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गुरुवार, 1 मई 2014

राजस्थान का प्रसिद्ध शक्तिपीठ जालौर की “सुंधामाता

राजस्थान का प्रसिद्ध शक्तिपीठ जालौर की “सुंधामाता

अरावली की पहाड़ियों में 1220 मीटर की ऊँचाई के सुंधा पहाड़ पर चामुंडा माता जी का एक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है जिसे सुंधामाता के नाम से जाना जाता है। सुंधा पर्वत की रमणीक एवं  सुरम्य घाटी में सागी नदी से लगभग 40-45 फीट ऊंची एक प्राचीन सुरंग से जुड़ी गुफा में  अघटेश्वरी चामुंडा का यह पुनीत धाम युगों- युगों से सुशोभित माना जाता है। यह जिला मुख्यालय जालोर से 105 Km तथा भीनमाल कस्बे से 35 Km दूरी पर दाँतलावास गाँव के निकट स्थित है। यह स्थान  रानीवाड़ा तहसील में मालवाड़ा और जसवंतपुरा के बीच में है। यहाँ गुजरात, राजस्थान  और अन्य राज्यों से प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु पर्यटक माता के दर्शन हेतु आते हैं। 
 

यहाँ का वातावरण अत्यंत ही मोहक और आकर्षक है जिसे वर्ष भर चलते रहने वाले फव्वारे और भी सुंदर बनाते हैं।  माता के मंदिर में संगमरमर स्तंभों पर की गई कारीगरी आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिरों के  स्तंभों की याद दिलाती है। यहाँ एक बड़े प्रस्तर खंड पर बनी माता चामुंडा की सुंदर
प्रतिमा अत्यंत दर्शनीय है।
यहाँ माता के सिर  की पूजा की जाती है। यह कहा जाता है कि चामुंडा जी का धड़ कोटड़ा में तथा चरण  सुंदरला पाल (जालोर) में पूजित है।
सुंधामाता को अघटेश्वरी कहा जाता है

जिसका अभिप्राय है- “वह घट (धड़) रहित देवी,  जिसका केवल सिर ही पूजा जाता है।” पौराणिक मान्यता के अनुसार अपने ससुर  राजा दक्ष से यहाँ यज्ञ के विध्वंस के बाद शिव ने यज्ञ वेदी में जले हुए अपनी पत्नी सती के शव को कंधे पर उठाकर तांडव नृत्य किया तब  भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के टुकड़े टुकड़े कर छिन्न भिन्न कर दिया। उनके  शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहां जहां गिरे, वहाँ शक्ति पीठ स्थापित हो गए। यह माना जाता है कि सुंधा पर्वत पर  सती का सिर गिरा जिससे वे ‘अघटेश्वरी’ के नाम से विख्यात है।
देवी के इस मंदिर परिसर में माता के सामने एक प्राचीन शिवलिंग भी प्रतिष्ठित है, जो ‘भुर्भुवः स्ववेश्वर महादेव’ (भूरेश्वर महादेव) के  नाम से सेव्य है। इस प्रकार सुंधा पर्वत के अंचल में यहाँ शिव और शक्ति दोनों एक साथ प्रतिष्ठित है।
यहाँ प्राप्त सुंधा शिलालेख हरिशेन शिलालेख  या महरौली शिलालेख की तरह ऐतिहासिक महत्व का है। इस शिलालेख के अनुसार जालोर  के चौहान नरेश चाचिगदेव ने इस देवी के मंदिर में विक्रम संवत 1319 में मंडप बनवाया था जिससे स्पष्ट होता है कि इस सुगंधगिरी अथवा सौगन्धिक पर्वत पर चाचिगदेव से पहले ही यहाँ चामुंडा जी विराजमान  थी तथा चामुंडा ‘अघटेश्वरी’ नाम से लोक प्रसिद्ध थी। सुंधा माता के विषय में एक जनश्रुति यह भी है कि बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुंडा अपनी सात शक्तियों (सप्त मातृकाओं) समेत यहाँ पर  अवतरित हुई
जिनकी मूर्तियाँ चामुंडा (सुंधा माता) के पार्श्व मे प्रतिष्ठित है। माता के इस स्थान का विशेष पौराणिक महत्व है,  यहाँ आना अत्यंत पुण्य  फलदायी माना जाता है। 

कई समुदायों/ जातियों द्वारा इस परिसर में भोजन प्रसाद बनाने के लिए हॉल का निर्माण कराया गया है। नवरात्रि के  दौरान यहाँ भारी तादाद में श्रद्धालु माता की अर्चना के लिए आते हैं। पर्वत  चोटी पर स्थित मंदिर पर जाने में आसानी के  लिए वर्तमान में 800 मीटर लंबे मार्ग वाला रोप-वे भी यहाँ संचालित है जिससे लगभग छः मिनट में पर्वत पर पहुँचा जा सकता है।

शिखा रखने की वैज्ञानिकता क्या है?


हम देखते है कि बहुत से लोग सिर पर शिखा(चोटी) रखते है. पर सिर पर शिखा रखने का क्या तात्पर्य है,हम ये समझ नहीं पाते. सिर पर शिखा आर्यों की पहचान मानी जाती है। लेकिन यह केवल कोई पहचान मात्र नहीं है।
(1)सर्वप्रमुख वैज्ञानिक कारण यह है कि शिखा वाला भाग, जिसके नीचे सुषुम्ना नाड़ी होती है, कपाल तन्त्र के अन्य खुली जगहोँ(मुण्डन के समय यह स्थिति उत्पन्न होती है)की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है। जिसके खुली होने के कारण वातावरण से उष्मा व अन्यब्रह्माण्डिय विद्युत-चुम्बकी य तरंगोँ का मस्तिष्क से आदान प्रदान बड़ी ही सरलता से हो जाता है। और इस प्रकार शिखा न होने की स्थिति मेँ स्थानीय वातावरण के साथ साथ मस्तिष्क का ताप भी बदलता रहता है। लेकिन वैज्ञानिकतः मस्तिष्क को सुचारु, सर्वाधिक क्रियाशिल और यथोचित उपयोग के लिए इसके ताप को नियंन्त्रित रहना अनिवार्य होता है।
जो शिखा न होने की स्थिति मेँ एकदम असम्भव है।
क्योँकि शिखा(लगभग गोखुर के बराबर) इसताप को आसानी से सन्तुलित कर जाती है और उष्मा की कुचालकता की स्थिति उत्पन्न करके वायुमण्डल से उष्मा के स्वतः आदान प्रदान को रोक देती है।
आज से कई हजार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज इन सब वैज्ञानिक कारणोँ से भलिभाँति परिचित है।
ऐसे ही कई उदाहरण हैँ जिनके आगे पाश्चात्य वैज्ञानिक भी घुटने टेक चुके हैँ।
2. - जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन कोनियंत्रित करने का स्थान भी है। शिखाएक धार्मिक प्रतीक तो है ही साथ ही मस्तिष्क के संतुलन का भी बहुत बड़ा कारक है। आधुनिक युवा इसे रुढ़ीवाद मानते हैं लेकिन असल में यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। दरअसल, शिखा के कई रूप हैं।
3. - आधुनकि दौर में अब लोग सिर पर प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी चोटी रख लेते हैं लेकिन इसका वास्तविक रूप यहनहीं है। वास्तव में शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे सिर में बीचोंबीच सहस्राह चक्र होता है। शरीर में पांच चक्र होते हैं,मूलाधार चक्र जो रीढ़ के नीचले हिस्सेमें होता है और आखिरी है सहस्राह चक्रजो सिर पर होता है। इसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है। शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रणकरने में सहायता मिलती है। शिखा का हल्का दबावहोने से रक्त प्रवाह भी तेजरहता है और मस्तिष्क को इसका लाभ मिलता है।

4.- ऐसा भी है कि मृत्यु के समय आत्मा शरीर के द्वारों से बाहर निकलती है (मानव शरीर में नौ द्वार बताये गए है दो आँखे, दो कान, दो नासिका छिद्र, दो नीचे के द्वार, एक मुह )और दसवा द्वार यही शिखा या सहस्राह चक्र जो सिर में होता है , कहते है यदि प्राण इस चक्र से निकलते है तो साधक की मुक्ति निश्चत है.और सिर पर शिखा होने के कारणप्राण बड़ी आसानी से निकल जाते है. और मृत्यु हो जाने के बाद भी शरीर में कुछ अवयव ऐसेहोते है जो आसानी से नहींनिकलते, इसलिए जब व्यक्ति को मरने पर जलाया जाता है तो सिर अपनेआप फटता है और वह अवयव बाहर निकलता है यदि सिर पर शिखा होती है तो उस अवयव को निकलने की जगह मिल जाती है.
सिर पर चोंटी रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि , इस कार्य को आर्यों की पहचान तक मानालिया गया। योग और अध्यात्म को सुप्रीम सांइस मानकर जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में रिसर्च किया गया तो, चोंटी के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रौचक वैज्ञानिक तथ्य सामने आए।
शिखा रखने से मनुष्य लौकिक तथा पारलौकिक समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त करता है. शिखा रखने से मनुष्य प्राणायाम, अष्टांगयोग आदि यौगिक क्रियाओं को ठीक-ठीक कर सकता है। शिखारखने से सभी देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं। शिखा रखने से मनुष्य की नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है। शिखा रखने से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायुहोता है।
आज से कई हजार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज इन सब वैज्ञानिक कारणोँ से भलिभाँति परिचित थे।
ऐसे ही कई उदाहरण हैँ जिनके आगे पाश्चात्य वैज्ञानिक भी घुटने टेक चुके हैँ।
तो यह है हमारी भारतीय वैदिक संस्कृति और इसकी वैज्ञानिकता…. .

शादी नहीं हो रही तो अक्षय तृतीया पर करें यह उपाय

शादी नहीं हो रही तो अक्षय तृतीया पर करें यह उपाय
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अधिकांश माता-पिता और युवाओं की एक महत्वपूर्ण समस्या है सही समय पर विवाह। आधुनिकता की दौड़ में युवा अपने कैरियर को लेकर इतने व्यस्त रहते हैं कि उनकी शादी की सही आयु कब निकल जाती है उन्हें पता भी नहीं चलता। ऐसे में कई लोगों के लिए विवाह होना और मुश्किल हो जाता है।
में यहां एक अचूक प्रयोग बता रही हूँ , जिससे अविवाहित युवाओं की विवाह संबंधी समस्या का त्वरित निराकरण हो जाएगा।
यह प्रयोग लड़के और लड़कियों दोनों द्वारा किया जा सकता है।
प्रयोग की विधि
- इस प्रयोग को अक्षय तृतीया के शुभ मुहूर्त में किया जाना चाहिए।
- यह प्रयोग रात के समय किया जाना चाहिए।
- इसके लिए आप एक बाजोट पर पीला कपड़ा बिछाएं और पूर्व दिशा की ओर मुख करके उस बैठ जाएं।
- मां पार्वती का चित्र अपने सामने रखें।
- अपने सामने बाजोट पर एक मुट्ठी गेहूं की ढेरी रखें।
- गेहूं पर एक विवाह बाधा निवारण विग्रह स्थापित करें और चंदन या केसर से तिलक करें।
उक्त पूरी प्रक्रिया ठीक से होने के बाद हल्दी माला से निम्न मंत्र का जप करें:
लड़कों के लिए मंत्र-
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोदभवाम्।।
लड़कियों के लिए मंत्र-
ऊँ गं घ्रौ गं शीघ्र विवाह सिद्धये गौर्यै फट्।
उक्त मंत्र को चार दिनों तक नित्य 3-3 माला का जप करें। अंतिम दिन इस सामग्री को देवी पार्वती के चरणों में किसी भी मंदिर में छोड़ आएं। शीघ्र ही आपका विवाह हो जाएगा।
यह प्रयोग पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ करें। यह सिद्ध प्रयोग है अत: मन में कोई संदेह ना लाएं। अन्यथा उपाय का प्रभाव समाप्त हो जाएगा।

अक्षय तृतीया

विज्ञानसम्मत दृश्यगणित के अनुसार, शुक्रवार, 2 मई को वैशाख-शुक्ल-तृतीया (अक्षय तृतीया) सूर्योदय से मध्याथ्काल में 12.04 बजे तक विद्यमान रहने से स्नान-दान का पर्वकाल इसी समय में रहेगा। वस्तुत: दान देने से तन-मन-धन, तीनों शुद्ध हो जाते हैं।वैशाख मास को भगवान विष्णु के नाम पर 'माधव मास' कहा जाता है। इस मास के शुक्लपक्ष की तृतीया को सनातन ग्रंथों में अक्षय-फलदायी बताया गया है। इसी कारण इस तिथि का नाम 'अक्षय तृतीया' पड़ गया। भविष्य पुराण में कहा गया है- 'यत् किंचिद् दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु। तत् सर्वमक्षयं यस्मात् तेनेयमक्षया स्मृता।।' अर्थात इस तिथि में थोड़ा या बहुत, जितना और जो कुछ भी दान दिया जाता है, उसका फल अक्षय हो जाता है। अक्षय तृतीया पर मूल्यवान वस्तुएं खरीदने का प्रचलन बन गया है, लेकिन सनातन धर्म के ग्रंथों में इसे संग्रह का नहीं, बल्कि जरूरतमंदों को दान करने का पर्व बताया गया है।

भारतीय काल-गणना के अनुसार, वैशाख-शुक्ल-तृतीया से ही त्रेतायुग का शुभारंभ हुआ था। त्रेतायुग की प्रारंभिक तिथि होने के कारण इसे 'युगादि तिथि' भी कहते हैं। पृथ्वीचंद्रोदय नामक ग्रंथ में सौर पुराण का यह कथन दिया गया है- 'युगादौ तु नर: स्नात्वा विधिवल्लवणोदधौ। गोसहस्र प्रदानस्य फलं प्राप्नोति मानव:।।' अर्थात युगादि तिथि के दिन किसी तीर्थ, पवित्र नदी अथवा सरोवर में स्नान कर दान करने से एक सहश्च गायों के दान (गोदान) का पुण्यफल मिलता है। ऋषि-मुनियों का निर्देश है कि अक्षय तृतीया के दिन हर व्यक्ति को अपनी साम‌र्थ्य के अनुसार दान अवश्य करना चाहिए। भविष्योत्तर पुराण में जौ-चने का सत्तू, दही-चावल, गन्ने का रस, दूध से बनी मिठाई, शक्कर, जल से भरे घड़े, अन्न तथा ग्रीष्म ऋतु में उपयोगी वस्तुओं के दान की बात कही गई है। सामान्यत: सत्तू, पानी से भरी सुराही अथवा घड़े के साथ ताड़ के पंखे का दान किए जाने का प्रचलन है। यह समाज सेवा है, जो सबसे बड़ा धार्मिक कार्य है। इस दिन समाजसेवी संस्थाएं प्यासे पथिकों के लिए पौशाला (प्याऊ) लगवाती हैं। कुछ लोग शीतल जल का शर्बत पिलाते हैं। सही मायनों में तन-मन-धन से गरीबों की सेवा ही नारायण की अर्चना है। बृहत्पाराशर संहिता में कहा गया है- 'दानमेकं कलौ युगे' अर्थात कलियुग में दान अकेले ही सारा पुण्य दे देता है। भगवान कृष्ण का गीता में उपदेश है-'यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्' अर्थात यज्ञ, दान और तप मनीषियों को पावन करने वाले हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार, -'शुध्यंति दानै: संतुष्ट्या द्रव्याणि' अर्थात धन दान और संतोष से शुद्ध होता है। इससे अभिप्राय यह है कि धन होने पर दान जरूर करें, इससे मन को संतोष मिलता है और चित्त शुद्ध हो जाता है।
अक्षय तृतीया संग्रह करने की बजाय दान देने की प्रेरणा देती है, परंतु आजकल इस तिथि का व्यावसायीकरण हो गया है। इस संदर्भ में यह कहा जाने लगा है कि अक्षय तृतीया को सोना या सोने के आभूषण खरीदने से समृद्धि बढ़ती है। यह तिथि अपने नाम के अनुरूप अक्षय फल देने में समर्थ है, पर संग्रह करना इस पावन तिथि का मूल उद्देश्य नहीं है। इस तिथि की प्रशस्ति दान से जुड़ी है, संग्रह करने से नहीं। निर्णयसिंधु में भविष्योत्तर पुराण के संदर्भ से स्वर्ण-दान की बात कही गई है, स्वर्ण के क्रय की नहीं। इसलिए इस तिथि को दान का महापर्व कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी। दान देने से मन में परोपकार की भावना का उदय होता है तथा आसक्ति और लोभ का दमन होता है।
अक्षय तृतीया का मुहूर्तविज्ञानसम्मत दृश्यगणित के अनुसार, शुक्रवार, 2 मई को वैशाख-शुक्ल-तृतीया (अक्षय तृतीया) सूर्योदय से मध्याथ्काल में 12.04 बजे तक विद्यमान रहने से स्नान-दान का पर्वकाल इसी समय में रहेगा। वस्तुत: दान देने से तन-मन-धन, तीनों शुद्ध हो जाते हैं।

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