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सोमवार, 29 अप्रैल 2024

वैशाखमास–माहात्म्य अध्याय–01

.                      वैशाखमास–माहात्म्य

                             अध्याय–01

         इस अध्याय में:- वैशाख मास की श्रेष्ठता; उसमें जल, व्यजन, छत्र, पादुका और अन्न आदि दानों की महिमा

               नारायणं  नमस्कृत्य  नरं चैव  नरोत्तमम्।
               देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

          'भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके भगवान् की विजय-कथा से परिपूर्ण इतिहास-पुराण आदि का पाठ करना चाहिये।
          सूतजी कहते हैं–“राजा अम्बरीष ने परमेष्ठी ब्रह्मा के पुत्र देवर्षि नारद से पुण्यमय वैशाख मास का माहात्म्य इस प्रकार पूछा–‘ब्रह्मन्! मैंने आपसे सभी महीनों का माहात्म्य सुना। उस समय आपने यह कहा था कि सब महीनों में वैशाख मास श्रेष्ठ है। इसलिये यह बताने की कृपा करें कि वैशाख-मास क्यों भगवान् विष्णु को प्रिय है और उस समय कौन-कौन-से धर्म भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक हैं ?’ ‘ 
          नारदजी ने कहा–‘वैशाख मास को ब्रह्माजी ने सब मासों में उत्तम सिद्ध किया है वह माता की भाँति सब जीवों को सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। धर्म, यज्ञ, क्रिया और तपस्या का सार है। सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित है। 
          जैसे विद्याओं में वेद-विद्या, मन्त्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राह्मण, प्रिय वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगाजी, तेजों में सूर्य, अस्त्र शम्तरों में चक्र, धातुओं में सुवर्ण, वैष्णवों में शिव तथा रत्नों में कौस्तुभमणि है, उसी प्रकार धमक साधन भूत महीनों में वैशाख मास सबसे उत्तम है। संसार में इसके समान भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाला दूसरा कोई मास नहीं है। 
          जो वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान करता है, उससे भगवान् विष्णु निरन्तर प्रीति करते हैं । पाप तभी तक गर्जते हैं, जब तक जीव वैशाख मास में प्रात:काल जल में स्नान नहीं करता। 
          राजन्! वैशाख के महीने में सब तीर्थ आदि देवता (तीर्थ के अतिरिक्त) बाहर के जल में भी सदैव स्थित रहते हैं। भगवान् विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों का कल्याण करने के लिये वे सूर्योदय से लेकर छ: दण्ड के भीतर तक वहाँ मौजूद रहते हैं।
          वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं है, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। जल के समान दान नहीं है, खेती के समान धन नहीं है और जीवन से बढ़कर कोई लाभ नहीं है। उपवास के समान कोई तप नहीं, दान से बढ़कर कोई सुख नहीं, दया के समान धर्म नहीं, धर्म के समान मित्र नहीं, सत्य के समान यश नहीं, आरोग्य के समान उन्नति नहीं, भगवान् विष्णु से बढ़कर कोई रक्षक नहीं और वैशाख मास के समान संसार में कोई पवित्र मास नहीं है। ऐसा विद्वान् पुरुषों का मत है। ‘
         वैशाख श्रेष्ठ मास है। और शेषशायी भगवान् विष्णु को सदा प्रिय है। सब दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थो में जो फल होता है, उसी को वैशाख मास में मनुष्य केवल जलदान करके प्राप्त कर लेता है। जो जलदान में असमर्थ है, ऐसे ऐश्वर्य की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को उचित है कि वह दूसरे को प्रबोध करे, दूसरे को जलदान का महत्त्व समझावे। यह सब दानों से बढ़कर हितकारी है। 
         जो मनुष्य वैशाख में सड़क पर यात्रियों के लिये प्याऊ लगाता है, वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। नृपश्रेष्ठ ! प्रपादान (पौंसला या प्याऊ) देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को अत्यन्त प्रीति देने वाला है। जिसने प्याऊ लगाकर रास्ते के थके-माँदै मनुष्यों को सन्तुष्ट किया है, उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को सन्तुष्ट कर लिया है। 
         राजन् ! वैशाख मास में जल की इच्छा रखने वाले को जल, छाया चाहने वाले को छाता और पंखे की इच्छा रखने वाले को पंखा देना चाहिये। राजेन्द्र! जो प्यास से पीड़ित महात्मा पुरुष के लिये शीतल जल प्रदान करता है, वह उतने ही मात्र से दस हजार राजसूय यज्ञों का फल पाता है। 
         धूप और परिश्रम से पीड़ित ब्राह्मण को जो पंखा डुलाकर हवा करता है, वह उतने ही मात्र से निष्पाप होकर भगवान् का पार्षद हो जाता है। जो मार्ग से थके हुए श्रेष्ठ द्विज को वस्त्र से भी हवा करता है, वह उतने से ही मुक्त हो भगवान् विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है। जो शुद्ध चित्त से ताड़ का पंखा देता है, वह सब पापों का नाश करके ब्रह्मलोक को जाता है। 
          जो विष्णुप्रिय वैशाख मास में पादुका दान करता है, वह यमदूतों का तिरस्कार करके विष्णुलोक में जाता है। जो मार्ग में अनाथों के ठहरने लिये विश्रामशाला बनवाता है, उसके पुण्य-फल का वर्णन किया नहीं जा सकता। 
         मध्याह्न में आये हुए ब्राह्मण अतिथि को यदि कोई भोजन दे, तो उसके फल का अन्त नहीं है। राजन्! अन्नदान मनुष्यों को तत्काल तृप्त करने वाला है, इसलिये संसार में अन्न के समान कोई दान नहीं है। जो मनुष्य मार्ग के थके हुए ब्राह्मण के लिये आश्रय देता है, उसके पुण्यफल का वर्णन किया नहीं जा सकता।
         भूपाल! जो अन्नदाता है, वह माता-पिता आदि का भी विस्मरण करा देता है। इसलिये तीनों लोकों के निवासी अन्नदान की ही प्रशंसा करते हैं। माता और पिता केवल जन्म के हेतु पर जो अन्न देकर पालन करता है, मनीषी पुरुष इस लोक में उसी को पिता कहते हैं।
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                       "जय जय श्री हरि

दिन के आठ प्रहर कौन से हैं?

दिन के आठ प्रहर कौन से हैं?
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हिन्दू धर्म में समय की धारणा बहुत ही वृहत्त तौर पे रही है। जो वर्तमान में सेकंड, मिनट, घंटे, दिन-रात, माह, वर्ष, दशक और शताब्दी तक सीमित हो गई है

लेकिन हिन्दू धर्म में एक अणु, तृसरेणु, त्रुटि, वेध, लावा, निमेष, क्षण, काष्‍ठा, लघु, दंड, मुहूर्त, प्रहर या याम, दिवस, पक्ष, माह, ऋतु, अयन, वर्ष (वर्ष के पांच भेद- संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर, युगवत्सर), दिव्य वर्ष, युग, महायुग, मन्वंतर, कल्प,

अंत में दो कल्प मिलाकर ब्रह्मा का एक दिन और रात, तक की वृहत्तर समय पद्धति निर्धारित है।  

आठ प्रहर : हिन्दू धर्मानुसार दिन-रात मिलाकर 24 घंटे में आठ प्रहर होते हैं। औसतन एक प्रहर तीन घंटे या साढ़े सात घटी का होता है जिसमें दो मुहूर्त होते हैं।एक प्रहर एक घटी 24 मिनट की होती है।

दिन के चार और रात के चार मिलाकर कुल आठ प्रहर।  

दिन के चार प्रहर- 1.पूर्वान्ह, 2.मध्यान्ह, 3.अपरान्ह और 4.सायंकाल।  

रात के चार प्रहर- 5.प्रदोष, 6.निशिथ, 7.त्रियामा एवं 8.उषा।

आठ_प्रहर : एक प्रहर तीन घंटे का होता है। 

सूर्योदय के समय दिन का पहला प्रहर प्रारंभ होता है जिसे पूर्वान्ह कहा जाता है। दिन का दूसरा प्रहर जब सूरज सिर पर आ जाता है तब तक रहता है जिसे मध्याह्न कहते हैं।   इसके बाद अपरान्ह (दोपहर बाद) का समय शुरू होता है, जो लगभग 4 बजे तक चलता है।

4 बजे बाद दिन अस्त तक सायंकाल चलता है। 
फिर क्रमश: प्रदोष, निशिथ एवं उषा काल। सायंकाल के बाद ही प्रार्थना करना चाहिए।  अष्टयाम : वैष्णव मन्दिरों में आठ प्रहर की सेवा-पूजा का विधान 'अष्टयाम' कहा जाता है। 
वल्लभ सम्प्रदाय में मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती

तथा शयन के नाम से ये कीर्तन-सेवाएं हैं।  
इसी के आधार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रत्येक राग के गाने का समय निश्चित है।प्रत्येक राग प्रहर अनुसार निर्मित है।  

प्रहार 1 👉 सुबह 6 बजे से 9 बजे तक  वैरव, बंगाल वैरव, रामकली, विभास, जोगई, तोरी, जयदेव, सुबह कीर्तन, प्रभात भैरव,गुंकाली और कलिंगरा,  

प्रहर 2 👉 सुबह 9 बजे से दोपहर 12 बजे तक: देव गांधार, भैरवी, मिश्र भैरवी, असावरी, जोनपुरी, दुर्गा, गांधारी, मिश्रा बिलावल, बिलावल, बृंदावानी सारंग, सामंत सारंग, कुरुभ, देवनागिरी  

प्रहर 3 👉 दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक गोर सारंग, भीमपलासी, पीलू, मुल्तानी, धानी,त्रिवेणी, पलासी, हंसकनकिनी  

प्रहर 4 👉 दोपहर 3 से शाम 6 बजे बंगाल का पारंपरिक कीर्तन, धनसारी, मनोहर, रागश्री, पुरावी, मालश्री, मालवी, श्रीटंक और हंस नारायणी  

प्रहर 5 👉 शाम 6 बजे से रात 9 बजे तक  यमन, यमन कल्याण, हेम कल्याण, पूर्वी कल्याण, भूपाली, पुरिया, केदार, जलधर केदार, मारवा, छाया, खमाज, नारायणी, दुर्गा, तिलक कामोद, हिंडोल, मिश्रा खमाज नट, हमीर  

प्रहर 6 👉 रात्रि 9 से 12 बजे तक सोरत, बिहाग, दर्श, चंपक, मिश्र गारा, तिलंग, जय जवान्ति, बहार, काफी, अरना, मेघा, बागीशारी, रागेश्वरी, मल्हाल, मिया, मल्हार

प्रहर 7 👉 12 बजे से 3 बजे तक  मालगुंजी, दरबारी कनरा, बसंत बहार, दीपक, बसंत, गौरी, चित्रा गौरी, शिवरंजिनी, जैतश्री, धवलश्री, परज, माली गौरा, माड़, सोहनी, हंस रथ, हंस ध्वनि  

प्रहर 8 👉 सुबह 3 बजे से सुबह 6 बजे तक चंद्रकोस, मालकोस, गोपिका बसंत, पंचम, मेघ रंजिनी, भांकर, ललिता गौरी,ललिता, खाट, गुर्जरी तोरी, बाराती तोरी, भोपाल तोरी, प्रभाती कीर्तन
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असल में कामदेव हैं कौन? क्या वह एक काल्पनिक भाव है जो देव और ऋषियों को सताता रहता था या कि वह भी किसी देवता की तरह एक देवता थे?आजो जानते हैं कामदेव के बारे में रहस्य...

कामदेव के रहस्य
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हिन्दू धर्म में कामदेव, कामसूत्र, कामशास्त्र और चार पुरुषर्थों में से एक काम की बहुत चर्चा होती है। खजुराहो में कामसूत्र से संबंधित कई मूर्तियां हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या काम का अर्थ सेक्स ही होता है? नहीं, काम का अर्थ होता है कार्य, कामना और कामेच्छा से। वह सारे कार्य जिससे जीवन आनंददायक, सुखी, शुभ और सुंदर बनता है काम के अंतर्गत ही आते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

आपने कामदेव के बारे में सुना या पढ़ा होगा। पौराणिक काल की कई कहानियों में कामदेव का उल्लेख मिलता है। जितनी भी कहानियों में कामदेव के बारे में जहां कहीं भी उल्लेख हुआ है, उन्हें पढ़कर एक बात जो समझ में आती है वह यह कि कि कामदेव का संबंध प्रेम और कामेच्छा से है।

लेकिन असल में कामदेव हैं कौन? क्या वह एक काल्पनिक भाव है जो देव और ऋषियों को सताता रहता था या कि वह भी किसी देवता की तरह एक देवता थे?आजो जानते हैं कामदेव के बारे में रहस्य...

कामदेव का परिवार👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️पौराणिक कथाओं के अनुसार कामदेव भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के पुत्र हैं। उनका विवाह रति नाम की देवी से हुआ था, जो प्रेम और आकर्षण की देवी मानी जाती है। कुछ कथाओं में यह भी उल्लिखित है कि कामदेव स्वयं ब्रह्माजी के पुत्र हैं और इनका संबंध भगवान शिव से भी है। कुछ जगह पर धर्म की पत्नी श्रद्धा से इनका आविर्भाव हुआ माना जाता है।

प्रेम के देवता👉
〰️〰️〰️〰️जिस तरह पश्चिमी देशों में क्यूपिड और यूनानी देशों में इरोस को प्रेम का प्रतीक माना जाता है, उसी तरह हिन्दू धर्मग्रंथों में कामदेव को प्रेम और आकर्षण का देवता कहा जाता है। 

कामदेव के अन्य नाम:👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ 'रागवृंत', 'अनंग', 'कंदर्प', 'मनमथ', 'मनसिजा', 'मदन', 'रतिकांत', 'पुष्पवान' तथा 'पुष्पधंव' आदि कामदेव के प्रसिद्ध नाम हैं। कामदेव को अर्धदेव या गंधर्व भी कहा जाता है, जो स्वर्ग के वासियों में कामेच्छा उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं। कहीं-कहीं कामदेव को यक्ष की संज्ञा भी दी गई है।

कामदेव का स्वरूप👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️कामदेव को सुनहरे पंखों से युक्त एक सुंदर नवयुवक की तरह प्रदर्शित किया गया है जिनके हाथ में धनुष और बाण हैं। ये तोते के रथ पर मकर (एक प्रकार की मछली) के चिह्न से अंकित लाल ध्वजा लगाकर विचरण करते हैं। वैसे कुछ शास्त्रों में हाथी पर बैठे हुए भी बताया गया है।

कामदेव के धनुष और बाण👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️उनका धनुष मिठास से भरे गन्ने का बना होता है जिसमें मधुमक्खियों के शहद की रस्सी लगी है। उनके धनुष का बाण अशोक के पेड़ के महकते फूलों के अलावा सफेद, नीले कमल, चमेली और आम के पेड़ पर लगने वाले फूलों से बने होते हैं।
 
कामदेव के पास मुख्यत: 5 प्रकार के बाण हैं। कामदेव के 5 बाणों के नाम :1. मारण, 2. स्तम्भन, 3. जृम्भन, 4. शोषण, 5. उम्मादन (मन्मन्थ)।

मदन-कामदेव मंदिर👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️मदन-कामदेव मंदिर को 'असम का खजुराहो' के नाम से जाना जाता है। वहां की मैथुन-प्रतिमाएं मध्यप्रदेश के खजुराहो की याद दिलाती हैं। सेक्स के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति की कथा को आज भी ये जीवंत बना रही हैं। यह मंदिर घने जंगलों के भीतर पेड़ों से छुपा हुआ है। कहते हैं कि भगवान शंकर द्वारा तृतीय नेत्र खोलने पर भस्म हो गए कामदेव का इस स्थान पर पुनर्जन्म तथा उनकी पत्नी रति के साथ पुन: मिलन हुआ था।

कामदेव की ऋतु वसंत👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️वसंत पंचमी के दिन कामदेव की पूजा की जाती है। वसंत कामदेव का मित्र है इसलिए कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वरविहीन होती है यानी जब कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं तो उसकी आवाज नहीं होती है। 

कामदेव का एक नाम 'अनंग' है यानी बिना शरीर के ये प्राणियों में बसते हैं। एक नाम 'मार' है यानी यह इतने मारक हैं कि इनके बाणों का कोई कवच नहीं है। वसंत ऋतु को प्रेम की ही ऋतु माना जाता रहा है। इसमें फूलों के बाणों से आहत हृदय प्रेम से सराबोर हो जाता है।

यहां रहता है कामदेव का वास :
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यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते:।
गानं मधुरश्चैव मृदुलाण्डजशब्दक:।।
उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादय:।
सङ्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम्।।
वायुर्मद: सुवासश्र्च वस्त्राण्यपि नवानि वै।
भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया।।

मुद्गल पुराण के अनुसार कामदेव का वास यौवन, स्त्री, सुंदर फूल, गीत, पराग कण या फूलों का रस, पक्षियों की मीठी आवाज, सुंदर बाग-बगीचों, वसंत ऋ‍तु, चंदन, काम-वासनाओं में लिप्त मनुष्य की संगति, छुपे अंग, सुहानी और मंद हवा, रहने के सुंदर स्थान, आकर्षक वस्त्र और सुंदर आभूषण धारण किए शरीरों में रहता है। इसके अलावा कामदेव स्त्रियों के शरीर में भी वास करते हैं, खासतौर पर स्त्रियों के नयन, ललाट, भौंह और होठों पर इनका प्रभाव काफी रहता है।

कामदेव और शिव👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️जब भगवान शिव की पत्नी सती ने पति के अपमान से आहत और पिता के व्यवहार से क्रोधित होकर यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया था तब सती ने ही बाद में पार्वती के रूप में जन्म लिया। सती की मृत्यु के पश्चात भगवान शिव संसार के सभी बंधनों को तोड़कर, मोह-माया को पीछे छोड़कर तप में लीन हो गए। वे आंखें खोल ही नहीं रहे थे।
 
ऐसे में सभी देवों की अनुशंसा पर कामदेव ने उन पर अपना बाण चलाकर शिव के भीतर देवी पार्वती के लिए आकर्षण विकसित किया। शिव ने क्रोधित होकर जब आंखें खोलीं तो उससे कामदेव भस्म हो गए। हालांकि बाद में शिवजी ने उन्हें जीवनदान दे दिया था, लेकिन बगैर देह के।

श्रीकृष्ण और कामदेव👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण को भी कामदेव ने अपने नियंत्रण में लाने का प्रयास किया था। कामदेव ने भगवान श्रीकृष्ण से यह शर्त लगाई कि वे उन्हें भी स्वर्ग की अप्सराओं से भी सुंदर गोपियों के प्रति आसक्त कर देंगे। श्रीकृष्ण ने कामदेव की सभी शर्त स्वीकार की और गोपियों संग रास भी रचाया लेकिन फिर भी उनके मन के भीतर एक भी क्षण के लिए वासना ने घर नहीं किया। 

रति ने पाला कामदेव को पुत्र की तरह फिर उनसे कर लिया विवाह :जब शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया तब ये देख रति विलाप करने लगी तब जाकर शिव ने कामदेव के पुनः कृष्ण के पुत्र रूप में धरती पर जन्म लेने की बात बताई। शिव के कहे अनुसार भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मणि को प्रद्युम्न नाम का पुत्र हुआ, जो कि कामदेव का ही अवतार था।

कहते हैं कि श्रीकृष्ण से दुश्मनी के चलते राक्षस शंभरासुर नवराज प्रद्युम्न का अपहरण करके ले गया और उसे समुद्र में फेंक आया। उस शिशु को एक मछली ने निगल लिया और वो मछली मछुआरों द्वारा पकड़ी जाने के बाद शंभरासुर के रसोई घर में ही पहुंच गई।
 
तब रति रसोई में काम करने वाली मायावती नाम की एक स्त्री का रूप धारण करके रसोईघर में पहुंच गई। वहां आई मछली को उसने ही काटा और उसमें से निकले बच्चे को मां के समान पाला-पोसा। जब वो बच्चा युवा हुआ तो उसे पूर्व जन्म की सारी याद दिलाई गई। इतना ही नहीं, सारी कलाएं भी सिखाईं तब प्रद्युम्न ने शंभरासुर का वध किया और फिर मायावती को ही अपनी पत्नी रूप में द्वारका ले आए। 

भगवान ब्रह्मा ने दिया वरदान👉
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय ब्रह्माजी प्रजा वृद्धि की कामना से ध्यानमग्न थे। उसी समय उनके अंश से तेजस्वी पुत्र काम उत्पन्न हुआ और कहने लगा कि मेरे लिए क्या आज्ञा है? तब ब्रह्माजी बोले कि मैंने सृष्टि उत्पन्न करने के लिए प्रजापतियों को उत्पन्न किया था किंतु वे सृष्टि रचना में समर्थ नहीं हुए इसलिए मैं तुम्हें इस कार्य की आज्ञा देता हूं। यह सुन कामदेव वहां से विदा होकर अदृश्य हो गए। 

यह देख ब्रह्माजी क्रोधित हुए और शाप दे दिया कि तुमने मेरा वचन नहीं माना इसलिए तुम्हारा जल्दी ही नाश हो जाएगा। शाप सुनकर कामदेव भयभीत हो गए और हाथ जोड़कर ब्रह्माजी के समक्ष क्षमा मांगने लगे। कामदेव की अनुनय-विनय से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें रहने के लिए 12 स्थान देता हूं- स्त्रियों के कटाक्ष, केश राशि, जंघा, वक्ष, नाभि, जंघमूल, अधर, कोयल की कूक, चांदनी, वर्षाकाल, चैत्र और वैशाख महीना। इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने कामदेव को पुष्प का धनुष और 5 बाण देकर विदा कर दिया।
 
ब्रह्माजी से मिले वरदान की सहायता से कामदेव तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे और भूत, पिशाच, गंधर्व, यक्ष सभी को काम ने अपने वशीभूत कर लिया। फिर मछली का ध्वज लगाकर कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ संसार के सभी प्राणियों को अपने वशीभूत करने बढ़े। इसी क्रम में वे शिवजी के पास पहुंचे। भगवान शिव तब तपस्या में लीन थे तभी कामदेव छोटे से जंतु का सूक्ष्म रूप लेकर कर्ण के छिद्र से भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गए। इससे शिवजी का मन चंचल हो गया। 
 
उन्होंने विचार धारण कर चित्त में देखा कि कामदेव उनके शरीर में स्थित है। इतने में ही इच्छा शरीर धारण करने वाले कामदेव भगवान शिव के शरीर से बाहर आ गए और आम के एक वृक्ष के नीचे जाकर खड़े हो गए। फिर उन्होंने शिवजी पर मोहन नामक बाण छोड़ा, जो शिवजी के हृदय पर जाकर लगा। इससे क्रोधित हो शिवजी ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से उन्हें भस्म कर दिया।
 
कामदेव को जलता देख उनकी पत्नी रति विलाप करने लगी। तभी आकाशवाणी हुई जिसमें रति को रुदन न करने और भगवान शिव की आराधना करने को कहा गया। फिर रति ने श्रद्धापूर्वक भगवान शंकर की प्रार्थना की। 
 
रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो शिवजी ने कहा कि कामदेव ने मेरे मन को विचलित किया था इसलिए मैंने इन्हें भस्म कर दिया। अब अगर ये अनंग रूप में महाकाल वन में जाकर शिवलिंग की आराधना करेंगे तो इनका उद्धार होगा। 
 
तब कामदेव महाकाल वन आए और उन्होंने पूर्ण भक्तिभाव से शिवलिंग की उपासना की। उपासना के फलस्वरूप शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम अनंग, शरीर के बिन रहकर भी समर्थ रहोगे। कृष्णावतार के समय तुम रुक्मणि के गर्भ से जन्म लोगे और तुम्हारा नाम प्रद्युम्न होगा।

कामदेव मंत्र👉
〰️〰️〰️〰️कामदेव के बाण ही नहीं, उनका 'क्लीं मंत्र' भी विपरीत लिंग के व्यक्ति को आकर्षित करता है। कामदेव के इस मंत्र का नित्य दिन जाप करने से न सिर्फ आपका साथी आपके प्रति शारीरिक रूप से आकर्षित होगा बल्कि आपकी प्रशंसा करने के साथ-साथ वह आपको अपनी प्राथमिकता भी बना लेगा। 

कहा जाता है कि प्राचीनकाल में वेश्याएं और नर्तकियां भी इस मंत्र का जाप करती थीं, क्योंकि वे अपने प्रशंसकों के आकर्षण को खोना नहीं चाहती थीं। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र का लगातार जाप करते रहने की वजह से उनका आकर्षण, सौंदर्य और कांति बरकरार रहती थी।
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ज़िन्दगी..."जीनी" है तो"तकलीफ तो "होगी" ही...!!वरना "मरने" के बाद तो"जलने" का भी "एहसास" नहीं होता...

"ज़िन्दगी..."जीनी" है तो
"तकलीफ तो "होगी" ही...!!वरना "मरने" के बाद तो
"जलने" का भी "एहसास" नहीं होता...
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  जो समझौतावादी होता है,वह साधक नहीं हो सकता।
          
    रावण , कुम्भकर्ण  और विभीषण जब साधना करते हैं तो उनकी देवभक्ति की आराधना देख तीनों को वरदान देने शंकरजी के साथ ब्रह्माजी भी आते हैं ब्रह्मा बुद्धि के देवता हैं , विवेक के प्रतीक हैं।
      ब्रह्मा और शिव चेतनतत्त्व हैं तथा हमारी व्यष्टि-चेतना की अपेक्षा ये महत्‌ हैं, इसलिए हमारी अपेक्षा इनका विवेक श्रेष्ठ है, वह अध्यात्मवादी है। केवल देवताओं की पूजा या पाठ आदि मात्र करने से कोई व्यक्ति अध्यात्मवादी या धार्मिक नहीं हो जाता। ऐसी भ्रान्ति को मन से निकाल देना चाहिए। 
     तो, जब रावण ने वरदान माँगा कि हम किसी के मारे न मरें ब्रह्माजी ने आपत्ति की और कहा कि इस मर्त्यलोक में किसी को अमरता का वरदान नहीं मिल सकता। इस पर रावण ने तुरन्त कहा -- 'बानर मनुज जाति दुई बारें' -- हम बन्दर और मनुष्य को छोड़कर और किसी से न मरें। रावण सोचता है कि 'नर कपि भालु अहार हमारा' -- मनुष्य और बन्दर-भालू तो हमारे भोजन हैं। भोजन से शरीर की जान बढ़ती है। मरने की सम्भावना तो देवताओं से ही है। अगर इन लोगों से वरदान की शक्ति के द्वारा हम न मरें, तो बन्दर-भालू और मनुष्यों को तो हम स्वयं खा लेंगे और अमर हो जाएँगे। शंकरजी ने मुस्कराकर कह दिया -- “एवमस्तु”। जब वे लौटकर आए, तो पार्वतीजी ने पूछा -- “रावण ने क्या वरदान माँगा ?” 
शंकरजी बोले -- “क्या बताएँ उसने अपनी मृत्यु माँगी !” -- 'राबण मरन मनुज कर जाचा'
। पार्वतीजी बोलीं -- “महाराज, साधना कोई मृत्यु के लिए करता है या अमरता के लिए ?” शंकरजी ने कहा, “यही तो दैत्यत्व है, चेष्टा करता है अमर होने की, पर उसकी यह चेष्टा ही उसे मृत्यु की ओर ले जाती है।” 
      तत्पश्चात्‌ ब्रह्मा और शंकर कुम्भकर्ण के सामने गए। उसके विशाल शरीर को देख ब्रह्मा घबराए। वह यह वर माँगने का विचार कर रहा था कि हम छह महीने जागते रहें और एक दिन सोने से काम चल जाए। वह खाने-पीने का बड़ा प्रेमी था, उसने सोचा -- भोजन नींद में तो होता नहीं ; छह महीने जगेंगे तो छककर भोजन करेंगे। ब्रह्माजी को लगा -- 
  जौं एहिं खल नित करब अहारू। 
 होइहि   सब   उजारि   संसारू।।
-- जो यह दुष्ट नित्य आहार करेगा, तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा । यह भी ईश्वर का एक सुन्दर विधान है कि संसार में कई लोग तमोगुणी प्रवृत्ति के होते हैं और यदि बहुत-से लोग इकट्ठा हो जाएँ तो सब कुछ खा डालेंगे -- अपनों को खाएँगे, दूसरों को खाएँगे। यह विपत्ति देख ब्रह्माजी ने अपनी कला का थोड़ा उपयोग किया। उन्होंने सरस्वतीजी को प्रेरित किया कि कुम्भकर्ण का विचार बदल दो। सरस्वती ने वही किया, और कुम्भकर्ण ने उलटा वरदान माँग लिया कि महाराज, छह महीना सोएँ और एक दिन जागे --
सारद प्रेरि  तासु मति  फेरी।
 मागेसि नीद मास षट केरी।। 
-- रावण में यदि रजोगुण की प्रेरणा जागी, तो कुम्भकर्ण में तमोगुणी प्रेरणा का जन्म हो गया और ब्रह्माजी के लिए लोक-कल्याण की दृष्टि से यह अपेक्षित हो गया कि वे ऐसी तमोगुणी प्रवृत्ति से संसार की रक्षा करें। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी 'विनय-पत्रिका' में हमें बताया है कि रावण और कुम्भकर्ण मोह और अहंकार के प्रतीक हैं -- 'मोह दशमौलि तद्‌ भ्रात अहँकार'।
 --और मोह तथा अहंकार की प्रवृत्तियों में अन्तर है। मोह में यदि संग्रह की वृत्ति है, तो अहंकार में खाने की। अहंकारी व्यक्ति सबको खाना चाहता है। संसार में जितनी टकराहट है, वह अहंकार को -- 'मैं' को लेकर होती है। अहंकारी व्यक्ति के अहम्‌ पर बात-बात में चोट लगती है और इसलिए वह बात-बात में लड़ उठता है। ऐसी स्थिति में उसका समाज में उठना-बैठना असम्भव हो जाता है। जो सज्जन मेरी इस पोस्ट को शांति से पढ़ रहे हैं, इसका मतलब यही है कि उनके भीतर का कुम्भकर्ण सो रहा है। यह ब्रह्माजी की हम पर कृपा है कि उन्होंने सरस्वती को प्रेरित कर कुम्भकर्ण के लिए छह महीने सोने और एक दिन जागने के वरदान की व्यवस्था कर दी। छह महीने के एक चक्र में यदि अहंकार एक दिन जागता भी है, तो ऐसा अहंकार चल सकता है। 
     तो, इस प्रकार रावण और कुम्भकर्ण को वरदान देकर जब ब्रह्मा और शंकर विभीषण के पास पहुँचे, और उसे वरदान माँगने के लिए कहा, तो विभीषण ने एक सत्त्वगुणी व्यक्ति के अनुरूप ही वरदान माँगा। शंकरजी विभीषण को 'पुत्र' कहकर सम्बोधित करते हैं। गोस्वामीजी कहते हैं -- 
गए विभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
      वैसे, पुत्र तो रावण भी था, और 'कुम्भकर्ण भी। पर शंकरजी ने विभीषण को ही 'पुत्र' कहकर सम्बोधित किया, क्योंकि विभीषण एक चतुर पुत्र है। चतुर पुत्र वह है, जो पिता-की सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त करे। शंकरजी को सम्पत्ति क्या है ? जब वे किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो वरदान क्या देते हैं ? -- 
     होइ अकाम जो चल तजि सेइहि।
   भगति  मोरी  तेहि  शंकर  देइहि।। 
-- भक्ति का। भक्ति ही शंकरजी का परमधन है। अत: इस चतुर पुत्र ने भक्ति का ही वरदान माँगा -- 
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु।।
     इस प्रकार तीनों को वरदान प्राप्त हो गया और तीनों को ब्रह्मा एवं शंकरजी के दर्शन भी हो गए। अब ऐसा लगता है कि जब विभीषण ने भक्ति का वरदान प्राप्त कर लिया, तब जीवन में उन्हें और क्या चाहिए ? पर नहीं, गोस्वामीजी की दृष्टि में अभी विभीषण का जीवन अपूर्ण ही है । वे यहीं पर साधना का तत्त्व प्रकट करते हैं। भले ही विभीषण इतनी ऊँची स्थिति में पहुँच गए थे और उन्होंने इतनी उत्कृष्ट साधना एवं तपस्या की थी, भले ही विभीषण को जो कुछ वरदान मिला वह बड़ा महत्त्वपूर्ण था, तथापि उनके जीवन में भक्ति की जैसी परिणति होनी चाहिए थी, वैसी नहीं हुई। यह ऐसी स्थिति है, जिसे हर साधक अपने जीवन में देख सकता है। भले ही साधक अपनी अत्युच्च साधना के बल पर दिव्य शक्तियों का साक्षात्कार कर ले, पर उससे उसके जीवन में परिवर्तन घटा हो यह सामान्यतया नहीं देखा जाता । इसका कारण हम विभीषण के जीवन में देख सकते हैं। ऐसी बात नहीं कि तपस्या करके वरदान लेकर लौट आने के बाद से विभीषणजी ने साधना छोड़ दी हो। बल्कि लौटकर आ आने के बाद से तीनों भाइयों की प्रवृत्ति अलग-अलग परिलक्षित हो रही है। विभीषण के लिए भगवान्‌ का मन्दिर है। हनुमानजी जब लंका में जाते हैं; तो वे आश्चर्यचकित होकर देखते हैं कि विभीषण के लिए एक हरिमन्दिर बनाया गया है। वहाँ तुलसी के वृन्द और पुष्प लगाए गए हैं । विभीषणजी मन्दिर में भगवान्‌ की नित्य पूजा करते हैं, माला पर जप करते हैं, किसी को कष्ट नहीं पहुँचाते। यह सब होते हुए भी उनके जीवन में जो गति थी, उसमें अवरोध उत्पन्न हो जाता है । यह प्रत्येक जीव के, साधक के जीवन का एक शाश्वत सत्य है। इसका कारण यह है कि जीव के जीवन में दुहरी प्रक्रिया चला करती है, जैसे कि लंका में जीव के तीन रूप दिखाई देते हैं -- एक है रावण, जो जाग्रत अवस्था में है और दूसरों को निरन्तर उत्पीड़ित कर रहा है। दूसरा है कुम्भकर्ण, जो सुषुप्ति में निष्क्रिय पड़ा हुआ है और जब सक्रिय होगा, तब बड़ी समस्या उत्पन्न करेगा। और तीसरा है विभीषण, जो पूजा कर रहा है। जीव ऐसी तीन प्रवृत्तियों में बँटा हुआ है और उसकी ये तीनों प्रवृत्तियाँ आपस में टकराती रहती हैं। वह जागते में कुछ व्यवहार करता हैं, स्वप्न में उसकी समस्या कुछ होती है और सुषुप्ति में वह और ही प्रकार का जीवन व्यतीत करता है। उसके भीतर का रावण जाग्रत्‌ का दुरुपयोग करता है, कुम्भकर्ण सुषुप्ति का और विभीषण स्वप्न का। विभीषण की साधना तो तुरीय में होनी चाहिए थी, पर वह स्वप्न में होती है। आप तुरीय और स्वप्न की साधनाओं का पार्थक्य जानते ही होंगे। तुरीय-समाधि में भी दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं और स्वप्न में भी मनुष्य विविध अनुभूतियाँ प्राप्त करता है। पर स्वप्न की एक समस्या है। कभी हमें अच्छा स्वप्न आता है, कभी बुरा। कभी स्वप्न में लगता है कि हम पूजा कर रहे हैं, मन्दिर देख रहे हैं, तो कभी स्वप्न में हम अपने को सुरापान में मत्त देखते हैं और कभी अनाचार में प्रवृत्त। इस प्रकार स्वप्न वह अवस्था है, जहाँ अपनी अनुभूतियों पर हमारा नियन्त्रण नहीं है और तुरीय वह है, जहाँ पर हमारी अनुभूतियाँ नियन्त्रित रहती हैं। साधारणत: हम ऐसी स्वप्न की अवस्था में ही जीते हैं, जहाँ हमारे अन्त:करण में अच्छाई और बुराई दोनों दिखाई देती रहती हैं, पर हमारा उन पर कोई अधिकार नहीं प्रतीत होता। विभीषण का जीवन ठीक इसी प्रकार का है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक जीव मोह और अहंकार का छोटा भाई बना हुआ है, मोह और अहंकार के शासन में रहकर भक्ति-पूजा या साधना करता है, तब तक वह सच्चे अर्थों में कभी भी चरम लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। इसे यों कह लीजिए कि जो समझौतावादी होता है, वह साधक नहीं हो सकता।
      विभीषण रावण से एक समझौता कर लेते हैं। वे सोचते हैं कि रावण भले ही संसार पर अत्याचार करता हो, पूजा-पाठ और भक्ति रोकता हो, पर वह मुझे तो कम-से-कम भक्ति और पूजा की सुविधा देता है, अत: जब रावण हमारे प्रति सहिष्णु है, तो हम भी उसके प्रति सहिष्णु बने रहें। पर यह निश्चित जान रखिए कि समझौता साधक का लक्ष्य नहीं है, वह तो विषयी का लक्ष्य है। और अगर कोई व्यक्ति साधक होने के बावजूद समझौता करता है, तो इसका अभिप्राय यह है कि वह साधक नहीं है। साधक तो लड़ता है, झगड़ा करता है। समझौतावादी तो किसी से कटुता उत्पन्न करना नहीं चाहता, वह तो बस किसी प्रकार शान्ति से जीवन बिता लेना चाहता है, उसके जीवन का कोई परम लक्ष्य नहीं होता, वह निरन्तर सबसे समझौता करता रहता है, क्योंकि उसे किसी तरह से जी भर लेना है। पर जिस व्यक्ति को जीवन में कोई लक्ष्य प्राप्त करना है, वह क्या समझौता करके चल सकता है ? कल्पना कीजिए कि एक सैनिक है, जो युद्धक्षेत्र में लड़ रहा है और एक दूसरा व्यक्ति है, जो घर में बैठा हुआ है। हमें बाहर से तो यहीं लगेगा कि घर में बैठा हुआ व्यक्ति मजे में है, क्योंकि उसे मोर्चेवाले के समान संघर्ष नहीं करना पड़ता, गोले-बारूद का सामना नहीं करना पड़ता, तथापि क्या यह भी सत्य नहीं है कि घर में बैठा हुआ व्यक्ति वस्तुत: पशु का जीवन जी रहा है ? जो संघर्ष करता है, उससे डरता या भागता नहीं, विजय उसी को तो मिला करती है। तो, साधक का रास्ता संघर्ष का रास्ता है, समझौते का नहीं, घर में चुप बैठने का नहीं। विभीषण ने रावण और कुम्भकर्ण से समझौता कर लिया। रावण उनके प्रति सहिष्णु है तो वे भी रावण के प्रति सहिष्णु हैं। वे कुम्भकर्ण को भी सह लेते हैं, क्योंकि वह छह महीने में एक ही दिन तो जागता है ! इसका अर्थ यह कि एक साधक जिसे छह महीने तक अहंकार नहीं आता और उसके बाद एक दिन आ जाता है और वह यह कहकर सन्तोष कर लेता है कि चलो, एक दिन आया तो आया, पर छह महीने तो हम अहम्‌ से मुक्त रहे, वह साधक नहीं हैं। साधक तो वह है, जो विचार करता है कि भले ही अहंकार छह महीने नहीं आया, पर एक दिन के लिए आकर उसने कितना क्या खा डाला ।

जय श्री राम।

सतीमाता अनुसुइया जन्मोसव विशेष - माता अनसुइया की संक्षिप्त कथा

सतीमाता अनुसुइया जन्मोसव विशेष
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माता अनसुइया की संक्षिप्त कथा
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सती अनुसूया महर्षि अत्रि की पत्नी थीं। 
जो अपने पतिव्रता धर्म के कारण सुविख्यात थी। अनुसूया का स्थान  भारतवर्ष की सती-साध्वी नारियों में बहुत ऊँचा है। इनका जन्म अत्यन्त उच्च कुल में हुआ था ब्रह्मा जी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि को इन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था। अपनी सतत सेवा तथा प्रेम से इन्होंने महर्षि अत्रि के हृदय को जीत लिया था। अत्रि मुनि की पत्नी जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थीं। 

इन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को तपस्या करके प्रसन्न किया और ये त्रिदेव क्रमश: सोम, दत्तात्रेय और दुर्वासा के नाम से उनके पुत्र बने। अनुसूया पतिव्रत धर्म के लिए प्रसिद्ध हैं। वनवास काल में जब राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुँचे तो अनुसूया ने सीता को पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी थी।

उनकी पति-भक्ति अर्थात सतीत्व का तेज इतना अधिक था के उसके कारण आकाशमार्ग से जाते देवों को उसके प्रताप का अनुभव होता था। इसी कारण उन्हें 'सती अनसूया' भी कहा जाता है।
अनसूया ने राम, सीता और लक्ष्मण का अपने आश्रम में स्वागत किया था। उन्होंने सीता को उपदेश दिया था और उन्हें अखंड सौंदर्य की एक ओषधि भी दी थी। सतियों में उनकी गणना सबसे पहले होती है। कालिदास के 'शाकुंतलम्' में अनसूया नाम की शकुंतला की एक सखी भी कही गई है।

एक दिन देव ऋषि नारद जी बारी-बारी से विष्णुजी, शिव जी और ब्रह्मा जी की अनुपस्थिति में विष्णु लोक, शिवलोक तथा ब्रह्मलोक पहुंचे।

वहां जाकर उन्होंने लक्ष्मी जी, पार्वती जी और सावित्री जी के सामने अनुसुइया के पतिव्रत धर्म की बढ़ चढ़ के प्रशंसा की तथा कहाँ की समस्त सृष्टि में उससे बढ़ कर कोई पतिव्रता नहीं है।

नारद जी की बाते सुनकर तीनो देवियाँ सोचने लगी की आखिर अनुसुइया के पतिव्रत धर्म में ऐसी क्या बात है जो उसकी चर्चा स्वर्गलोक तक हो रही है ? तीनो देवीयों को अनुसुइया से ईर्ष्या होने लगी।

नारद जी के वहां से चले जाने के बाद सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती एक जगह इक्ट्ठी हुई तथा अनुसूईया के पतिव्रत धर्म को खंडित कराने के बारे में सोचने लगी। उन्होंने निश्चय किया की हम अपने पतियों को वहां भेज कर अनुसूईया का पतिव्रत धर्म खंडित कराएंगे।

 ब्रह्मा, विष्णु और शिव जब अपने अपने स्थान पर पहुँचे तो तीनों देवियों ने उनसे अनुसूईया का पतिव्रत धर्म खंडित कराने की जिद्द की। तीनों देवों ने बहुत समझाया कि यह पाप हमसे मत करवाओ। परंतु तीनों देवियों ने उनकी एक ना सुनी और अंत में तीनो देवो को इसके लिए राज़ी होना पड़ा।

तीनों देवो ने साधु वेश धारण किया तथा अत्रि ऋषि के आश्रम पर पहुंचे। उस समय अनुसूईया जी आश्रम पर अकेली थी। साधुवेश में तीन अत्तिथियों को द्वार पर देख कर अनुसूईया ने भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। तीनों साधुओं ने कहा कि हम आपका भोजन अवश्य ग्रहण करेंगे। परंतु एक शर्त पर कि आप हमे निवस्त्र होकर भोजन कराओगी।

 अनुसूईया ने साधुओं के शाप के भय से तथा अतिथि सेवा से वंचित रहने के पाप के भय से परमात्मा से प्रार्थना की कि हे परमेश्वर ! इन तीनों को छः-छः महीने के बच्चे की आयु के शिशु बनाओ।

 जिससे मेरा पतिव्रत धर्म भी खण्ड न हो तथा साधुओं को आहार भी प्राप्त हो व अतिथि सेवा न करने का पाप भी न लगे। परमेश्वर की कृपा से तीनों देवता छः-छः महीने के बच्चे बन गए तथा अनुसूईया ने तीनों को निःवस्त्र होकर दूध पिलाया तथा पालने में लेटा दिया।

जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई की तीनो देवो को तो अनुसुइया ने अपने सतीत्व से बालक बना दिया है।

 यह सुनकर तीनों देवियां ने अत्रि ऋषि के आश्रम पर पहुंचकर माता अनुसुइया से माफ़ी मांगी और कहाँ की हमसे ईर्ष्यावश यह गलती हुई है। इनके लाख मना करने पर भी हमने इन्हे यह घृणित कार्य करने भेजा। कृप्या आप इन्हें पुनः उसी अवस्था में कीजिए।

 आपकी हम आभारी होंगी। इतना सुनकर अत्री ऋषि की पत्नी अनुसूईया ने तीनो बालक को वापस उनके वास्तविक रूप में ला दिया। अत्री ऋषि व अनुसूईया से तीनों भगवानों ने वर मांगने को कहा। तब अनुसूईया ने कहा कि आप तीनों हमारे घर बालक बन कर पुत्र रूप में आएँ। हम निःसंतान हैं। 

तीनों भगवानों ने तथास्तु कहा तथा अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अपने-अपने लोक को प्रस्थान कर गए। कालान्तर में दतात्रोय रूप में भगवान विष्णु का, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा का तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म अनुसूईया के गर्भ से हुआ।

।। जय सती मां अनसूया ।।

झूल रहे तीन देव बनकर के लालना,
माता अनसुईया ने डाल दियो पालना...

मारे खुशी के मैया फूली ना समाती हैं,
गोदी में लेती कभी पालना झुलाती हैं....

कौन करे आज मेरे भाग्य की सराहना.
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...

मेरे घर आये मुझे देने को बड़ाई है,
भूले भगवान आज सब चतुराई है...

सतियो में इनकी ऐसी है भावना,
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...

स्वर्गलोक छोड आज मृत्युलोक सिधारे,
ऋषियों की कुटीया में करते गुजारे...

सती के सामने नष्ट भई कामना,
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...

इतने में ही नारदमुनि वहा आये,
मंद-मंद मन में अपने मुस्काये...

भारत की देवी से हुआ आज सामना,
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...

माता अनसुईया ने डाल दियो पालना,
झूल रहे तीन देव बनकर के लालना...
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भुवन भास्कर भगवान सूर्यनारायण

भुवन भास्कर भगवान सूर्यनारायण
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भुवन भास्कर भगवान सूर्यनारायण प्रत्यक्ष देवता हैं, प्रकाश रूप हैं। उपनिषदों में भगवान सूर्य के ‍तीन रूप माने गए हैं- 

(1) निर्गुण, निराकार, 
(2) सगुण निराकार तथा 
(3) सगुण साकार। 

यद्यपि सूर्य निर्गुण निराकार हैं तथा अपनी माया शक्ति के संबंध में सगुण आकार भी हैं। 

वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक. यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। *ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने “चक्षो सूर्यो जायत” कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है।*

छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है।

सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी। बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है।

अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं। वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है।

*उपनिषदों में सूर्य के स्वरूप का मार्मिक वर्णन है:- ‘जो ये भगवान सूर्य आकाश में तपते हैं उनकी उपासना करनी चाहिए।’* 

*भविष्य पुराण के ब्रह्मपर्व (अध्याय 48/ 21-28) में भगवान बासुदेव ने साम्ब को उनकी जिज्ञासा का उत्तर देते हुए कहा है- सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं। वे इस समस्त जगत के नेत्र हैं। इन्हीं से दिन का सृजन होता है।*

इनसे अधिक निरंतर रहने वाला कोई देवता नहीं है। इन्हीं से यह जगत उत्पन्न होता है और अंत समय में इन्हीं में लय को प्राप्त होता है। कृत ‍आदि लक्षणों वाला यह काल भी दिवाकर ही कहा गया है। *जितने भी ग्रह-नक्षत्र, करण, योग, राशियां, आदित्य गण, वसुगण, रुद्र, अश्विनी कुमार, वायु, अग्नि, शुक्र, प्रजापति, समस्त भूर्भुव: स्व: आदि लोक, संपूर्ण नग (पर्वत), नाग, नदियां, समुद्र तथा समस्त भूतों का समुदाय है, इन सभी के हेतु दिवाकर ही हैं।*

इन्हीं से यह जगत स्थित रहता है, अपने अर्थ में प्रवृत्त होता तथा चेष्टाशील होता हुआ दिखाई पड़ता है। इसके उदय होने पर सभी का उदय होता है और अस्त होने पर सभी अस्तगत हो जाते हैं। तात्पर्य यह कि इनसे श्रेष्ठ देवता न हुए हैं, न भविष्य में होंगे।

अत: समस्त वेदों में वे परमात्मा के नाम से पुकारे जाते हैं। इतिहास और पुराणों में इन्हें ‘अंतरात्मा’ नाम से अभिहित किया गया है, जैसे भगवान विष्णु का स्थान वैकुंठ, भूतभावन शंकर का कैलाश तथा चतुर्मुख ब्रह्मा का स्थान ब्रह्मलोक है। वैसे ही भुवन भास्कर सूर्य का स्थान आदित्यलोक सूर्य मंडल है।

*प्राय: लोग सूर्य मंडल और सूर्यनारायण को एक ही मानते हैं। सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता हैं, सूर्य से ही दिन-रात्रि, घटी, पल, मास, अयन तथा संवत् आदि का विभाग होता है। सूर्य संपूर्ण संसार के प्रकाशक हैं। इनके बिना सब अंधकार है। सूर्य ही जीवन, तेज, ओज, बल, यश, चक्षु, आत्मा और मन हैं।*

आदित्य लोक में भगवान सूर्यनारायण का साकार विग्रह है। वे रक्तकमल पर विराजमान हैं, उनकी चार भुजाएं हैं। वे सदा दो भुजाओं में पद्म धारण किए रहते हैं और दो हाथ अभय तथा वरमुद्रा से सुशोभित हैं। वे सप्ताश्वयुक्त रथ में स्‍थित हैं।

जो उपासक ऐसे उन भगवान सूर्य की उपासना करते हैं, उन्हें मनोवांछित फल प्राप्त होता है। उपासक के सम्मुख उपस्थित होकर भगवान सूर्य स्वयं अपने उपासक की इच्छापूर्ति करते हैं। उनकी कृपा से मनुष्य के मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि,,,,,

*‘मानसं वाचिकं वापि कायजं यच्च दुष्कृतम्।’*
*सर्व सूर्य प्रसादेन तदशेषं व्यपोहति।।’*

भगवान सूर्य अजन्मा है फिर भी एक जिज्ञासा होती है कि इनका जन्म कैसे हुआ, कहां हुआ और किसके द्वारा हुआ, परमात्मा का अवतार तो होता ही है, इस संबंध में पुराण में एक कथा प्राप्त होती है।

एक बार संग्राम में दैत्य-दावनों ने मिलकर देवताओं को हरा दिया, तबसे देवता अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा में सतत प्रयत्नशील थे। देवताओं की माता अदिति प्रजापति दक्ष की कन्या थीं। उनका विवाह महर्षि कश्यप से हुआ था।

अपने पुत्रों की हार से अत्यंत दुखी होकर वे सूर्य उपासना करने लगीं- ‘हे भक्तों पर कृपा करने वाले प्रभो! मेरे पुत्रों का राज्य एवं यज्ञ दैत्यों एवं दानवों ने छीन लिया है। आप अपने अंश से मेरे गर्भ द्वारा प्रकट होकर पुत्रों की रक्षा करें।’

भगवान सूर्य प्रसन्न होकर ‘देवी! मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा, अपने हजारवें अंश से तुम्हारे गर्भ से प्रकट होकर’ इतना कहकर अंतर्ध्यान हो गए। समय पाकर भगवान सूर्य का जन्म अदिति के गर्भ से हुआ। इस अवतार को मार्तण्ड के नाम से पुकारा जाता है। देवतागण भगवान सूर्य को भाई के रूप में पाकर बहुत प्रसन्न हुए।

अग्नि पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्माजी का जन्म हुआ। ब्रह्माजी के पुत्र का नाम मरीचि है। मरीचि से महर्षि कश्यप का जन्म हुआ। ये महर्षि कश्यप ही सूर्य के पिता हैं।
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रविवार, 28 अप्रैल 2024

जीरा, धनिया और सौंफ़ (CCF) - परम पाचक चाय

जीरा, धनिया और सौंफ़ (CCF) - परम पाचक चाय



यह चाय एक आयुर्वेदिक क्लासिक है, और एक संयोजन है जिसका उपयोग पाचन नियमितता और सहायता के लिए सभी घरों में किया जाना चाहिए। जीरा, धनिया और सौंफ़ का सुंदर और पूरी तरह से संतुलित संयोजन तीनों दोषों के बीच पाचन सद्भाव का समर्थन करता है और इसके अलावा, शरीर को कई अन्य लाभ भी प्रदान कर सकता है।



सीसीएफ चाय के लाभ

  • सूजन से राहत मिलती है

  • पेट फूलना कम करता है

  • आंतों की ऐंठन को शांत करता है

  • पेट दर्द और ऐंठन को कम करता है

  • मतली और उल्टी ठीक हो जाती है

  • अग्नि (पाचन अग्नि) को उत्तेजित और संतुलित करता है


अतिरिक्त लाभ

  • मासिक धर्म में ऐंठन के लक्षणों को कम करता है

  • स्तन के दूध का प्रवाह और गुणवत्ता बढ़ जाती है

  • प्रसव से उबरने में सहायता करता है

  • सूजन को कम करता है

  • मानसिक स्पष्टता और संतुलित दिमाग में सहायता करता है

  • सफाई और लसीका जल निकासी को उत्तेजित करता है


ऐसा अद्भुत काढ़ा! यहां बताया गया है कि आप इसे कैसे बनाते हैं....



जिसकी आपको जरूरत है


4 कप बनता है

  • 1/2 छोटा चम्मच जीरा

  • 1/2 छोटा चम्मच धनिये के बीज

  • 1/2 छोटा चम्मच सौंफ के बीज

  • 5 कप पानी


तरीका

  1. सभी सामग्रियों को एक छोटे सॉस पैन में और स्टोव पर रखें।

  2. उबाल लें, फिर धीमी आंच पर 2-5 मिनट तक या जब तक आपकी ज़रूरत के हिसाब से पर्याप्त ताकत न आ जाए, धीमी आंच पर पकाएं।

  3. छान लें और तुरंत परोसें, या तो अलग-अलग कप में या थर्मस में पूरे दिन घूंट-घूंट करके परोसें।

मान्यता है कि काशी की मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव ने देवी सती के शव की दाहक्रिया की थी। तबसे वह महाशमशान है, जहाँ चिता की अग्नि कभी नहीं बुझती।

 

मान्यता है कि काशी की मणिकर्णिका घाट पर भगवान शिव ने देवी सती के शव की दाहक्रिया की थी। तबसे वह महाशमशान है, जहाँ चिता की अग्नि कभी नहीं बुझती।

एक चिता के बुझने से पूर्व ही दूसरी चिता में आग लगा दी जाती है। वह मृत्यु की लौ है जो कभी नहीं बुझती, जीवन की हर ज्योति अंततः उसी लौ में समाहित हो जाती है। शिव संहार के देवता हैं न, तो इसीलिए मणिकर्णिका की ज्योति शिव की ज्योति जैसी ही है, जिसमें अंततः सभी को समाहित हो ही जाना है। इसी मणिकर्णिका के महाश्मशान में शिव होली खेलते हैं।

शमशान में होली खेलने का अर्थ समझते हैं? मनुष्य सबसे अधिक मृत्यु से भयभीत होता है। उसके हर भय का अंतिम कारण अपनी या अपनों की मृत्यु ही होती है। श्मशान में होली खेलने का अर्थ है उस भय से मुक्ति पा लेना।

शिव किसी शरीर मात्र का नाम नहीं है, शिव वैराग्य की उस चरम अवस्था का नाम है जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा, भय या अवसाद से मुक्त हो जाता है। शिव होने का अर्थ है वैराग्य की उस ऊँचाई पर पहुँच जाना जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे, बल्कि उसे भी जीवन का एक आवश्यक हिस्सा मान कर उसे पर्व की तरह खुशी खुशी मनाया जाय। शिव जब शरीर में भभूत लपेट कर नाच उठते हैं, तो समस्त भौतिक गुणों अवगुणों से मुक्त दिखते हैं। यही शिवत्व है।

शिव जब अपने कंधे पर देवी सती का शव ले कर नाच रहे थे, तब वे मोह के चरम पर थे। वे शिव थे, फिर भी शव के मोह में बंध गए थे। मोह बड़ा प्रबल होता है, किसी को नहीं छोड़ता। सामान्य जन भी विपरीत परिस्थितियों में, या अपनों की मृत्यु के समय यूँ ही शव के मोह में तड़पते हैं। शिव शिव थे, वे रुके तो उसी प्रिय पत्नी की चिता भष्म से होली खेल कर युगों युगों के लिए वैरागी हो गए। मोह के चरम पर ही वैराग्य उभरता है न। पर मनुष्य इस मोह से नहीं निकल पाता, वह एक मोह से छूटता है तो दूसरे के फंदे में फंस जाता है। शायद यही मोह मनुष्य को शिवत्व प्राप्त नहीं होने देता।

कहते हैं काशी शिव के त्रिशूल पर टिकी है। शिव की अपनी नगरी है काशी, कैलाश के बाद उन्हें सबसे अधिक काशी ही प्रिय है। शायद इसी कारण काशी एक अलग प्रकार की वैरागी ठसक के साथ जीती है।

मणिकर्णिका घाट, हरिश्चंद घाट, युगों युगों से गङ्गा के इस पावन तट पर मुक्ति की आशा ले कर देश विदेश से आने वाले लोग वस्तुतः शिव की अखण्ड ज्योति में समाहित होने ही आते हैं।

होली आ रही है। फागुन में काशी का कण कण फ़ाग गाता है, "खेले मशाने में होली दिगम्बर खेले मशाने में होली"। सच यही है कि शिव के साथ साथ हर जीव संसार के इस महाश्मशान में होली ही खेल रहा है। तबतक, तबतक उस मणिकर्णिका की ज्योति में समाहित नहीं हो जाता। संसार शमशान ही तो है।

इसी साल जनवरी में कर्नाटक के मंगलुरू में स्वामी कोरगज्जा मंदिर की दानपेटी से एक कंडोम निकला था, जिसके बाद से वहाँ हड़कंप था।

 

खबर थोड़ी सी पुरानी है, पर किसी भी चैनल ने शायद नही दिखाई।

इसी साल जनवरी में कर्नाटक के मंगलुरू में स्वामी कोरगज्जा मंदिर की दानपेटी से एक कंडोम निकला था, जिसके बाद से वहाँ हड़कंप था।

मंदिर की पवित्रता को लगातार भंग किया जा रहा था, श्रद्धालु विवश थे और पुलिस लाचार क्योंकि औरधी पकड़ से बाहर थे।

भक्तों का विश्वास था कि स्वामी कोरसज्जा ऐसा नीच खत्म करने वालों को अवश्य सजा देंगे, और उनका विश्वास आखिरकार रंग लाया…

लेकिन तीन दिन पहले अचानक दूसरे समुदाय के दो लड़के मंदिर में आए और पुजारी के सामने माफी के लिए गिड़गिड़ाने लगे।

उन दोनों ने पुजारी को बताया

कि अपने साथी नवाज के साथ मिल कर उन्होंने ही कुछ दिन पहले मंदिर की दानपेटी में कंडोम डाला था।

नवाज माफी माँगने के लिए जिंदा नहीं था। दानपेटी में कंडोम डालने के बाद उसे एक दिन खून की उल्टियाँ हुईं और फिर पेचिश से उसके मल से खून निकला। अंत में वह अपने घर की दीवारों पर सिर मारते हुए मर गया। मरते समय उसने उन्हें बताया कि कोरगज्जा उन सब पर नाराज हैं।

अब्दुल रहीम और अब्दुल तौफीक ही जिंदा हैं। लेकिन वक्त बीतने के साथ रहीम को भी खून की उल्टियाँ शुरू हो गई हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे नवाज को हुई थी। उसके बाद दोनों अपनी जान जाने के डर से घबराकर पुजारी की शरण में जाकर माफी की भीख माँग करने लगे। भगवान के सामने खड़े होकर दोनों ने सब स्वीकार कर लिया और दया की भीख माँगने लगे।

पहली दफा नहीं है जब स्वामी कोरगज्जा की शरण में इस तरह कोई माफी माँगने पहुँचा हो। 4 साल पहले मनोज पंडित नाम के एक आदमी ने स्वामी कोरगज्जा को लेकर अभद्र टिप्पणी की थी। लेकिन बाद में उसकी हालत ऐसी हो गई कि वो गुरपुर के वज्रदेही मठ में माफी माँगने चला आया। मनोज ने स्वीकारा की उसे कोरगज्जा की आस्था के बारे में नहीं पता था।

‘अजीर्ण होने पर जल-पान औषध है। भोजन पच जाने पर अर्थात भोजन के डेढ़- दो घंटे बाद पानी पीना बलदायक है। भोजन के मध्य में (अर्थात दो अन्न के बीच मे जैसे रोटी और चावल वो भी मात्रा गला साफ होने मात्र 2-3 घूंट) पानी पीना अमृत के समान है और भोजन के अंत में विष के समान अर्थात पाचनक्रिया के लिए हानिकारक है ।

 जल है औषध समान

(जल ही जीवन है)

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम् ।
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ।।

‘अजीर्ण होने पर जल-पान औषध  है। भोजन पच जाने पर अर्थात भोजन के डेढ़- दो घंटे बाद पानी पीना बलदायक है। भोजन के मध्य में (अर्थात दो अन्न के बीच मे जैसे रोटी और चावल वो भी मात्रा गला साफ होने मात्र 2-3 घूंट) पानी पीना अमृत के समान है और भोजन के अंत में विष के समान अर्थात पाचनक्रिया के लिए हानिकारक है ।

पानी से रोगों का इलाज / उपचार :

1  अल्प जल-पान : उबला हुआ जल ठंडा करके थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पीने से अरुचि, जुकाम, मंदाग्नि, सूजन, खट्टी डकारें, पेट के रोग, नया बुखार और मधुमेह में लाभ होता है।

2.  उष्ण जल-पान : सुबह उबाला हुआ पानी गुनगुना करके दिनभर पीने से प्रमेह, मधुमेह, मोटापा, बवासीर, खाँसी-जुकाम, नया ज्वर, कब्ज, गठिया, जोड़ों का दर्द, मंदाग्नि, अरुचि, वात व कफ जन्य रोग, अफारा, संग्रहणी, श्वास की तकलीफ, पीलिया, गुल्म, पार्श्व शूल आदि में पथ्य का काम करता है।

3  प्रात: उषापान :-  सूर्योदय से 2 घंटा पूर्व, शौच क्रिया से पहले रात का रखा हुआ आधा से  सवा लीटर पानी पीना असंख्य रोगों से रक्षा करनेवाला है। शौच के बाद पानी न पियें।

औषधिसिद्ध जल :

1.  सोंठ-जल : दो लीटर पानी में 2. ग्राम सोंठ का चूर्ण या 1. साबूत टुकड़ा डालकर पानी आधा होने तक उबालें, ठंडा करके छान लें । यह जल गठिया, जोड़ों का दर्द, मधुमेह, दमा, क्षयरोग (टी.बी.), पुरानी सर्दी, बुखार, हिचकी, अजीर्ण, कृमि, दस्त, आमदोष, बहुमूत्रता तथा कफजन्य रोगों में खूब लाभदायी है ।
2.  अजवायन-जल : एक लीटर पानी में एक चम्मच (करीब 7.5 ग्राम) अजवायन डालकर उबालें।  पानी आधा रह जाय तो ठंडा करके छान लें। उष्ण प्रकृति का यह जल हृदय-शूल, गैस, कृमि, हिचकी, अरुचि, मंदाग्नि,पीठ व कमर का दर्द, अजीर्ण, दस्त, सर्दी व बहुमुत्रता में लाभदायी है।

3.   जीरा-जल : एक लीटर पानी में एक से डेढ़ चम्मच जीरा डालकर उबालें। पौना लीटर पानी बचने पर ठंडा कर छान लें। शीतल गुणवाला यह जल गर्भवती एवं प्रसूता स्त्रियों के लिए तथा रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर, अनियमित मासिकस्राव, गर्भाशय की सूजन, गर्मी के कारण बार-बार होनेवाला गर्भपात व अल्पमूत्रता में आशातीत लाभदायी है।

4.    सोने के पात्र का रखा जल या जल पात्र में स्वर्ण डला हुया जल छाती के ऊपर सभी रोग अर्थात कफ विकृति से उत्पन्न रोग जैसे मानसिक अवसाद अनिद्रा में रामबाण औषधि है।

खास बातें :

*  भूखे पेट, भोजन की शुरुआत व अंत में, धूप से आकर, शौच, व्यायाम या अधिक परिश्रम व फल खाने के तुरंत बाद पानी पीना निषिद्ध है।*

*  'अत्यम्बूपानान्न विपच्यतेऽन्नम्'           अर्थात बहुत अधिक या एक साथ पानी पीने से पाचन बिगड़ता है । इसलिए "मुहुर्मुहर्वारि पिबेदभूरी"। बार-बार थोड़ा-थोड़ा पानी पीना चाहिए।।*

लेटकर, खड़े होकर पानी पीना तथा पानी पीकर तुरंत दौड़ना या परिश्रम करना हानिकारक है। बैठकर धीरे-धीरे चुस्की लेते हुए बायाँ स्वर सक्रिय हो तब पानी पीना चाहिए।

* प्लास्टिक की बोतल में रखा हुआ, फ्रिज का या बर्फ मिलाया हुआ पानी हानिकारक है।*

*  सामान्यत:  व्यक्ति के लिए एक दिन में डेढ़ से दो लीटर पानी आवश्यक है  या अपने वजन का दसवां भाग अत्यधिक मात्रा है और अपना वजन÷10 - 2 यह न्यूनतम मात्रा है | देश-ऋतु-प्रकृति आदि के अनुसार यह मात्रा बदलती है।*

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