कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा
कार्तिक पूर्णिमा
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा कही जाती है। इस
दिन महादेवजी ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का संहार किया था। इसलिए इसे
'त्रिपुरी पूर्णिमा' भी कहते हैं। इस दिन यदि कृतिका नक्षत्र हो तो यह
'महाकार्तिकी' होती है, भरणी नक्षत्र होने पर विशेष फल देती है और रोहिणी
नक्षत्र होने पर इसका महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। इस दिन सन्ध्या समय
भगवान का मत्स्यावतार हुआ था। इस द...िन गंगा स्नान के बाद दीप-दान आदि का
फल दस यज्ञों के समान होता है। इस दिन गंगा-स्नान, दीपदान, अन्य दानों आदि
का विशेष महत्त्व है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य ने इसे
'महापुनीत पर्व' कहा है। इसलिए इसमें गंगा स्नान, दीपदान, होम, यज्ञ तथा
उपासना आदि का विशेष महत्त्व है। इस दिन कृतिका पर चंद्रमा और विशाखा पर
सूर्य हो तो 'पद्मक योग' होता है जो पुष्कर में भी दुर्लभ है। इस दिन
कृतिका पर चंद्रमा और बृहस्पति हो तो यह 'महापूर्णिमा' कहलाती है। इस दिन
सन्ध्याकाल में त्रिपुरोत्सव करके दीपदान करने से पूनर्जन्मादि कष्ट नहीं
होता। इस तिथि में कृतिका में विश्व स्वामी का दर्शन करने से ब्राह्मण सात
जन्म तक वेदपाठी और धनवान होता है।
पूजा और दान प्रथा
इस दिन
चंद्रोदय पर शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं
का अवश्य पूजन करना चाहिए। कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में व्रत करके वृष
(बैल) दान करने से शिव पद प्राप्त होता है। गाय, हाथी, घोड़ा, रथ, घी आदि
का दान करने से सम्पत्ति बढ़ती है। इस दिन उपवास करके भगवान का स्मरण,
चिंतन करने से अग्निष्टोम यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है तथा सूर्यलोक की
प्राप्ति होती है। इस दिन मेष (भेड़) दान करने से ग्रहयोग के कष्टों का
नाश होता है। इस दिन कन्यादान से 'संतान व्रत' पूर्ण होता है। कार्तिकी
पूर्णिमा से प्रारम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा को रात्रि में व्रत और जागरण
करने से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। इस दिन कार्तिक के व्रत धारण करने वालों
को ब्राह्मण भोजन, हवन तथा दीपक जलाने का भी विधान है। इस दिन यमुना जी पर
कार्तिक स्नान की समाप्ति करके राधा-कृष्ण का पूजन, दीपदान, शय्यादि का
दान तथा ब्राह्मण भोजन कराया जाता है। कार्तिक की पूर्णिमा वर्ष की पवित्र
पूर्णमासियों में से एक है।
चन्द्रमा अर्थात सोम अर्थात अमृत की जल मे
बरसती हुई किरणों मैं ही ...कार्तिक स्नान किया जाता है ...जैसा कि चित्र
मैं अंकित है ...
क्योकि पूर्णिमा के अवसर पर चद्रमा सोलह कला सम्पूर्ण होता है ....सूर्योदय होने के पश्चात् ..स्नान का महत्व क्षीण हो जाता है
कार्तिक मास में स्नान किस प्रकार किया जाए, इसका वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार लिखा है-
तिलामलकचूर्णेन गृही स्नानं समाचरेत्।
विधवास्त्रीयतीनां तु तुलसीमूलमृत्सया।।
सप्तमी दर्शनवमी द्वितीया दशमीषु च।
त्रयोदश्यां न च स्नायाद्धात्रीफलतिलैं सह।।
अर्थात
कार्तिक व्रती (व्रत रखने वाला) को सर्वप्रथम गंगा, विष्णु, शिव तथा सूर्य
का स्मरण कर नदी, तालाब या पोखर के जल में प्रवेश करना चाहिए। उसके बाद
नाभिपर्यन्त (आधा शरीर पानी में डूबा हो) जल में खड़े होकर विधिपूर्वक
स्नान करना चाहिए। गृहस्थ व्यक्ति को काला तिल तथा आंवले का चूर्ण लगाकर
स्नान करना चाहिए परंतु विधवा तथा संन्यासियों को तुलसी के पौधे की जड़ में
लगी मृत्तिका(मिट्टी) को लगाकर स्नान करना चाहिए। सप्तमी, अमावस्या, नवमी,
द्वितीया, दशमी व त्रयोदशी को तिल एवं आंवले का प्रयोग वर्जित है।
इसके बाद व्रती को जल से निकलकर शुद्ध वस्त्र धारणकर विधि-विधानपूर्वक
भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। यह ध्यान रहे कि कार्तिक मास में स्नान व
व्रत करने वाले को केवल नरकचतुर्दशी (कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी) को ही तेल
लगाना चाहिए। शेष दिनों में तेल लगाना वर्जित है।
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