अंग्रेजी के साथ भारत देश ने कितनी उन्नति की है...!! सोचिए जरा !!
आजादी के समय 33 करोड़ जनसँख्या थी... 4 करोड़ गरीब थे। आज आजादी के 65 साल बाद हम 121 करोड़ है जिसमे 85 करोड़ गरीब है।
सोचिये ये कौन सा अनुपात है अगर जनसँख्या चार गुना बढ़ी तो गरीबी भी चार गुना बढ़ के 16 करोड़ होनी चाहिए तो ये अचानक 85 करोड़ कहाँ से पहुच गयी। बस कुछ परिवारों को छोड़ दिया जाय तो अंग्रेजी से किसी को कोई फ़ायदा नही हुआ है और न ही होने वाला है...!!
एक बार मैंने समाचार चैनल से जुड़े एक व्यक्ति से पूछा- "भाई जब इस देश में सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती है तो विदेशी कंपनियों के विज्ञापन है, इसे भी अंग्रेजी में दिखाए... इसे हिंदी या हिंग्रेजी में क्यों दिखाते है... तो उनका जबाब था की ये आम आदमी तक सामान पहुंचाना होता है। उनको समझ में नही आएगा? तो फिर विज्ञापन का मतलब क्या है।"
अब ज़रा अपनी शिक्षण पद्दति के बारे में सोचिये...क्या हमें अपनी उच्च शिक्षा जन जन तक नहीं पहुंचानी...और अगर ऐसी बात है तो हमें निश्चित रूप से अपने शिक्षण का माध्यम बदलना ही होगा। प्रांतीय भाषाओं में ही शिक्षा जानी चाहिए। हिंदी या संस्कृत को अगर हम शिक्षण का माध्यम बना ले तो देश की 70 प्रतिशत समस्याओं का समाधान अपने आप हो जायेगा।
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने बड़ा सुन्दर कहा है- "निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल"
जो अपने मातृभाषा का सम्मान नही करेगा वो अपने माता-पिता का भी सम्मान नही करेगा और जो अपने माता पिता का सम्मान नही करेगा वो फिर भारत देश या भारतीय संस्कृति का भी सम्मान नही करेगा।
दुनिया में केवल 11 देश है जो अंग्रेजी ने शिक्षण करते है...उनकी राजनयिक व्यवस्था प्रणाली की भाषा अंग्रेजी हैं... बाकि के जो 190 के आस पास देश है उनके यहाँ शिक्षण का माध्यम उनकी अपनी मातृभाषा है। राजनयिक भाषा का माध्यम उनकी मातृभाषा है। विदेशों में अपने देश भारत, पाकिस्तान बंगलादेश, मलेशिया आदि देशो की बहुत मखौल उडाई जाती है क्यो कि आज तक हम विदेशी भाषा ढो रहे है।
हम अंग्रेजी के बिना नही चल सकते, ये तो नेहरु टाइप के लोगो की सोच है..कभी न कभी इस से बाहर निकलना ही होगा।
आज हमारे देश में कोई उच्च स्तरीय शोध नही हो पा रहा है, कारण- अंग्रेजी। हम पढ़ाई लिखाई और शोध का जो अमूल्य समय है उसे अपनी अंग्रेजी सुधारने में ही लग गए है। क्या हमे चीन, जापान, फ्रांस जर्मनी आदि देशो से सबक नही लेना चाहिए। उनके यहाँ आधारभूत शिक्षा से लेकर उच्च स्तरीय शिक्षा और शोध उनकी मातृभाषा में होती है। क्या वे विकास की दौड में पीछे है ?? वहाँ होता कुछ यूं है की एक दो विदेशी शिक्षण संस्थान खुले है जब भी कोई वैज्ञानिक कोई शोध पत्र तैयार करता है तो उसका अनुवाद अंग्रेजी में कर के बाकि के देशो में भेजा जाता है या कोई शोध बाहर से आया तो विदेशी शिक्षण संस्थानों के विशेषज्ञ उसे मातृभाषा में अनुवाद करके उच्च शिक्षण संस्थानों में भेजते हैं। अब आप कहेंगे ये दोहरा मेहनत है। हाँ वे ये कहते है कि ये दोहरी मेहनत है लेकिन ये उनके लिए राष्ट्रीय सम्मान का प्रश्न है... यही उनके विकास का एक सबसे सशक्त कारण भी है।
आजादी के समय 33 करोड़ जनसँख्या थी... 4 करोड़ गरीब थे। आज आजादी के 65 साल बाद हम 121 करोड़ है जिसमे 85 करोड़ गरीब है।
सोचिये ये कौन सा अनुपात है अगर जनसँख्या चार गुना बढ़ी तो गरीबी भी चार गुना बढ़ के 16 करोड़ होनी चाहिए तो ये अचानक 85 करोड़ कहाँ से पहुच गयी। बस कुछ परिवारों को छोड़ दिया जाय तो अंग्रेजी से किसी को कोई फ़ायदा नही हुआ है और न ही होने वाला है...!!
एक बार मैंने समाचार चैनल से जुड़े एक व्यक्ति से पूछा- "भाई जब इस देश में सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती है तो विदेशी कंपनियों के विज्ञापन है, इसे भी अंग्रेजी में दिखाए... इसे हिंदी या हिंग्रेजी में क्यों दिखाते है... तो उनका जबाब था की ये आम आदमी तक सामान पहुंचाना होता है। उनको समझ में नही आएगा? तो फिर विज्ञापन का मतलब क्या है।"
अब ज़रा अपनी शिक्षण पद्दति के बारे में सोचिये...क्या हमें अपनी उच्च शिक्षा जन जन तक नहीं पहुंचानी...और अगर ऐसी बात है तो हमें निश्चित रूप से अपने शिक्षण का माध्यम बदलना ही होगा। प्रांतीय भाषाओं में ही शिक्षा जानी चाहिए। हिंदी या संस्कृत को अगर हम शिक्षण का माध्यम बना ले तो देश की 70 प्रतिशत समस्याओं का समाधान अपने आप हो जायेगा।
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने बड़ा सुन्दर कहा है- "निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल"
जो अपने मातृभाषा का सम्मान नही करेगा वो अपने माता-पिता का भी सम्मान नही करेगा और जो अपने माता पिता का सम्मान नही करेगा वो फिर भारत देश या भारतीय संस्कृति का भी सम्मान नही करेगा।
दुनिया में केवल 11 देश है जो अंग्रेजी ने शिक्षण करते है...उनकी राजनयिक व्यवस्था प्रणाली की भाषा अंग्रेजी हैं... बाकि के जो 190 के आस पास देश है उनके यहाँ शिक्षण का माध्यम उनकी अपनी मातृभाषा है। राजनयिक भाषा का माध्यम उनकी मातृभाषा है। विदेशों में अपने देश भारत, पाकिस्तान बंगलादेश, मलेशिया आदि देशो की बहुत मखौल उडाई जाती है क्यो कि आज तक हम विदेशी भाषा ढो रहे है।
हम अंग्रेजी के बिना नही चल सकते, ये तो नेहरु टाइप के लोगो की सोच है..कभी न कभी इस से बाहर निकलना ही होगा।
आज हमारे देश में कोई उच्च स्तरीय शोध नही हो पा रहा है, कारण- अंग्रेजी। हम पढ़ाई लिखाई और शोध का जो अमूल्य समय है उसे अपनी अंग्रेजी सुधारने में ही लग गए है। क्या हमे चीन, जापान, फ्रांस जर्मनी आदि देशो से सबक नही लेना चाहिए। उनके यहाँ आधारभूत शिक्षा से लेकर उच्च स्तरीय शिक्षा और शोध उनकी मातृभाषा में होती है। क्या वे विकास की दौड में पीछे है ?? वहाँ होता कुछ यूं है की एक दो विदेशी शिक्षण संस्थान खुले है जब भी कोई वैज्ञानिक कोई शोध पत्र तैयार करता है तो उसका अनुवाद अंग्रेजी में कर के बाकि के देशो में भेजा जाता है या कोई शोध बाहर से आया तो विदेशी शिक्षण संस्थानों के विशेषज्ञ उसे मातृभाषा में अनुवाद करके उच्च शिक्षण संस्थानों में भेजते हैं। अब आप कहेंगे ये दोहरा मेहनत है। हाँ वे ये कहते है कि ये दोहरी मेहनत है लेकिन ये उनके लिए राष्ट्रीय सम्मान का प्रश्न है... यही उनके विकास का एक सबसे सशक्त कारण भी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी करें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.