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बुधवार, 15 अगस्त 2012

कि सूरज भी जब पश्चिम मेँ जाता है तो डुब जाता है ।

प्राचीन काल में विज्ञान, संस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में अपनी पैठ बना चुके भारत को विश्वगुरू की उपाधि से नवाजा जा चुका है. दुनियां भर के लोगों को भारतीय संस्कृति और परंपराओं से बहुत कुछ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ है. लेकिन अब परिस्थितियां पहले जैसी नहीं रहीं. क्योंकि अब भारत के पास दुनियां को सिखाने के लिए कुछ नहीं बचा, बल्कि अब तो आलम यह है कि हम स्वयं ही अपनी मौलिक परंपराओं और मान्यताओं को दरकिनार कर, पाश्चात्य रिवाजों और उनकी जीवनशैली को अपनाते जा रहे हैं. हालांकि किसी अन्य राष्ट्र से सीखना और उन्हें ग्रहण कर लेना कोई बुरी बात नहीं हैं. लेकिन आधुनिकता के पथ पर चलते हुए इन रिवाजों को अपने भीतर समाविष्ट करने की यह प्रक्रिया किस हद तक हो, इसे लेकर अभी तक भारतीय लोगों की समझ विकसित नहीं हो पाई है.


भारत जैसा देश जो एक लंबे समय तक पश्चिमी राष्ट्र का उपनिवेश रहा है, उसके लिए विदेशी लोगों के आचरण और उनके तरीकों को अपनाना कोई नई बात नहीं है. इसकी ग्रहणशील प्रवृत्ति के कई उदाहरण हम पहले भी देख चुके हैं.


लेकिन कपड़े पहनने के ढंग और तौर-तरीकों में पाश्चात्य प्रभाव से शुरू हुआ यह सिलसिला अब भारत की संस्कृति और मौलिकता तक आ पहुंचा है. उल्लेखनीय है कि इन पाश्चात्य रीति-रिवाजों का सबसे ज्यादा प्रभाव देश का भविष्य कही जाने वाली युवा पीढ़ी पर पड़ा है. वह अब पूरी तरह विदेशी संस्कृति से ओत-प्रोत हो चुकी है.


नब्बे के दशक में जब भारत समेत विश्व के अधिकांश देशों ने सर्वआयामी प्रगति और विकास को उद्देश्य मानते हुए, वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसी नई आर्थिक नीतियों को अपनाया, तो भले इस कदम ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत हद तक संभाला हो और लोगों के सामाजिक व आर्थिक स्तर को सुधारा हो, लेकिन इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि इन्हीं नीतियों का परिणाम है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को धूमधाम से मनाने वाले युवा, अब वैलेंटाइन डे, मदर्स डे, फादर्स डे और फ्रेंडशिप डे जैसे दिनों को मनाना आधुनिक समझते हैं. कुछ समय पहले तक जो दिन युवाओं को भारत के गौरवशाली इतिहास के अवगत करा उनमें नए जोश को प्रवाहित करते थे, आज वह मात्र एक छुट्टी का दिन बनकर रह गए हैं. वहीं दूसरी ओर वैलेंटाइन डे जैसे दिन, जिन्हें पश्चिमी रिवाजों के अनुरूप ग्रहण किया गया, उनका इंतजार युवाओं को साल भर रहता है. भारतीय परंपराओं के अनुसार आज भी प्यार को पर्दे के अंदर की चीज माना जाता है और इन बातों के खुले व सरेआम प्रदर्शन को किसी भी हाल में उचित नही माना जाता है. लेकिन वैलेंटाइन डे मनाने वाले प्रेमी जोड़े इस बात को महत्व ना देते हुए हर वो कार्य करते हैं, जिसे परंपराओं पर विश्वास करने वाले लोग कदापि सहन नहीं कर सकते. इतना ही नहीं युवाओं के लिए प्रेम-रूपी भावनाएं भी मात्र इसी दिन तक सीमित रह गई हैं. एक जमाने पहले लोग अपने प्रेमी के लिए कुछ भी कर गुजरने का दम भरते थे, वहीं अब प्रेम संबंध भी शारीरिक इच्छाओं की बलि चढ़ चुके हैं.


आमतौर पर यह माना जाता है कि विदेशी लोगों की जीवनशैली बहुत हद तक आत्म-केन्द्रित होती है. एक निश्चित आयु के बाद या आत्म-निर्भर बन जाने के बाद वह अपने परिवार और माता-पिता से दूर हो जाते हैं. मदर्स डे और फादर्स डे मनाने का रिवाज वहीं से अवतरित हुआ है, ताकि वह कम से कम एक दिन तो अपने माता-पिता के साथ बिता सकें. लेकिन भारतीय परिदृश्य में अभिभावकों की भूमिका उम्र के किसी भी पड़ाव में कम नहीं आंकी जा सकती. लेकिन शायद यह भी गुजरे जमाने की बात है. क्योंकि अब हम तथाकथित रूप से मॉडर्न हो चुके हैं और मॉडर्न जीवन शैली में अभिभावकों को जीवन में ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता. बाजार ने भी हमारी इस आधुनिकता को भरपूर और मनचाहे ढंग से भुनाया है. बच्चे अगर माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य नहीं निभाते या उन्हें समय नहीं देते तो वह मदर्स डे और फादर्स डे के उपलक्ष्य में बाजार में मिलने वाले तरह-तरह के कार्ड और तोहफे देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं. अभिभावकों की अपने बच्चों के लिए जो भावनाएं हैं उन्हें उपहारों के तराजू में तोला जाने लगा है. ऐसे हालातों को देखकर तो यही लगता है कि मानों पश्चिमी रिवाजों के बाद बाजारवाद भी मनुष्य के मस्तिष्क और उसकी भावनाओं पर हावी हो गया है.


भारत आने वाले विदेशी सैलानी सबसे ज्यादा हमारी संस्कृति और परंपराओं से प्रभावित होते हैं. उन्हें भारतीय परिधान बहुत अधिक आकर्षित करते हैं. अकसर हम विदेशी महिलाओं को भारतीय पारंपरिक लिबास में देखते हैं. लेकिन हमारी युवा पीढ़ी को यह परिधान आउट-डेटेड लगते हैं. उन्हें विदेशी लोगों की तरह संवरना और कपड़े पहनना ज्यादा पसंद आता है. फैशन के नाम पर क्या-क्या नहीं किया जाता. बिना सोचे-समझे हर उस क्रिया-कलाप की नकल की जाती है जो विदेशियों की संस्कृति है.


हालांकि किसी भी परिस्थिति को देखने और समझने के दो नजरिए होते हैं, सकारात्मक और नकारात्मक. हो सकता है कि पाश्चात्य देशों से भारत आए यह अत्याधुनिक रिवाज व्यक्ति को अपनी अलग पहचान और अस्तित्व साबित करने का एक मौका देते हों. लेकिन उन तौर-तरीके और रिवाजों को कहां तक जायज ठहराया जा सकता है जो भारतीय समाज की मौलिक विशेषता और उसकी सभ्यता पर गहरा आघात करते हों?
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पश्चिमी सभ्यता की ओर आँखे मूँद कर बढने बाले ए नौजबानो ,
एक बात याद रखो
कि सूरज भी जब पश्चिम मेँ जाता है तो डुब जाता है ।

स्वास्तिक का महत्व............


स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि.स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक हो या सनातनी हो या जैनी ,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवाह आदि संस्कार घर  के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने पर "ऊँ" और  स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग किया जाता है।
हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है,बच्चे का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है  तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर  हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर  बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने  का अर्थ माना जाता है कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष  चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के  अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है  कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे,चारों तरफ़ भटके न ही ,वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दुकी तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है,बीच का स्थान बच्चे के  सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक  अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,के स्थान पर बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१) के संयोग से  बना है,इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें ’इकोयणचि’सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में भी ’अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ ’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है।
जब स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है।
स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है,जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है,अन्ग्रेजी के क्रास में भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है,
हिटलर का यह फ़ौज का निशान था,कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था,लेकिन उसके अंत के समय भूल से बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था,जितना शुभ अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है,उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है,बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है।
काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है,लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर  की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के प्रति भी माना जाता है,डाक्टरों ने भी स्वास्तिक  का प्रयोग आदि काल से किया है,लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है,विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है।
ADMIN:_श्रीकांत चौहान

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