पोस्ट साभार : विनिता डंगवाल (स्वर्णिम दिल्ली व सावरकर टाइमश, दो अखबार में 2014 में प्रकाशित लेख)
गांधीजी के लाड़ले सरकारी संत बिनोवा भावे वैदिक/हिन्दूत्व सिद्धांतों के बचपन से ही विरोधी थे। मां के निधन के समय भी विनोबा का अपने पिता और भाइयों से मतभेद हुआ। विनोबा वैदिक विधि से दाह-संस्कार का विरोध कर रहे थे। लेकिन परिवार वालों की जिद के आगे उनकी एक न चली. विनोबा भी अपने सिद्धांतों पर अडिग थे। नतीजा यह कि जिस मां को वे सबसे अधिक चाहते थे, जो उनकी आध्यात्मिक गुरु थीं, उनके अंतिम संस्कार से वे दूर ही रहे. मां को उन्होंने भीगी आंखों से मौन विदाई दी.
आगे चलकर 29 अक्टूबर 1947 को विनोबा के पिता का निधन हुआ तो उन्होंने कुरान के आदेशों का पालन करते हुए उनकी देह को अग्नि-समर्पित करने के बजाय, मिट्टी में दबाने जोर दिया. तब तक विनोबा संत विनोबा हो चुके थे। गांधी जी का उन्हें आशीर्वाद था। इसलिए इस बार उन्हीं की चली. और वेदो के आगे कुरान जीत गई।
मां की गीता में आस्था थी। वे विनोबा को गीता का मराठी में अनुवाद करने का दायित्व सौंपकर गई थीं। विनोबा उस कार्य में मनोयोग से लगे थे। आखिर अनुवाद कर्म पूरा हुआ। पुस्तक का नाम रखा गया- गीताई. गीता+आई = गीताई. महाराष्ट्र में ‘आई’ का अभिप्राय ‘मां के प्रति’ से है; यानी मां की स्मृति उसके नेह से जुड़ी-रची गीता. पुत्र की कृति को देखने के लिए तो रुक्मिणी बाई जीवित नहीं थीं। मगर उनकी याद और अभिलाषा से जुड़ी गीताई, महाराष्ट्र के घर-घर में माताओं और बहनों के कंठ-स्वर में ढलने लगी. उनकी अध्यात्म चेतना का आभूषण बन गई। गांधी जी ने सुना तो अनुवाद कर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की. क्योंकि इस किताब में गोमांस खाने का समर्थन किया गया था।
जब यह किताब उस समय के महान विद्वान भक्त रामशरण दास जो पिलखुआ के थे और शिवकुमार गोयल के पिता थे उन्होंने पढी तो उनका खून खोल गया और विनोबा को किताब में संशोधन के लिए कई खत लिखे, लेकिन किताब में जब संशोधन नहीं हुआ तो भक्त जी वहीं पहुंच गए और भावे से कहा, ‘‘भारतीय गाय को माता मानते हैं और तुम गीता भाष्य में ही गोमांस खाने की बात लिखे हो ? वहां सही भाष्य यही है कि कृष्ण जी अपने को गौ मानते हैं, न कि गो मांस खाते थे।’’
‘‘ तुम्हें क्या आपत्ति है?’’
‘‘ यह गलत बात है!’’
‘‘ देखो तुम बाजार से संतरे खरीदते हो और यदि एक फांक खराब है तो उसे छोड़कर बाकी संतरा खालो, यानी वह प्रसंग मत पढ़ो।’’ विनोबा जी का तर्क था। पास में गांधी जी बैठे थे, उन्होंने कहा, ‘‘विनोबा जी ठीक ही तो कहते हैं, तुम्हे जो बुरा लगे, उस पर ध्यान न दो।’’
‘‘लेकिन’’ भक्त जी ने कहा, ‘‘जब बाजार में अच्छे संतरे हों तो सडी फांक वाला खाने की जरूरत ही क्या है?’’
गांधी जी और विनोबा की बोलती बंद हो गई थी।
इतिहास की सच्ची कहानियां का एक अंश...
नोट: कोई आपत्ति न करे, क्योंकि यह घटना करीब 15 पुस्तकों में छपी हुई है, जो आज से 60 साल पहले ही भारत और पाकिस्तान दोनों में प्रकाशित हुई थी।
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