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शास्त्र में कहा है-'पापकर्मेति दशधा।' अर्थात् पाप कर्म दस प्रकार के होते हैं। हिंसा (हत्या), स्तेय (चोरी), व्यभिचार-ये शरीर से किए जाने वाले पाप हैं। झूठ बोलना (अनृत), कठोर वचन कहना ( परुष) और चुगली करना-ये वाणी के पाप हैं। परपीड़न और हिंसा आदि का संकल्प करना, दूसरों के गुणों में भी अवगुणों को देखना और निर्दोष जनों के प्रति दुर्भावनापूर्ण दृष्टि (कुदृष्टि) रखना, ये मानस पापकर्म कहलाते हैं। इन कर्मों को करने से अपने को और दूसरे को कष्ट ही होता है। अतः ये कर्म हर हालत में दुखदायी ही हैं।
स्कंदपुराण में कहा गया है कि
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥ -स्कंदपुराण केदारखंड ।
अर्थात अठारह पुराणों में व्यासजी की दो ही बातें प्रधान हैं-परोपकार पुण्य है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना पाप है। यही पुराणों का सार है। प्रत्येक व्यक्ति को इसका मर्म समझकर आचरण करना चाहिए। परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। कहकर तुलसीदास ने इसी तथ्य को सरलता से समझाया है।
मार्कण्डेयपुराण (कर्मफल) 14/25 में कहा गया है कि पैर में कांटा लगने पर तो एक जगह पीड़ा होती है, पर पाप-कर्मों के फल से तो शरीर और मन में निरंतर शूल उत्पन्न होते रहते हैं।
पाराशरस्मृति में कहा गया है कि पाप कर्म बन पड़ने पर छिपाना नहीं चाहिए। छिपाने से वह बहुत बढ़ता है। यहां तक कि मनुष्य सात जन्मों तक कोढ़ी, दुखी, नपुंसक होता है पाप छोटा हो या बड़ा, उसे किसी धर्मज्ञ से प्रकट अवश्य कर देना चाहिए। इस प्रकार उसे प्रकट कर देने से पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे चिकित्सा करा लेने पर रोग नष्ट हो जाते हैं।
महाभारत वनपर्व 207/51 में कहा गया है कि जो मनुष्य पाप कर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा 'फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर वह भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है।
शिवपुराण 1/3/5 में कहा गया है कि पश्चाताप ही पापों की परम निष्कृति है। विद्वानों ने पश्चाताप से सब प्रकार के पापों की शुद्धि होना बताया है। पश्चाताप करने से जिसके पापों का शोधन न हो, उसके लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए।
पापों का प्रायश्चित्त न करने वाले मनुष्य नरक तो जाते ही हैं, अगले जन्मों में उनके शरीरों में उन पापों के लक्षण आदि भी प्रकट होते हैं। अतः पाप का निवारण करने को प्रायश्चित्त अवश्य कर लेना चाहिए। स्वर्ग के द्वार पर भीड़ लगी थी। धर्मराज को छंटनी करनी थी कि किसे प्रवेश दें और किसे न दें। परीक्षा के लिए उन्होंने सभी को दो कागज दिए और एक में अपने पाप और दूसरे में पुण्य लिखने को कहा। अधिकांश लोगों ने अपने पुण्य तो बढ़ा-चढ़ा कर लिखे, पर पाप छिपा लिए। कुछ आत्माएं ऐसी थीं,
जिन्होंने अपने पापों को विस्तार से लिखा और प्रायश्चित्त पूछा । धर्मराज ने अंतःकरणों की क्षुद्रता और महानता
जांची और पाप लिखने वालों को स्वर्ग में प्रवेश दे दिया।
पुण्य के अच्छे फल की मान्यता क्यों ?
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जिन कर्मों से व्यक्ति और समाज की उन्नति होती है, उन्हें पुण्य कर्म कहते हैं। सभी शास्त्रों और गोस्वामी तुलसीदास ने परोपकार को सबसे बड़े धर्म के रूप में माना है-परहित सरिस धर्म नहिं भाई। अर्थात् परोपकार के समान महान् धर्म कोई अन्य नहीं है।
द्रौपदी जमुना में स्नान कर रही थी। उसने एक साधु को स्नान करते देखा। हवा में उसकी पुरानी लंगोटी उड़कर पानी में बह गई। ऐसे में वह बाहर निकलकर घर कैसे जाए, सो झाड़ी में छिप गया। द्रौपदी स्थिति को समझ गई और उसने झाड़ी के पास जाकर अपनी साड़ी का एक तिहाई टुकड़ा फाड़कर लंगोट
बनाने के लिए साधु को दे दिया। साधु ने कृतज्ञतापूर्वक अनुदान स्वीकार किया। दुर्योधन की सभा में जब द्रौपदी की लाज उतारी जा रही थी। तब उसने भगवान् को पुकारा। भगवान् ने देखा कि द्रौपदी के हिस्से में एक पुण्य जमा है। साधु की लंगोटी वाला कपड़ा व्याज समेत अनेक गुना हो गया है भगवान् ने उसी को द्रौपदी तक पहुंचाकर उसकी लाज बचाई।
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