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शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

जयतु संस्कृतं ! जयतु भारतं ..............अवश्य पढें................. !

अवश्य पढें................. !

कुछ समय पूर्व "SCIENCE REPORTER" नामक अंग्रेजी पत्रिका जो कि National Institute of Science communication & information resources, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुई थी, उसके २००७ के अंक में श्री डी०पी०
सिहं द्वारा लिखित एक लेख "ANTIMATTER-The ultimate fuel" नाम के शीर्षक से छपा था। उसमें लेखक ने यह लिखा है कि सर्वाधिक कीमती वस्तु संसार में हीरा, यूरेनियम, प्लैटिनम, यहाँ त
क कि कोई भी पदार्थ नहीं है बल्कि अपदार्थ/या प्रतिपदार्थ अर्थात ANTIMATTER है।

वैज्ञानिकों ने लम्बे समय तक किये गये अनुसंधानों एवं सिद्धान्तो के आधार पर अब जाकर यह माना है कि ब्रह्मांड में पदार्थ के साथ-साथ अपदार्थ या प्रतिपदार्थ भी समान रूप से मौजूद है।

इस सम्बन्ध में ऋग्वेद के अन्तर्गत "नासदीय सूक्त" जो संसार में वैज्ञानिक चिंतन में उच्चतम श्रेणी का माना जाता है उसकी एक ऋचा में लिखा है किः-

तम आसीत्तमसा गू---हमग्रे----प्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।

तुच्छेच्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्।।

अर्थात् सृष्टि से पूर्व प्रलयकाल में सम्पूर्ण विश्व मायावी अज्ञान(अन्धकार) से ग्रस्त था, सभी अव्यक्त और सर्वत्र एक ही प्रवाह था, वह चारो ओर से सत्-असत्(MATTER AND ANTIMATTER) से आच्छादित था। वही एक अविनाशी तत्व तपश्चर्या के प्रभाव से उत्पन्न हुआ।

वेद की उक्त ऋचा से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मांड के प्रारम्भ में सत् के साथ-साथ असत् भी मौजूद था (सत् का अर्थ है पदार्थ) । यह कितने आश्चर्य का विषय है कि वर्तमान युग में वैज्ञानिकों द्वारा अनुसंधान पर अनुसंधान करने के पश्चात कई दशकों में यह अनुमान लगाया गया कि विश्व में पदार्थ एवं अपदार्थ/प्रतिपदार्थ (Matter and Antimatter) समान रूप से उपलब्ध है। जबकि ऋग्वेद की एक छोटी सी ऋचा में यह वैज्ञानिक सूत्र पहले से ही अंकित है।

उक्त लेख में लेखक ने लिखा है कि Matter and Antimatter जब पूर्ण रूप से मिल जाते हैं तो पूर्ण उर्जा में बदल जाते है। वेदों में भी यही कहा गया है कि सत् और असत् का विलय होने के पश्चात केवल परमात्मा की सत्ता या चेतना बचती है जिससे कालान्तर में पुनः सृष्टि (ब्रह्मांड) का निर्माण होता है।

अगर देखा जाए तो इस प्रकार का न जाने कितना अकल्पनीय ज्ञान वेद-पुराणों में भरा पडा है, जिसके जरिए इस सृ्ष्टि ओर उसके रचनाकार से पर्दा उठाया जा सकता है। लेकिन आधुनिक विज्ञान के अंधविश्वास में जी रहे चन्द काले अंग्रेजों को शायद इस प्रकार की बातें हजम होनी मुश्किल हैं। क्योंकि उनकी तर्कबुद्धि ये मानने को तैयार ही नहीं होती कि जंगलों मे निवास करने वाले, ऋषि मुनि कहे जाने वाले ये लोग बिना किसी आधुनिक यन्त्रों और बहुमूल्य प्रयोगशालाओं के अभाव में इन निष्कर्षों तक भी पहुंच सकते थे।

हमारे ऋषि-मुनियों की प्रयोगशाला उनका मस्तिष्क था ! अलबर्ट आइन्स्टीन से पूंछा गया की आपने अपने मस्तिष्क का कितना उपयोग किया है तो उन्होंने कहा कि " केवल १ प्रतिशत ही उपयोग किया है !" फिर पूंछा गया कि ऐसा कोई है जिसने इससे ज्यादा उपयोग किया हो " हाँ भारत के ऋषि-मुनियों ने अपना दिमाग ८ से १० प्रतिशत उपयोग किया है !"


जयतु संस्कृतं ! जयतु भारतं ...

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