्थ रूप श्री कुष्मांडा माता.......
कुष्मांडा : ब्रह्मांड को उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करने के बाद उन्हें कूष्मांड कहा जाने लगा। उदर से अंड तक वह अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए है, इसीलिए कुष्मांडा कहलाती है।
सूरा सम्पूर्ण कलशं रुधिरा प्लुतमेव च |
दधानां हस्त पदमयां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ||
दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्मांडा की पूजा-वंदना इस मंत्र द्वारा करनी चाहिए l इस दिन भक्त का मन 'अनाहत' चक्र में स्थित होता है, अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और शांत मन से कुष्मांडा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा करनी चाहिए l संस्कृत भाषा में कुष्मांडा कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण भी इन्हें कुष्मांडा के नाम से जाना जाता है l
नवरात्र के चौथे दिन आदिशक्ति मां दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री पूजा की जाती है l अपने उदर से ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण मां दुर्गा के इस स्वरुप को कुष्मांडा के नाम से पुकारा जाता है l दुर्गा पूजा के चौथे दिन भगवती श्री कुष्मांडा के पूजन से भक्त को अनाहत चक्र जाग्रति की सिद्धियां प्राप्त होती है l अपने दैवीय स्वरुप में मां कुष्मांडा बाघ पर सवार हैं, इनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट है और अष्टभुजाधारी होने के कारण इनके हाथों में कमल, सुदर्शन, चक्र, गदा, धनुष-बाण, अक्षतमाला, कमंडल और कलश सुशोभित हैं l भगवती कुष्मांडा की अराधना से श्रद्धालु रोग, शोक और विनाश से मुक्त होकर आयु, यश, बल और बुद्धि को प्राप्त करता है l श्रद्धावान भक्तों में मान्यता है कि यदि कोई सच्चे मन से माता के शरण को ग्रहण करता है तो मां कुष्मांडा उसे आधियों-व्याधियों से विमुक्त करके सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाती है l मान्यतानुसार नवरात्र के चौथे दिन मां कुष्मांडा के पूजन के बाद भक्तों को तेजस्वी महिलाओं को बुलाकर उन्हें भोजन कराना चाहिए और भेंट स्वरुप फल और सौभाग्य के सामान देना चाहिए l इससे माता भक्त पर प्रसन्न रहती है और हर समय उसकी सहायता करती है l
दुर्गा सप्तशती के कवच में लिखा है- कुत्सित: कूष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत: संसार:, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कुष्मांडा. इसका अर्थ है- वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कुष्मांडा हैं. देवी कुष्मांडा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं l जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी, उस समय अंधकार का साम्राज्य था l देवी कुष्मांडा जिनका मुखमंडल सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है, उस समय प्रकट हुई उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है, उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्मण्ड का जन्म हुआ, अत: यह देवी कुष्मांडा के रूप में विख्यात हुई l इस देवी का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है और यह सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं l
देवी कुष्मांडा अष्टभुजा से युक्त हैं अत: इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है l देवी अपने इन हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, चक्र तथा गदा है l देवी के आठवें हाथ में बिजरंके (कमल फूल का बीज) का माला है, यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि देने वाला है l देवी अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार हैं l जो भक्त श्रद्धा पूर्वक इस देवी की उपासना दुर्गा पूजा के चौथे दिन करता है, उसके सभी प्रकार के कष्ट रोग, शोक का अंत होता है और आयु एवं यश की प्राप्ति होती है l
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्र घंष्टेति विश्रुता ||
नवरात्र के तीसरे दिन माता चंद्रघंटा की पूजा-वंदना इस मंत्र के द्वारा की जाती है l इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है तथा इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है l माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक एवं दिव्य सुगंधित वस्तुओं के दर्शन तथा अनुभव होते हैं, इस दिन साधक का मन 'मणिपूर' चक्र में प्रविष्ट होता है, सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। यह क्षण साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं l
मां दुर्गा की 9 शक्तियों की तीसरी स्वरूपा भगवती चंद्रघंटा की पूजा नवरात्र के तीसरे दिन की जाती है l माता के माथे पर घंटे आकार का अर्धचन्द्र है, जिस कारण इन्हें चन्द्रघंटा कहा जाता है l इनका रूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है l माता का शरीर स्वर्ण के समान उज्जवल है l इनका वाहन सिंह है और इनके दस हाथ हैं जो की विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से सुशोभित रहते हैं l सिंह पर सवार मां चंद्रघंटा का रूप युद्ध के लिए उद्धत दिखता है और उनके घंटे की प्रचंड ध्वनि से असुर और राक्षस भयभीत करते हैं l भगवती चंद्रघंटा की उपासना करने से उपासक आध्यात्मिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त करता है और जो श्रद्धालु इस दिन श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक दुर्गा सप्तसती का पाठ करता है, वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान को प्राप्त करता है l माता चंद्रघंटा की पूजा-अर्चना भक्तो को सभी जन्मों के कष्टों और पापों से मुक्त कर इसलोक और परलोक में कल्याण प्रदान करती है और भगवती अपने दोनों हाथो से साधकों को चिरायु, सुख सम्पदा और रोगों से मुक्त होने का वरदान देती हैं l मनुष्य को निरंतर माता चंद्रघंटा के पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयास करना चाहिए और इस दिन महिलाओं को घर पर बुलाकर आदर सम्मान पूर्वक उन्हें भोजन कराना चाहिए और कलश या मंदिर की घंटी उन्हें भेंट स्वरुप प्रदान करना चाहिए l इससे भक्त पर सदा भगवती की कृपा दृष्टि बनी रहती है l दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी इनका स्वरूप दर्शक और अराधक के लिए अत्यंत सौम्यता एवं शान्ति से परिपूर्ण रहता है । चंद्रघंटा देवी का यह तीसरा स्वरूप भक्तों का कल्याण करता है। इन्हें ज्ञान की देवी भी माना गया है।
बाघ पर सवार मां चंद्रघंटा के चारों तरफ अद्भुत तेज है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। यह तीन नेत्रों और दस हाथों वाली हैं। इनके दस हाथों में कमल, धनुष-बाण, कमंडल, तलवार, त्रिशूल और गदा जैसे अस्त्र-शस्त्र हैं। कंठ में सफेद पुष्पों की माला और शीर्ष पर रत्नजड़ित मुकुट विराजमान हैं। यह साधकों को चिरायु, आरोग्य, सुखी और संपन्न होने का वरदान देती हैं। कहा जाता है कि यह हर समय दुष्टों के संहार के लिए तैयार रहती हैं और युद्ध से पहले उनके घंटे की आवाज ही राक्षसों को भयभीत करने के लिए काफी होती है।
इनकी अराधना से प्राप्त होने वाला सदगुण एक यह भी है कि साधक में वीरता-निर्भरता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होता है। उसके मुख, नेत्र तथा सम्पूर्ण काया में कान्ति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य, अलौकिक, माधुर्य का समावेश हो जाता है। माँ चन्द्रघंटा के साधक और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं। ऐसे साधक के शरीर से दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का दिव्य अदृश्य विकिरण होता है। यह दिव्य क्रिया साधारण चक्षुओं से दिखलायी नहीं देती, किन्तु साधक और सम्पर्क में आने वाले लोग इस बात का अनुभव भलीभांति कर लेते हैं साधक को चाहिए कि अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णत: परिशुद्ध एवं पवित्र करके उनकी उपासना-अराधना में तत्पर रहे । उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं । हमें निरन्तर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सदगति देने वाला है। माँ चंद्रघंटा की कृपा से साधक की समस्त बाधायें हट जाती हैं।
चतुर्थ रूप श्री कुष्मांडा माता.......
कुष्मांडा : ब्रह्मांड को उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करने के बाद उन्हें कूष्मांड कहा जाने लगा। उदर से अंड तक वह अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए है, इसीलिए कुष्मांडा कहलाती है।
सूरा सम्पूर्ण कलशं रुधिरा प्लुतमेव च |
दधानां हस्त पदमयां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ||
दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्मांडा की पूजा-वंदना इस मंत्र द्वारा करनी चाहिए l इस दिन भक्त का मन 'अनाहत' चक्र में स्थित होता है, अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और शांत मन से कुष्मांडा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा करनी चाहिए l संस्कृत भाषा में कुष्मांडा कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण भी इन्हें कुष्मांडा के नाम से जाना जाता है l
नवरात्र के चौथे दिन आदिशक्ति मां दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री पूजा की जाती है l अपने उदर से ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण मां दुर्गा के इस स्वरुप को कुष्मांडा के नाम से पुकारा जाता है l दुर्गा पूजा के चौथे दिन भगवती श्री कुष्मांडा के पूजन से भक्त को अनाहत चक्र जाग्रति की सिद्धियां प्राप्त होती है l अपने दैवीय स्वरुप में मां कुष्मांडा बाघ पर सवार हैं, इनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट है और अष्टभुजाधारी होने के कारण इनके हाथों में कमल, सुदर्शन, चक्र, गदा, धनुष-बाण, अक्षतमाला, कमंडल और कलश सुशोभित हैं l भगवती कुष्मांडा की अराधना से श्रद्धालु रोग, शोक और विनाश से मुक्त होकर आयु, यश, बल और बुद्धि को प्राप्त करता है l श्रद्धावान भक्तों में मान्यता है कि यदि कोई सच्चे मन से माता के शरण को ग्रहण करता है तो मां कुष्मांडा उसे आधियों-व्याधियों से विमुक्त करके सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाती है l मान्यतानुसार नवरात्र के चौथे दिन मां कुष्मांडा के पूजन के बाद भक्तों को तेजस्वी महिलाओं को बुलाकर उन्हें भोजन कराना चाहिए और भेंट स्वरुप फल और सौभाग्य के सामान देना चाहिए l इससे माता भक्त पर प्रसन्न रहती है और हर समय उसकी सहायता करती है l
दुर्गा सप्तशती के कवच में लिखा है- कुत्सित: कूष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत: संसार:, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कुष्मांडा. इसका अर्थ है- वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कुष्मांडा हैं. देवी कुष्मांडा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं l जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी, उस समय अंधकार का साम्राज्य था l देवी कुष्मांडा जिनका मुखमंडल सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है, उस समय प्रकट हुई उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है, उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्मण्ड का जन्म हुआ, अत: यह देवी कुष्मांडा के रूप में विख्यात हुई l इस देवी का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है और यह सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं l
देवी कुष्मांडा अष्टभुजा से युक्त हैं अत: इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है l देवी अपने इन हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, चक्र तथा गदा है l देवी के आठवें हाथ में बिजरंके (कमल फूल का बीज) का माला है, यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि देने वाला है l देवी अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार हैं l जो भक्त श्रद्धा पूर्वक इस देवी की उपासना दुर्गा पूजा के चौथे दिन करता है, उसके सभी प्रकार के कष्ट रोग, शोक का अंत होता है और आयु एवं यश की प्राप्ति होती है l
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