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सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

मेवाड़ वीर राणा पुंजा भील की जन्म जयंती पर विशेष 05 Oct 2020


राणा पुंजा भील की जन्म जयंती पर विशेष
05 Oct 2020
*मेवाड़ वीर राणा पूंजा भील-एक समग्र परिचय*

विश्व की सबसे प्राचीन अरावली पर्वत श्रृंखला में वाकल, सोम व साबरमती नदियों के उद्गम स्थलों के संधीय भोमट के पठार  में जन्मा भारतीय संस्कृति का एक जनजाति रक्षक-राणा पूंजा भील ने महाराणा प्रताप के साथ मिलकर  क्षात्रधर्मी पथ का राष्ट्र व संस्कृति सेवा के रूप में अपने धर्म का वरण किया। पंडित नरेंद्र मिश्र के शब्दों में- *संकट में धरती पुत्रों का माता ने जब आह्वान किया।* *तब एकलव्य की निष्ठा से पूजा ने शर-संधान किया ।।*

आत्मविश्वास और स्वाभिमान के धनी भील जनजातियों के इस नायक ने वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का मित्र, संकटमोचक वह आत्मिक सहयोगी की भूमिकाओं का निर्वहन करते हुए ऐतिहासिक गौरव का सम्मान प्राप्त किया है।

आरंभिक जीवन- राणा पूंजा भील का जन्म 5 अक्टूबर को भीलों की होलकी (सोलंकी) गोत्र में पिता खेता दूल्हा और माता केहरी के पुत्र के रूप में हुआ। यह सपूत मात्र 13 वर्ष की आयु में मेवाड़ की मेरपुर रियासत की गद्दी पर आसीन हुआ जो आधुनिक गुजरात राज्य की सीमा पर स्थित भील व गरासिया बाहुल्य क्षेत्र है। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में संगठनात्मक शक्ति, स्वामीभक्ति, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता, प्रतिभा और कर्तव्य के प्रति समर्पण को देखते हुए महाराणा उदय सिंह ने उन्हें *राणा* की उपाधि से सम्मानित किया।

भोमट का राजा- मेवाड़ की पश्चिम भाग में स्थित दुर्गम पहाड़ी रियासत के कम वय में भूमिया सरदार के रूप में कवियों का निर्वहन करते हुए राणा पूंजा ने जनजातियों को एक सेना के रूप में संगठित, प्रशिक्षित और प्रतिबद्ध किया जो सर्वधर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए विरोचित गुणों से सुसज्जित किया । क्षेत्र की भौगोलिक एकाकीपन को एक प्राकृतिक किले के रूप में विकसित किया। किसी भी संकट के समय रक्षा के निमित्त क्षेत्र के सभी प्रवेश वाले मार्गों को नियंत्रण में लिया।

राजनीतिक परिवेश-11-12वीं सदी में इस्लामिक आक्रमणों के कारण भारतवर्ष की उत्तर पश्चिमी सीमा पर राजनीतिक स्थिरता आ गई थी। दिल्ली पर आरंभ में सल्तनत और बाद में मुगलों के कब्जे के कारण दक्षिणी भारत के अभियानों का मार्ग राजस्थान से गुजरता था। इस कारण राजस्थान के अधिकांश राजपूत शासकों को अपने आश्रय में लेकर मुगल बादशाह अकबर मेवाड़ पर कब्जा जमाने की कोशिश कर रहा था। इस कठिन समय में राणा पूंजा अपनी भील सेना के साथ महाराणा प्रताप की साथ कंधे से कंधा मिलाकर एक अथक-अंतहीन संघर्ष के लिए खड़े थे।

उपलब्धियां- मेवाड़ की कमान अपने हाथ में लेने के साथ ही कठिन राजनीतिक परिवेश में महाराणा प्रताप ने धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए अनवर अनवरत संघर्ष का मार्ग चुना। इस दौरान उनके राज्याभिषेक में राणा पूंजा भील अपने वीर सैनिकों सहित कुंभलगढ़ में उपस्थित रहे। मुगलों के संभावित आक्रमण को देखते हुए आगे की रणनीति के लिए राणा पूंजा ने अपने उपयोगी सुझाव दिए एवं चेन्नई कार्यों की तैयारी से संबंधित उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाने का संकल्प लिया। सन् 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध में भील पदातियों के साथ राणा पूंजा ने तीर-कमान, छोटी तलवारों और गोफन जैसे परंपरागत हथियारों के साथ युद्ध स्थल के दाएं ओर का मोर्चा संभालते हुए दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। इस युद्ध के बाद की क्रमिक घटनाओं में भील सेना द्वारा आविष्कृत छापामार प्रणाली से आक्रमण करते हुए मुगल सेना को भील सैनिकों ने खूब छकाया । रक्त तलाई की लड़ाई में यह छापामार प्रणाली के बहुत अनुकूल परिणाम रहे। युद्ध काल में हल्दीघाटी के पास मुहाने की पहाड़ी पर महाराणा प्रताप की रक्षा करने का जिम्मा भी इस सेना ने उठाया। एक निश्चित रणनीति के स्थान पर दुर्गम पहाड़ियों में गतिशीलता के साथ आक्रमण करना और पीछे हट जाने की रणनीति ने मेवाड़ी सरदार की शान बढ़ाई। महाराणा प्रताप की राजतिलक स्थली गोगुंदा कस्बे की सुरक्षा और यहां आई मुगल सेना को आक्रामक ढंग से घेरकर सबको चकित कर दिया था। भोमट के क्षेत्र में मुगल सेना के संभावित आक्रमण को देखते हुए सभी दिशाओं में नाकाबंदी का कार्य भील सेना ने संभाला था। संकट के समय में राजकोष की सुरक्षा के साथ ही राज परिवार की स्त्रियोंऔर बच्चों की जिम्मेदारी भील सेना को दिया जाना, इस बात का अमिट साक्ष्य है कि मेवाड़ का राजपरिवार जनजातियों के निष्ठावान गुणों का कितना विश्वास करता था। इस संदर्भ में दुर्गम स्थान पर आपात राजधानी के रूप में आवरगढ़ किले की योजना, निर्माण, सुरक्षा और आपात प्रबंध की पूरी व्यवस्था राणा पूंजा की भील सेना द्वारा की गई।

ऐतिहासिक महत्व- जो दृढ़ राखे धर्म को ताहि राखे करतार...की नीति पर चलने वाले महाराणा प्रताप ने जब धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा का जो प्रण लिया तब एक स्वाभाविक राष्ट्र आराधना के निमित्त भीलों ने राणा पूंजा के नेतृत्व में मुगलों की विस्तारवादी नीति के विरुद्ध स्वयं को एक अभेद्य जीवंत प्राचीर के रूप में खड़ा कर दिया। छापामार युद्ध प्रणाली द्वारा हल्दीघाटी के युद्ध के उपरांत संकट काल में संचार, कोष और राज परिवार के सदस्यों को सुरक्षा प्रदान करते हुए सबसे महत्व के कार्य किए। मेवाड़ की जनजातियों ने सैनिक व संस्कृति रक्षक के रूप में अपने स्वाभाविक कर्तव्यों द्वारा अपूर्व योगदान दिया जिसके परिणामस्वरूप जग प्रसिद्ध मेवाड़ी संस्कृति में 'राणी जायो, भीली जायो-भाई भाई' का भाव आज भी लोगों की जुबान पर है। राणा पूंजा भील ने अपनी  सेना के साथ वीरोचित कार्यों को मेवाड़ के राज्य चिन्ह को भी जीवंत कर दिया जिसमें एक ओर महाराणा और दूसरी ओर भील सैनिक, सरदार रूप में, प्रदर्शित किया गया है। यह गाथा इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य एवं जनमानस के पटल पर अंकित है कि आन बान शान की रक्षा के लिए जनजातियां सदा ही अपने स्वाभाविक क्षात्र धर्म का निर्वहन करते हुए जन इतिहास को युगों युगों के लिए अविस्मरणीय करती है।

राणा पूंजा भील-गीत दोहा-- बेरी उबो थरथर कापे सुन राणा री हुणकार । तीर कामड़ी गोपण लेकिन उबा भील वीर सरदार ।।

गीत.. राणा थारी आण रे मां बांधी भीला पाल रे । राणा थारी आण रे मां बांधी भीला पाल रे। आयो रे बेरिया रो अब, आयो रे बेरिया रो अब काल रे मेवाड़ी राणा थारे पाछे उबी भीला टोल रे। थारे पाछे उबी भीला टोल रे। नील गगन सूं आओ रणधीरा-2 भीला ने आसिस दीजो रणधीरा।। जय एकलिंग गढ़ जय एकलिंग गढ़ बोर रे मेवाड़ी राणा थारे पाछे उबी भीला टोल रे। थारे पाछे उबी भीला टोल रे।।

तीर कबाण राणा थारी रे तलवारा-2 बल पे रिजो रे राणा बैरिया ने ललकारा बैरी कोई खोले पट ना बैरी कोई खोले पट ना पाट रे थारे पाछे उबी भीला टोल रे। थारे पाछे उबी पूंजा टोल रे।।

अंगरखी पगरखी नी चावे खणदण रे-2 हिवड़ा सू प्यारी माणे राणा थारी आण रे। लड़ाला-मरांला लड़ाला-मरांला पण खा चण बोर रे । थारे पाछे उबी भीला टोल रे। थारे पाछे उबी पूंजा टोल रे।।

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