एक बकरा कसाई से दोस्ती करना चाहता है। बकरे का खयाल है कि दोस्ती हो जायेगी तो कसाई उसकी गरदन काटना बंद कर देगा। इस कारण उसने कसाई से मीठे शब्दों में संवाद शुरू किया…….
'...मैं शाकाहारी हूं।' कसाई बोला, 'रहो। मेरे को कोई प्रॉब्लम नहीं है।'
बकरा बोला, 'मैं अहिंसावादी हूं।' कसाई बोला, 'रहो। मेरे को कोई प्रॉब्लम नहीं है।'
बकरा बोला, "तो क्या मैं मान लूं कि अब तुम मेरी गरदन नहीं काटोगे?" कसाई बोला, 'तुमको मिसअंडरस्टैंडिंग है। तुम्हारी गरदन मैं नहीं, ये छुरा काटता है।'
'लेकिन, मेरी गरदन काटने से छुरे को क्या फायदा?'……. 'बात फायदे की नहीं है, स्वभाव की है। काटना छुरे का स्वभाव है।'
'लेकिन, छुरा साग भाजी भी तो काट सकता है?' 'काट तो सकता है। पर, छुरा बोलता है - मैं अपना स्वभाव नहीं बदलूंगा।' 'मगर, छुरा तो तुम्हारे हाथ में है। तुम उसको समझाओ ना !!'
'देखो, वो अपनी मरजी का मालिक है। मैं छुरे की आजादी नहीं छीन सकता।' बकरे ने कसाई से दोस्ती करने कि पूरा कोशिश की। पर बीच में छुरे की आजादी आ गई। अब, आजादी तो जन्मसिद्ध अधिकार होता है। और, छुरा के मुआमले में तो वो मृत्युसिद्ध अधिकार भी होता है।
तो कहने का मतलब है कि बकरा कसाई से दोस्ती करना चाहता है….
लेकिन, रास्ते में छुरे की आजादी आ गई। वैसे, बकरे को एक बात पता नहीं है। कसाई आदमी होते हुए भी सिर्फ आदमी नहीं होता। धंधा भी होता है। और, दुनिया में कोई अपना धंधा बंद नहीं करता।
एक बात और, कसाई सिर्फ एक धंधा नहीं है..
एक भावना भी है।
एक परंपरा है।
एक सोच है।
ऐसी सोच जो चाहती है कि दुनिया भर के बकरे उससे डर कर रहें… हमेशा। जब तक बकरा डरता रहेगा, कसाई डराता रहेगा। जो डर गया सो बकरा! अगर, बकरा को बकरा बन कर नहीं रहना है, तो उसको इस डर से बाहर निकलना होगा।
कैसे….???
यह सोचना बकरे का काम है।
बकरा आशावादी है।
वो इंसानियत की बात करता है।
सद्भावना की बात करता है।
अहिंसा की बात करता है।
शराफत की बात करता है।
सहानुभूति की बात करता है।
करुणा की बात करता है।
बकरे को उम्मीद है कि एक दिन कसाई का दिल पसीज जाएंगा। काश कि ऐसा हो सकता….. !.!
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