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सोमवार, 6 मई 2024

फैक्ट चेक: क्या यूट्यूबर ध्रुव राठी का असली नाम बदरुद्दीन राशिद लाहौरी हैं? सोशल मीडिया पर वायरल हुआ , जानें पूरा सच

 

फैक्ट चेक: क्या यूट्यूबर ध्रुव राठी का असली नाम बदरुद्दीन राशिद लाहौरी हैं? सोशल मीडिया पर वायरल हुआ फर्जी दावा, जानें पूरा सच 

 

यूट्यूबर ध्रुव राठी को लेकर एक पोस्ट वायरल हो रहा है जिसमें में दावा किया जा रहा है कि ध्रुव राठी असल में हिन्दू नहीं बल्कि मुस्लिम हैं और उनका असली नाम बदरुद्दीन राशिद लाहौरी, उनका जन्म पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था।

फेसबुक के वायरल पोस्ट में लिखा गया है कि, “इस ध्रुव राठी कि सच्चाई जान लिजिए…* मोदी विरोधी और सनातन विरोधी ऐजेंडा चलाने वाला ध्रुव राठी (कोई माहेश्वरी नही है )… *इसका असली नाम “बदरू राशिद” (पूरा नाम बदरुद्दीन राशिद लाहौरी) है ।* ये पाकिस्तान के लाहौर में पेदा हुआ है और इस कि पत्नी जूली भी पाकिस्तानी है, जिसका असली नाम जुलैखा है।  ये दोनों दाऊद के कराची वाले गुप्त आलिशान बंगले में रहते हैं, जहां पर आइएसआइ और पाकिस्तानी आर्मी की वाई प्लस और जेड प्लस की सिक्योरिटी रहती है…बदरू राशिद (ध्रुव राठी) की फंडिंग पाकिस्तान, चीन, दुबई, मालदिव, कनाडा, रूस, तुर्की और पैंडोरा से होती है…! जॉर्ज सारस के अकाउंट से इसे मोदी का विरोध करने के लिए पेसा भेजा जाता है । लेकीन अब इस देश विरोधी का भंडाफोड़ हो गया है। इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने अपनी खुफिया रिपोर्ट में ये खुलासा किया है। सभी सनातनी इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और देश हित में बदरू राशिद की सच्चाई सबको बताएं…

*ध्रुव राठी निकला बदरू*” 
फेसबुक के वायरल पोस्ट का लिंक यहाँ देखें।
फैक्ट चेक:
न्यूज़मोबाइल की पड़ताल में हमने जाना कि वायरल दावा बिल्कुल फर्जी और बेबुनियाद है।

 

क्या वाकई यूट्यूबर ध्रुव राठी मुस्लिम हैं। इस तथ्य की सत्यता जानने के लिए हमने पड़ताल की। पड़ताल के दौरान हमने सबसे पहले गूगल पर कुछ संबंधित कीवर्ड्स के माध्यम से खोजना शुरू किया। खोज के दौरान हमें https://hindi.oneindia.com/ नामक वेबसाइट पर फरवरी 25, 2024 को प्रकाशित एक लेख मिला।

प्राप्त लेख में ध्रुव राठी से जुड़ी कई जानकारियां दी गयी थी। यहाँ बताया गया है कि ध्रुव राठी 29 वर्षीय ध्रुव राठी जाट समुदाय के हैं और हरियाणा के रोहतक के रहने वाले हैं। वह दिल्ली में पले-बढ़े और दिल्ली पब्लिक स्कूल, आरके पुरम से पढ़ाई की। उन्होंने कार्लज़ूए इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी जर्मनी से अपनी मैकेनिकल इंजीनियरिंग पूरी की, इसके बाद उसी संस्थान से नवीकरणीय ऊर्जा में मास्टर डिग्री हासिल की। यूट्यूबर ने ध्रुव राठी व्लॉग्स नाम से एक और यूट्यूब चैनल भी शुरू किया, जहां वह अपने अंतरराष्ट्रीय यात्रा व्लॉग साझा करते हैं।

 

हालांकि यहाँ ध्रुव राठी से जुड़ी पूरी जानकारी नहीं दी गयी ही थी। इसलिए ध्रुव राठी से जुड़ी पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए हमने जीमेल के माध्यम से ध्रुव राठी से सीधा संपर्क कर उनसे ही इस मामले पर जवाब मंगा।

इस दौरान ध्रुव राठी ने हमें मेल पर रिप्लाई करते हुए अपने ही एक यूट्यूब चैनल के वीडियो का लिंक शेयर किया। वीडियो में ध्रुव राठी ने खुद के जीवन पर आधारित मुख्य जानकारियां दी थी।

यहाँ उन्होंने बताया कि ध्रुव राठी का जन्म हरियाणा के रोहतक में अक्टूबर, 1994 में उनका जन्म हुआ। ध्रुव राठी के दादा-दादी रोहतक में ही रहते थे। उन्होंने वीडियो में बताया कि उनकी माता जी एक टीचर थी और उनके पिता एक इंजीनियर थे। ध्रुव राठी ने बताया कि उनके नाना BSF में नौकरी करते थे।

प्राप्त वीडियो से यह साफ़ हो गया कि वायरल दावा पूरी तरह फर्जी है। ध्रुव राठी का जन्म भारत में हरियाणा के रोहतक शहर में हुआ था। इसके बाद उनकी 12 तक की पढ़ाई दिल्ली में बाद ग्रेजुएशन जर्मनी से किया।  ध्रुव राठी असल में हिन्दू के ‘जाट’समुदाय से आते हैं।

क्या आप जानते हैं कॉंग्रेस के चुनाव चिह्न की कहानी ?

नरेश धाकड़ प्रदेश अध्यक्ष डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्रीय विचार मंच मध्य प्रदेश नई दिल्ली भारत। 

*क्या आप जानते हैं कॉंग्रेस के चुनाव चिह्न की कहानी ?*
कर्बला के मैदान में शहीद होने वाले हजरत ईमाम हुसैन (अली) को इस्लामिक शौर्य, इस्लामिक संघर्ष और इस्लामिक बलिदान का प्रतीक माना जाता है।

*इस्लाम में मूर्ति या फोटो पूजा 'हराम' है, इसलिए किसी भी फोटो या मूर्ति की पूजा ना करके केवल इस ०५ उंगलियों वाले हाथ के पंजे को ही अव्वल निशान के रूप में पूजा जाता है, और इसी इस्लामिकता के प्रतीक चिह्न को 'कांग्रेस' ने अपना चुनाव चिह्न बनाया।* 

लगभग 99% हिंदुओं को इस बात की जानकारी नहीं थी। जबकि अधिकांश मुसलमानों को यह बात शुरू से ही पता थी। लेकिन कहीं हिन्दू कांग्रेस को वोट देना बंद ना कर दें इसलिए कोई इस पर बात भी नहीं करता था।

*मुसलमानों का धार्मिक निशान 'हाथ का पंजा' होने के कारण मुसलमान अधिक शिद्दत से कांग्रेस का कोर वोटर बनकर जुड़ा रहा जबकि हिंदुओं को इसकी जानकारी नहीं होने के कारण* और कांग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन को अपना पेटेंट बनाकर प्रस्तुत करने के कारण जुड़ाव होने के कारण हिन्दू अब तक कांग्रेस से जुड़ा रहा।

*इंदिरा गांधी से पहले तक कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह 'दो बैलों की जोड़ी', फिर 'गाय और बछड़ा' होता था, परंतु कांग्रेस ने भीतर ही भीतर अपना इस्लामीकरण पूरी तरह कर लिया ताकि उनका कोर वोटर मुसलमान संतुष्ट रहे। जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा १३० और चुनाव आचार संहिता के नियमानुसार मानव शरीर का कोई भी अंग चुनाव चिह्न नहीं हो सकता है, लेकिन इसके बावजूद सन् १९७७ ईस्वी से लेकर अब तक "हाथ का पंजा" कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बना हुआ है।* 

*इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के विघटन के बाद जब कांग्रेस (आई) को बनाई तो एक स्लोगन बहुत प्रचलित था- "अली का पंजा आलीशान, इंदिरा जी का यही निशान।" परंतु विडम्बना देखिये हिन्दू समाज कभी इन षड्यंत्रों को समझ ही नहीं पाया और मूर्खों की तरह अंधानुकरण कर अपनी ही कब्र खोदने में लगा रहा।* यदि आप बड़े बुजुर्गों से बात करेंगे तो वे इसकी पुष्टि अवश्य करेंगे कि इस प्रकार के नारे उस समय कांग्रेस की पहचान हुआ करते थे। *कांग्रेस ने आज तक भारत का इस्लामीकरण करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा और आगे भी निरंतर लगी हुई है।* 

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*महारानी गायत्री देवी..*
जयपुर राजघराने की एक ऐसी महिला जिसके चारों तरफ नौकरों की फ़ौज होती थी, जिनकी सुंदरता और कार्यों aकी देशभर में सम्मान मिला करता था जो संसद में खड़ी होकर कांग्रेस की धज्जियां उड़ा देती थी बस उनके इसी तेवर से चिढ़ी इंदिरा गांधी ने उनको तिहाड़ में बन्द करवा दिया।

मुंबई में इलाज करवाकर महारानी दिल्ली पहुँची ही थी कि पुलिस उन्हें और उनके भाई भवानी सिंह को राजनीतिक नहीं बल्कि वित्तीय कानूनों में गिरफ्तार कर तिहाड़ में फेंक देती है।

एक ऐसे कमरे में बन्द किया गया जिसमें दो चारपाई भी न आये, शौचालय के नाम पर एक गड्ढा था जो गंदगी से बजबजा रहा था

जेल में यौनकर्मी औरतों को उन्हें गाली देने के लिए छोड़ दिया गया था जो ब्लेड दिखाकर महारानी को धमकी देती थी तेरा चेहरा बिगाड़ दूँगी।

पांच महीने होते होते महारानी गायत्री देवी की तबियत एकदम से नाज़ुक हो गया, अस्पताल में भर्ती तो करवाया मगर वहां भी ऐसा कमरा जिसमें चूहों ने अपनी दुनिया बसाई थी।

इंदिरा गांधी ने उन्हें इतना मजबूर किया कि उनको लिखकर देना पड़ा कि वो इमरजेंसी का सपोर्ट करती हैं साथ ही राजनीति से सन्यास भी ले रही हैं तब जाकर उनको रिहा किया गया।

ऐसी थी कांग्रेस की अम्मा इंदिरा गांधी! ए है कॉंग्रेस के काले कारनामे। इंदिरा गांधी के काले कारनामे बहुचर्चित हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि फिर भी देश की कुछ मूर्ख चमचे, मनमानी तौर पर बने हुए नकली गांधी परिवार पर न्यौछावर हैं।

रविवार, 5 मई 2024

सिर्फ नेहरू-गांधी व वंशवादी परिवार का चरण वंदना करना ही रोजगार कहलाता है ??


💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग देश बन गया ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में भारत चीनी उत्पादन में विश्व में नंबर एक बन गया ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 55 हजार किलोमीटर से अधिक हाईवे सड़कों का निर्माण हो गया ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में चेनानी नाशरी सुरंग, जोजिला सुरंग का निर्माण हो गया ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 75 नए हवाई अड्डे खोले गए ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में देश की विमानन कंपनियों ने 1000 हवाई जहाज़ों का ऑर्डर दिया है ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में पिछली सरकार के मुकाबले कई गुना तेजी से चहुंमुखी विकास किया गया ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में दशकों से लंबित लगभग 10 लाख करोड़ की परियोजनाओं को पूरा किया गया ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 895 किलोमीटर मेट्रो का विस्तार हो गया और देशभर के कई शहरों में 986 किलोमीटर से अधिक मेट्रो रूट का विस्तार किया जा रहा है ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 20 शहरों में मेट्रो चलने लगी ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में भारत तेजी से गरीबी मिटाने वाला देश बन गया और 25 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में चार धाम को रेल, रोड, और हवाई कनेक्टिविटी से जोड़ा जा रहा है, काशी विश्वनाथ कारीडोर, विंध्य कॉरिडोर, महाकाल लोक इत्यादि धार्मिक तीर्थस्थल का निर्माण किया गया है ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में भव्य राम मंदिर का निर्माण हो गया ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में इलेक्ट्रॉनिक निर्यात 22.7 अरब डॉलर हो गया?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 1.1 लाख से अधिक स्टार्ट अप खुले?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 60 हजार किलोमीटर से अधिक रेल्वे लाइन का विद्युतीकरण किया गया?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में भारत की कुल स्थापित ऊर्जा क्षमता 429 गीगावाट हो गई है?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में भारत की अक्षय ऊर्जा क्षमता 181 गीगावाट हो गई है?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में मेडिकल कॉलेज की संख्या 706 हो गई है ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में मेडिकल सीट की संख्या 1 लाख से अधिक हो गई है ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में यूनिवर्सिटी की संख्या 1168 से अधिक हो गई है ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 22 नए एम्स खोले गए है ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 10 करोड़ से अधिक घरों में नल से जल पहुंचाया गया है ?

💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा Aviation मार्केट बन गया है ?

 💁‍♂️क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 1.82 लाख सर्किट किलोमीटर से अधिक ट्रांसमिशन लाइन बिछायी गई है ?

🤷‍♂️ क्या रोजगार मिले बिना 10 साल में 5.3 लाख किसानो को सोलर पम्प दिए गए है?


Qमेरी समझ में नहीं आता कि
कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल
बेरोज़गारी कहते किसे हैं ?

सिर्फ नेहरू-गांधी व वंशवादी
परिवार का चरण वंदना करना ही
रोजगार कहलाता है ??

सोमवार, 29 अप्रैल 2024

वैशाख मास-महात्मय (चतुर्थ अध्याय)

वैशाख मास-महात्मय (चतुर्थ अध्याय) 
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इस अध्याय में महर्षि वसिष्ठ के उपदेश से राजा कीर्तिमान् का अपने राज्य में वैशाख मास के धर्म का पालन कराना और यमराज का ब्रह्माजी से राजा के लिये शिकायत करने सम्बंधित वर्णन किया गया है।

मिथिलापति ने पूछा 👉 ब्रह्मन् ! जब वैशाख मास के धर्म अतिशय सुलभ, पुण्यराशि प्रदान करने वाले, भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक, चारों पुरुषार्थों की तत्काल सिद्धि करने वाले, सनातन और वेदोक्त हैं तब संसार में उनकी प्रसिद्धि कैसे नहीं हुई ?

          श्रुतदेवजी ने कहा-राजन्! इस पृथ्वी पर लौकिक कामना रखने वाले ही मनुष्य अधिक हैं। उनमें से कुछ राजस और कुछ तामस हैं। वे लोग इस संसार के भोगों तथा पुत्र- पौत्रादि सम्पदाओं की ही अभिलाषा रखते हैं। कहीं किसी प्रकार कभी बड़ी कठिनाई से कोई एक मनुष्य ऐसा मिलता है, जो स्वर्गलोक के लिये प्रयत्न करता है और इसीलिये वह यज्ञ आदि पुण्यकर्मों का अनुष्ठान बड़े प्रयत्न से करता है; परंतु मोक्ष की उपासना प्राय: कोई नहीं करता। तुच्छ आशाएँ लेकर बहुत-से कर्मो का आयोजन करने वाले लोग प्रायः काम्य-कर्मो के ही उपासक हैं। यही कारण है। कि संसार में राजस और तामस धर्म अधिक विख्यात हो गये, परंतु सात्त्विक धर्मो की प्रसिद्धि नहीं हुई। ये सात्त्विक धर्म भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं, निष्काम भाव से किये जाते हैं और इहलोक तथा परलोक में सुख प्रदान करते हैं। देवमाया से मोहित होने के कारण मूढ़ मनुष्य इन धर्मो को जानते ही नहीं हैं ।

          पूर्वकाल की बात है, काशीपुरी में कीर्तिमान् नाम से विख्यात एक चक्रवर्ती राजा थे। वे इक्ष्वाकुवंश के भूषण तथा महाराज नृग के पुत्र थे। संसार में उनका बड़ा यश था। वे अपनी इन्द्रियों पर और क्रोध पर विजय पा चुके थे ब्राह्मणों के प्रति उनके मन में बड़ी भक्ति थी । राजाओं में उनका स्थान बहुत ऊँचा था। एक दिन वे मृगया में आसक्त होकर महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर आये। वैशाख की चिलचिलाती हुई धूप में यात्रा करते हुए राजा ने मार्ग में देखा, महात्मा वसिष्ठ के शिष्य जगह-जगह अनेक प्रकार के कार्यों में विशेष तत्परता के साथ संलग्न थे। वे कहीं पौंसला बनाते थे और कहीं छायामण्डप। किनारे पर झरनों के जल को रोककर स्वच्छ बावली बनाते थे। कहीं वृक्षों के नीचे बैठे हुए लोगों को वे पंखा डुलाकर हवा करते थे, कहीं ऊख देते, कहीं सुगन्धित पदार्थ भेंट करते और कहीं फल देते थे। दोपहरी में लोगों को छाता देते और सन्ध्या के समय शर्वत। कोई शिष्य घनी छाया वाले वन में झाड़ बुहारकर साफ किये हुए आश्रम के प्रांगणों में हितकारक बालुका बिछाते थे और कुछ लोग वृक्षों की शाखा में झूला लटकाते थे। उन्हें देखकर राजा ने पूछा- 'आप लोग कौन हैं?' उन्होंने उत्तर दिया-'हम लोग महर्षि वसिष्ठ के शिष्य हैं।' राजा ने पूछा- 'यह सब क्या हो रहा है?' वे बोले-'ये वैशाख मास में कर्तव्य रूप से बताये गये धर्म हैं, 'जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - चारों पुरुषार्थों के साधक हैं। हम लोग गुरुदेव वसिष्ठ की आज्ञा से इन धर्मोका पालन करते हैं । राजा ने पुन: पूछा-'इनके अनुष्ठान से मनुष्यों को कौन-सा फल मिलता है? किस देवता की प्रसन्नता होती है?' उन्होंने उत्तर दिया- ' हमें इस समय यह बताने के लिये अवकाश नहीं है, आप गुरुजी से ही यथोचित प्रश्न कीजिये वे महायशस्वी महर्षि इन धर्मो को यथार्थ रूप से जानते हैं।'
         
शिष्यों से ऐसा उत्तर पाकर राजा शीघ्र ही महर्षि वसिष्ठ के पवित्र आश्रम पर जो विद्या और योग शक्ति से सम्पन्न था, गये राजा को आते देख महर्षि वसिष्ठ मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सेवकों सहित महात्मा राजा का विधिपूर्वक आतिथ्य-सत्कार किया। जब वे आराम से बैठ गये, तब गुरु वसिष्ठ से प्रसन्नता पूर्वक बोले- 'भगवन् ! मैंने मार्ग में आपके शिष्यों द्वारा परम आश्चर्यमय शुभ कर्मो का अनुष्टान होते देखा है; किंतु उसके सम्बन्ध में जब प्रश्न किया, तब उन्होंने दूसरी कोई बात न बताकर आपके पास जाने की आज्ञा दी उनकी आज्ञा के अनुसार मैं इस समय आपके समीप आया हूँ। मेरे मन में उन धर्मो को सुनने की बड़ी इच्छा है। अत: आप मुझसे उनका वर्णन करें।
         
तब महायशस्वी वसिष्ठजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-राजन् ! तुम्हारी बुद्धि को उत्तम शिक्षा मिली है। अत: उसने यह उत्तम निश्चय किया है। भगवान् विष्णु की कथा के श्रवण और भगवद्धर्मो के अनुष्ठान में जो तुम्हारी बुद्धि की आत्यन्तिक प्रवृत्त हुई है, यह तुम्हारे किसी पुण्य का ही फल है। जिसने वैशाख मास में बताये हुए महाधर्मो के द्वारा भगवान् श्रीहरि की आराधना की है, उसके उन धर्मो से भगवान् बहुत सन्तुष्ट होते और उसे मनोवांछित वस्तु प्रदान करते हैं। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी भगवान् लक्ष्मीपति समस्त पापराशि का विनाश करने वाले हैं। वे सूक्ष्म धर्मो से प्रसन्न होते हैं, केवल परिश्रम और धन से नहीं। भगवान् विष्णु भक्ति से पूजित होने पर अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं; इसलिये सदा भगवान् विष्णु की भक्ति करनी चाहिये। जगदीश्वर श्रीहरि जल से भी पूजा करने पर अशेष क्लेश का नाश करते और शीघ्र प्रसन्न होते हैं। वैशाख मास में बताये हुए ये धर्म थोड़े-से परिश्रम द्वारा साध्य होने पर भी भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक एवं शुभ होने के कारण अधिक व्यय से सिद्ध होने वाले बड़े-बड़े यज्ञादि कर्मो का भी तिरस्कार करने वाले हैं। अत: भृपाल ! तुम भी वैशाख मास में बताये हुए धर्मो का पालन करो और तुम्हारे राज्य में निवास करने वाले अन्य सब लोगों से भी उन कल्याणकारी धर्मो का पालन कराओ।
         
इस प्रकार से वैशाख-धर्म के पालन की आवश्यकता को शास्त्रों और युक्तियों से भली-भाँति सिद्ध करके वसिष्ठजी ने वैशाख मास के सब धर्मो का राजा के समक्ष वर्णन किया। उन सब धर्मो को सुनकर राजा ने गुरु का भक्ति भाव से पूजन किया और घर आकर वे सब धर्मो का विधिपूर्वक पालन करने लगे। देवाधिदेव भगवान् विष्णु में भक्ति रखते हुए राजा कीर्तिमान् देवेश्वर पद्मनाभ के अतिरिक्त और किसी देवता को नहीं देखते थे। उन्होंने हाथी की पीठ पर नगाड़ा रखकर सिपाहियों से अपने राज्य भर में डंके की चोट यह घोषणा करा दी कि मेरे राज्य में जो आठ वर्ष से अधिक की आयु वाला मनुष्य है, उसकी आयु जब तक अस्सी वर्ष की न हो जाय, तब तक मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर यदि वह प्रात:काल स्नान नहीं करेगा तो मेरे द्वारा दण्डनीय, वध्य तथा राज्य से निकाल देने योग्य समझा जायगा यह मेरा निश्चित आदेश है। पिता, पुत्र, अथवा सुहृद्-जो कोई भी वैशाख धर्म का पालन नहीं करेगा, वह चोर की भाँति दण्ड का पात्र समझा जायगा। प्रात:काल शुभ जल में स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दान करना चाहिये। तुम सब लोग अपनी शक्ति के अनुसार पौंसला और दान आदि धर्मो का आचारण करो।'
         
राजा कीर्तिमान् ने प्रत्येक ग्राम में धर्म का उपदेश करने वाले एक-एक ब्राह्मण को बसाया। पाँच-पाँच गाँवों पर एक-एक ऐसे अधिकारी की नियुक्ति की, जो धर्म का त्याग करने वाले लोगों को दण्ड दे सके। उस अधिकारी की सेवा में दस-दस घुड़सवार रहते थे। इस प्रकार चक्रवर्ती नरेश के शासन से सर्वत्र और सब देशों में यह धर्म का पौधा प्रारम्भ हुआ और आगे चलकर खूब बढ़े हुए वृक्ष के रूप में परिणत हो गया उस राजा के राज्य में जो लोग मर जाते थे, वे भगवान् विष्णु के धाम में जाते थे। वहाँ के मनुष्यों को विष्णु लोक की प्राप्ति निश्चित थी। एक बार भी वैशाख स्नान कर लेने से मनुष्य यमराज के पास नहीं जाता। अपने धर्मानुकूल कर्म में स्थित हुए सब लोगों के विष्णुलोक में चले जाने से यमपुरी के सब नरक खाली हो गये। वहाँ एक भी पापी प्राणी नहीं रह गया वैशाख मास के प्रभाव से यमपुरी के मार्ग की यात्रा ही बंद हो गयी। सब मनुष्य दिव्य आकृति धारण करके भगवान् के धाम में जाने लगे। देवताओं के जो लोक हैं, वे सब भी शून्य हो गये। स्वर्ग और नरक दोनों के शून्य हो जाने पर एक दिन नारदजी ने धर्मराज के पास जाकर कहा-'धर्मराज ! आपके इस नरक में पहले-जैसा कोलाहल नहीं सुनायी पड़ता, पहले की भाँति पाप - कर्मो का लेखा भी नहीं लिखा जा रहा है। चित्रगुप्तजी तो ऐसे मौन भाव से बैठे हुए हैं, जैसे कोई मुनि हों। महाराज ! इसका कारण तो बताइये?
         
महात्मा नारद के ऐसा कहने पर राजा यम ने कुछ दीनता के स्वर में कहा-नारद! इस समय पृथ्वी पर जो यह राजा राज्य करता है, वह पुराणपुरुषोत्तम भगवान् विष्णु का बड़ा भक्त है। उसके भय से कोई भी मनुष्य कभी वैशाख मास का उल्लंघन नहीं करता। उस पुण्य कर्म के प्रभाव से सभी भगवान् विष्णु के परम धाम में चले जाते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! उस राजा ने इस समय मेरे लोक का मार्ग लुप्त-सा कर रखा है। स्वर्ग और नरक दोनों को शून्य बना दिया है। अत: ब्रह्माजी के समीप जाकर यह सब समाचार उनसे निवेदन करके तभी मैं स्वस्थ होऊँगा। ऐसा निश्चय करके यमराज ब्रह्माजी के लोक में गये और वहाँ बैठे हुए उन ब्रह्माजी का दर्शन किया, जिनका आश्रय ध्रुव है, जो इस जगत् के बीज तथा सब लोकों के पितामह हैं और समस्त लोकपाल, दिक्पाल तथा देवता जिनकी उपासना करते हैं।
         
ब्रह्माजी ने यमराज को देखा और यमराज ब्रह्माजी के आगे पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर यमराजने कहा- कमलासन! काम में लगाया हुआ जो पुरुष स्वामी की आज्ञा का ठीक-ठीक पालन नहीं करता और उसका धन लेकर भोगता है, वह काठ का कीड़ा होता है। जो बुद्धिमान् मनुष्य लोभवश स्वामी के धन का उपभोग करता है, वह तीन सौ कल्पों तक तिर्यग्-योनिरूप नरक में जाता है। जो कार्य में नियुक्त हुआ पुरुष कार्य करने में समर्थ होकर भी अपने घर में ही बैठा रहता है, वह बिलाव होता है। देव! मैं आपकी आज्ञा से धर्म पूर्वक प्रजा का शासन करता आ रहा हूँ। मैं अब तक मुनियों और धर्मशास्त्रों के कथनानुसार पुण्यात्मा को पुण्य के फल से और पापात्मा को पाप के फल से संयुक्त किया करता था, परंतु अब आपकी आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हो गया हूँ। कीर्तितमान् के राज्य में सब लोग वैशाखमासोक्त पुण्य कर्मो का अनुष्ठान करके पितरों और पितामहों के साथ वैकुण्ठधाम में चले जाते हैं। उनके मरे हुए पितर और मातामह आदि भी विष्णुलोक में चले जाते हैं। इतना ही नहीं, पत्नी के पिता- श्वशुर आदि भी मेरे लेख को मिटाकर विष्णुलोक में चले जाते हैं। देव! बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा भी मनुष्य वैसी गति नहीं पाता है, जैसी वैशाख मास में मिल रही है। सम्पूर्ण तीर्थों से, दान आदि से, तपस्याओं से, व्रतों से अथवा सम्पूर्ण धर्मो से युक्त मनुष्य भी उस गति को नहीं पाता, जो वैशाख धर्म तत्पर हुए मनुष्य को प्राप्त हो रही है। वैशाख में प्रात:काल स्नान करके देवपूजन, मास-माहात्म्य की कथाका श्रवण तथा भगवान् विष्णु को प्रिय लगने वाले तदनुकृूल धर्म का पालन करने वाला मनुष्य एकमात्र विष्णु लोक का स्वामी होता है और जगत् पति भगवान् विष्णु के लोक की तो मेरी समझ में कोई सीमा ही नहीं है; क्योंकि सब ओर से कोटि-कोटि प्राणियों का समुदाय वहाँ पहुँच रहा है तो भी वह भरता नहीं है। इस संसार में पवित्र और अपवित्र सभी लोग राजा की आज्ञा से वैशाख मास के धर्म का पालन करके विष्णुलोक को जा रहे हैं। लोकनाथ! उसकी प्रेरणा से संस्कारहीन मनुष्य भी वैशाख-स्नान मात्र से वैकुण्ठधाम में चले जाते हैं। वह केवल भगवान् विष्णु के चरणों की शरण लेने वाला है जान पड़ता है, वह समस्त संसार को विष्णुलोक में पहुँचा देगा। जो पुत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतिकृूल चलता हो, वह पृथ्वी पर माता के पेट से पैदा हुआ रोग है। वह अधम पुरुष अपनी माता का घात करने वाला कहा जाता है; किंतु राजा कीर्तिमान् की माता और उसकी पत्नी का पुण्य संसारमें विख्यात है। उसकी माता एकमात्र वीरजननी है और वह राजा निश्चय ही संसार में बहुत बड़ा वीर है। जिस प्रकार कीर्तिमान् मेरी लिपि को मिटाने में उद्यत हुआ है, ऐसा उद्योग पुराणों में और किसी का नहीं सुना गया है। भगवान् विष्णु की भक्ति में तत्पर हुए राजा कीर्तिमान् के सिवा दूसरे ऐसे किसी को मैं नहीं जानता, जो डंका बजाकर घोषणा करते हुए लोगों को ऐसी प्रेरणा देता हो और मेरे लोक के मार्ग को विलुप्त करने की चेष्टा करता रहा हो।'
  
"जय जय श्री हरि"
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पिता के हाथ के निशान

पिता के हाथ के निशान
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पिता जी बूढ़े हो गए थे और चलते समय दीवार का सहारा लेते थे। नतीजतन, दीवारें जहाँ भी छूती थीं, वहाँ रंग उड़ जाता था और दीवारों पर उनके उंगलियों के निशान पड़ जाते थे।

मेरी पत्नी ने यह देखा और अक्सर गंदी दिखने वाली दीवारों के बारे में शिकायत करती थी।

एक दिन, उन्हें सिरदर्द हो रहा था, इसलिए उन्होंने अपने सिर पर थोड़ा तेल मालिश किया। इसलिए चलते समय दीवारों पर तेल के दाग बन गए।

मेरी पत्नी यह देखकर मुझ पर चिल्लाई। और मैंने भी अपने पिता पर चिल्लाया और उनसे बदतमीजी से बात की, उन्हें सलाह दी कि वे चलते समय दीवारों को न छुएँ।

वे दुखी लग रहे थे। मुझे भी अपने व्यवहार पर शर्म आ रही थी, लेकिन मैंने उनसे कुछ नहीं कहा।

पिता जी ने चलते समय दीवार को पकड़ना बंद कर दिया। और एक दिन गिर पड़े। वे बिस्तर पर पड़ गए और कुछ ही समय में हमें छोड़कर चले गए। मुझे अपने दिल में अपराधबोध महसूस हुआ और मैं उनके भावों को कभी नहीं भूल पाया और कुछ ही समय बाद उनके निधन के लिए खुद को माफ़ नहीं कर पाया।

कुछ समय बाद, हम अपने घर की पेंटिंग करवाना चाहते थे। जब पेंटर आए, तो मेरे बेटे ने, जो अपने दादा को बहुत प्यार करता था, पेंटर को पिता के फिंगरप्रिंट साफ करने और उन जगहों पर पेंट करने की अनुमति नहीं दी।

पेंटर बहुत अच्छे और नए थे। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि वे मेरे पिता के फिंगरप्रिंट/हाथ के निशान नहीं मिटाएंगे, बल्कि इन निशानों के चारों ओर एक सुंदर घेरा बनाकर एक अनूठी डिजाइन बनाएंगे।

इसके बाद यह सिलसिला चलता रहा और वे निशान हमारे घर का हिस्सा बन गए। हमारे घर आने वाला हर व्यक्ति हमारे अनोखे डिजाइन की प्रशंसा करता था।

समय के साथ, मैं भी बूढ़ा हो गया।

अब मुझे चलने के लिए दीवार के सहारे की जरूरत थी। एक दिन चलते समय, मुझे अपने पिता से कहे गए शब्द याद आ गए और मैंने बिना सहारे के चलने की कोशिश की। मेरे बेटे ने यह देखा और तुरंत मेरे पास आया और मुझे दीवार का सहारा लेने के लिए कहा, चिंता व्यक्त करते हुए कि मैं बिना सहारे के गिर जाऊंगा, मैंने महसूस किया कि मेरा बेटा मुझे पकड़ रहा था।

मेरी पोती तुरंत आगे आई और प्यार से, मुझे सहारा देने के लिए अपना हाथ उसके कंधे पर रखने के लिए कहा। मैं लगभग चुपचाप रोने लगा। अगर मैंने अपने पिता के लिए भी ऐसा ही किया होता, तो वे लंबे समय तक जीवित रहते।

 मेरी पोती मुझे साथ ले गई और सोफे पर बैठा दिया।
फिर उसने मुझे दिखाने के लिए अपनी ड्राइंग बुक निकाली।
उसकी शिक्षिका ने उसकी ड्राइंग की प्रशंसा की और उसे बेहतरीन टिप्पणियाँ दीं।
स्केच दीवारों पर मेरे पिता के हाथ के निशान का था।
स्केच के नीचे शीर्षक लिखा था..
“काश हर बच्चा बड़ों से इसी तरह प्यार करता”।

मैं अपने कमरे में वापस आ गया और अपने पिता से माफ़ी मांगते हुए फूट-फूट कर रोने लगा, जो अब इस दुनिया में नहीं थे।

हम भी समय के साथ बूढ़े हो जाते हैं। आइए अपने बड़ों का ख्याल रखें।
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राम' नाम का प्रताप

(((( 'राम' नाम का प्रताप ))))
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एक बार महाराज दशरथ राम आदि के साथ गंगा स्नान के लिये जा रहे थे। मार्ग में देवर्षि नारद जी से उनकी भेंट हो गयी। 
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महाराज दशरथ आदि सभी ने देवर्षि को प्रणाम किया।
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तदनन्तर नारद जी ने उनसे कहा, महाराज ! अपने पुत्रों तथा सेना आदि के साथ आप कहां जा रहे हैं ? 
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इस पर बड़े ही विनम्र भाव से राजा दशरथ ने बताया.. भगवन ! हम सभी गंगा स्नान की अभिलाषा से जा रहे है।
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इस पर मुनि ने उनसे कहा.. महाराज ! निस्संदेह आप बड़े अज्ञानी प्रतीत होते है.. 
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क्योकि पतित पावनी भगवती गंगा जिनके चरण कमलों से प्रकट हुई है, वे ही नारायण श्री राम आपके पुत्ररूप में अवतरित होकर आपके साथ में रह रहे है। 
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उनके चरणों की सेवा और उनका दर्शन ही दान, पुण्य और गंगा स्नान है, फिर हे राजन् ! आप उनकी सेवा न करके अन्यत्र कहाँ जा रहे है। 
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पुत्र भाव से अपने भगवान् का ही दर्शन करे। श्री राम के मुख कमल के दर्शन के बाद कौन कर्म करना शेष बच जाता है ?
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पतितपावनी गंगा अवनीमण्डले।
सेइ गंगा जन्मिलेन यार पदतले।।
सेइ दान सेइ पुण्य सेइ गंगास्नान।
पुत्रभावे देख तुमि प्रभु भगवान्।।
(मानस, बालकाण्ड)
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नारदजी के कहने पर महाराज दशरथ ने वापस घर लौटने का निश्चय किया.. किंतु भगवान् श्रीराम ने गंगा जी की महिमा का प्रतिपादन करके गंगा स्नान के लिए ही पिता जी को सलाह दी। 
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तदनुसार महाराज दशरथ पुन: गंगा स्नान के लिये आगे बढ़े। 
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मार्ग में तीन करोड़ सैनिकों के द्वारा गुहराज ने उनका मार्ग रोक लिया। 
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गुहराज़ ने कहा, मेरे मार्ग को छोड़कर यात्रा करे, यदि इसी मार्ग से यात्रा करना हो तो आप अपने पुत्र का मुझे दर्शन करायें। 
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इस पर दशरथ की सेना का गुह की सेना के साथ घनघोर युद्ध प्रारम्भ हो गया।
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गुह बंदी बना लिये गये। कौतुकी भगवान् श्री राम ज्यों ही युद्ध देखने की इच्छा से गुहराज के सामने पड़े, गुह ने दण्डवत प्रणाम कर हाथ जोड़ प्रणाम् किया। 
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प्रभु के पूछने पर उसने बताया, प्रभो ! मेरे पूर्वजन्म की कथा आप सुनें.. मैं पूर्व जन्म में महर्षि वसिष्ट का पुत्र वामदेव था।
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एक बार राजा दशरथ अन्धक मुनि के पुत्र की हत्या का प्रायश्चित्त पूछने हमारे आश्रम मे पिता वसिष्ठ के पास आये, पर उस समय मेरे पिताजी आश्रम में नहीं थे। 
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तब महाराज दशरथ ने बड़े ही कातर स्वर में हत्या का प्रायश्चित्त बताने के लिये मुझसे प्रार्थना की। 
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उस समय मैंने राम नाम के प्रताप को समझते हुए तीन बार ‘राम राम राम’ इस प्रकार जपने से हत्या का प्रायश्चित्त हो जायगा परामर्श राजा को बतलाया था। 
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तब प्रसन्न होकर राजा वापस चले गये।
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पिताजी के आश्रम में आने पर मैने सारी घटना उन्हें बतला दी। मैंने सोचा था कि आज पिताजी बड़े प्रसन्न होंगे, किंतु परिणाम बिलकुल ही विपरीत हुआ। 
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पिताजी क्रुद्ध होते हुए बोले, वत्स ! तुमने यह क्या किया, लगता है तुम श्री राम नाम की महिमा को ठीक से जानते नहीं हो..
 
यदि जानते होते तो ऐसा नहीं कहते, क्योकि 'राम' इस नाम का केवल एक बार नाम लेनेमात्र से कोई पातक उप-पातकों तथा ब्रह्महत्यादि महापातको से भी मुक्ति हो जाती है.. 
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फिर तीन बार राम नाम जपने का तुमने राजा को उपदेश क्यों दिया ?
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जाओ, तुम नीच योनि में जन्म ग्रहण करोगे और जब राजा दशरथ के घर मे साक्षात् नारायण श्री राम अवतीर्ण होंगे तब उन के दर्शन से तुम्हारी मुक्ति होगी।
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प्रभो ! आज मैं, करुणासागर पतितपावन आपका दर्शन पाकर कृतार्थ हुआ। इतना कहकर गुहरांज प्रेम विह्नल हो रोने लगा। 
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तब दया के सागर श्रीराम ने उसे बन्धन मुक्त किया और अग्नि को साक्षी मानकर उससे मैत्री कर ली। 
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भगवान् के मात्र एक नाम का प्रताप कितना है यह इस प्रसंग से ज्ञात होता है।
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ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व एवं समय

ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व एवं समय
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वैसे तो सूर्य हमेशा आपके सिर के ऊपर ही होता है, लेकिन जब मैं कहता हूं कि सूर्य ठीक आपके सिर पर है तो इसका मतलब है उस समय वह आपके सिर पर लंबवत है। उस समय यह एक विशेष तरीके से काम करता है। यह समय होता है सुबह ३:४५ से लेकर अगले १२ से २० मिनट तक।
अब सवाल आता है कि इस समय में हम क्या करें? इस समय में हम ध्यान करें या क्रिया करें? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या करें। इस समय में आपको वही करना चाहिए, जिसमें आपको दीक्षित किया गया है। दरअसल, दीक्षा का मतलब यह नहीं है कि आपको कोई क्रिया सिखाई गई है, इसका मतलब है कि इस क्रिया से आपके सिस्टम को परिचित करा कर आपके सिस्टम में इसे बाकायदा स्थापित किया गया है।
अगर आपके सिस्टम में एक जीवंत बीज पड़ चुका है और अगर आप ब्रह्म मुहूर्त में जागकर कोई भी अभ्यास करने बैठते हैं तो यह बीज आपको सबसे ज्यादा फल देगा। उसकी वजह है कि इस समय धरती आपके सिस्टम के अनुसार काम करती है। अगर आप खास तरीके से जागरूक हो जाते हैं, आपके भीतर एक खास स्तर की जागरूकता आ जाती है तो आपको इस समय का सहज रूप से अहसास हो जाता है। अगर आप सही वक्त पर सोने चले जाते हैं तो आपको उठने के लिए घड़ी देखने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आपको हमेशा पता चल जाएगा कि कब ३:४५ का वक्त हो गया है, क्योंकि यह वक्त होते ही आपका शरीर एक अलग तरीके से व्यवहार करने लगेगा।

ब्रह्म मुहूर्त का महत्त्व
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आप जिस भी क्रिया में दीक्षित हुए हैं, अगर इस समय वह करना शुरू कर देंगे, तो आपको इसका सर्वश्रेष्ठ फल मिलेगा। हां, यह समय किताब पढ़ कर सीखी हुई क्रिया करने का नहीं है। आपके भीतर पड़ा वह बीज इस समय विशेष सहयोग मिलने से अकुंरित होने लगेगा या दूसरे समय की अपेक्षा ज्यादा तेजी से फूटेगा। यह समय सिर्फ दीक्षित हुए लोगों के लिए ही अनुकूल है। अगर आप दीक्षित नहीं है तो फिर ३:४५ हो या ६:४५ या फिर ७:४५ कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए संध्या काल ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। यह एक तरह का संधि काल होता है।
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वैशाखमास महात्म्य (तृतीय अध्याय)

वैशाखमास महात्म्य (तृतीय अध्याय) 
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इस अध्याय में:- वैशाख मास में छत्रदान से हेमकान्त का उद्धार का वर्णन किया गया है।

नारदजी कहते हैं👉 एक समय विदेहराज जनक के घर दोपहर के समय श्रुतदेव नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ मुनि पधारे, जो वेदों के ज्ञाता थे उन्हें देख कर राजा बड़े उल्लास के साथ उठ कर खड़े हो गये और मधुपर्क आदि सामग्रियों से उनकी विधि पूर्वक पूजा करके राजा ने उनके चरणोदक को अपने मस्तक पर धारण किया। इस प्रकार स्वागत सत्कार के पश्चात् जब वे आसन पर विराजमान हुए, तब विदेहराज के प्रश्न के अनुसार वैशाख मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए वे इस प्रकार बोले।
         
श्रुतदेव ने कहा 👉 राजन्! जो लोग वैशाख मास में धूप से सन्तप्त होने वाले महात्मा पुरुषों के ऊपर छाता लगाते हैं, उन्हें अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पहले वंगदेश में हेमकान्त नाम से विख्यात एक राजा हो गये हैं। वे कुशकेतु के पुत्र परम बुद्धिमान् और शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ थे। एक दिन वे शिकार खेलने में आसक्त होकर एक गहन वन में जा घुसे वहाँ अनेक प्रकार के मृग और वराह आदि जन्तुओं को मारकर जब वे बहुत थक गये, तब दोपहर के समय मुनियों के आश्रम पर आये। उस समय आश्रम पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शर्तरचि नाम वाले ऋषि समाधि लगाये बैठे थे, जिन्हें बाहर के कार्यो का कुछ भी भान नहीं होता था। उन्हें निश्चल बैठे देख राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उन महात्माओं को मार डालने का निश्चय किया। तब उन ऋषियों के दस हजार शिष्यों ने राजा को मना करते हुए कहा- ओ खोटी बुद्धि वाले नरेश! हमारे गुरु लोग इस समय समाधि में स्थित हैं, बाहर कहाँ क्या हो रहा है-इसको ये नहीं जानते। इसलिये इन पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।'
         
तब राजा ने क्रोध से विह्वल होकर शिष्यों से कहा-द्विजकुमारो! मैं मार्ग से थका-माँदा यहाँ आया हूँ। अत: तुम्हीं लोग मेरा आतिथ्य करो। राजा के ऐसा कहने पर वे शिष्य बोले-'हम लोग भिक्षा माँग कर खाने वाले हैं। गुरुजनों ने हमें किसी के आतिथ्य के लिये आज्ञा नहीं दी है। हम सर्वथा गुरु के अधीन हैं। अत: तुम्हारा आतिथ्य कैसे कर सकते हैं।' शिष्यों का यह कोरा उत्तर पाकर राजा ने उन्हें मारने के लिये धनुष उठाया और इस प्रकार कहा-'मैंने हिंसक जीवों और लुटेरों के भय आदि से जिनकी अनेकों बार रक्षा की है, जो मेरे दिये हुए दानों पर ही पलते हैं, वे आज मुझे ही सिखलाने चले हैं। ये मुझे नहीं जानते, ये सभी कृतघ्न और बड़े अभिमानी हैं इन आततायियों को मार डालने पर भी मुझे कोई दोष नहीं लगेगा।' ऐसा कह कर वे कुपित हो धनुष से बाण छोड़ने लगे बेचारे शिष्य आश्रम छोड़कर भय से भाग चले। भागने पर भी हेमकान्त ने उनका पीछा किया और तीन सौ शिष्यों को मार गिराया। शिष्यों के भाग जाने पर आश्रम में जो कुछ सामग्री थी उसे राजा के पापात्मा सैनिकों ने लूट लिया। राजा के अनुमोदन से ही उन्होंने वहाँ इच्छानुसार भोजन किया। तत्पश्चात् दिन बीतते-बीतते राजा सेना के साथ अपनी पुरी में आ गये राजा कुशकेतु ने जब अपने पुत्र का यह अन्यायपूर्ण कार्य सुना, तब उसे राज्य करने के अयोग्य जानकर उसकी निन्दा करते हुए उसे देश निकाला दे दिया। पिता के त्याग देने पर हेमकान्त घने वन में चला गया। वहाँ उसने बहुत वर्षो तक निवास किया। ब्रह्महत्या उसका सदा पीछा करती रहती थी, इसलिये वह कहीं भी स्थिरता पूर्वक रह नहीं पाता था । इस प्रकार उस दुष्टात्मा के अट्ठाईस वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन वैशाख मास में जब दोपहर का समय हो रहा था, महामुनि त्रित तीर्थ यात्रा के प्रसंग से उस वन में आये। वे धूप से अत्यन्त संतप्त और तृषा से बहुत पीड़ित थे, इसलिये किसी वृक्षहीन प्रदेश में मूर्छित होकर गिर पड़े। दैवयोग से हेमकान्त उधर आ निकला; उसने मुनि को प्यास से पीड़ित, मूर्छित और थका-माँदा देख उन पर बड़ी दया की। उसने पलाश के पत्तों से छत्र बनाकर उनके ऊपर आती हुई धूप का निवारण किया। वह स्वयं मुनिके मस्तक पर छाता लगाये खड़ा हुआ और तूँबी में रखा हुआ जल उनके मुँह में डाला। इस उपचार से मुनि को चेत हो आया और उन्होंने क्षत्रिय को दिये हुए पत्ते के छातेको लेकर अपनी व्याकुलता दूर की। उनकी इन्द्रियों में कुछ शक्ति आयी और वे धीरे-धीरे किसी गाँव में पहुँच गये। उस पुण्य के प्रभाव से हेमकान्त की तीन सौ ब्रह्महत्याएँ नष्ट हो गयीं। इसी समय यमराज के दूत हेमकान्त को लेने के लिये वन में आये। उन्होंने उसके प्राण लेने के लिये संग्रहणी रोग पैदा किया। उस समय प्राण छूटने की पीड़ा से छटपटाते हुए हेमकान्त ने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतों को देखा, जिनके बाल ऊपर की ओर उठे हुए थे। उस समय अपने कर्मों को याद करके वह चुप हो गया। छत्र-दान के प्रभाव से उसको भगवान् विष्णु का स्मरण हुआ। उसके स्मरण करने पर भगवान् महाविष्णु ने विष्वक्सेन से कहा-'तुम शीघ्र जाओ, यमदूतों को रोको, हेमकान्त की रक्षा करो। अब वह निष्पाप एवं मेरा भक्त हो गया है। उसे नगर में ले जाकर उसके पिता को सौंप दो। साथ ही मेरे कहने से कुशकेतु को यह समझाओ कि तुम्हारे पुत्र ने अपराधी होने पर भी वैशाख मास में छत्र-दान करके एक मुनि की रक्षा की है। अत: वह पापरहित हो गया है। इस पुण्य के प्रभाव से वह मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला दीर्घायु, शूरता और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा तुम्हारे समान गुणवान् हो गया है। इसलिये अपने इस महाबली पुत्र को तुम राज्य का भार सँभालने के लिये नियुक्त करो। भगवान् विष्णु ने तुम्हें ऐसी ही आज्ञा दी है। इस प्रकार राजा को आदेश देकर हेमकान्त को उनके अधीन करके यहाँ लौट आओ।'
         
भगवान् विष्णु का यह आदेश पाकर महाबली विष्वक्सेन ने हेमकान्त के पास आकर यमदूतों को रोका और अपने कल्याणमय हाथों से उसके सब अंगों में स्पर्श किया। भगवद्भक्त के स्पर्श से हेमकान्त की सारी व्याधि क्षण भर में दूर हो गयी। तदनन्तर विष्पकसेन उसके साथ राजा की पुरी में गये। उन्हें देखकर महाराज कुशकेतु ने आश्चर्ययुक्त हो भक्तिपूर्वक मस्तक झुका कर पृथ्वी पर साष्टांगकर घ रमें प्रवेश कराया वहाँ नाना प्रकार के स्तोत्रों से इनकी स्तुति तथा वैभवों से उनका पूजन किया। तत्पश्चात् महाबली विष्वक्सेन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा को हेमकान्त के विषय में भगवान् विष्णु ने जो सन्देश दिया था, वह सब कह सुनाया। उसे सुनकर कुशकेतु ने पुत्र को राज्य पर बिठा दिया और स्वयं विष्वक्सेन की आज्ञा लेकर उन्होंने पत्नी सहित वन को प्रस्थान किया।
         
तदनन्तर महामना विष्वक्सेन हेमकान्त से पूछकर और उसकी प्रशंसा करके श्वेतद्वीप में भगवान् विष्णु के समीप चले गये तब से राजा हेमकान्त वैशाख मास में बताये हुए भगवान् की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले शुभ धर्मो का प्रतिवर्ष पालन करने लगे। वे ब्राह्मणभक्त, धर्मनिष्ठ, शान्त, जितेन्द्रिय, सब प्राणियों के प्रति दयालु और सम्पूर्ण यज्ञों की दीक्षा में स्थित रहकर सब प्रकार की सम्पदाओं से सम्पन्न हो गये। उन्होंने पुत्र-पौत्र आदि के साथ समस्त भोगों का उपभोग करके भगवान् विष्णु का लोक प्राप्त किया। वैशाख सुख से साध्य, अतिशय पुण्य प्रदान करने वाला है। पापरूपी इन्धन को अग्नि की भाँति जलाने वाला, परम सुलभ तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष–चारों पुरुषार्थों को देने वाला है।
  
"जय जय श्री हरि"
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वैशाखमास-महात्म्य (द्वितीय अध्याय)

वैशाखमास-महात्म्य (द्वितीय अध्याय)
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इस अध्याय में:👉 वैशाख मास में विविध वस्तुओं के दान का महत्त्व तथा वैशाख स्नान के नियम का वर्णन किया गया है।

नारदजी कहते हैं👉 वैशाख मास में धूप से तपेऔर थके-माँदे ब्राह्मणों को श्रमनाशक सुखद पलंग देकर मनुष्य कभी जन्म-मृत्यु आदि के क्लेशों से कष्ट नहीं पाता। जो वैशाख मास में पहनने के लिये कपड़े और विछावन देता है, वह उसी जन्म में सब भोगों से सम्पन्न हो जाता है और समस्त पापों से रहित हो ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है। जो तिनके की बनी  या अन्य खजूर आदि के पत्तों की बनी हुई चटाई दान करता है, उसकी उस चटाई परसाक्षात् भगवान् विष्णु शयन करते हैं। चटाई देने वाला बैठने और बिछाने आदि में सब ओर से सुखी रहता है। जो सोने के लिये चटाई और कम्बल देता है, वह उतने ही मात्र से मुक्त हो जाता है। निद्रा से दुःख का नाश होता है, निद्रा से थकावट दूर होती है और वह निद्रा चटाई पर सोने वाले को सुखपूर्वक आ जाती है। धूप से कष्ट पाये हरा श्रेष्ठ ब्राह्मण को जो सूक्ष्मतर वस्त्र दान करता है, वह पूर्ण आयु और परलोक में उत्तम गति को पाता है जो पुरुष ब्राह्मण को फूल और रोली देता है, वह लौकिक भोगों का भोग करके मोक्ष को प्राप्त होता है। जो खस, कुश और जल से वासित चन्दन देता है, वह सब भोगों में देवताओं की सहायता पाता है तथा उसके पाप और दु:ख की हानि होकर परमानन्द की प्राप्ति होती है। वैशाख के धर्म को जानने वाला जो पुरुष गोरोचन और कस्तूरी का दान करता है, वह तीनों तापों से मुक्त होकर परम शान्ति को प्राप्त होता है। जो विश्रामशाला बनवाकर प्याऊ सहित ब्राह्मण को दान करता है, वह लोकों का अधिपति होता है। जो सड़क के किनारे बगीचा, पोखरा, कुआँ और मण्डप बनवाता है, वह धर्मात्मा है, उसे पुत्रों की क्या आवश्यकता है। उत्तम शास्त्र का श्रवण, तीर्थयात्रा, सत्संग, जलदान, अन्नदान, पीपल का वृक्ष लगाना तथा पुत्र- इन सात को विज्ञ पुरुष सन्तान मानते हैं। जो वैशाख मास में तापनाशक तक्र दान करता है, वह इस पृथ्वी पर विद्वान् और धनवान् होता है। धूप के समय मट्टठे के समान कोई दान नहीं, इसलिये रास्ते के थके-माँदे ब्राह्मण को मट्टा देना चाहिये। जो वैशाख मास में धूप की शान्ति के लिये दही और खाँड़ दान करता है तथा विष्णुप्रिय वैशाख मास में जो स्वच्छ चावल देता है, वह पूर्ण आयु और सम्पूर्ण यज्ञों का फल पाता है। जो पुरुष ब्राह्मण के लिये गोघृत अर्पण करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर विष्णुलोक में आनन्द का अनुभव करता है। जो दिन के ताप की शान्ति के लिये सायंकाल में ब्राह्मण को ऊख दान करता है, उसको अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जो वैशाख मास में शाम को ब्राह्मण के लिये फल और शर्बत देता है, उससे उसके पितरों को निश्चय ही अमृतपान का अवसर मिलता है। जो वैशाख के महीने में पके हुए आम के फल के साथ शर्बत देता है, उसके सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। जो वैशाख की अमावास्या को पितरों के उद्देश्य से कस्तूरी, कपूर, बेला और खस की सुगन्ध से वासित शर्बत से भरा हुआ घड़ा दान करता है, वह छियानबे घड़ा दान करने का पुण्य पाता है।
         
वैशाख में तेल लगाना, दिन में सोना, कांस्य के पात्र में भोजन करना, खाट पर सोना, घर में नहाना, निषिद्ध पदार्थ खाना, दुबारा भोजन करना तथा रात में खाना-ये आठ बातें त्याग देनी चाहिये।
         
जो वैशाख में व्रत का पालन करने वाला पुरुष पद्म-पत्ते में भोजन करता है, वह सब पापो से मुक्त हो विष्णुलोक में जाता है। जो विष्णुभक्त पुरुष वैशाख मास में नदी-स्नान करता है, वह तीन जन्मों के पाप से निश्चय ही मुक्त हो जाता है। जो प्रात:काल सूर्योदय के समय किसी समुद्रगामिनी नदी में स्नान करता है, वह सात जन्मों के पाप से तत्काल छूट जाता है। जो मनुष्य सात गंगाओं में से किसी में ऊष:काल में स्नान करता है, वह करोड़ों जन्मों में उपार्जित किये हुए पाप से निस्सन्देह मुक्त हो जाता है । जाहनवी (गंगा), वृद्ध गंगा (गोदावरी), कालिन्दी (यमुना), सरस्वती, कावेरी, नर्मदा और वेणी- ये सात गंगाएँ कही गयी हैं। वैशाख मास आने पर जो प्रात:काल बावलियो में स्नान करता है, उसके महापातकों का नाश हो जाता है। कन्द, मूल, फल, शाक, नमक, गुड़, बेर, पत्र, जल और तक्र - जो भी वैशाख में दिया जाय, वह सब अक्षय होता है।
        
ब्रह्मा आदि देवता भी बिना दिये हुए कोई वस्तु नहीं पाते। जो दान से हीन है, वह निर्धन होता है। अतः सुख की इच्छा रखने वाले पुरुष को वैशाख मास में अवश्य दान करना चाहिये। सूर्य देव के मेष राशि में स्थित होने पर भगवान् विष्णु के उद्देश्य से अवश्य प्रात:काल स्नान करके भगवान् विष्णु की पूजा करनी चाहिये। कोई महीरथ नामक एक राजा था, जो कामनाओं में आसक्त और अजितेन्द्रिय था । वह केवल वैशाख-स्नान के सुयोग से स्वतः वैकुण्ठधाम को चला गया। वैशाख मास के देवता भगवान् मधुसूदन हैं। अतएव वह सफल मास है। वैशाख मास में भगवान् की प्रार्थना का मन्त्र इस प्रकार है।

मधुसूदन    देवेश    वैशाखे    मेषगे    रवौ।
प्रात:स्नानं करिष्यामि निर्विघ्नं कुरु माधव॥

अर्थात👉 'हे मधुसूदन! हे देवेश्वर माधव! मैं मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर वैशाख मास में प्रात: स्नान करूँगा, आप इसे निर्विघ्न पूर्ण कीजिये।
         
तत्पश्चात् निम्नांकित मन्त्र से अर्ध्य प्रदान करे.

वैशाखे मेषगे भानौ प्रात:स्नानपरायणः।
अर्ध्य तेऽहं प्रदास्यामि गृहाण मधुसूदन॥

अर्थात👉 'सूर्य के मेष राशि पर स्थित रहते हुए वैशाख-मास में प्रात:स्नान के नियम में संलग्न होकर मैं आपको अर्ध्य देता हूँ। मधुसूदन! इसे ग्रहण कीजिये।'
         
इस प्रकार अर्ध्य समर्पण करके स्नान करे। फिर वस्त्रों को पहनकर सन्ध्या-तर्पण आदि सब कर्मो को पूरा करके वैशाख मास में विकसित होने वाले पुष्पों से भगवान् विष्णु की पूजा करे। उसके बाद वैशाख मास के माहात्म्य को सूचित करने वाली भगवान् विष्णु की कथा सुने ऐसा करने से कोटि जन्मों के पापों से मुक्त होकर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है । यह शरीर अपने अधीन है, जल भी अपने अधीन ही है, साथ ही अपनी जिह्वा भी अपने वश में है। अत: इस स्वाधीन शरीर से स्वाधीन जल में स्नान करके स्वाधीन जिह्वा से 'हरि' इन दो अक्षरोंका उच्चारण करे। जो वैशाख मास में तुलसी दल से भगवान् विष्णु की पूजा करता है, वह विष्णु की सायुज्य मुक्ति को पता है। अत: अनेक प्रकार के भक्ति मार्ग से तथा भाँति भाँति के व्रतों द्वारा भगवान् विष्णु की सेवा तथा उनके सगुण या निर्गुण स्वरूप का अनन्य चित्त से ध्यान करना चाहिये।

"जय जय श्री हरि"
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इस वजह से भगवान गणेश बने थे स्त्री, जानिए पौराणिक कथा

इस वजह से भगवान गणेश बने थे स्त्री, जानिए पौराणिक कथा
  

हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि कभी भी कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान गणेश की पूजा करते हैं. ऐसे में भक्त इन्हें लंबोदर के स्वरूप में जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि भगवान गणेश के स्त्री अवतार की भी पूजा होती है जिसे विनायकी कहा जाता है. आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि आखिर क्यों लिया था गणेश जी ने विनायकी अवतार.

मां पार्वती को बचाने गणेश ने लिया था स्त्री रूप – कहा जाता है धर्मोत्तर पुराण में विनायकी के इस रूप का उल्लेख किया गया है. इसी के साथ वन दुर्गा उपनिषद में भी गणेश जी के स्त्री रूप का उल्लेख है, जिसे गणेश्वरी का नाम दिया गया है. केवल इतना ही नहीं, मत्स्य पुराण में भी गणेश जी के इसी स्त्री रूप का वर्णन प्राप्त होता है. आइए बताते हैं उस कथा के बारे में. पुराणों की कथा के अनुसार एक बार अंधक नामक दैत्य माता पार्वती को अपनी अर्धांगिनी बनाने के लिए इच्छुक हुआ. अपनी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने जबर्दस्ती माता पार्वती को अपनी पत्नी बनाने की कोशिश की, लेकिन मां पार्वती ने मदद के लिए अपने पति शिव जी को बुलाया. अपनी पत्नी को दैत्य से बचाने के लिए भगवान शिव ने अपना त्रिशूल उठाया और राक्षस के आरपार कर दिया. लेकिन वह राक्षस म’रा नहीं, बल्कि जैसे ही उसे त्रिशूल लगा तो उसके र’क्त की एक-एक बूंद एक राक्षसी ‘अंधका’ में बदलती चली गई.

राक्षसी को हमेशा के लिए मारने के लिए उसके खू’न की बूंद को जमीन पर गिरने से रोकना था, जो संभव नहीं था. ऐसे में माता पार्वती को एक बात समझ में आई. वे जानती थीं कि हर एक दैवीय शक्ति के दो तत्व होते हैं. पहला पुरुष तत्व जो उसे मानसिक रूप से सक्षम बनाता है और दूसरा स्त्री तत्व, जो उसे शक्ति प्रदान करता है. इसलिए पार्वती जी ने उन सभी देवियों को आमंत्रित किया जो शक्ति का ही रूप हैं. ऐसा करते हुए वहां हर दैवीय ताकत के स्त्री रूप आ गए, जिन्होंने राक्षस के खून को गिरने से पहले ही अपने भीतर समा लिया.

फलस्वरूप अंधका का उत्पन्न होना कम हो गया. लेकिन, इस सबसे से भी अंधक के रक्त को खत्म करना संभव नहीं हो रहा था. अंत में भगवान गणेश जी अपने स्त्री रूप ‘विनायकी’ में प्रकट हुए और उन्होंने अंधक का सारा रक्त’ पी लिया. इस प्रकार से देवताओं के लिए अंधका का सर्वना’श करना संभव हो सका. गणेश जी के विनायकी रूप को सबसे पहले 16वीं सदी में पहचाना गया.

!! जय श्री राम !!
 मात पिता के चरण में,जग के चारों धाम।
श्रीगणेश हैं कह गये, भजो इन्हीं का नाम।।
!! जय श्री राम  !!

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