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बुधवार, 16 नवंबर 2022

 एक छोटे से देश में इतनी लिपियां और उनको लिखने की परंपरा -२६०० वर्ष पहले तक १८ प्रकार की लिपियाँ थीं

२६०० वर्ष पहले तक १८ प्रकार की लिपियाँ थीं, जिन्हें ब्राह्मी कहा जाता था।
भारत की ब्राह्मी लिपि में ४६ मातृ अक्षर थे।
(व्याख्याप्रज्ञप्ति,समवाय-सूत्र, प्रज्ञापना-सूत्र,)
Chess Board के खानों की सँख्या के बराबर ६४ अक्षर वेद में होते हैं। ६४-४६=१८ अक्षर ऐसे हैं जिनका जनसामान्य उपयोग नहीं करता था।

भूर्जपत्र - ओढ़ने बिछाने से लेकर लिखने तक के काम आने वाली जलरोधी वस्तु।
चर्चित बख्शाली मेनसक्रिप्ट भोजपत्र पर ही लिखी हुई है। चीन में ६००ई.पू. के खरोष्ठी गान्धारी लिपि में लिखित सैकड़ों पत्र रखे हुये हैं। समय के साथ "लिखित" की प्रतिलिपि तैयार करनी ही पड़ती है और लिपि परिवर्तित होती चली जाती है।
भारत में इन पत्रों पर लेखन स्थायी स्याही से किया जाता रहा जिसे बनाने की भी विशेष विधि होती है। पानी से धुलती नहीं।

प्रस्तुत चित्र शारदा लिपि में लिखे एक भोजपत्र का स्कैन है। किसी प्राचीन लेख में कोई सामग्री जोड़े जाने हेतु प्रथम आवश्यकता उस पत्र में अतिरिक्त लेखन हेतु 'अवकाश' की है, द्वितीय आवश्यकता इस बात की होती है कि आप उस भाषा व लिपि के पूर्ण जानकार हों और पुराने हस्तलेख की नकल 'नटवरलाल' के जैसे कर सकें। यदि नकल करने की आपमें जन्मजात प्रतिभा हो तो भी किसी अप्रचलित प्राचीन लिपि के लेखन कर पाने के लिये बहुत कुछ सीखना व अभ्यास करना पड़ेगा।
तब भी स्मरण रखिये "नकल हमेशा होती है पर बराबरी कभी नहीं" ऐसे ही नहीं कहा जाता है।
जब कभी पत्रों का निरीक्षण विशेषज्ञों द्वारा किया जायेगा आपकी फोर्जरी पकड़ में आ जायेगी। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि किसी 'कृति' की अनेक अनुकृतियाँ कई स्थानों पर होती हैं , यदि किसी एक स्थान की प्रति में कोई गड़बड़ी हो भी या की जाये तो शेष प्रतियाँ अपरिवर्तित ही रहेंगी।
अँगरेजों के पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों का पालन आज भी पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति से हो रहा है।
लगध के याजुष् ज्योतिष की एक प्रति को छोड़ किसी में भी गणित शब्द नहीं है, षड् वेदाङ्गों में भी 'गणित' नहीं है फिर भी बड़ी ही ढिठाई से वह श्लोक लगातार "कोट" होता है।
कल्प तथा ज्योतिष वेदाङ्गों में गणित अनुप्रयुक्त होता ही है।
Mathematics is the queen of Science
पुराने मठों में भोजपत्रों पर लिखित ग्रन्थों का संग्रह आज भी है।
ब्रिटेन ने एसिआ में प्राप्त प्राचीन हस्तलिखित सामग्री जितनी उनको प्राप्त हो सकी उसको अपने अधिकार में कर अपने देश ढोकर ले गये। अब वे भी इनके संरक्षण के उपाय खोज रहे हैं और प्रतिलिपियाँ तैयार करवाने में जुटे हैं
"द हिन्दू" में प्रकाशित वर्ष 2011ई. की वार्ता पढ़ी जा सकती है

ललितविस्तर में कथित ६४ लिपियाँ
शुद्धोदनपुत्र को जब पढ़ने भेजा गया तब यह प्रश्न किया गया कि कौन सी लिपि पढ़ाई जाये? लिखने के लिये लिपिफलक अर्थात् वही पाटी ही थी।
अथ बोधिसत्त्व उरगसारचन्दनमयं लिपिफलकमादाय दिव्यार्षसुवर्णतिरकं समन्तान्मणिरत्नप्रत्युप्तं विश्वामित्रमाचार्यमेवमाह-कतमां मे भो उपाध्याय लिपिं शिक्षापयसि। ब्राह्मीखरोष्टीपुष्करसारिं अङ्गलिपिं वङ्गलिपिं मगधलिपिं मङ्गल्यलिपिं अङ्गुलीयलिपिं शकारिलिपिं ब्रह्मवलिलिपिं पारुष्यलिपिं द्राविडलिपिं किरातलिपिं दाक्षिण्यलिपिं उग्रलिपिं संख्यालिपिं अनुलोमलिपिं अवमूर्धलिपिं दरदलिपिं खाष्यलिपिं चीनलिपिं लूनलिपिं हूणलिपिं मध्याक्षरविस्तरलिपिं पुष्पलिपिं देवलिपिं नागलिपिं यक्षलिपिं गन्धर्वलिपिं किन्नरलिपिं महोरगलिपिं असुरलिपिं गरुडलिपिं मृगचक्रलिपिं वायसरुतलिपिं भौमदेवलिपिं अन्तरीक्षदेवलिपिं उत्तरकुरुद्वीपलिपिं अपरगोडानीलिपिं पूर्वविदेहलिपिं उत्क्षेपलिपिं निक्षेपलिपिं विक्षेपलिपिं प्रक्षेपलिपिं सागरलिपिं वज्रलिपिं लेखप्रतिलेखलिपिं अनुद्रुतलिपिं शास्त्रावर्तां गणनावर्तलिपिं उत्क्षेपावर्तलिपिं निक्षेपावर्तलिपिं पादलिखितलिपिं द्विरुत्तरपदसंधिलिपिं यावद्दशोत्तरपदसंधिलिपिं मध्याहारिणीलिपिं सर्वरुतसंग्रहणीलिपिं विद्यानुलोमाविमिश्रितलिपिं ऋषितपस्तप्तां रोचमानां धरणीप्रेक्षिणीलिपिं गगनप्रेक्षिणीलिपिं सर्वौषधिनिष्यन्दां सर्वसारसंग्रहणीं सर्वभूतरुतग्रहणीम्। आसां भो उपाध्याय चतुष्षष्टीलिपीनां कतमां त्वं शिष्यापयिष्यसि?
और इसके बाद अक्षर ज्ञान कराया गया जिसमें
अ से क्ष तक का कथन है। (ऋकार लृकार नहीं बताये गये).
अ से क्ष तक अक्षर । 'र' विस्तार को सूचित करता है।
'आखर' शब्द खन् धातु से बनता है। आखर खोदे जाते थे। शिलाओं पर , धातु पर ।
'आखर' शब्द प्राचीन है। वेद में है।

भगवान् विष्णु के लेखाकार चित्रसेन या चित्रगुप्त सम्भवतः गन्धर्व थे , गान्धार प्रदेश की चित्राल घाटी का नाम यही सङ्केत करता है। पहले पहल लिपि चित्रात्मक ही बनी इसलिए तूलिका और चित्र शब्द लेखन के सम्बन्ध में प्रयुक्त होते थे। ऋग्वेद के कुछेक मन्त्रों में भी चित्रलिपि के होने के विषय में स्पष्ट घोष है।
लिपि, अक्षर, लिखित शब्द तब तक निष्प्राण ही होते हैं जब तक प्राणयुक्त न हों अर्थात् उच्चरित न हों । श्वास रहित निर्जीव ही होता है।
आज लेखनी की भी पूजा होती है, उन पूर्वजों को नमस्कार जिन्होंने करोड़ों सार्थक वाक्य लिखे, जिन्हें एक जन्म में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता ।
कहते हैं गणेश जी ने अपने एक दाँत को ही लेखनी बना लिया था , इषीक , नरकुल , पक्षियों के पंख, नख, छेनी न जाने किन किन वस्तुओं से लेखन कार्य किया जाता रहा।
फाउण्टेन पेन, छापाखाना, और बॉल-प्वाइण्ट पेन के आविष्कर्ता भी समादरणीय हैं।
जकरबर्गवा किताब पर लिखवाता है, सरवा नाम धरे है फेसबुक। कॉपीबुक जिस पर लिखा जाता है उसे भी अँगरेज 'बुक' ही कहता है और 'कॉपी' का अर्थ नकल करना ही होता है, मतलब अँगरेजों ने लिखना पढ़ना दूसरों से ही लिया है।
फोटो में कुछ देश-विदेश के रङ्गबिरङ्गे कलम्ब हैं सबसे महीन लिखाई मित्सुबिशी से ही बनती थी, अब अपने ही लिखे महीन अक्षरों को पढ़ने के लिये लेन्स उठाना पड़ता है, इसलिए सदैव बड़ा बड़ा ही लिखना चाहिए।

जैनों के 'पन्नवणा सूत्र' और 'समवायांग सूत्र' में १८ लिपियों के नाम दिए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है। उन्हीं के भगवतीसूत्र का आरंभ 'नमो बंभीए लिबिए' (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है।
ललित-विस्तर का ६४,  अक्षर संख्या है.

भास का लिखा नाटक 'अविमारकम्'
पहले अङ्क में नेपथ्य से आवाज आती है
दश नाळिकाः पूर्णाः।
दस बज गये हैं ।
तभी से ऑफिस टाइम 10 बजे से है।
दूसरे अङ्क में चेटी और विदूषक बतिया रहे हैं
चेटी कहती है कि भोजन कराने के लिये किसी ब्राह्मण को खोजना है।
विदूषक -क्या मैं श्रमण हूँ
चेटी- तुम अवैदिक हो
विदूषक- अरे ! मैं सालभर रोज रामायण के पाँच श्लोक पढ़ता हूँ और उनके अर्थ भी जानता हूँ
चेटी- अच्छा! तो बताओ मेरी अंगूठी पर क्या लिखा है
विदूषक- यह अक्षर मेरी पुस्तक में नहीं है।
इस वार्तालाप से यह निष्कर्ष निकलता है कि भास के समय में रामायण विद्यमान थी और रामायण पढ़ने वाला पढ़ा लिखा माना जाता था ।
जैसा कि कुछ समय पहले तक लडकियों से रामचरितमानस पढ़वाकर देखी जाती थी।
चेटी की मुद्रिका पर कोई अन्य लिपि के अक्षर थे या विदूषक अनपढ़ था ।
प्रगतिशील निष्कर्ष>> रामायण एक नाटक था जिसमें केवल पाँच श्लोक थे । आज की रामायण प्रक्षिप्त है या जाली है।
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धात्री और अविमारक के मध्य हुये वार्तालाप से ज्ञात होता है कि तब तक 'योग शास्त्र' भी स्थित हो चुका था।

डी.एन.ए. भारत के बाहर का है तो मन भी उसी ओर रहेगा . समुद्र तट पर रेत में दबे अण्डों से बाहर आते ही कछुये के बच्चे समुद्र की ओर दौड़ पड़ते हैं, उनको यह बात सिखाने वाला वहाँ कोई उपस्थित नहीं होता है। उनका घर समुद्र में है ऐसी स्मृति उनके Genes में ही संगृहीत होती है।
नहि ग्रभायारणः सुशेवोऽन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ।
इस मन्त्र में भी यह बतलाया है कि अन्य के उदर से उत्पन्न जातक का मन उसी ओर सहज आकृष्ट होगा जिनका कि वह वंशज है। इसलिए अन्य की सन्तान गोद नहीं ले।
भारत ने पता नहीं कहाँ कहाँ से आये समूहों को गोद ले रखा है। वे भारत की प्रत्येक बात को बाहर से जोड़ने का सतत प्रयत्न करते रहते हैं।
मानाकि पहले भी विश्व की संस्कृतियों का मेल मिलाप होता था , ज्ञान का आदान प्रदान भी होता रहता था, इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि भारत केवल ग्राही था और शेष विश्व दाता ।
विश्व की प्राचीनतम विकसित सभ्यता सारस्वत-सैन्धव सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं हम । हम लिखना पढ़ना तब से जान रहे हैं जब शेष विश्व सभ्य नहीं हो पाया था। अब तक प्राप्त सभी प्राचीन लिपियों का पठन इसलिये सम्भव हुआ कि वे लिपियाँ वास्तव में उतनी प्राचीन नहीं हैं जितनी कि सैन्धव लिपि , यही प्राचीनता ही वह कारण है जो अब तक  यह सैन्धव लिपि अपठित ही है चाहे दावे कितने ही किये जाते रहे हों।
यदि मेगस्थनीज ने यह लिखा (पता नहीं कहाँ लिखा क्योंकि जो इंडिका बताई जाती है वह कहीं है ही नहीं) कि भारतीय लिखना और पढ़ना नहीं जानते हैं; तो हम भी यह कहते हैं कि मेगस्थनीज या अलेक्जेण्डर कभी सिन्धु के पूर्व में आया ही नहीं था। बिना लिखे पढ़े ही ज्यामिति और ज्योतिष की गणनायें कैसे हो रहीं थीं ? हर बात शिलालेख में नहीं खुदी होती है। योरोपिअन तो अंक ज्ञान को अरब का कहते हैं जबकि अरब में पहली किताब मोहम्मद के समय बनी, जिसे देखकर सब सम्मोहित हो गये। भारत में बसे हुये तुर्क , यवन, हूण, शक, मंगोल, कुषाण, बाहीक, खश, पारद, दरद, पह्लव इत्यादि   भारतीय अस्मिता व गौरव को नष्ट एवं धूमिल करने का निरन्तर प्रयत्न कर रहे हैं।

✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

हिन्‍दी - नन्दिनागरी

हिन्‍दी दिवस पर इसकी लिपि की याद भी आती है। मोबाइल, नेट के दौर में आज हिंदी को भी विदेशी लिपि में लिखने की अनावश्‍यक परम्‍परा चल पड़ी है। तब याद आते है, इसको नन्दिनागरी लिपि में लिखने के निर्देश।
संस्‍कृत हो या अपभ्रंश या पैशाची जैसी पूर्व भाषाएं। हमारे पुराणाें और उपपुराणों में हमारी भाषाओं को प्रारम्‍भ में जहां ब्रह्माक्षर ( या ब्राह्मी। सन्‍दर्भ - शिवधर्मपुराण) में लिखने का निर्देश हैं, वहीं बाद में नन्दिनागरी लिपि में लिखने का निर्देश मिलता है। यह देवनागरी लिपि का पूर्व और प्रारम्भिक रूप है। उत्‍तर गुप्‍तकालीन देवीपुराण, शिवधर्मोत्‍तर पुराण और अग्निपुराण में नन्दिनागरी लिपि का सन्‍दर्भ मिलता है।
देवीपुराण में कहा गया है कि नन्दिनागरी लिपि बहुत सुन्‍दर है और इसका व्‍यवहार समस्‍त वर्णों को ध्‍यान में रखकर किया जाना चाहिए। इसमें किसी भी वर्ण और उसके अंश को भी तोड़ना नहीं चाहिए। अक्षरों को हल्‍का भी नहीं लिखना चाहिए न ही कठोर लिखना चाहिए। हेमाद्रि (1260 ई.) ने भी इन श्‍लोकों को चतुर्वर्ग्‍ग चिन्‍तामणि में उद्धृत किया है-
नाभि सन्‍तति विच्छिन्‍नं न च श्‍लक्ष्‍णैर्न कर्कशै:।।
नन्दिनागरकैव्‍वर्णै लेखयेच्छिव पुस्‍तकम्।।
प्रारभ्‍य पंच वै श्‍लोकान् पुन: शान्तिन्‍तु कारयेत्। (देवीपुराण 91, 53-54 एवं शिवधर्मोत्‍तर)
पुस्‍तकों के लिखने के सन्‍दर्भ में यही मत अग्निपुराणकार ने भी प्रस्‍तुत किया है। नन्दिपुराण में कहा गया है कि स्‍याही का उचित प्रयोग करना चाहिए और वर्णों के बाहरी-भीतरी स्‍वरूपों को सही-सही प्रयोग करना चाहिए। उनको सुबद्ध करना चाहिए, रम्‍य लिखना चाहिए, विस्‍तीर्ण और संकीर्णता पर पूरा ध्‍यान देना चाहिए। (दानखण्‍ड अध्‍याय 7, पृष्‍ठ 549)
है न लिपि के व्‍यवहार का सुन्‍दर निर्देश...।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

एक मित्र ने प्रश्न पूछा कि,
'बचपन में 'ञ' पढ़ाया गया था, आज तक समझ नहीं आया कि उसका प्रयोग कहाँ करना है?'
यह प्रश्न आना स्वाभाविक है, इसका उत्तर देने का प्रयास कर रही हूँ।
पर उन लोगों को समझाने के लिए नहीं है जिन्हें knowledge सरल और 'ज्ञान' कठिन शब्द लगता है।
 जब उन्हें पता चलेगा कि ज् +ञ = ज्ञ होता है तो उनके लिए हिन्दी भाषा और क्लिष्ट दिखायी पड़ सकती है।

चलिए 'क' 'च' 'ट' वर्ग
के अंत में आने वाले पञ्माक्षरों को जानते हैं।
हिंदी भाषा में “ञ” “ङ” "ण" "न" "म" को पञ्चमाक्षर के रूप में जाना जाता है।
पञ्चमाक्षर का प्रयोग संस्कृत में बहुतायत में पाया जाता है।
संस्कृत या कहें कि देवनागरी लिपि इन अक्षरों के बिना अधूरी है।
परंतु लिखने में तथा छपाई में होने वाली क्लिष्टता से बचने के लिए शनैः शनैः इन पञ्चमाक्षर का प्रयोग हम छोड़ते चले गए।
जैसे कि चंद्रबिंदु का प्रयोग भी कई लोग कम करना शुरू कर दिए हैं।
जैसे अब “गाँव” को आप अक्सर “गांव” लिखा हुआ ही पाते होंगे।
अब रही बात “ञ” के प्रयोग की या “ङ” के प्रयोग की तो जिन शब्दों के उच्चारण में “अ” की ध्वनि आधी और साथ ही साथ अनुनासिक ध्वनि का प्रयोग करना हो वहां उस वर्ग के के पञ्चमाक्षर का प्रयोग करते हैं।
जैसे चवर्ग का अंतिम अक्षर का उपयोग कर लिखा जाने वाला “चञ्चल” को अब “चंचल” लिखा जाने लगा है। कवर्ग का अंतिम अक्षर का प्रयोग कर लिखे जाने वाले “गङ्गा” को अब “गंगा” लिखा जाने लगा।
अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि भाषा की शुद्धता तथा उच्चारण की अस्पष्टता के लिए ञ” “ङ” जैसे शब्द जरूरी है
पर क्लिष्टता के नाम पर भाषा में अशुद्धियों की मिलावट कर ली गयी है।
'ञ' चवर्ग का अन्तिम व्यंजन अक्षर है । ञ का उच्चारण स्थान तालू और नासिका है ।

'ञ' से हिंदी शब्दों का आरम्भ या अंत नहीं होता। परंतु यह महत्त्वपूर्ण ध्वनि है और अनेक भाषाओं में इसका प्रचुर प्रयोग होता है और हिंदी शब्दों में, बीच में, 'ञ' प्रयुक्त होता है।

चवर्ग के व्यंजनों से पूर्व आकर 'ञ' उनसे संयुक्त अक्षर बनाता है। जैसे- चञ्चल, वाच्छा, रञ्जन, सञ्झा इत्यादि।

ज्‌ और ञ का संयुक्त रूप 'ज्‌ञ' 'ज्ञ' (अज्ञ, ज्ञान, विज्ञापन) लिखा जाता है। 'ज्ञ' (अर्थात् ज्ज्ञ) का अशुद्ध उच्चारण हिंदी भाषी प्राय: 'ग्य' करते हैं। उदारणार्थ, 'ज्ञान' का शुद्ध उच्चारण 'ज्‌ञान' होना चाहिए परंतु शताब्दियों से इसे 'ग्यान' बोला जाता रहा है। 'ञ' के स्थान पर प्राय: अनुस्वार जैसी बिंदी का प्रयोग सुविधा के लिए प्रचलित है (जैसे- चंचल, वांछा, रंजन, संझा इत्यादि में) परन्तु इसे अनुस्वार समझने का भ्रम हो सकता है। इसी क्रम में जितने भी च वर्ग के संयुक्ताक्षर हैं, जैसे कि पाञ्चजन्य, रञ्जक, सञ्चालन, सञ्जय, धनञ्जय आदि उनमें नियमतः ञ ही प्रयुक्त होना चाहिए।
✍🏻डॉ अभिलाषा

जिज्ञासा...

म्लेच्छभाषा किसे कहते हैं?

समाधानम्...

संस्कार रहित (असंस्कृत) कुत्सित तथा अपशब्दों से युक्त भाषा को म्लेच्छभाषा कहा जाता है।
तथा
प्रकृति-प्रत्यय विभागपुरस्सर नियतार्थबोधक शब्दयुक्त भाषा को संस्कृत भाषा कहते हैं।

इसीलिए संस्कृत को सुरभाषा कहा जाता है,तद्
भिन्ना भाषा....स्वयं कल्पना करें।

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पाणिनि व्याकरणानुसार
म्लेछँ (धातु चुरादि) अव्यक्तायां वाचि =म्लेच्छयति
म्लेछँ (भ्वादि) अव्यक्तशब्दे =म्लेच्छति
अव्यक्तशब्द का अर्थ है अपशब्दना

म्लेच्छति म्लेच्छयति =असंस्कृतं वदतीति अपभाषणं करोतीति म्लेच्छः।

इसीलिए कहा जाता है कि  "धृतव्रतो विद्वान् न म्लेच्छयति/म्लेच्छति परन्तु मूढो मूर्खस्तु म्लेच्छयति/म्लेच्छति एव।"

महाभाष्य पस्पशाह्निक में व्याकरणाध्ययन् के प्रयोजन प्रकरण में लिखा है.. "तस्मात् ब्राह्मणेन न म्लेच्छितवै नापभाषितवै म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः।"
कैयट कहते हैं म्लेच्छितवै का अर्थ है अपभाषितवै।।
साभार: समर्थ श्री
✍🏻पवन शर्मा की वॉल से

कक्को केवलो !
#ओलम
ककहरा से सीखने के सोपान चढ़ने का सिलसिला बड़ा पुराना है। पढ़ाई कैसे होती थी, शिक्षा विषयक नारदीय आदि किताबों में बड़ी बड़ी बातें हैं लेकिन ककहरे का क्रम बौद्ध ग्रन्थों में मिल जाता है, सिद्धमातृका के नाम से लिपि का एक पाठ भी भारत से जापान गए एक बौद्ध ग्रन्थ में मिला है।
सामान्य मित्र अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी जी का धन्यवाद कि उन्होंने हमारा ध्यान ओलम ( इल्म से मिलता जुलता, लेकिन मलयालम में सुरक्षित शब्द) शब्द की ओर खींचा और बताया कि यह ककहरा सीखने और प्रशिक्षण की पहली पोथी के अर्थ में है। इसके आसपास का ओली शब्द राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र में मिलता है जिसका आशय लिखना, दाखिला देना होता है।
मित्र इस ककहरे को संभाल कर रखें। यह कुल 46 अक्षरों का है :

मातृका  ( ओलम )
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

यदा अकारं परिकीर्तयन्ति स्म, तदा अनित्यः सर्वसंस्कारशब्दो निश्चरति स्म।
आकारे परिकीर्त्यमाने आत्मपरहितशब्दो निश्चरति स्म।
इकारे इन्द्रियवैकल्यशब्दः।
ईकारे ईतिबहुलं जगदिति।
उकारे उपद्रवबहुलं जगदिति।
ऊकारे ऊनसत्त्वं जगदिति।
एकारे एषणासमुत्थानदोषशब्दः।
ऐकारे ऐर्यापथः श्रेयानिति।
ओकारे ओघोत्तरशब्दः।
औकारे औपपादुकशब्दः।
अंकारे अमोघोत्पत्तिशब्दः।
अःकारे अस्तंगमनशब्दो निश्चरति स्म।
ककारे कर्मविपाकावतारशब्दः।
खकारे खसमसर्वधर्मशब्दः।
गकारे गम्भीरधर्मप्रतीत्यसमुत्पादावतारशब्दः।
घकारे घनपटलाविद्यामोहान्धकारविधमनशब्दः। ङकारेऽङ्गविशुद्धिशब्दः।
चकारे चतुरार्यसत्यशब्दः।
छकारे छन्दरागप्रहाणशब्दः।
जकारे जरामरणसमतिक्रमणशब्दः।
झकारे झषध्वजबलनिग्रहणशब्दः।
ञकारे ज्ञापनशब्दः।
टकारे पटोपच्छेदनशब्दः।
ठकारे ठपनीयप्रश्नशब्दः।
डकारे डमरमारनिग्रहणशब्दः।
ढकारे मीढविषया इति।
णकारे रेणुक्लेशा इति।
तकारे तथतासंभेदशब्दः।
थकारे थामबलवेगवैशारद्यशब्दः।
दकारे दानदमसंयमसौरभ्यशब्दः।
धकारे धनमार्याणां सप्तविधमिति।
नकारे नामरूपपरिज्ञाशब्दः।
पकारे परमार्थशब्दः।
फकारे फलप्राप्तिसाक्षात्क्रियाशब्दः।
बकारे बन्धनमोक्षशब्दः।
भकारे भवविभवशब्दः।
मकारे मदमानोपशमनशब्दः।
यकारे यथावद्धर्मप्रतिवेधशब्दः।
रकारे रत्यरतिपरमार्थरतिशब्दः।
लकारे लताछेदनशब्दः।
वकारे वरयानशब्दः।
शकारे शमथविपश्यनाशब्दः।
षकारे षडायतननिग्रहणाभिज्ञज्ञानावाप्तिशब्दः। सकारे सर्वज्ञज्ञानाभिसंबोधनशब्दः।
हकारे हतक्लेशविरागशब्दः।
क्षकारे परिकीर्त्यमाने क्षणपर्यन्ताभिलाप्यसर्वधर्मशब्दो निश्चरति स्म॥

इति
कुल ४६ वर्णाक्षरों का ज्ञान मिला, और सबका प्रयोग नकारात्मकता में है ।
'क' से कबूतर , कमल , कलम कुछ भी बता सकते हैं, किन्तु शिशु को जैसा प्रथम बार बता देंगे वह आजीवन अमिट रहेगा। ग से गमला बताइये चाहे ग से गणेश या ग से गधा।
 
लिपियां - छोटा देश, बड़ा लिपि संसार

हमारे यहां कई लिपियां थीं। पहली सदी तक चौंसठ लिपियां अस्तित्‍व में थीं। इन लिपियों के अलग-अलग नाम भी मौजूद हैं। यह कैसे हुआ, कोई नहीं कह सकता, मगर लिपियों का इतनी संख्‍या में होना जाहिर करता है कि ये सब एकाएक नहीं आ गई।

 एक छोटे से देश में इतनी लिपियां और उनको लिखने की परंपरा,.. बुद्ध जब पढने जाते हैं तो पहले ही शिक्षक को 64 लिपियों के नाम गिनाते हैं जिनमें पहली लिपि ब्राह्मी हैं। महाभारत में विदुर को यवनानी लिपि के ज्ञात होने का जिक्र आया है, वशिष्‍ठस्‍मृति में विदेशी लिपि का संदर्भ है। किंतु ब्राह्मी वही लिपि है जिसको चीनी विश्‍वकोश में भी ब्रह्मा द्वारा उत्‍पन्‍न करना बताया गया है..।

पड़ नामक लिपि खोदक का नाम अशोक के शिलालेख में आता है, जो अपने हस्‍ताक्षर तो खरोष्‍टी में करता था अौर लिखता ब्राह्मीलिपि। हालांकि अशोक ने अपनी संदेशों को धर्मलिपि में कहा है...। सिंधु-हडप्‍पा की अपनी लिपि रही है, इस सभ्‍यता की लिपि के नामपट्ट धोलावीरा के उत्‍खनन में मिल चुके हैं...। कुछ शैलाश्रयों में भी संकेत लिपि के प्रमाण खोजे गए हैं।

ऐसे में ब्‍यूलर वगैरह उन पाश्‍चात्‍य विद्वानों के तर्कों का क्‍या होगा जो भारतीयों को अपनी लिपि का ज्ञान बाहर से ग्रहण करना बताते हैं। भारत में लिपियों का विकास अपने ढंग से, अपनी भाषा और अपने बोली व्‍यवहार के अनुसार हुआ है। हर्षवर्धन के काल में लिखित 'कादम्‍बरी' में राजकुमार चंद्रापीड़ को अध्‍ययन के दौरान 'सर्वलिपिषु सर्वदेश भाषासु' प्रवीण किया गया।

 इस आधार पर यह माना जाता है कि उस काल तक लोग सभी लिपियां जानते थे, अनेक देश की भाषाओं को जानते थे। उनको पढ़ाया भी जाता था। लगता है कि भारतीयों को अनेक लिपियों का ज्ञान होता था और उनकी सीखने में दिलचस्‍पी थी। तभी तो हमारे यहां लिपिन्‍यास की परंपरा शास्‍त्रों में भी मिलती है। लिपिन्‍यास का पूरा विधान ही अनुष्‍ठान में मिलता है.. इस संबंध में एक बार फिर से प्रकाशित भारतीय प्राचीन लिपिमाला की भूमिका लिखी है पिछले दिनों,,, जिक्र फिर कभी।
-✍🏻डॉ0 श्रीकृष्ण "जुगनू"

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