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सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

पेड़ में कील

 
बहुत समय पहले की बात है, एक गाँव में एक लड़का रहता था. वह बहुत ही गुस्सैल था, छोटी-छोटी बात पर अपना आपा खो बैठता और लोगों को भला-बुरा कह देता. उसकी इस आदत से परेशान होकर एक दिन उसके पिता ने उसे कीलों से भरा हुआ एक थैला दिया और कहा कि , ” अब जब भी तुम्हे गुस्सा आये तो तुम इस थैले में से एक कील निकालना और घर के बाहर पेड़ में ठोक देना.”
पहले दिन उस लड़के को चालीस बार गुस्सा आया और इतनी ही कीलें पेड़ में ठोंक दी. पर धीरे-धीरे कीलों की संख्या घटने लगी, उसे लगने लगा कि कीलें ठोंकने में इतनी मेहनत करने से अच्छा है कि अपने क्रोध पर काबू किया जाए और अगले कुछ हफ्तों में उसने अपने गुस्से पर बहुत हद तक काबू करना सीख लिया. फिर एक दिन ऐसा आया कि उस लड़के ने पूरे दिन में एक बार भी अपना आपा नहीं खोया और एक भी कील नहीं ठोंकनी पड़ी .
जब उसने अपने पिता को यह बात बताई तो उन्होंने फिर उसे एक काम दे दिया ! उन्होंने कहा कि ,” अब हर उस दिन, जिस दिन तुम्हे एक बारभी गुस्सा ना आये, इस पेड़ में से एक कील निकाल देना.”
लड़के ने ऐसा ही किया, और बहुत समय बाद वो दिन भी आ गया जब लड़के ने पेड़ में लगी आखिरी कील भी निकाल दी और जाकर अपने पिता को ख़ुशी से ये बात बतायी.
तब पिताजी उसका हाथ पकड़कर उसे उस पेड़ के पास ले गए और बोले, ” बेटे तुमने बहुत अच्छा काम किया है, लेकिन क्या तुम पेड़ में हुए छेदों को देख पा रहे हो. अब वो पेड़ कभी भी वैसा नहीं बन सकता जैसा वो पहले था. ये कीलों के निशान कभी नही मिटेंगे. जब तुम क्रोध में किसी को कुछ कहते हो तो वे शब्द भी इसी तरह सामने वाले व्यक्ति पर सदा के लिए गहरे घाव छोड़ जाते हैं.”
इसलिए अगली बार अपना temper loose करने से पहले सोचिये कि क्या आप भी उस पेड़ में और कीलें ठोकना चाहते हैं!!!

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दो पक्ष - कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष !
तीन ऋण - देव ऋण, पित्र ऋण एवं ऋषि त्रण !
चार युग - सतयुग , त्रेता युग ,द्वापरयुग एवं कलयुग !
चार धाम - द्वारिका , बद्रीनाथ, जगन्नाथपूरी एवं रामेश्वरम धाम !
चारपीठ - शारदा पीठ ( द्वारिका ),ज्योतिष पीठ ( जोशीमठ बद्रिधाम),  गोवर्धन पीठ (जगन्नाथपुरी ) एवं श्रन्गेरिपीठ !
चार वेद- ऋग्वेद , अथर्वेद, यजुर्वेद  एवं सामवेद !
चार आश्रम - ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , बानप्रस्थ एवं संन्यास !
चार अंतःकरण - मन , बुद्धि , चित्त , एवं अहंकार !
पञ्च गव्य - गाय का घी , दूध , दही ,गोमूत्र एवं गोबर , !
पञ्च देव - गणेश , विष्णु , शिव , देवी और सूर्य !
पंच तत्त्व - प्रथ्वी , जल , अग्नि , वायु एवं आकाश !
छह दर्शन - वैशेषिक , न्याय , सांख्य, योग, पूर्व मिसांसा एवं दक्षिण मिसांसा !
सप्त ऋषि - विश्वामित्र ,जमदाग्नि ,भरद्वाज , गौतम ,अत्री , वशिष्ठ और कश्यप !
सप्त पूरी - अयोध्या पूरी ,मथुरा पूरी ,माया पूरी ( हरिद्वार ) , काशी ,कांची (शिन कांची ................................................................

जाने भोलेनाथ का वह रहस्य जिसके बाद कहलाये नीलकंठ*


जाने भोलेनाथ का वह रहस्य जिसके बाद कहलाये नीलकंठ*
हिन्दू धर्म शास्त्रों में भगवान भोलेनाथ के अनेक कल्याणकारी रूप और नाम की महिमा बताई गई है। भगवान शिव ने सिर पर चन्द्रमा को धारण किया तो शशिधर कहलाये| पतित पावनी मां गंगा को आपनी जटाओं में धारण कियातो गंगाधर कहलाये| भूतों के स्वामी होने के कारण भूतवान पुकारे गए| विषपान किया तो नीलकंठकहलाये| क्या आपको पता है भगवान भोलेनाथ नीलकंठ क्यों कहलाये गए अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं
दुर्वासा ऋषि को कौन नहीं जानता होगा| दुर्वासा ऋषि अपने क्रोध केलिए जाने जाते हैं। एक बार की बात है दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए कैलाश पर जा रहे थे, तभी मार्गमें उनकी भेंट देवराज इन्द्र से हो जाती है| इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को प्रणाम किया तो इन्द्र के इस विनम्र व्यवहार से खुश होकर दुर्वासा ऋषि ने उन्हें भगवान विष्णु का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के घमंड में चूर देवराज ने उस पुष्प को अपने ऐरावतहाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा भगवान विष्णु के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया।
इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के दिव्य पुष्प का तिरस्कार होते देख दुर्वासा के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को वैभव से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और धनहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन देख दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपना परचम फहरा दिया।
स्वर्ग पर देवताओं का राज देख इन्द्र देवगुरु बृहस्पृति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में प्रगट गये| इन्द्र की दशा देख ब्रम्हाजी ने कहा कि भगवान विष्णु के भोगरूपी फूल का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गई हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान विष्णु की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।
ब्रम्हा जी के दिशानिर्देश से इन्द्र भगवान विष्णु की शरण में गए, सभी देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले- भगवन! हम सबजिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रुठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित करस्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में है, हमारी रक्षा कीजिए।
भगवान विष्णु ने देवताओं से दानवों से दोस्ती कर उनके साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए कहा। उन्होंने समुद्र की गहराइयों में छिपे अमृत के कलश औरमणि रत्नों के बारे में बताया कि उसे पाने से वे सभी फिर से वैभवशाली हो जाएंगे। भगवान विष्णु के कहे अनुसार इन्द्र सहित सभी देवता दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया।
समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे। अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व और यक्ष आदि उस विष की गरमी से जलने लगे।
देवताओं की प्रार्थना पर, भगवान शिव विषपान के लिए तैयार हो गए। उन्होंने भयंकर विष को हथेलियों में भरा और भगवान विष्णु का स्मरणकर उसे पी गए। उस विष को भगवान भोलेनाथ ने कंठ में ही रोक कर उसका प्रभाव समाप्त कर दिया। विष के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया और वे संसार में नीलंकठ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
कहा जाता है कि जिस समय भोलेनाथ विषपान कर रहे थे, उस समय विष की कुछ बूँदें नीचे गिर गईं। जिन्हें बिच्छू, साँप आदि जीवों और कुछ वनस्पतियों ने ग्रहण कर लिया। इसी विष के कारण वे विषैले हो गए। विष का प्रभाव समाप्त होनेपर सभी देवगण भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। हर हर महादेव

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