एक दिलचस्प ऑप्टिकल भ्रम..
सुपर इल्यूजन ब्रदर्स। केवल एक व्यक्ति चल रहा है!
जय श्री कृष्णा, ब्लॉग में आपका स्वागत है यह ब्लॉग मैंने अपनी रूची के अनुसार बनाया है इसमें जो भी सामग्री दी जा रही है कहीं न कहीं से ली गई है। अगर किसी के कॉपी राइट का उल्लघन होता है तो मुझे क्षमा करें। मैं हर इंसान के लिए ज्ञान के प्रसार के बारे में सोच कर इस ब्लॉग को बनाए रख रहा हूँ। धन्यवाद, "साँवरिया " #organic #sanwariya #latest #india www.sanwariya.org/
एक दिलचस्प ऑप्टिकल भ्रम..
सुपर इल्यूजन ब्रदर्स। केवल एक व्यक्ति चल रहा है!
ऊंट अक्सर रेगिस्तानी इलाकों में पाए जाते हैं जैसे कि अरब के देशों में या फिर अफ्रीकी रेगिस्तान में! वहीं भारत के भी कई हिस्सों जैसे राजस्थान में भी ऊँट को सामान ले जाने या लाने के लिए पाला जाता है क्योंकि रेगिस्तानी इलाको में लोगो को दूर सफर के लिए जाना पड़ता है जिस वजह से वो ऊँट को पालते हैं।
और यह बात बिल्कुल सही है कि एक वक्त आता है जबकी इनको को सांप खिलाया जाता है कारण क्या है नीचे जानिए ।
ऊँट को खिलाया जाता है जहरीला सांप !
ऊँट को एक ऐसी अजीबोगरीब बीमारी भी हो जाती है जबकि इस बीमारी में इस जानवर के शरीर में एक जहर बनने लगता है इसका सही वक्त पर अगर इलाज ना किया जाए तो इस जानवर की मौत हो जाती है। इस बीमारी से बचाने के लिए वहां के लोग ऊंट को जहरीला सांप खिला देते हैं ।
सांप के जहर के असर से पहले तो ऊंट बीमार हो जाते हैं और कुछ दिनों तक खाना पीना हर चीज छोड़ देता है और जैसे ही सांप के जहर का असर खत्म होता है तो ऊंट को बहुत जबरदस्त भूख और प्यास लगती है । जिसके बाद यह रेगिस्तानी जानवर कई 100 लीटर पानी पी जाता है लेकिन फिर भी इन की प्यास नहीं बुझती और यह हर बार पानी पीता है जिसके कुछ ही दिनों के बाद बीमारी पूरी तरह से खत्म हो जाती है। जिसके बाद यह एकदम से तंदुरुस्त हो जाते हैं।
क्या साँपो को भी खुद ही खा जाते हैं ऊँट ?
जी हां इस बीमारी के कारण ऊंट कभी-कभी खुद ही सांप को खा जाते हैं और आपको बता दें कि ऊंट जब जहरीले सांपों को खाता है तो उस वक्त उसकी आंखों से आंसू निकलते हैं. ऊंट के मालिक उनकी आंखों से निकलने वाले आंसुओं को इकट्ठा कर लेते हैं आपको जानकर हैरानी होगी कि इन आंसुओं की बहुत अधिक कीमत होती है क्योंकि उनका इस्तेमाल सांपों के जहर का एंटीडोट तैयार करने में किया जाता है ।
वैसे ऊंट एक बहुत ही उपयोगी और निराला जीव है । इसका दूध बहुत कीमती होता है और यह बहुत दिनों तक बिना पानी पिए जीवित रह सकता है ।
चित्र गूगल से साभार
स्रोत : जानिये ऊँटो के बारे में 10 ऐसे तथ्य.... जो 99% लोग नहीं जानते
#भारत_विभाजन...
जहाँ-जहाँ हिन्दू घटा, वहाँ-वहाँ देश बंटा...!
मात्र 150 साल में भारत का विभाजन 9 टुकड़ों में हुआ, 2500 वर्षों में 24वां टुकड़ा पाकिस्तान और 25वां टुकड़ा बंग्लादेश हुआ।
सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, ब्रह्मदेश(बर्मा/म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए।
प्राय: #पाकिस्तान व #बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं।
शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है......सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है।
सम्पूर्ण पृथ्वी का जब जल और थल इन दो तत्वों में वर्गीकरण करते हैं, तब सात द्वीप एवं सात महासमुद्र माने जाते हैं। हम इसमें से प्राचीन नाम #जम्बूद्वीप जिसे आज एशिया द्वीप कहते हैं तथा #इन्दूसरोवरम् जिसे आज #हिन्दमहासागर कहते हैं, के निवासी हैं। इस जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में #हिमालय पर्वत स्थित है। हिमालय पर्वत में विश्व की सर्वाधिक ऊँची चोटी #सागरमाथा, #गौरीशंकर हैं, जिसे 1835 में अंग्रेज शासकों ने #एवरेस्ट नाम देकर इसकी प्राचीनता व पहचान को बदलने का कूटनीतिक षड्यंत्र रचा।
हम पृथ्वी पर जिस भू-भाग अर्थात् राष्ट्र के निवासी हैं उस भू-भाग का वर्णन अग्नि, वायु एवं विष्णु पुराण में लगभग समानार्थी श्लोक के रूप में है :-
उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।
अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं और वहां के समाज को भारती या भारतीय के नाम से पहचानते हैं। बृहस्पति आगम में इसके लिए निम्न श्लोक उपलब्ध है :-
हिमालयं समारम्भ्य यावद् इन्दु सरोवरम।
तं देव निर्मित देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।
अर्थात् जब हम अपने देश (राष्ट्र) का विचार करते हैं तब अपने समाज में प्रचलित एक परम्परा रही है, जिसमें किसी भी शुभ कार्य पर संकल्प पढ़ा अर्थात् लिया जाता है। संकल्प स्वयं में महत्वपूर्ण संकेत करता है। संकल्प में काल की गणना एवं भूखण्ड का विस्तृत वर्णन करते हुए, संकल्प कर्ता कौन है ? इसकी पहचान अंकित करने की परम्परा है। उसके अनुसार संकल्प में भू-खण्ड की चर्चा करते हुए बोलते (दोहराते) हैं कि जम्बूद्वीपे (एशिया) भरतखण्डे (भारतवर्ष) यही शब्द प्रयोग होता है। सम्पूर्ण साहित्य में हमारे राष्ट्र की सीमाओं का उत्तर में हिमालय व दक्षिण में हिन्द महासागर का वर्णन है, परन्तु पूर्व व पश्चिम का स्पष्ट वर्णन नहीं है। परंतु जब श्लोकों की गहराई में जाएं और भूगोल की पुस्तकों अर्थात् एटलस का अध्ययन करें तभी ध्यान में आ जाता है कि श्लोक में पूर्व व पश्चिम दिशा का वर्णन है।
जब विश्व (पृथ्वी) का मानचित्र आँखों के सामने आता है तो पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के भूगोल ग्रन्थों के अनुसार हिमालय के मध्य स्थल #कैलाशमानसरोवर से पूर्व की ओर जाएं तो वर्तमान का इण्डोनेशिया और पश्चिम की ओर जाएं तो वर्तमान में ईरान देश अर्थात् #आर्यानप्रदेश हिमालय के अंतिम छोर हैं। हिमालय 5000 पर्वत शृंखलाओं तथा 6000 नदियों को अपने भीतर समेटे हुए इसी प्रकार से विश्व के सभी भूगोल ग्रन्थ (एटलस) के अनुसार जब हम श्रीलंका (सिंहलद्वीप अथवा सिलोन) या कन्याकुमारी से पूर्व व पश्चिम की ओर प्रस्थान करेंगे या दृष्टि (नजर) डालेंगे तो हिन्द (इन्दु) महासागर इण्डोनेशिया व आर्यान (ईरान) तक ही है। इन मिलन बिन्दुओं के पश्चात् ही दोनों ओर महासागर का नाम बदलता है।
इस प्रकार से हिमालय, हिन्द महासागर, आर्यान (ईरान) व इण्डोनेशिया के बीच के सम्पूर्ण भू-भाग को आर्यावर्त अथवा भारतवर्ष अथवा हिन्दुस्तान कहा जाता है।
प्राचीन भारत की चर्चा अभी तक की, परन्तु जब वर्तमान से 3000 वर्ष पूर्व तक के भारत की चर्चा करते हैं तब यह ध्यान में आता है कि पिछले 2500 वर्ष में जो भी आक्रांत यूनानी (रोमन ग्रीक) यवन, हूण, शक, कुषाण, सिरयन, पुर्तगाली, फेंच, डच, अरब, तुर्क, तातार, मुगल व अंग्रेज आदि आए, इन सबका विश्व के सभी इतिहासकारों ने वर्णन किया। परन्तु सभी पुस्तकों में यह प्राप्त होता है कि आक्रान्ताओं ने भारतवर्ष पर, हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया है। सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, (म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया।
यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए। प्राय: पाकिस्तान व बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं। शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है। सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है। अंग्रेज का 350 वर्ष पूर्व के लगभग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में व्यापारी बनकर भारत आना, फिर धीरे-धीरे शासक बनना और उसके पश्चात् सन 1857 से 1947 तक उनके द्वारा किया गया भारत का 7वां विभाजन है। आगे लेख में सातों विभाजन कब और क्यों किए गए इसका संक्षिप्त वर्णन है।
सन् 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग कि.मी. था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग कि.मी. है। पड़ोसी 9 देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग कि.मी. बनता है।
भारतीयों द्वारा सन् 1857 के अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए स्वतन्त्रता संग्राम (जिसे अंग्रेज ने गदर या बगावत कहा) से पूर्व एवं पश्चात् के परिदृश्य पर नजर दौडायेंगे तो ध्यान में आएगा कि ई. सन् 1800 अथवा उससे पूर्व के विश्व के देशों की सूची में वर्तमान भारत के चारों ओर जो आज देश माने जाते हैं उस समय देश नहीं थे। इनमें स्वतन्त्र राजसत्ताएं थीं, परन्तु सांस्कृतिक रूप में ये सभी भारतवर्ष के रूप में एक थे और एक-दूसरे के देश में आवागमन (व्यापार, तीर्थ दर्शन, रिश्ते, पर्यटन आदि) पूर्ण रूप से बे-रोकटोक था। इन राज्यों के विद्वान् व लेखकों ने जो भी लिखा वह विदेशी यात्रियों ने लिखा ऐसा नहीं माना जाता है। इन सभी राज्यों की भाषाएं व बोलियों में अधिकांश शब्द संस्कृत के ही हैं। मान्यताएं व परम्पराएं भी समान हैं। खान-पान, भाषा-बोली, वेशभूषा, संगीत-नृत्य, पूजापाठ, पंथ सम्प्रदाय में विविधताएं होते हुए भी एकता के दर्शन होते थे और होते हैं। जैसे-जैसे इनमें से कुछ राज्यों में भारत इतर यानि विदेशी पंथ (मजहब-रिलीजन) आये तब अनेक संकट व सम्भ्रम निर्माण करने के प्रयास हुए।
सन 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्व-मार्क्स द्वारा अर्थ प्रधान परन्तु आक्रामक व हिंसक विचार के रूप में मार्क्सवाद जिसे लेनिनवाद, माओवाद, साम्यवाद, कम्यूनिज्म शब्दों से भी पहचाना जाता है, यह अपने पांव अनेक देशों में पसार चुका था। वर्तमान रूस व चीन जो अपने चारों ओर के अनेक छोटे-बडे राज्यों को अपने में समाहित कर चुके थे या कर रहे थे, वे कम्यूनिज्म के सबसे बडे व शक्तिशाली देश पहचाने जाते हैं। ये दोनों रूस और चीन विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, मानसिकता वाले ही देश हैं। अंग्रेज का भी उस समय लगभग आधी दुनिया पर राज्य माना जाता था और उसकी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी, हिंसक व कुटिलता स्पष्ट रूप से सामने थी।
#अफगानिस्तान :- सन् 1834 में प्रकिया प्रारम्भ हुई और 26 मई, 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में निर्णय हुआ और अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट अर्थात् राजनैतिक देश को दोनों ताकतों के बीच स्थापित किया गया। इससे अफगानिस्तान अर्थात् पठान भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से अलग हो गए तथा दोनों ताकतों ने एक-दूसरे से अपनी रक्षा का मार्ग भी खोज लिया। परंतु इन दोनों पूंजीवादी व मार्क्सवादी ताकतों में अंदरूनी संघर्ष सदैव बना रहा कि अफगानिस्तान पर नियन्त्रण किसका हो ?
अफगानिस्तान (#उपगणस्तान) शैव व प्रकृति पूजक मत से बौद्ध मतावलम्बी और फिर विदेशी पंथ इस्लाम मतावलम्बी हो चुका था। बादशाह शाहजहाँ, शेरशाह सूरी व महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में उनके राज्य में कंधार (गंधार) आदि का स्पष्ट वर्णन मिलता है।
नेपाल :- मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बडे राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नाम से एक राज्य का सुगठन कर चुके थे। स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों ने इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लडते समय-समय पर शरण ली थी। अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान के बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधी कर नेपाल को एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान कर अपना रेजीडेंट बैठा दिया। इस प्रकार से नेपाल स्वतन्त्र राज्य होने पर भी अंग्रेज के अप्रत्यक्ष अधीन ही था। रेजीडेंट के बिना महाराजा को कुछ भी खरीदने तक की अनुमति नहीं थी। इस कारण राजा-महाराजाओं में जहां आन्तरिक तनाव था, वहीं अंग्रेजी नियन्त्रण से कुछ में घोर बेचैनी भी थी। महाराजा त्रिभुवन सिंह ने 1953 में भारतीय सरकार को निवेदन किया था कि आप नेपाल को अन्य राज्यों की तरह भारत में मिलाएं। परन्तु सन 1955 में रूस द्वारा दो बार वीटो का उपयोग कर यह कहने के बावजूद कि नेपाल तो भारत का ही अंग है, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरूने पुरजोर वकालत कर नेपाल को स्वतन्त्र देश के रूप में यू.एन.ओ. में मान्यता दिलवाई। आज भी नेपाल व भारतीय एक-दूसरे के देश में विदेशी नहीं हैं और यह भी सत्य है कि नेपाल को वर्तमान भारत के साथ ही सन् 1947 में ही स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। नेपाल 1947 में ही अंग्रेजी रेजीडेंसी से मुक्त हुआ।
#भूटान :- सन 1906 में सिक्किम व भूटान जो कि वैदिक-बौद्ध मान्यताओं के मिले-जुले समाज के छोटे भू-भाग थे इन्हें स्वतन्त्रता संग्राम से लगकर अपने प्रत्यक्ष नियन्त्रण से रेजीडेंट के माध्यम से रखकर चीन के विस्तारवाद पर अंग्रेज ने नजर रखना प्रारम्भ किया। ये क्षेत्र(राज्य) भी स्वतन्त्रता सेनानियों एवं समय-समय पर हिन्दुस्तान के उत्तर दक्षिण व पश्चिम के भारतीय सिपाहियों व समाज के नाना प्रकार के विदेशी हमलावरों से युद्धों में पराजित होने पर शरणस्थली के रूप में काम आते थे। दूसरा ज्ञान (सत्य, अहिंसा, करुणा) के उपासक वे क्षेत्र खनिज व वनस्पति की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। तीसरा यहां के जातीय जीवन को धीरे-धीरे मुख्य भारतीय (हिन्दू) धारा से अलग कर मतान्तरित किया जा सकेगा। हम जानते हैं कि सन 1836 में उत्तर भारत में चर्च ने अत्यधिक विस्तार कर नये आयामों की रचना कर डाली थी। सुदूर हिमालयवासियों में ईसाईयत जोर पकड़ रही थी।
#तिब्बत :- सन 1914 में तिब्बत को केवल एक पार्टी मानते हुए चीनी साम्राज्यवादी सरकार व भारत के काफी बड़े भू-भाग पर कब्जा जमाए अंग्रेज शासकों के बीच एक समझौता हुआ। भारत और चीन के बीच तिब्बत को एक बफर स्टेट के रूप में मान्यता देते हुए हिमालय को विभाजित करने के लिए मैकमोहन रेखा निर्माण करने का निर्णय हुआ। हिमालय सदैव से ज्ञान-विज्ञान के शोध व चिन्तन का केंद्र रहा है। हिमालय को बांटना और तिब्बत व भारतीय को अलग करना यह षड्यंत्र रचा गया। चीनी और अंग्रेज शासकों ने एक-दूसरों के विस्तारवादी, साम्राज्यवादी मनसूबों को लगाम लगाने के लिए कूटनीतिक खेल खेला। अंग्रेज ईसाईयत हिमालय में कैसे अपने पांव जमायेगी, यह सोच रहा था परन्तु समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि प्रथम व द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अंग्रेज को एशिया और विशेष रूप से भारत छोड़कर जाना पड़ा। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने समय की नाजकता को पहचानने में भूल कर दी और इसी कारण तिब्बत को सन 1949 से 1959 के बीच चीन हड़पने में सफल हो गया। पंचशील समझौते की समाप्ति के साथ ही अक्टूबर सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर हजारों वर्ग कि.मी. अक्साई चीन (लद्दाख यानि जम्मू-कश्मीर) व अरुणाचल आदि को कब्जे में कर लिया। तिब्बत को चीन का भू-भाग मानने का निर्णय पं. नेहरू (तत्कालीन प्रधानमंत्री) की भारी ऐतिहासिक भूल हुई। आज भी तिब्बत को चीन का भू-भाग मानना और चीन पर तिब्बत की निर्वासित सरकार से बात कर मामले को सुलझाने हेतु दबाव न डालना बड़ी कमजोरी व भूल है। नवम्बर 1962 में भारत के दोनों सदनों के संसद सदस्यों ने एकजुट होकर चीन से एक-एक इंच जमीन खाली करवाने का संकल्प लिया। आश्चर्य है भारतीय नेतृत्व (सभी दल) उस संकल्प को शायद भूल ही बैठा है। हिमालय परिवार नाम के आन्दोलन ने उस दिवस को मनाना प्रारम्भ किया है ताकि जनता नेताओं द्वारा लिए गए संकल्प को याद करवाएं।
श्रीलंका व म्यांमार :- अंग्रेज प्रथम महायुद्ध (1914 से 1919) जीतने में सफल तो हुए परन्तु भारतीय सैनिक शक्ति के आधार पर। धीरे-धीरे स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु क्रान्तिकारियों के रूप में भयानक ज्वाला अंग्रेज को भस्म करने लगी थी। सत्याग्रह, स्वदेशी के मार्ग से आम जनता अंग्रेज के कुशासन के विरुद्ध खडी हो रही थी। द्वितीय महायुद्ध के बादल भी मण्डराने लगे थे। सन् 1935 व 1937 में ईसाई ताकतों को लगा कि उन्हें कभी भी भारत व एशिया से बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ सकता है। उनकी अपनी स्थलीय शक्ति मजबूत नहीं है और न ही वे दूर से नभ व थल से वर्चस्व को बना सकते हैं। इसलिए जल मार्ग पर उनका कब्जा होना चाहिए तथा जल के किनारों पर भी उनके हितैषी राज्य होने चाहिए। समुद्र में अपना नौसैनिक बेड़ा बैठाने, उसके समर्थक राज्य स्थापित करने तथा स्वतन्त्रता संग्राम से उन भू-भागों व समाजों को अलग करने हेतु सन 1965 में श्रीलंका व सन 1937 में म्यांमार को अलग राजनीतिक देश की मान्यता दी। ये दोनों देश इन्हीं वर्षों को अपना स्वतन्त्रता दिवस मानते हैं। म्यांमार व श्रीलंका का अलग अस्तित्व प्रदान करते ही मतान्तरण का पूरा ताना-बाना जो पहले तैयार था उसे अधिक विस्तार व सुदृढ़ता भी इन देशों में प्रदान की गई। ये दोनों देश वैदिक, बौद्ध धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले हैं। म्यांमार के अनेक स्थान विशेष रूप से रंगून का अंग्रेज द्वारा देशभक्त भारतीयों को कालेपानी की सजा देने के लिए जेल के रूप में भी उपयोग होता रहा है।
पाकिस्तान, बांग्लादेश व #मालद्वीप :- 1905 का लॉर्ड कर्जन का बंग-भंग का खेल 1911 में बुरी तरह से विफल हो गया। परन्तु इस हिन्दु मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु अंग्रेज ने आगा खां के नेतृत्व में सन 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना कर मुस्लिम कौम का बीज बोया। पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश जनजातीय जीवन को ईसाई के रूप में मतान्तरित किया जा रहा था। ईसाई बने भारतीयों को स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्णत: अलग रखा गया। पूरे भारत में एक भी ईसाई सम्मेलन में स्वतन्त्रता के पक्ष में प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। दूसरी ओर मुसलमान तुम एक अलग कौम हो, का बीज बोते हुए सन् 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान की मांग खड़ी कर देश को नफरत की आग में झोंक दिया। अंग्रेजीयत के दो एजेण्ट क्रमश: पं. नेहरू व मो. अली जिन्ना दोनों ही घोर महत्वाकांक्षी व जिद्दी (कट्टर) स्वभाव के थे।अंग्रेजों ने इन दोनों का उपयोग गुलाम भारत के विभाजन हेतु किया। द्वितीय महायुद्ध में अंग्रेज बुरी तरह से आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से इंग्लैण्ड में तथा अन्य देशों में टूट चुके थे। उन्हें लगता था कि अब वापस जाना ही पड़ेगा और अंग्रेजी साम्राज्य में कभी न अस्त होने वाला सूर्य अब अस्त भी हुआ करेगा। सम्पूर्ण भारत देशभक्ति के स्वरों के साथ सड़क पर आ चुका था। संघ, सुभाष, सेना व समाज सब अपने-अपने ढंग से स्वतन्त्रता की अलख जगा रहे थे। सन 1948 तक प्रतीक्षा न करते हुए 3 जून, 1947 को अंग्रेज अधीन भारत के विभाजन व स्वतन्त्रता की घोषणा औपचारिक रूप से कर दी गयी। यहां यह बात ध्यान में रखने वाली है कि उस समय भी भारत की 562 ऐसी छोटी-बड़ी रियासतें (राज्य) थीं, जो अंग्रेज के अधीन नहीं थीं। इनमें से सात ने आज के पाकिस्तान में तथा 555 ने जम्मू-कश्मीर सहित आज के भारत में विलय किया। भयानक रक्तपात व जनसंख्या की अदला-बदली के बीच 14, 15 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि में पश्चिम एवं पूर्व पाकिस्तान बनाकर अंग्रेज ने भारत का 7वां विभाजन कर डाला। आज ये दो भाग पाकिस्तान व बांग्लादेश के नाम से जाने जाते हैं। भारत के दक्षिण में सुदूर समुद्र में मालद्वीप (छोटे-छोटे टापुओं का समूह) सन 1947 में स्वतन्त्र देश बन गया, जिसकी चर्चा व जानकारी होना अत्यन्त महत्वपूर्ण व उपयोगी है। यह बिना किसी आन्दोलन व मांग के हुआ है।
भारत का वर्तमान परिदृश्य :- सन 1947 के पश्चात् फेंच के कब्जे से पाण्डिचेरी, पुर्तगीज के कब्जे से गोवा देव- दमन तथा अमेरिका के कब्जें में जाते हुए सिक्किम को मुक्त करवाया है। आज पाकिस्तान में पख्तून, बलूच, सिंधी, बाल्टीस्थानी (गिलगित मिलाकर), कश्मीरी मुजफ्फरावादी व मुहाजिर नाम से इस्लामाबाद (लाहौर) से आजादी के आन्दोलन चल रहे हैं। पाकिस्तान की 60 प्रतिशत से अधिक जमीन तथा 30 प्रतिशत से अधिक जनता पाकिस्तान से ही आजादी चाहती है। बांग्लादेश में बढ़ती जनसंख्या का विस्फोट, चटग्राम आजादी आन्दोलन उसे जर्जर कर रहा है। शिया-सुन्नी फसाद, अहमदिया व वोहरा (खोजा-मल्कि) पर होते जुल्म मजहबी टकराव को बोल रहे हैं। हिन्दुओं की सुरक्षा तो खतरे में ही है। विश्वभर का एक भी मुस्लिम देश इन दोनों देशों के मुसलमानों से थोडी भी सहानुभूति नहीं रखता। अगर सहानुभूति होती तो क्या इन देशों के 3 करोड़ से अधिक मुस्लिम (विशेष रूप से बांग्लादेशीय) दर-दर भटकते। ये मुस्लिम देश अपने किसी भी सम्मेलन में इनकी मदद हेतु आपस में कुछ-कुछ लाख बांटकर सम्मानपूर्वक बसा सकने का निर्णय ले सकते थे। परन्तु कोई भी मुस्लिम देश आजतक बांग्लादेशी मुसलमान की मदद में आगे नहीं आया। इन घुसपैठियों के कारण भारतीय मुसलमान अधिकाधिक गरीब व पिछड़ते जा रहा है क्योंकि इनके विकास की योजनाओं पर खर्च होने वाले धन व नौकरियों पर ही तो घुसपैठियों का कब्जा होता जा रहा है। मानवतावादी वेष को धारण कराने वाले देशों में से भी कोई आगे नहीं आया कि इन घुसपैठियों यानि दरबदर होते नागरिकों को अपने यहां बसाता या अन्य किसी प्रकार की सहायता देता। इन दर-बदर होते नागरिकों के आई.एस.आई. के एजेण्ट बनकर काम करने के कारण ही भारत के करोडों मुस्लिमों को भी सन्देह के घेरे में खड़ा कर दिया है। आतंकवाद व माओवाद लगभग 200 के समूहों के रूप में भारत व भारतीयों को डस रहे हैं। लाखों उजड़ चुके हैं, हजारों विकलांग हैं और हजारों ही मारे जा चुके हैं। विदेशी ताकतें हथियार, प्रशिक्षण व जेहादी, मानसिकता देकर उन प्रदेश के लोगों के द्वारा वहां के ही लोगों को मरवा कर उन्हीं प्रदेशों को बर्बाद करवा रही हैं। इस विदेशी षड्यन्त्र को भी समझना आवश्यक है।
Artist called Thomas Ziebarth of Germany after travelling India made this beautiful painting. He named this as "OM India"
सांस्कृतिक व आर्थिक समूह की रचना आवश्यक :- आवश्यकता है वर्तमान भारत व पड़ोसी भारतखण्डी देशों को एकजुट होकर शक्तिशाली बन खुशहाली अर्थात विकास के मार्ग में चलने की। इसलिए अंग्रेज अर्थात् ईसाईयत द्वारा रचे गये षड्यन्त्र को ये सभी देश (राज्य) समझें और साझा व्यापार व एक करन्सी निर्माण कर नए होते इस क्षेत्र के युग का सूत्रपात करें। इन देशों 10 का समूह बनाने से प्रत्येक देश का भय का वातावरण समाप्त हो जायेगा तथा प्रत्येक देश का प्रतिवर्ष के सैंकड़ों-हजारों-करोड़ों रुपयेरक्षा व्यय के रूप में बचेंगे जो कि विकास पर खर्च किए जा सकेंगे। इससे सभी सुरक्षित रहेंगे व विकसित होंगे।
सवाल: पारस पत्थर क्या है? क्या सचमुच यह लोहे को सोना बना देता है?
जवाबः
वैसे दो टूक जवाब यही होगा कि पारस पत्थर एक कल्पना है। सचमुच ऐसा कोई
पारस पत्थर नहीं होता जिसे छुलाने से लोहा या ऐसी कोई धातु सोने जैसी धातु
में तब्दील हो जाती हो।
परन्तु प्रचलित मान्यता यह है कि पारस पत्थर
कुदरती तौर पर धरती में कहीं पाया जाता है। इस पत्थर से किसी धातु को छुआने
पर वह धातु सोने में तब्दील हो जाती है। फिर भी यह जानना रोचक होगा कि
पारस पत्थर के बारे में ऐसा विश्वास किस तरह आया और इसका फैलाव दुनिया भर
में किस तरह होता गया। दुनिया की प्राचीन नगरीय सभ्यताओं (जैसे सिंधु घाटी
सभ्यता आदि) से भी पहले से ही इंसान सोने का इस्तेमाल करता रहा है। सोना एक
ऐसी धातु है जो शुद्ध रूप में प्रकृति में मिल जाती है व जिसका ऑक्सीकरण
सामान्य परिस्थितियों में आसानी से नहीं होता। कई नदियों की रेत में सोने
की अल्प मात्रा मिलती है जिसे लोग बाकी रेत कणों से अलग कर प्राप्त करते
रहे हैं। सोने के साथ एक और महत्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है कि वह प्रकृति में
काफी कम मात्रा में पाया जाता है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक पृथ्वी की
ऊपरी परत (क्रस्ट) में सोना 0.004 ग्राम प्रति टन मिलता है।
शुरुआती रसायनविद
प्राचीन
काल से ही धातु कर्मियों व कारीगरों की एक जमात विभिन्न धातुओं को मिलाकर
मिश्र धातुओं को बनाने के प्रयास में जुटी हुई थी। इन लोगों को हम शुरुआती
रसायनविद कह सकते हैं। शायद यहीं कहीं से साधारण धातुओं से सोना बनाने का
ख्याल उभरा होगा। प्राचीन सभ्यताएं सोने को बेशकीमती तो मानती ही थीं, साथ
ही इसे सर्वोत्तम धातु भी माना जाता था।
यहीं से अलकेमी या कीमियागरी की
नींव पड़ी। अलकेमी का प्रमुख उद्देश्य था - साधारण धातुओं को सोने में
बदलना। अलकेमी शब्द वैसे तो अरबी मूल का शब्द है लेकिन यह बता पाना कठिन है
कि यह कहां से आया है। इस शब्द के बारे में एक अनुमान यह है कि अरब लोग
इसे 'खेम की कला' कहते थे और अरब लोग मिस्र को ‘खेम' नाम से पुकारते थे।
अलकेमी शब्द के बारे में एक अन्य व्याख्या के मुताबिक यह ग्रीक शब्द Chymia
से निकला है जिसके मायने हैं - धातुओं को गलाने और धातुओं के मिश्रण की
कला।
अरस्तू का दर्शन
ग्रीक
के दार्शनिक अरस्तू की मान्यताओं के हिसाब से प्रकृति में पाए जाने वाले
समस्त पदार्थ चार मूल तत्वों - आग, हवा, पानी और धरती से मिलकर बने हैं। इन
चारों तत्वों की फितरत भी फर्क होती है। हरेक पदार्थ में इन मूल तत्वों की
मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। अरस्तू के मुताबिक आग को हवा में, हवा को
पानी में, पानी को धरती में बदला जा सकता है। इसी तरह किसी धातु का इस तरह
से उपचार किया जाए और उसमें इन मूल तत्वों की मात्रा में इस तरह बदलाव किया
जाए कि वह सोने के मूल तत्वों की मात्रा से मेल खाए तो साधारण धातु को भी
सोने में तब्दील किया जा सकता है। अरस्तु का यह दर्शन कीमियागरों के लिए
मार्गदर्शन बन गया। अरस्तू के विचार इस तरह स्थापित हो गए थे। कि अगली कई
शताब्दियों तक इन्हें किसी ने चुनौती नहीं दी।
ईसा की पहली सदी तक आते-आते अलकेमी शुद्ध धातु संबंधी विज्ञान न रहकर इसमें ज्योतिष, रहस्यमयी बिचार, जादू-टोना, आध्यात्म आदि भी जुड़ता चला गया। यही नहीं, उस समय तक विज्ञान और जादू में कोई स्पष्ट विभाजन रेखा भी स्थापित नहीं हो पाई थी। इस दौर में अलकेमी का एक और उद्देश्य सामने आया - इंसानी शरीर को रोगों से मुक्त कर अमरत्व प्रदान करना। कोशिश यह थी कि विविध रासायनिक क्रियाओं से वह रहस्यमयी पदार्थ प्राप्त किया जाए जिसे लोहे या ऐसी किसी धातु में मिलाने पर वह धातु तो सोना बन ही जाए और उसे दवा की तरह पीने पर शरीर अमर हो जाए। उस रहस्यमयी पदार्थ को फिलॉसॉफर स्टोन, दार्शनिक पत्थर, पारस पत्थर आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता था।
भारत, चीन, मिस्र, ग्रीक एवं कई यूरोपीय देशों में सैंकड़ों वर्षों तक लोग पूर्ववर्ती मान्यताओं पर यकीन करते हुए पारस पत्थर की खोज में विविध पदार्थों के गुणों को पहचानने की कोशिश में पदार्थ के पृथक्करण, गर्म करने, ठंडा करने, वाष्पीकरण, उर्ध्वपातन, गलाने, निथारने, आसवन, सुखाने जैसी कई गतिविधियां करते थे। कई कीमियागर अपने प्रयोगों के ब्यौरे भी लिखते थे। हालांकि ये ब्यौरे सांकेतिक भाषा में होते थे फिर भी इनमें रसायन विज्ञान को आसानी से खोजा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि आधुनिक रसायन विज्ञान को कई तरह की जानकारी और सामग्री कीमियागरों ने ही दी है।
भारत में कीमियागरी
भारत
में कीमियागरी की शुरुआत पहली-दूसरी सदी में हुई। धीरे-धीरे कीमियागरों के
कई दल बन गए। उस समय कीमियागरी से संबंधित कई ग्रंथ लिखे गए। इन ग्रंथों
में सोना बनाने की विविध रासायनिक विधियां दी गई थीं। इनमें आठ महारसों का
इस्तेमाल किया जाता था। जैसे चांदी से सोना बनाने के लिए पीले गंधक को पलाश
की गोंद के रस से शोधित किया जाए, फिर गंधक और चांदी को कंडों की आग पर
तीन बार पकाया जाए तो कृत्रिम सोना बन सकता है। इसी तरह तांबे को सोने में
बदलने की विधि भी बताई गई है। यहां कृत्रिम मोने का अर्थ है सोने के रंग
जैसी धातु।
आठवीं सदी के एक अन्य भारतीय ग्रंथ 'रसहृदय' में 18 रसकर्मों
की जानकारी दी गई है। इस ग्रंथ में पारे में सोने का रंग पैदा करने की
विधियां दी गई हैं। ऐसे ही एक ग्रंथ ‘रसरत्न समुच्च' (13वीं से 15वीं सदी)
में पारे के दोषों को दूर करने की कई विधियां दी गई हैं, साथ ही रसकर्म
(कीमियागरी) के उपयोग में आने वाले उपकरणों का विस्तृत वर्णन है।
और यूरोप में ...
यदि
यूरोपीय जगत पर नज़र डाली जाए तो 13वीं सदी के अलकेमिस्टों ने अपनी
विधियों को चमत्कार की तरह पेश नहीं किया। वे मानते थे कि ये क्रियाएं
प्रकृति में सदा चलती रहती हैं। अलकेमिस्ट इन क्रियाओं को प्रयोग शालाओं
में दोहराना चाहते थे। इस समय तक लोगों को भी यह बात समझ में आने लगी थी कि
अलकेमिस्टों के पास जो साधन हैं वे सोना बनाने जैसे कामों के लिए पर्याप्त
नहीं हैं। यह भी माना जाने लगा कि जो कृत्रिम धातुएं बनाई गई हैं वे
प्राकृतिक धातुओं के समान नहीं थीं। जैसे चांदी से बनाई गई सोने जैसी धातु
रासायनिक दृष्टि से प्राकृतिक सोने जैसी नहीं थी। यह बात भी धीरे-धीरे साफ
होने लगी थी कि अलकेमी धातु परिवर्तन नहीं कर सकती, मात्र नकल कर सकती है।
उदाहरण के लिए किसी धातु को सफेद या पीला कर उसे चांदी या सोना नहीं बनाया
जा सकता। अलकेमिस्टों द्वारा बनाए गए सोने के परीक्षण में यह पाया गया कि
यह कृत्रिम् सोना 6-7 बार आग पर गर्म करने के बाद सोने जैसा दिखना भी बंद
हो जाता है।
अलकेमी के इतिहास में 16वीं सदी में एक नया मोड़ आता है जब ज्यूरिख निवासी पेरासेल्सस ने घोषणा की कि उसका उद्देश्य सोना बनाना नहीं है। वह इंसानी शरीर को रोग मुक्त रवने के लिए दवाइयां बनाना चाहता है। पेरासेल्सस यह मानता था कि अलकेमी का प्रमुख लक्ष्य दवाओं को तैयार करने की विधियों की खोज होना चाहिए। वह यह भी कहता था कि हो सकता है अलकेमी से सोना बनाना भी मुमकिन हो लेकिन यह एक गौण लक्ष्य होना चाहिए। इस घोषणा के बाद अलकेमी में एक नया अध्याय शुरू हुआ जिसमें रसायन की खोजों से चिकित्सा में सहयोग लिया जाने लगा; पदार्थों के गुण और मानव शरीर पर उनके प्रभावों के अध्ययन पर जोर दिया जाने लगा।
20वीं सदी में
उन्नीसवीं
और बीसवीं सदी में पदार्थों के भौतिक और रासायनिक गुणों का भली-भांति
अध्ययन किया जाने लगा। तत्वों की खोज, आवर्त्त तालिका, इलेक्ट्रॉन,
प्रोटॉन, न्यूट्रॉन
आखिरी सिक्काः
अलकेमी काफी खर्चीला काम था। यदि सोना बनाने के इस काम के लिए राजकीय या
किमी धनी व्यक्ति ने वित्तीय सहायता दी हो तब तो विघोष चिंता की बात नहीं
थी। लेकिन अधिकांश अलकेमिस्ट अपनी पूंजी लगाकर साधारण धातु से सोना बनाने
की जुगत में अपनी सारी उम्र खपा देते थे। यहां एक मध्यकालीन अलकेमिस्ट और
उसकी दुखी पत्नी को दिखाया गया है। अलकेमिस्ट मियां ने अपनी मारी पूंजी इस
खोज में लगा दी, फिर पत्नी के पास मौजूद सोने के सिक्कों की बारी आई। इम
चित्र में पत्नी अपने पास का आखिरी सोने का सिक्का दे रही है। ज़मीन पर
पड़ा वाली बटुआ भी दिखाई दे रहा है। हम सिक्के को गंवाने का दुख उसके चेहरे
पर साफतौर पर देखा जा सकता है। और मियां शायद उसे दिलासा दे रहे हैं। उस
दौर में अलकेमिस्टों की फटेहाल बीवियों और भूखे बच्चों के कई ब्यौरे मिलते
हैं।
व रेडियो एक्टिव तत्वों की खोज हुई, अल्फा, बीटा, गामा कणों के बारे में विस्तार से जानकारियां मिलीं। पदार्थों के बारे में इतना कुछ जानने के बाद कीमियागरों के सोना बनाने की क्षमताओं पर किसी को यकीन नहीं रहा। बीसवीं सदी में रेडियो सक्रिय तत्वों के अध्ययन के साथ यह बात समझ में आई कि किसी तत्व के नाभिक से अल्फा कणों के बाहर निकल जाने से एक नया तत्व निर्मित होता है। उदाहरण के लिए युरेनियम जिसमें 92 प्रोटॉन होते हैं, उसके नाभिक में से एक अल्फा कण निकल जाए तो युरेनियम के नाभिक में दो प्रोटॉन कम हो जाते हैं; यानी अब 90 प्रोटॉन बच जाते हैं और यूरेनियम थोरियम में तब्दील हो जाता है। इस थोरियम के नाभिक में 90 प्रोटॉन और 144 न्युट्रॉन होते हैं। इसी तरह बीटा कणों के बाहर निकलने से भी नया तत्व बनता है। एक तत्व से दूसरे तत्व के बनने को ट्रांसम्यूटेशन कहते हैं। प्रकृति में भी यह क्रिया चलती रहती है लेकिन धीमी गति से।
रेडियो
एक्टिविटी, आइसोटॉप्स और परमाणु के नाभिक की समझ बढ़ने के साथ एक बात साफ
हो गई कि पिछले दो हज़ार साल तक अलकेमिस्टों ने जो कुछ किया उससे सीसे से
या लोहे से सोना क्यों नहीं बन सकता था। वास्तव में अलकेमिस्ट जो रासायनिक
क्रियाएं कर रहे थे उनसे परमाणु के नाभिक में कोई बदलाव नहीं हो रहा था। ये
सभी क्रियाएं परमाणु की सबसे बाहरी कक्षा के इलेक्ट्रॉन के साथ हो रही
थीं। साधारण रासायनिक क्रियाओं से सीसे से सोना बना पाना मुमकिन नहीं था।
हां, सोने की पॉलिश जरूर चढ़ाई जा सकती थी। लेकिन कीमियागरों की कोशिशों को
कमतर आंकना बिल्कुल भी उचित नहीं होगा।
1919 में रदरफोर्ड ने जब प्रयोग
शाला में नाइट्रोजन को ऑक्सीजन में तब्दील किया तो अलकेमिस्टों में नया
जोश आ गया। इस प्रयोग में रदरफोर्ड ने नाइट्रोजन के नाभिक पर अल्फा कणों की
बौछार की थी और नाइट्रोजन से ऑक्सीजन बनाकर दिखाया था।
रदरफोर्ड
के प्रयोग से प्रेरणा लेने वालों में से जर्मनी का फ़ैज़ टाउसेंड प्रमुख
था। वह म्यूनिख में रसायन सहायक के ओहदे पर काम कर रहा था। उसे यकीन था कि
साधारण धातुओं से सोना बनाया जा सकता है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब
हिटलर जेल में था तो नाज़ी पार्टी के लिए चंदा जुटाने का काम वॉन
ल्यूडेनड्रॉफ के कंधों पर आया था। वॉन ने भी फ्रेंज के बारे में काफी कुछ
सुन रखा था। उन दिनों म्यूनिख में यह खबर थी कि फ्रेंज ने सोना बनाने में
सफलता प्राप्त की है। ऐसा कहा जाता था कि फ्रेंज ने आयरन ऑक्साइड और
क्वार्ट्ज के मिश्रण से सोना बनाने की विधि खोज निकाली है। ल्यूडेनड्रॉफ ने
एक कम्पनी की स्थापना की। इसका नाम या कंपनी-164। बह इस कंपनी का प्रमुख
था और कंपनी के लाभ का 75 प्रतिशत का हिस्सेदार भी। फ्रेज़ इस कंपनी में 5
प्रतिशत का भागीदार था। फ्रेंज के लिए एक बड़ी प्रयोगशाला मुहैया करवाई गई।
कंपनी बड़े पैमाने पर सोना बनाकर भारी मुनाफा कमाने
सोने से पारा बनाया गया
शायद
इस खबर को सुनकर कीमियागर खुश नहीं होंगे क्योंकि यह खबर उनके सपने से
एकदम विपरीत जो है। पिछले दिनों ग्लासगो के स्ट्रेटलाइड विश्वविद्यालय के
केन लेडिंगहेम ने बताया कि उन्होंने सोने को पारे में बदलने में कामयाबी
हासिल की है।
इस प्रयोग की खासियत यह थी कि सोने से पारा बनाने के लिए
लेजर किरणों की मदद ली गई थी। इस प्रयोग में प्रयुक्त लेजर उपकरण का नाम
बल्कन था, जो आकार में काफी विशाल था - किसी छोटी-मोटी इमारत की तरह।
लेडिंगहेम के साथियों ने सोने के परमाणुओं में प्रोटॉन डालकर पारे के
परमाणु बना लिए।
इस प्रयोग की सफलता के बाद यह उम्मीद जागी कि क्या परमाणु भट्टियों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे को भी किसी सुरक्षित पदार्थ में बदला जा सकता है। लेजर किरणों में एक तत्व से दूसरा तत्व बनाने में काफी ऊर्जा खर्च होती है। यहां ऊर्जा का अनुमान इस तरह से लगा सकते हैं कि एक परमाणु बिजलीघर के कचरे को निपटाने के लिए एक और बिजलीघर चाहिए होगा! ऊर्जा की विशाल खपत को देखते हुए निकट भविष्य में इस तकनीक के इस्तेमाल की संभावना थोड़ी कम ही है।
वानी
थी। जल्द ही प्रचार-प्रसार के ज़रिए कंपनी ने निवेशकों को खुब आकर्षित
किया। कंपनी अपने निवेशकों को शेयर के बदले काफी सोना देने वाली थी। शेयरों
के बदले सोना पाने की चाहत में बहुत से लोगों ने इस कंपनी में निवेश किया।
ल्युडेनड्रॉफ ने जल्द ही एक मोटी रकम नाज़ी पार्टी फंड में डाली। 1926 में
ल्यूडेनड्रॉफ ने कंपनी प्रमुख के पद से इस्तीफा देकर सारे अधिकार फ्रेंज़
को सौंप दिए। फ्रेंज़ प्रयोगशाला में लगातार काम करता रहा, लेकिन जल्द ही
यह साफ हो गया कि कंपनी अपने निवेशकों को वायदे के मुताबिक सोना देने में
असमर्थ है। फ्रेंज को दगाबाज़ी के अपराध में गिरफ्तार किया गया और चार साल
कारावास का दंड दिया गया।
यहां इस किस्से का ज़िक्र सिर्फ यह संकेत देने
के लिए किया जा रहा है कि अभी भी सोने को लेकर लोग दीवाने हैं। साथ ही
रसायन विज्ञान की इतनी तरक्की के बावजूद आज भी काफी लोगों को यह यकीन है कि
पारस पत्थर जैसी कोई चीज़ होती है। जिससे सोना बनाया जा सकता है।
आजकल लोगों में एड़ी में दर्द की शिकायत बहुत देखी जा रही है। इस समस्या के बढ़ने के कई कारण हैं जैसे-
इन घरेलू उपचारों की मदद से आप एड़ी के दर्द से आराम पा सकते हैं-
[1]
दिल जब थक जाता है तो वह अपने संकेत पहले से देने लगता है देखें दिल ये संकेत हम तक कैसे पहुंचाता है।
फुटनोट
कभी कभी आपको प्लास्टिक की कुर्सी, कार का दरवाजे का हैंडल, फाउंटेन को छूने मात्र से करंट लग जाता है, ऐसा क्यों होता है आइये जानते हैं।
आप शायद नहीं जानते होंगे कि स्टैटिक/स्थायी बिजली क्या होती है। यह सब एक छोटी चीज से शुरू होता है जिसे परमाणु कहा जाता है। दुनिया में सब कुछ परमाणुओं से बना है - आपकी पेंसिल से आपकी नाक तक। एक परमाणु इतना छोटा है कि आप इसे अपनी आंखों से नहीं देख सकते हैं - आपको एक विशेष माइक्रोस्कोप की आवश्यकता होगी। दुनिया के सभी सामानों के लिए ब्लॉक बनाने के रूप में परमाणुओं के बारे में सोचें।
प्रत्येक छोटे परमाणु भी सूक्ष्म चीजों से बने होते हैं:
प्रोटॉन (कहते हैं: PRO-stanza), जिसमें एक सकारात्मक चार्ज है।
इलेक्ट्रॉनों (कहते हैं: hi-LEK-trahnz), जिसमें एक नकारात्मक चार्ज है।
न्यूट्रॉन (कहते हैं: NEW-trahns), जिनके पास कोई चार्ज नहीं है।
अधिकांश समय, परमाणुओं में प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉनों की समान संख्या होती है और परमाणु चार्ज तटस्थ (सकारात्मक या नकारात्मक नहीं) होता है। सकारात्मक और नकारात्मक चार्ज संतुलित नहीं होने पर स्थैतिक बिजली बनाई जाती है। प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बहुत घूमते नहीं हैं, लेकिन इलेक्ट्रॉनों को सभी जगह कूदना पसंद है!
जब किसी वस्तु (या व्यक्ति) में अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन होते हैं, तो इसका ऋणात्मक आवेश होता है। विपरीत आरोप वाली चीजें हमेशा एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होती हैं, इसलिए सकारात्मक आरोप नकारात्मक की तलाश करते हैं और नकारात्मक सकारात्मक की तलाश करते हैं। बस यही स्टैटिक चार्ज कारण है कि आपको प्लास्टिक की कुर्सी से भी छोटा करंट लग जाता है।
कभी आप धूप में प्लास्टिक की कुर्सी रख कर बैठें, आप गौर करेंगे कि आपके रोम के केश कुर्सी की तरफ आकर्षित होकर खड़े हो जाएंगे, आपके कंघे द्वारा छोटे कागज़ के टुकड़े आकर्षित होते हैं, ऐसा भी static चार्ज के कारण ही होता है।
आशा करता हूँ कि यह आपको समझने में सहायक होगा।
कच्ची धानी अर्थात पुराने जमाने में बैलों से चलने वाले कोल्हू होते थे उन्हें ही कच्ची घानी कहते हैं।
वह एक पत्थर/ लकड़ी की काफी बड़ी ओखली नुमा होता था, जिसमे एक लकड़ी के लम्बे मूसल को घुसा कर रखा जाता था। उस ओखली व मूसल के बीच के खाली स्थान में वह तिलहन डाला जाता था जिसका तेल निकालना हो।
उस मूसल को बैलों की सहायता से घुमाया जाता था, दोनों के बीच आकर तिलहन का तेल निकल जाता था, जिसे साइड में लगी टोंटी से निकाल लिया जाता था।
आज भी कुछ जगह इसका प्रयोग करके तेल निकला जाता है वही वास्तविक कच्ची घानी का तेल कहलाता है। आजकल यह विधि लगभग समाप्ति के कगार पर है, कारण उसे निकालना काफी महंगा पड़ता है। साथ ही आधुनिक मोटर से चलने वाली मशीन (आयल एक्सपेलर) के मुकाबले कम तेल निकलता है, अतः वह सामान्य रिफाइंड तेल से चार गुनी कीमत में बिकता है।
दूसरी है पक्की घानी - आजकल इसी सिद्धांत पर कुछ मोटर से चलने वाली घानी भी प्रचलित हैं हैं। उनसे भी तेल कम ही निकलता है, पर शीघ्र निकलता है। इसे ही पक्की घानी भी कहते हैं।
तीसरी है आधुनिक मोटर से चलने वाली "आयल एक्सपेलर मशीन", यह मशीन भी ठंडी विधि से ही तेल निकालती है, पर इससे तेल कुछ अधिक व शीघ्र निकलता है, कम नमी युक्त व साफ होता है।
उपरोक्त सभी विधियों से निकलने वाला तेल रिफाइड या फिलटर्ड नहीं कहलाता, इस तेल में नमी की काफी मात्रा होती है, कारण तेल निकालते समय तिलहन को कुछ गीला करना पड़ता है। इस तेल को आप खरीद कर 1 माह से अधिक स्टोर नहीं कर सकते।
यहां मैं तीनो मशीनों के चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ।
यह सभी चित्र गूगल से साभार
सेहत और सीरत का संगम प्रोटीन पाउडर घर मे बनाये, रहेगा शुद्ध और किफायती भी