प्रणाम !!!
आप सभी का अभिनंदन हैं ||
" समर्पण " :-
एक बार गुजरात की एक रियासत की राजमाता मीलण देवी ने सोमनाथ जी का विधिवत
अभिषेक किया | उन्होंने सोने का तुलादान कर उसे सोमनाथ जी को अपित् कर दिया
| सोने का तुलादान कर उनके मन में अहंकार भर गया और वह सोचने लगी कि आज तक
किसी ने भी इस तरह भगवान का तुलादान नहीं किया होगा | इसके बाद वह अपने
महल मे आज गई |
रात में उन्हें सोमनाथ जी के दर्शन हुए | भगवान ने उनसे
कहा, मेरे मंदिर मे एक गरीब महिला दर्शन के लिए आई हैं | उसके संचित पुण्य
असीमित हैं | उसमें से कुछ पुण्य तुम उसे सोने की मुद्राएं लेकर खरीद लो
|परलोक मे काम आएंगे | नींद टूटते ही राजमाता बेचैन हो गई | उन्होंने अपने
सैनिकों को मंदिर से उस महिला को राजभवन लाने के लिए कहा |
सैनिक मंदिर पहुँचे और वहाँ से पकड़कर ले आए| गरीब महिला थर- थर कांप रही
थी | राजमाता ने उस गरीब महिला से कहा,मुझे अपने संचित पुण्य दे दो,बदले मे
मैं तम्हे सोने की मुद्राएं दूंगी| राजमाता की बात सुनकर वह बोली, महारानी
जी, मुझ गरीब से भला पुण्य कार्य कैसे हो सकते हैं |
मैं तो खुद
दर-दर भीख मागंती हूँ | भीख मे मिले चने चबाते-चबाते मैं तीर्थयात्रा को
निकली थी |कल मंदिर मे दर्शन करने से पहले एक मुट्ठी सत्तू मुझे किसी ने
दिए थे | उसमें से आधे सत्तू से भगवान सोमनाथ को भोग लगाया तथा बाकी सत्तू
एक भूखे भिखारी को खिला दिया | जब मैं भगवान को ठीक ढंग से प्रसाद ही नही
चढ़ा पाई तो मुझे पुण्य कहाँ से मिलेगा ? गरीब महिला की बात सुनकर राजमाता
का अंहकार नष्ट हो गया | वह समझ गई कि नि:स्वार्थ समर्पण की भावना से
प्रसन्न होकर ही भगवान सोमनाथ ने उस महिला को असीमित पुण्य प्रदान किए हैं |
इसके बाद राजमाता ने अहंकार त्याग दिया और मानव सेवा को ही अपना सवोर्परि
धर्म बना लिया |
विशेष :
प्रभु को वह भक्त अति प्रिय
होते है जो बिना किसी स्वार्थ से उन्हें पुजते है | सच्ची श्रद्धा-भाव और
अटूट विश्वास-आस्था ही सही मायने मे भक्ति कह लगती है | क्योंकि जहाँ भाव
है वही देव हैं |
ऊँ सोमेश्वराय: नमः !!!
:- रीना शिगांणे " भक्ति-सागर"
प्रभु के नाम का जयकारा जरूर लगाए | और जीवन को आनन्दमय बनाए |
आप सभी पर शिवाजी की कृपा बनी रहे और आप सभी का दिन मंगलमय हो |
यही हमारी प्रथना है |