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रविवार, 9 फ़रवरी 2014

वैलेंटाइन डे की कहानी::

वैलेंटाइन डे की कहानी::
 
यूरोप (और अमेरिका) का समाज जो है वो रखैलों (Kept) में विश्वास करता है पत्नियों में नहीं, यूरोप और अमेरिका में आपको शायद ही ऐसा कोई पुरुष या मिहला मिले जिसकी एक शादी हुई हो, जिनका एक पुरुष से या एक स्त्री से सम्बन्ध रहा हो और ये एक दो नहीं हजारों साल की परम्परा है उनके यहाँ। आपने एक शब्द सुना होगा "Live in Relationship" ये शब्द आजकल हमारे देश में भी नव-अभिजात्य वर्ग में चल रहा है, इसका मतलब होता है कि "बिना शादी के पती-पत्नी की तरह से रहना" तो उनके यहाँ, मतलब यूरोप और अमेरिका में ये परंपरा आज भी चलती है। खुद प्लेटो (एक यूरोपीय दार्शनिक) का एक स्त्री से सम्बन्ध नहीं रहा, प्लेटो ने लिखा है कि "मेरा 20-22 स्त्रीयों से सम्बन्ध रहा है"। अरस्तु भी यही कहता है, देकातेर् भी यही कहता है, और रूसो ने तो अपनी आत्मकथा में लिखा है कि "एक स्त्री के साथ रहना, ये तो कभी संभव ही नहीं हो सकता, It's Highly Impossible" तो वहां एक पत्नी जैसा कुछ होता नहीं और इन सभी महान दार्शनिकों का तो कहना है कि "स्त्री में तो आत्मा ही नहीं होती" "स्त्री तो मेज और कुर्सी के समान हैं, जब पुराने से मन भर गया तो पुराना हटा के नया ले आये" तो बीच-बीच में यूरोप में कुछ-कुछ ऐसे लोग निकले जिन्होंने इन बातों का विरोध किया और इन रहन-सहन की व्यवस्थाओं पर कड़ी टिप्पणी की। उन कुछ लोगों में से एक ऐसे ही यूरोपियन व्यक्ति थे जो आज से लगभग 1500 साल पहले पैदा हुए, उनका नाम था - वैलेंटाइन और ये कहानी है 478 AD (after death) की, यानि ईशा की मृत्यु के बाद।
उस वैलेंटाइन नाम के महापुरुष का कहना था कि "हम लोग (यूरोप के लोग) जो शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं कुत्तों की तरह से, जानवरों की तरह से, ये अच्छा नहीं है, इससे सेक्स-जनित रोग (veneral disease) होते हैं, इनको सुधारो, एक पति-एक पत्नी के साथ रहो, विवाह कर के रहो, शारीरिक संबंधो को उसके बाद ही शुरू करो" ऐसी-ऐसी बातें वो करते थे और वो वैलेंटाइन महाशय उन सभी लोगों को ये सब सिखाते थे, बताते थे, जो उनके पास आते थे, रोज उनका भाषण यही चलता था रोम में घूम-घूम कर। संयोग से वो चर्च के पादरी हो गए तो चर्च में आने वाले हर व्यक्ति को यही बताते थे, तो लोग उनसे पूछते थे कि ये वायरस आप में कहाँ से घुस गया, ये तो हमारे यूरोप में कहीं नहीं है, तो वो कहते थे कि "आजकल मैं भारतीय सभ्यता और दर्शन का अध्ययन कर रहा हूँ, और मुझे लगता है कि वो परफेक्ट है, और इसिलए मैं चाहता हूँ कि आप लोग इसे मानो", तो कुछ लोग उनकी बात को मानते थे, तो जो लोग उनकी बात को मानते थे, उनकी शादियाँ वो चर्च में कराते थे और एक-दो नहीं उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई थी।
जिस समय वैलेंटाइन हुए, उस समय रोम का राजा था क्लौडियस, क्लौडियस ने कहा कि "ये जो आदमी है-वैलेंटाइन, ये हमारे यूरोप की परंपरा को बिगाड़ रहा है, हम बिना शादी के रहने वाले लोग हैं, मौज-मजे में डूबे रहने वाले लोग हैं, और ये शादियाँ करवाता फ़िर रहा है, ये तो अपसंस्कृति फैला रहा है, हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है", तो क्लौड़ीयस ने आदेश दिया कि "जाओ वैलेंटाइन को पकड़ के लाओ ", तो उसके सैनिक वैलेंटाइन को पकड़ के ले आये। क्लौडियस ने वैलेंटाइन से कहा कि "ये तुम क्या गलत काम कर रहे हो ? तुम अधर्म फैला रहे हो, अपसंस्कृति ला रहे हो" तो वैलेंटाइन ने कहा कि "मुझे लगता है कि ये ठीक है", क्लौडियस ने उसकी एक बात न सुनी और उसने वैलेंटाइन को फाँसी की सजा दे दी, आरोप क्या था कि वो बच्चों की शादियाँ कराते थे, मतलब शादी करना जुर्म था। क्लौडियस ने उन सभी बच्चों को बुलाया, जिनकी शादी वैलेंटाइन ने करवाई थी और उन सभी के सामने वैलेंटाइन को 14 फ़रवरी 498 ईशवी को फाँसी दे दी गयी।
पता नहीं आप में से कितने लोगों को मालूम है कि पूरे यूरोप में 1950 ईशवी तक खुले मैदान में, सावर्जानिक तौर पर फाँसी देने की परंपरा थी तो जिन बच्चों ने वैलेंटाइन के कहने पर शादी की थी वो बहुत दुखी हुए और उन सब ने उस वैलेंटाइन की दुखद याद में 14 फ़रवरी को वैलेंटाइन डे मनाना शुरू किया तो उस दिन से यूरोप में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है। मतलब ये हुआ कि वैलेंटाइन, जो कि यूरोप में शादियाँ करवाते फ़िरते थे, चूंकि राजा ने उनको फाँसी की सजा दे दी, तो उनकी याद में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है। ये था वैलेंटाइन डे का इतिहास और इसके पीछे का आधार।
अब यही वैलेंटाइन डे भारत आ गया है जहाँ शादी होना एकदम सामान्य बात है यहाँ तो कोई बिना शादी के घूमता हो तो अद्भुत या अचरज लगे लेकिन यूरोप में शादी होना ही सबसे असामान्य बात है। अब ये वैलेंटाइन डे हमारे स्कूलों में कॉलजों में आ गया है और बड़े धूम-धाम से मनाया जा रहा है और हमारे यहाँ के लड़के-लड़कियां बिना सोचे-समझे एक दुसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं और जो कार्ड होता है उसमे लिखा होता है " Would You Be My Valentine" जिसका मतलब होता है "क्या आप मुझसे शादी करेंगे" मतलब तो किसी को मालूम होता नहीं है, वो समझते हैं कि जिससे हम प्यार करते हैं उन्हें ये कार्ड देना चाहिए तो वो इसी कार्ड को अपने मम्मी-पापा को भी दे देते हैं, दादा-दादी को भी दे देते हैं और एक दो नहीं दस-बीस लोगों को ये ही कार्ड वो दे देते हैं और इस धंधे में बड़ी-बड़ी कंपिनयाँ लग गयी हैं जिनको कार्ड बेचना है, जिनको गिफ्ट बेचना है, जिनको चाकलेट बेचनी हैं और टेलीविजन चैनल वालों ने इसका धुआधार प्रचार कर दिया। ये सब लिखने के पीछे का उद्देश्य यही है कि नक़ल आप करें तो उसमें अक्ल भी लगा लिया करें। उनके यहाँ साधारणतया शादियाँ नहीं होती है और जो शादी करते हैं वो वैलेंटाइन डे मनाते हैं लेकिन हम भारत में क्यों ??
जय हिंद,
जय राजीव दीक्षित
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"जन-जागरण लाना है तो पोस्ट को Share करना है।"

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

जन-जागरण लाना है तो पोस्ट को Share करना है।"

देख रहा हु बहोत वक्त से .... कुछ नव बौद्ध … और divide and rule राजनीती के शिकार हमारे दलित भाई .... एक ही राग आलाप रहे है .… कि पुरातन काल में शुद्रो को विद्या का अधिकार नहीं था … मनु स्मृति में है कि शुद्रो को वेद मंत्र का उच्चारण नहीं करना । वगेरह वगेरह … तो भाई सुनो … पहले तो ब्राह्मण, राजपूत और शुद्र कोई जाती का नाम था वोह कचरा दिमाग से हटाओ … फिर बात आती है कि क्यों अधिकार नहीं था … तो भाई सीधी सीधी भाषा में यह समजो कि फाइनली शुद्रा वोह कहलाता था जिस ने विद्या प्राप्त न करी हो … और जिस ने विद्या प्राप्त न करी हो … वोह वेद मंत्रो रामायण गीता के अर्थ का अनर्थ कर सकते है … ( जैसे आज कल फेसबुक पर कुछ लोग लगे हुए है .। रामायण और गीता कि बाल कि खाल निकलने वोह भी बिना कुछ जाने समजे … जैसे चाचा चौधरी या संजय लीला भंसाली कि फिल्मो कि स्टोरी कि चर्चा कर रहे हो ) .... तभी ऐसी व्यवस्था राखी गयी होगी कि जिस बारे में जानकारी व्यक्ति न रखता हो उस कि या तो जानकारी प्राप्त करे या उस के बारे में बात ही न करे । यह ठीक इसी तरह है कि . अगर मुझे एकाउंटेंसी नहीं आती तो मुझे कोई कंपनी में अकाउंट मेनेजर कि नौकरी न दी जाए । नहीं तो खाता वाही तहस नहस हो जायेगी … पहले चार्टर्ड अकाउंटंट (ब्राह्मण) बनो फिर अधिकार मिलेगा किसी कि ऑडिट फ़ाइल साइन करने का … अगर मुझे ट्रक चलना नहीं आता तो मेरे हाथ में ट्रक न पकड़ाई जाए । लायसंस ही न दिया जाए .। पहले लायसन्स लिया जाए उस के बाद ही ट्रक चलने का मौका दिया जाए … अगर मुझे दुकानदारी नहीं आती तो पहले व्यापर सिखा जाए (बनिया) । उस के बाद ही आप कि दुकान चलेगी . नहीं तो अर्थ व्यवस्था खड्डे में जायेगी अगर मुझे राजनीती / अश्त्र शाश्त्र नहीं आते तो (राजपूत) फिर कही जा कर ब्राह्मण, वैश्य या शुद्र का कार्य किया जाए । न कि सेना में भर्ती हो कर लड़ाई कि बात कि जाए … इस से आसान भाषा नहीं है अपने पास दोस्तों अब यह न पूछना कि पढ़ने नहीं दिया … यह ऐसा ही सवाल होगा कि पहले मुर्गी आयी या अंडा … शुद्र या क्षत्रिय हो कर भी ब्राह्मण . या ब्राह्मण हो कर भी शुद्र लोग हुए है इतिहास में । अब सब का नाम नहीं टाइप करता । सब जानते ही हो … तो भैया . अगली बार मनुस्मृति पढ़ो … तो पहले थोडा बहोत ज्ञान ले लो और वेदो और उपनिषदो का … नहीं तो सच में मनुस्मृति का यह सिद्धांत मान ने को दिल करता है कि ब्रह्मणो (जानकार व्यक्ति जाती नहीं ) के सिवा किसी को अधिकार नहीं है वेद, रामायण, गीता पढ़ने का … "जन-जागरण लाना है तो पोस्ट को Share करना है।"

अंग्रेजी के साथ भारत देश ने कितनी उन्नति की है...!! सोचिए जरा !!

अंग्रेजी के साथ भारत देश ने कितनी उन्नति की है...!! सोचिए जरा !!
आजादी के समय 33 करोड़ जनसँख्या थी... 4 करोड़ गरीब थे। आज आजादी के 65 साल बाद हम 121 करोड़ है जिसमे 85 करोड़ गरीब है।
सोचिये ये कौन सा अनुपात है अगर जनसँख्या चार गुना बढ़ी तो गरीबी भी चार गुना बढ़ के 16 करोड़ होनी चाहिए तो ये अचानक 85 करोड़ कहाँ से पहुच गयी। बस कुछ परिवारों को छोड़ दिया जाय तो अंग्रेजी से किसी को कोई फ़ायदा नही हुआ है और न ही होने वाला है...!!
एक बार मैंने समाचार चैनल से जुड़े एक व्यक्ति से पूछा- "भाई जब इस देश में सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती है तो विदेशी कंपनियों के विज्ञापन है, इसे भी अंग्रेजी में दिखाए... इसे हिंदी या हिंग्रेजी में क्यों दिखाते है... तो उनका जबाब था की ये आम आदमी तक सामान पहुंचाना होता है। उनको समझ में नही आएगा? तो फिर विज्ञापन का मतलब क्या है।"
अब ज़रा अपनी शिक्षण पद्दति के बारे में सोचिये...क्या हमें अपनी उच्च शिक्षा जन जन तक नहीं पहुंचानी...और अगर ऐसी बात है तो हमें निश्चित रूप से अपने शिक्षण का माध्यम बदलना ही होगा। प्रांतीय भाषाओं में ही शिक्षा जानी चाहिए। हिंदी या संस्कृत को अगर हम शिक्षण का माध्यम बना ले तो देश की 70 प्रतिशत समस्याओं का समाधान अपने आप हो जायेगा।
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने बड़ा सुन्दर कहा है- "निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल"
जो अपने मातृभाषा का सम्मान नही करेगा वो अपने माता-पिता का भी सम्मान नही करेगा और जो अपने माता पिता का सम्मान नही करेगा वो फिर भारत देश या भारतीय संस्कृति का भी सम्मान नही करेगा।
दुनिया में केवल 11 देश है जो अंग्रेजी ने शिक्षण करते है...उनकी राजनयिक व्यवस्था प्रणाली की भाषा अंग्रेजी हैं... बाकि के जो 190 के आस पास देश है उनके यहाँ शिक्षण का माध्यम उनकी अपनी मातृभाषा है। राजनयिक भाषा का माध्यम उनकी मातृभाषा है। विदेशों में अपने देश भारत, पाकिस्तान बंगलादेश, मलेशिया आदि देशो की बहुत मखौल उडाई जाती है क्यो कि आज तक हम विदेशी भाषा ढो रहे है।
हम अंग्रेजी के बिना नही चल सकते, ये तो नेहरु टाइप के लोगो की सोच है..कभी न कभी इस से बाहर निकलना ही होगा।
आज हमारे देश में कोई उच्च स्तरीय शोध नही हो पा रहा है, कारण- अंग्रेजी। हम पढ़ाई लिखाई और शोध का जो अमूल्य समय है उसे अपनी अंग्रेजी सुधारने में ही लग गए है। क्या हमे चीन, जापान, फ्रांस जर्मनी आदि देशो से सबक नही लेना चाहिए। उनके यहाँ आधारभूत शिक्षा से लेकर उच्च स्तरीय शिक्षा और शोध उनकी मातृभाषा में होती है। क्या वे विकास की दौड में पीछे है ?? वहाँ होता कुछ यूं है की एक दो विदेशी शिक्षण संस्थान खुले है जब भी कोई वैज्ञानिक कोई शोध पत्र तैयार करता है तो उसका अनुवाद अंग्रेजी में कर के बाकि के देशो में भेजा जाता है या कोई शोध बाहर से आया तो विदेशी शिक्षण संस्थानों के विशेषज्ञ उसे मातृभाषा में अनुवाद करके उच्च शिक्षण संस्थानों में भेजते हैं। अब आप कहेंगे ये दोहरा मेहनत है। हाँ वे ये कहते है कि ये दोहरी मेहनत है लेकिन ये उनके लिए राष्ट्रीय सम्मान का प्रश्न है... यही उनके विकास का एक सबसे सशक्त कारण भी है।

ये जनता ही बनाएगी, नेता की तकदीर।।


गंगाजी के घाट पर, जुटी है भारी भीर।
ट्रक में चढ़ा लाए इन्हें, ये चुनाव के वीर।।
कम्बल हैं बांटे गए, मिली पूड़ी और खीर।
ये जनता ही बनाएगी, नेता की तकदीर।।
निर्वाचन के दौर में, सपने खूब दिखाएं।
जीत गए, मंत्री बने तब, रोटी को तरसाएं।
ऊंची कुर्सी पाए के, पाएं सभी से फूल।
 अपनी जेबें भर चले, जनता को गए भूल।।
नेता आवत देख के, जनता करे पुकार।
वोट मांगकर ले गए, अब सोती सरकार।।
जनता नेता से कहे, तू ले खूब तरसाए।
 इस चुनाव में प्रजा तुम्हें, वोटों को तरसाए।
गैरों ने लूटा हमें, लूट गए परदेश।
अब अपने हैं लूटते, जनता को ये क्लेश।।
प्रजातंत्र सरकार में, प्रजा ही दुख से रोए।
 रोज बनाएं दल नए, मारा-मारी होए।।
भ्रष्टाचार ये देख के, बापू का मन रोए।
 स्वारथ की चक्की चले, दिखे इन्हें नहिं कोए।।
रामराज्य के सब सपने, हुए हैं चकनाचूर।
 रक्षक ही भक्षक बने, जनता सुख से दूर।।

एक कप कॉफी

इटली के वेनिस शहर में स्थित एक कॉफी शॉप का दृश्य है। एक व्यक्ति कॉफी शॉप में आता है और वेटर को आवाज देता है। वेटर के आने पर वह ऑर्डर प्लेस करता है- ‘दो कप कॉफी। एक मेरे लिए और एक उस दीवार के लिए।’ जाहिर है, इस तरह का ऑर्डर सुनकर आपका भी ध्यान उस ओर आकर्षित होगा। खैर, वेटर एक कप कॉफी ले आता है। लेकिन उसे दो कप का भुगतान किया जाता है। उस ग्राहक के बाहर निकलते ही वेटर दीवार पर नोटिस बोर्ड टाइप का एक कागज चिपकाता है, जिस पर लिखा होता है- ‘एक कप कॉफी’।
पांच मिनट बाद दो और व्यक्ति कॉफी शॉप में आते हैं और तीन कप कॉफी का ऑर्डर देते हैं। दो कप कॉफी उनके लिए और एक कप दीवार के लिए। उनके समक्ष दो कप कॉफी पेश की जाती है, लेकिन वे तीन कप कॉफी का भुगतान कर वहां से चले जाते हैं। इस बार भी वेटर वही करता है। वह दीवार पर ‘एक कप कॉफी’ का एक और कागज चस्पां करता है।
इटली के खूबसूरत शहर वेनिस में आप इस तरह का नजारा अक्सर देख सकते हैं। वेनिस नहरों द्वारा विभाजित मगर सेतुओं के जरिये आपस में जुड़े ११८ छोटे टापुओं के एक समूह पर बसा खूबसूरत शहर है। वर्ष २०१० में इसकी कुल आबादी तकरीबन २७२,००० आंकी गई और इसकी आतिथ्य संस्कृति का कोई जवाब नहीं है।
बहरहाल, उस कॉफी शॉप में बैठकर ऐसा लगा मानो यह वहां की आम संस्कृति है। हालांकि वहां पहली बार आने वाले शख्स को यह बहुत अनूठा और हैरतनाक लग सकता है। मैं वहां कुछ देर और बैठा रहा। कुछ समय बाद एक और शख्स वहां आया। वह आदमी अपनी वेश-भूषा के हिसाब से कतई उस कॉफी शॉप के स्टैंडर्ड के मुताबिक नहीं लग रहा था। उसके पहनावे व हाव-भाव से गरीबी साफ झलक रही थी। वहां आकर वह एक टेबल पर जाकर बैठ गया और दीवार की ओर इशारा करते हुए वेटर से बोला- ‘दीवार से एक कप कॉफी’। वेटर ने पूरे अदब के साथ उसे कॉफी पेश की। उसने अपनी कॉफी पी और बगैर कोई भुगतान किए वहां से चला गया।
इसके बाद वेटर ने दीवार से कागज का एक टुकड़ा निकाला और डस्टबिन में फेंक दिया। अब तक आपको पूरा मामला समझ में आ गया होगा। इस शहर के रहवासियों द्वारा जरूरतमंदों के प्रति दर्शाए जाने वाले इस सम्मान को देख मैं अभिभूत हो गया। कॉफी किसी भी सोसायटी के लिए जरूरी नहीं होती और न ही यह हम में से किसी के लिए जिंदगी की जरूरत है। लेकिन इन कड़कड़ाती सर्दियों में गरमागरम कॉफी से गरीबों के शरीर में थोड़ी देर के लिए जरूर गर्माहट आ सकती है। गौरतलब बात यह है कि जब कोई किसी तरह के अनुग्रह का लुत्फ लेता है, तो संभवत: हमें उन लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए, जो उस विशेष अनुग्रह की उतनी ही कद्र करते हैं, जितनी कि हम करते हैं, लेकिन वे इसे वहन नहीं कर सकते।
जरा उस वेटर के किरदार पर गौर फरमाएं, जो देने वालों और लेने वालों के बीच इस आदान-प्रदान की प्रक्रिया में अपने चेहरे पर एक जैसी मुस्कान के साथ पूरी उदारता के साथ अपनी भूमिका निभाता है। इसके बाद उस जरूरतमंद शख्स पर गौर करें। वह अपने आत्मसम्मान से तनिक भी समझौता किए बगैर उस कॉफी शॉप में आता है। उसे मुफ्त एक प्याला कॉफी मांगने की कोई जरूरत नहीं है। बिना यह पूछे या जाने बगैर कि कौन-सा शख्स उसे यह एक कप कॉफी पिला रहा है, वह सिर्फ दीवार की ओर देखता है और अपने लिए ऑर्डर प्लेस करता है। इसके बाद वह अपनी कॉफी पीता है और चला जाता है। अब जरा उस दीवार की भूमिका पर गौर फरमाएं। यह उस शहर के रहवासियों की उदारता और सेवाभाव को प्रतिबिंबित करती है।

अगर कोई काम करने के पहले या बाद यह ना सोंचा जाय, की क्रेडिट किसको जाना चाहिए ...या मिला तो आप निर्विवाद रूप से ...अपनी क्षमता से कहीं अधिक और उपयोगी कार्य कर सकते देश कभी गलत लोगों की वजह से बरबाद नहीं होता । बल्कि अच्छे लोगों की निष्क्रियता से होता है

रविवार, 15 दिसंबर 2013

पैरों की बिवाईयों या कटे फ़टे हिस्से दो दिन में ठीक होने लगेंगे.


लगभग २० ग्राम मोम लीजिए और लगभग इतनी ही मात्रा में गेंदे की ताजी बारीक-बारीक कटी हरी पत्तियाँ। दोनो को एक बर्तन में लेकर धीमी आंच पर गर्म कीजिए, कुछ देर में मोम पिघलने लगेगी और साथ ही पत्तियों का रस भी मोम के साथ घुल मिल जाएगा..जब मोम पूरी तरह से पिघल जाए, हल्का हल्का खौलने लगे, बर्तन को नीचे उतार दीजिए और ठंडा होने दीजिए..मोम को सोने से पहले पैरों की बिवाईयों पर लगाईये, दिन में भी इस मोम को लगाकर मोजे पहन लें, पैरों की बिवाईयों या कटे फ़टे हिस्से दो दिन में ठीक होने लगेंगे.

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