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गुरुवार, 16 नवंबर 2023

#आओ_सनातन_संस्कृति_की_ओर_लौटे, भारतीय रसोई के चूल्हे की राख में ऐसा क्या था कि, वह पुराने जमाने का Hand Sanitizer थी ...?

#आओ_सनातन_संस्कृति_की_ओर_लौटे
भारतीय रसोई के चूल्हे की राख में ऐसा क्या था कि, वह पुराने जमाने का Hand Sanitizer थी ...?


उस समय Hand Sanitizer नहीं हुआ करते थे, तथा साबुन भी दुर्लभ वस्तुओं की श्रेणी आता था। उस समय हाथ धोने के लिए जो सर्वसुलभ वस्तु थी, वह थी चूल्हे की राख। जो बनती थी लकड़ी तथा गोबर के कण्डों के जलाये जाने से। चूल्हे की राख का रासायनिक संगठन है ही कुछ ऐसा ।
आइये चूल्हे की राख का वैज्ञानिक विश्लेषण करें। इस राख में वो सभी तत्व पाए जाते हैं, वे पौधों में भी उपलब्ध होते हैं। इसके सभी Major तथा Minor Elements पौधे या तो मिट्टी से ग्रहण करते हैं या फिर वातावरण से। इसमें सबसे अधिक मात्रा में होता है Calcium.

इसके अलावा होता है Potassium, Aluminium, Magnesium, Iron, Phosphorus, Manganese, Sodium तथा Nitrogen. कुछ मात्रा में Zinc, Boron, Copper, Lead, Chromium, Nickel, Molybdenum, Arsenic, Cadmium, Mercury तथा Selenium भी होता है ।
राख में मौजूद Calcium तथा Potassium के कारण इसकी ph क्षमता ९.० से १३.५ तक होती है। इसी ph के कारण जब कोई व्यक्ति हाथ में राख लेकर तथा उस पर थोड़ा पानी डालकर रगड़ता है तो यह बिल्कुल वही माहौल पैदा करती है जो साबुन रगड़ने पर होता है।

जिसका परिणाम होता है जीवाणुओं और विषाणुओं का विनाश । आइये, अब मनन करें सनातन धर्म के उस तथ्य पर जिसे अब सारा संसार अपनाने पर विवश है। सनातन में मृत देह को जलाने और फिर राख को बहते पानी में अर्पित करने का प्रावधान है। मृत व्यक्ति की देह की राख को पानी में मिलाने से वह पंचतत्वों में समाहित हो जाती है ।
मृत देह को अग्नि तत्व के हवाले करते समय उसके साथ लकड़ियाँ और उपले भी जलाये जाते हैं और अंततः जो राख पैदा होती है उसे जल में प्रवाहित किया जाता है । जल में प्रवाहित की गई राख जल के लिए डिसइंफैकटैण्ट का काम करती है ।

इस राख के कारण मोस्ट प्रोबेबिल नम्बर ऑफ कोलीफॉर्म (MPN) में कमी आ जाती है और साथ ही डिजोल्वड ऑक्सीजन (DO) की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होती है। वैज्ञानिक अध्ययनों में यह स्पष्ट हो चुका है कि गाय के गोबर से बनी राख डिसइन्फैक्शन के लिए एक एकोफ़्रेंडली विकल्प है...
जिसका उपयोग सीवेज वाटर ट्रीटमैंट (STP) के लिए भी किया जा सकता है। सनातन का हर क्रिया कलाप विशुद्ध वैज्ञानिक अवधारणा पर आधारित है। इसलिए सनातन अपनाइए स्वस्थ रहिये ।

आपने देखा होगा कि नागा साधु अपने शरीर पर धूनी की राख मलते हैं जो कि उन्हें शुद्ध रखती है साथ ही साथ भीषण ठंडक से भी बचाये रखती है ।

जय सनातन धर्म की...!🚩🚩

कभी चूल्हे की राख से होते थे बर्तन साफ, अब बादाम की कीमत में बिक रही ऑनलाइन
लकड़ी के कोयले या चारकोल की राख के बारे में आपने जरूर सुना होगा. कुछ वर्षों पहले तक चूल्हे में बची राख को बेकार मानकर फेंक दिया जाता था.
ग्रामीण इलाकों में इस राख को बर्तन साफ करने के काम में लाया जाता रहा है. लेकिन अब डिजिटल युग है तो इस राख का दर्जा भी बदल गया है. अब इस राख को आकर्षक पैकिंग में ई-कॉमर्स साइट्स पर ‘डिश वाशिंग वुड एश’ के नाम से बेचा जा रहा है

दरअसल, इस राख की मार्केंटिंग डिशवाशिंग वुड एश के नाम से हो रही है. अब इसकी कीमत भी जान लीजिए. इसकी कीमत 250 ग्राम के लिए 399 रुपए बताई गई है लेकिन डिस्काउंट के बाद इसे 160 रुपए प्रति 250 ग्राम दिया जा रहा है. यानि डिस्काउंट के बाद भी एक किलोग्राम राख की कीमत ग्राहक को 640 रुपए पड़ेगी. 
ई-कॉमर्स वेबसाइट्स पर राख को बर्तन धोने के लिए कारगर बताने के साथ इसे पौधों के लिए बेहतर उर्वरक (फर्टिलाइजर) भी बताया जा रहा है. इस तरह के  उत्पाद बनाने वाली कंपनियां अधिकतर तमिलनाडु से हैं.  

मंगलवार, 14 नवंबर 2023

गोवर्धन* पूजा *अन्नकूट* महोत्सव

🛕 *गोवर्धन* पूजा *अन्नकूट* महोत्सव🛕
दिवाली के पर्व के बाद कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को गोवर्धन पूजा का पर्व मनाया जाता है। आमतौर पर यह पर्व अक्सर दिवाली के आगामी दिवस पर ही पड़ता है किन्तु कभीकभार दिवाली और गोवर्धन पूजा के पर्वों के बीच एक दिन का अंतर भी आ जाता है। 

 

पौराणिक प्रथाओं में पर्व के दिन प्रातःकाल में शरीर की तेल मालिश करके स्नान करने के लिए कहा गया है। सभी श्रद्धालु इस दिन घर के द्वार पर गोबर से गोवर्धन पर्वत की प्रतीक रूप निर्मित करते हैं। तत्पश्चात गोबर का अन्नकूट बनाकर उसके सम्मुख श्रीकृष्ण, गायें, ग्वाल-बालों, इंद्रदेव, वरुणदेव, अग्निदेव और राजा बलि का पूजन किया जाता है।
 
गोवर्धन अन्नकूट पूजा महत्व एवं कथा
 
 एक समय की बात है श्रीकृष्ण अपने मित्र ग्वालों के साथ पशु चराते हुए गोवर्धन पर्वत जा पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि बहुत से व्यक्ति एक उत्सव मना रहे थे। श्रीकृष्ण ने इसका कारण जानना चाह तो वहाँ उपस्थित गोपियों ने उन्हें कहा कि आज यहाँ मेघ व देवों के स्वामी इंद्रदेव की पूजा होगी और फिर इंद्रदेव प्रसन्न होकर वर्षा करेंगे, फलस्वरूप खेतों में अन्न उत्पन्न होगा और ब्रजवासियों का भरण-पोषण होगा। यह सुन श्रीकृष्ण सबसे बोले कि इंद्र से अधिक शक्तिशाली तो गोवर्धन पर्वत है जिनके कारण यहाँ वर्षा होती है और सबको इंद्र से भी बलशाली गोवर्धन का पूजन करना चाहिए।

श्रीकृष्ण की बात से सहमत होकर सभी गोवर्धन की पूजा करने लगे। जब यह बात इंद्रदेव को पता चली तो उन्होंने क्रोधित होकर मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जाकर मूसलाधार बारिश करें। भयावह बारिश से भयभीत होकर सभी गोप-ग्वाले श्रीकृष्ण के पास गए। यह जान श्रीकृष्ण ने सबको गोवर्धन-पर्वत की शरण में चलने के लिए कहा। सभी गोप-ग्वाले अपने पशुओं समेत गोवर्धन की तराई में आ गए। तत्पश्चात श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठिका अंगुली पर उठाकर छाते-सा तान दिया। इन्द्रदेव के मेघ सात दिन तक निरंतर बरसते रहें किन्तु श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर जल की एक बूंद भी नहीं पड़ी। यह अद्भुत चमत्कार देखकर इन्द्रदेव असमंजस में पड़ गए। तब ब्रह्माजी ने उन्होंने बताया कि श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार है। सत्य जान इंद्रदेव श्रीकृष्ण से क्षमायाचना करने लगे। श्रीकृष्ण के इन्द्रदेव को अहंकार को चूर-चूर कर दिया था अतः उन्होंने इन्द्रदेव को क्षमा किया और सातवें दिन गोवर्धन पर्वत को भूमितल पर रखा और ब्रजवासियों से कहा कि अब वे हर वर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाए। तभी से यह पर्व प्रचलित है और आज भी पूर्ण श्रद्धाभक्ति से मनाया जाता है।


2.ग्रामीण क्षेत्र में अन्नकूट महोत्सव इसलिए मनाया जाता है, क्योंकि इस दिन नए अनाज की शुरुआत भगवान को भोग लगाकर की जाती है। इस दिन गाय-बैल आदि पशुओं को स्नान कराके धूप-चंदन तथा फूल माला पहनाकर उनका पूजन किया जाता है और गौमाता को मिठाई खिलाकर उसकी आरती उतारते हैं तथा प्रदक्षिणा भी करते हैं।
 
 
3.अन्नकूट पर्व मनाने से मनुष्य को लंबी आयु तथा आरोग्य की प्राप्ति होती है साथ ही दारिद्रय का नाश होकर मनुष्य जीवनपर्यंत सुखी और समृद्ध रहता है। ऐसा माना जाता है कि यदि इस दिन कोई मनुष्य दुखी रहता है तो वह वर्षभर दुखी ही रहेगा। इसलिए हर मनुष्य को इस दिन प्रसन्न रहकर भगवान श्रीकृष्‍ण के प्रिय अन्नकूट उत्सव को भक्तिपूर्वक तथा आनंदपूर्वक मनाना चाहिए।



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सोमवार, 13 नवंबर 2023

अब चूने में नील मिलाकर पुताई का जमाना नहीं रहा

*अब चूने में नील मिलाकर पुताई का जमाना नहीं रहा। चवन्नी, अठन्नी का जमाना भी नहीं रहा। हमारे बचपन और किशोरावस्था में दीवाली ऐसी ही मनती थी जैसा  गुलजार साहब की लिखी यह कविता बता रही है...*
हफ्तों पहले से साफ़-सफाई में जुट जाते हैं
चूने के कनिस्तर में थोड़ी नील मिलाते हैं
अलमारी खिसका खोयी चीज़ वापस पाते हैं
दोछत्ती का कबाड़ बेच कुछ पैसे कमाते हैं 
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

दौड़-भाग के घर का हर सामान लाते हैं 
चवन्नी -अठन्नी पटाखों के लिए बचाते हैं
सजी बाज़ार की रौनक देखने जाते हैं
सिर्फ दाम पूछने के लिए चीजों को उठाते हैं
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

बिजली की झालर छत से लटकाते हैं
कुछ में मास्टर बल्ब भी लगाते हैं
टेस्टर लिए पूरे इलेक्ट्रीशियन बन जाते हैं
दो-चार बिजली के झटके भी खाते हैं
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

दूर थोक की दुकान से पटाखे लाते है
मुर्गा ब्रांड हर पैकेट में खोजते जाते है
दो दिन तक उन्हें छत की धूप में सुखाते हैं
बार-बार बस गिनते जाते है
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

धनतेरस के दिन कटोरदान लाते है
छत के जंगले से कंडील लटकाते हैं
मिठाई के ऊपर लगे काजू-बादाम खाते हैं
प्रसाद की थाली पड़ोस में देने जाते हैं
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

अन्नकूट के लिए सब्जियों का ढेर लगाते है 
भैया-दूज के दिन दीदी से आशीर्वाद पाते हैं 
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

दिवाली बीत जाने पर दुखी हो जाते हैं 
कुछ न फूटे पटाखों का बारूद जलाते हैं 
घर की छत पर दागे हुए राकेट पाते हैं 
बुझे दीयों को मुंडेर से हटाते हैं 
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर  मनाते हैं ....* 

बूढ़े माँ-बाप का एकाकीपन मिटाते हैं 
वहीँ पुरानी रौनक फिर से लाते हैं 
सामान से नहीं, 
समय देकर सम्मान जताते हैं
उनके पुराने सुने किस्से फिर से सुनते जाते हैं 

 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं*
      
*दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं*
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बुधवार, 8 नवंबर 2023

हम अपने शब्दों को भूलेंगे तो निश्चय ही हमें परभाषाजीवी बनना ही पड़ेगा।

#पितृव्य 

हिन्दी में 'काका' के लिए चाचा शब्द रूढ़ हो गया है। लेकिन महाभारत धारावाहिक जैसे पीरियड फिल्म और सीरियल चाचा या चचा बोलकर किसी चरित्र का संबोधन नही करवा सकते हैं।

इसलिए वे 'काकाश्री' जैसे शब्द गढ़कर मध्य मार्ग अपना लेते हैं।

आज यदि किसी को 'काका' का तत्सम शब्द #पितृव्य लिखने बोलने या व्यवहार के लिए कहा जाए तो वह नाक-भौं सिकोड़ने लगेगा। आउटडेटेड कहेगा। हम अपने शब्दों का व्यवहार नहीं करेंगे तो स्वाभाविक है कि अगली पीढ़ी की अवचेतन बुद्धि से वह शब्द विलुप्त होने लगेगा।

सबसे पहले मैंने पितृव्य शब्द को पुस्तक #हिन्दी_साहित्य_की_भूमिका में आचार्य द्विवेदी जी द्वारा प्रयुक्त देखा था, इस पुस्तक को उन्होंने अपने पितृव्य को समर्पित किया है।

हम अपने शब्दों को भूलेंगे तो निश्चय ही हमें परभाषाजीवी बनना ही पड़ेगा।

हम प्रसन्न हो सकते हैं कि हमारी भाषा में बहुत विदेशी शब्दों को खूब स्थान दिया गया है!
✍🏻गजेंद्र कुमार पाटीदार

कृष्णावल....!!!

यदि आज की आधुनिक शिक्षा प्राप्त पीढ़ी से आप पूछें कि "कृष्णावल" क्या है तो संभव है कि ९८ % तो यही कहेंगे कि उन्होंने यह शब्द कभी सुना ही नहीं है।
पर यदि आप दादी नानी से पूछें या पचास वर्ष पूर्व के लोगों से पूछें तो वे आपको बता देंगे कि गाँव में "कृष्णावल" प्याज या पालंडु को कहा जाता है। और यह शब्द ही प्याज के लिए प्रचलित था उस समय में।
प्याज को ग्रामीण क्षेत्रों में कांदा भी कहते हैं।
अंग्रेजी में इसे Onion 🧅 ऑनियन या अन्यन कहते हैं। यह कंद श्रेणी में आता है जिसकी सब्जी भी बनती है और इसे सब्जी बनाने में मसालों के साथ उपयोग भी किया जाता है।
इसे संस्कृत में कृष्णावल कहते थे।
वैसे इस शब्द को विस्मृत कर दिया गया है और आजकल यह शब्द प्रचलन में नहीं है।
कृष्‍णावल कहने के पीछे एक रहस्य छुपा हुआ है।
आईए, देखिए कि प्याज को क्यों कहते हैं कृष्णावल.!

१. दक्षिण भारत में खासकर कर्नाटक और तमिलनाडु के ग्रामीण क्षेत्रों में प्याज को आज भी कृष्णावल नाम से ही जाना जाता है।
२. इसे कृष्णवल कहने का तात्पर्य यह है कि जब इसे खड़ा काटा जाता है तो वह शङ्खाकृति यानी शङ्ख के आकार में दिखता है।
वहीं जब इसे आड़ा काटा जाता है तो यह चक्राकृति यानी चक्र के आकार में दिखाई देता है।
३. आप जानते ही हैं कि शङ्ख और चक्र दोनों श्री हरि विष्णु के आयुधों में से हैं और श्री कृष्ण जी श्री हरि के दशावतार में ही पूर्णावतार (नवें अवतार) हैं।
४. शङ्ख और चक्र की आकृतियों के कारण ही प्याज को कृष्णावल कहते हैं।
कृष्ण और वलय शब्दों को मिलाकर बना "कृष्णावल" शब्द है।
५. कृष्णावल कहने के पीछे केवल यही एक कारण नहीं है ; अपितु यदि आप प्याज को उसकी पत्तियों के साथ उलटा पकड़ेंगे तो वह गदा का भी रूप ले लेता है।
यह भी रोचक है कि यदि पत्तों के काट दिया जाए तो वह पद्म यानी कमल का आकार लेता है।
गदा और पद्म भी भगवान श्री हरि विष्णु के आयुध हैं जिसे वे चक्र और शङ्ख के साथ धारण करते हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना ही है कि आजकल किन्नर जैसा रूप धरे कथित धार्मिक कथावाचक,  जो केवल अपने आप को ही धर्म का झण्डावरदार समझते हैं ; इस कृष्णावल की निंदा में अनर्गल बातें करते हैं और घृणित शब्दों से इसे लांछित कर रहे हैं।
साभार/संशोधन/संकलन - ✍🏻प्रेमझा

शुक्रिया नहीं, शुक्रियम् बोलिए!

2005 की घटना है- अटल सरकार चली गई थी। कांगी-वामी की सरकार आई थी, एनसीईआरटी में बड़ी गहमागहमी थी।

मई माह में 6-7 दिनों खुला विचार-मंथन चल रहा था। 

सभागार भरा हुआ, मंच पर अशोक वाजपेयी बोल रहे थे- "धन्यवाद नहीं, शुक्रिया बोलिए।"

संस्कृत के प्रोफेसर मिश्र जी थे तो फूल काँग्रेसी! ललित मिश्र के क्षेत्र के, लेकिन अशोक वाजपेयी के फरमान से दुख हुए। 

मुझसे बोले- "जवाब दीजिए, क्यों शुक्रिया बोलें।"

मैं भी आक्रोशित था, पर द्रष्टा भाव में बस सत्ता का मद देख रहा था।  
प्रो.केके मिश्र जी, मुझे बार बार प्रेरित कर रहे थे। मैं नहीं नहीं की मुद्रा में था।

मंच से अशोक वाजपेयी ने देख लिया, और मुझ से कहा- "आप कुछ कहना चाहते हैं"? 

वह एक पल का ईक्षण था, ललकारता हुआ। मेरे मन में बात आ गई।

मैंने कहा- मैं कुछ कहना नहीं चाहता। सर मुझे कहलाना चाहते हैं, यदि आप सुनना चाहें तो बोलू दूँ?

अशोक जी मेरे राष्ट्रधर्मी विचारों के कट्टर विरोधी हैं, 
फिर भी राष्ट्र वादी ढोंढ़ा- मंगरुओं से सम्मानीय विरोधी। 

क्योंकि इंडिया इंटरनेशनल की एक गोष्ठी में भी जब उन्होंने राधा को आर्टी फैक्ट कहा था, मैंने  उन्हें जवाब दिया था। फिर एक मौका हाथ आया था। 

मैंने कहा- अशोक जी, दस हजार या पांच हजार वर्ष पुराना वैदिक शब्द  "शुक्रिय" हम से क्यों बोलवाना चाहते हैं?
सामवेद में शुक्रिय पर्व है।

फारसी में भी यह शब्द धन्यवाद अर्थक ही है।

यह सुनते ही पूरी सभा सन्न हो गई- मुर्दो का टीला। काँगी-वामी, मुस्लिम प्रोफेसर निरुत्तर, काटो तो खून नहीं। 
इस घटना के साक्षी लोग अभी सदेह हैं। 

इसके बाद की कहानी संघी होने के व्यर्थ तमगे से शुरू होती है, कि संघ ने चेलिया रखा है, 

मैं स्वयं से अपना पक्ष लेता रहा और शत्रु संघी मान कर नुकसान पहुंचाते रहे।

ये बीती बातें याद इसलिए आईं कि  आज मैंने पाणिनि का एक सूत्र देखा-

।। शुक्राद् घनम् ।।

शुक्रियम्-  इसका देवता शुक्र है! शुक्र: देवता अस्य!

इस सूत्र पर ध्यान जाने से लाभ यह हुआ कि शुक्रिय को वैदिक शब्द के बदले अब मैं संस्कृत शब्द कह  सकता हूँ-

कोई "शुक्रिया" कहे तो आप भी शुक्रियम्  कहिए या हिन्दी में शुक्रिया नहीं,  शुक्रिय बोलिए ।

"इया" प्रत्यय भी अपना ही है, गइया, मइया, तकिया, इंडिया वैसे ही शुक्र+इया = शुक्रिया।

पर, आप शुक्रियम् बोलिए। स्वागतम् की तरह।   

शुक्राचार्य को कौन नहीं जानता,  वे महादेव के अनन्य भक्त और असुरों के गुरु थे।
✍🏻प्रमोद दुबे

गुण्डा
यह शब्द  किस भाषा बोली  से  है ?
व्याकरण क्या हो सकता है ?

गुण्ड शब्द का प्रयोग तुलसीबाबा ने भी किया-
गीतावली  उत्तरकाण्ड ::-
झुण्ड-झुण्ड झूलन चलीं गजगामिनि बर नारि |
कुसुँभि चीर तनु सोहहीं, भूषन बिबिध सँवारि ||

पिकबयनी मृगलोचनी सारद ससि सम तुण्ड |
रामसुजस सब गावहीं सुसुर सुसारँग गुण्ड ||

सारङ्ग गुण्ड-मलार, सोरठ, सुहव सुघरनि बाजहीं |
बहु भाँति तान-तरङ्ग सुनि गन्धरब किन्नर लाजहीं ||

अति मचत, छूटत कुटिल कच, छबि अधिक सुन्दरि पावहीं |
पट उड़त, भूषन खसत, हँसि-हँसि अपर सखी झुलावहीं |
 
चालुक्य साम्राज्य के विजयादित्य के पुत्र   विक्रमादित्य द्वितीय (733 से 745 ई.), की प्रथम पत्नी 'लोक महादेवी' ने 'पट्टलक' में विशाल शिव मंदिर (विरुपाक्षमहादेव मंदिर) का निर्माण करवाया था, जो अब 'विरुपाक्ष महादेव मंदिर' के नाम से प्रसिद्ध है।
इस विशाल मंदिर के 
प्रधान शिल्पी 'आचार्य गुण्ड' थे, जिन्हें 'त्रिभुवनाचारि', 'आनिवारितचारि' तथा 'तेन्कणदिशासूत्रधारी' आदि उपाधियों से विभूषित किया गया था।
गुड् रक्षायाम् (पाणिनीय धातुपाठ ६/७९) = रक्षा करना या बनाना। या गुडि वेष्टने रक्षणे च (१०/५१)= घेरना, पीसना, चूर्ण करना, संरक्षण करना। अतः जो रक्षा करने केलिये पैसे लेता है वह गुण्डा है। पैसा नहीं मिलनेपर घेर कर चूर चूर कर देता है। इसी अर्थ में राक्षस शब्द है जिसका अर्थ रक्षक है, महापद्मनन्द का पुलिस मुख्य पद राक्षस कहा जाता था। रक्षा करने तक ठीक है पर उसके लिये पैसे वसूलना राक्षसी काम है। गुण्डा से अंग्रेजी का गून (Goon) शब्द है।
✍🏻 सनातन कालयात्री 

शिक्षा पर एक पोस्ट पर हुई चर्चा में मित्रवर अमरनाथ झा जी ने एक प्रश्न पूछा था कि यदि विद्या को हम कौशल मानें तो इससे विनय कैसे उत्पन्न होगा। 

इस प्रश्न का मूल कारण विनय शब्द का आज प्रचलित अर्थ है। आज विनय का अर्थ माना जाता है नम्र होना। वास्तव में विनय शब्द में जो नय है, उसका अर्थ है नीति, नेता तथा मार्गदर्शन। इसलिए विनय शब्द का अर्थ जो "विद्या ददाति विनयं" में नीतिकार का अभिप्रेत है, वह नम्रता नहीं है, बल्कि विशेष नीति तथा मार्गदर्शन का जानकार होना है। विशेष नीति केवल सामाजिक ही नहीं होती, वह हरेक क्षेत्र में होती है। विशेष नीति से संपन्न व्यक्ति ही पात्र यानी योग्य माना जाता है। यह विनय और उससे जन्य पात्रता कौशल यानी विद्या से ही मिल सकती है।

विनय शब्द के इस अर्थ की ओर मेरा ध्यान सर्वप्रथम गुरुवर रामेश्वर मिश्र पंकज जी ने दिलाया था। अमरनाथ जी ने जब यह प्रश्न पूछा तो इस पर मुझे और अध्ययन करने का अवसर मिला। इससे यह विषय और अधिक स्पष्ट हुआ कि शास्त्रों का अर्थ करने के लिए परंपरा का ज्ञान भी अत्यावश्यक है, आवश्यक नहीं कि शब्दों के जो अर्थ अभी प्रचलित हैं, वही शास्त्रकारों का भी मन्तव्य रहा हो, वह भिन्न हो सकता है, क्योंकि आज यूरोपीय प्रभाव में संस्कृत शब्दों के अंग्रेजी अर्थ ही प्रचलित हैं, उसके शास्त्रशुद्ध अर्थ नहीं।

मंगलवार, 7 नवंबर 2023

गर्भावस्था के दौरान ऐसी कौनसी गलती की वजह से बच्चा किन्नर पैदा हो सकता है?

 

कैसे गर्भ में शिशु बन जाते हैं किन्नर, इन बातों का रखें ध्यान वरना आपके घर भी हो सकता है किन्नर का जन्म ..

स्त्री और पुरूष के अलावा मनुष्य योनि में…..

एक तीसरा वर्ग भी होता है जिसे आम भाषा में लोग किन्नर या हिजड़ा कहते हैं। आज के समय में इन्हें थर्ड जेंडर की संज्ञा मिली है.. वैसे प्राचीन काल से इनका अस्तित्व रहा है.. पुराने ग्रन्थों जैसे महाभारत में ऐसे कई पात्रों का वर्णन है वहीं उसके बाद के मध्यकालीन इतिहास में भी इनका जिक्र हुआ है.. मुगलकाल में इनकी राजदरबार तक में उपस्थिति रही है.. हालांकि आज इनकी पहचान सिर्फ नाचने गाने वाले समुदाय के रूप में ही है। वैसे ये तो सभी जानते हैं किन्नर या हिजड़ा माता पिता नहीं बन सकते हैं लेकिन सवाल उठता है कि किन्नर कैसे पैदा हो जाते हैं ? आज हम आपको इसका वैज्ञानिक कारण बताने जा रहे हैं जिस वजह से गर्भ में पल रहा बच्चा किन्नर का रूप ले लेता है..

किन्नरों का जन्म भी आम घरों में ही होता है

और फिर किन्नर के रूप में जन्मे बच्चे को उसके माता पिता खुद ही किन्नरों के हवाले कर देते हैं या किन्नर खुद उसे ले जाते हैं और उसका पालन-पोषण करते हैं। दरअसल कुछ वजहों से गर्भ में पल रहा बच्चा लड़का या लड़की का रूप ना लेकर किन्नर का रूप ले लेता है। दरअसल गर्भावस्था के पहले तीन महीने के दौरान बच्चे का लिंग निर्धारित होता है और ऐसे में इस दौरान ही किसी तरह के चोट, विषाक्त खान-पान या फिर हॉर्मोनल प्रॉब्लम की वजह से बच्चे में स्त्री या पुरूष के बजाय दोनों ही लिंगों के ऑर्गन्स और गुण आ जाते हैं.. इसलिये गर्भावस्था के शुरुआत के 3 महीने बहुत ही ध्यान देने वाले होते हैं।

चलिए पहले ये जानते हैं कि लिंग निर्धारण कैसे होता है

असल में मानव जाति में क्रोमोसोम की संख्या 46 होती है जिसमें 44 आटोजोम होते हैं जबकि शेष दो सेक्स क्रोमोजोम होते हैं ! यही दो सेक्स क्रोमोसोम लिंग निर्धारित करते हैं। पुरूष में XY और स्त्री में XX क्रोमोसोम होते हैं.. ऐसे में इन दोनो समागम से जब गर्भ में बच्चा आता है तो उसमें अगर यही दो सेक्स क्रोमोसोम XY हो तो वह लड़का पैदा होता है जबकि, XX होने पर लड़की पैदा होती है ! पर XY और XX क्रोमोसोम के अलावा कभी-कभी XXX, YY, OX क्रोमोसोमल डिसऑर्डर वाले बच्चें भी हो जाते हैं जो कि किन्नर पैदा होते हैं ! इनमें स्त्री और पुरूष दोनों के गुण आ जाते हैँ।

दरअसल गर्भावस्था के शुरुआत के 3 महीने में बच्चा मां के गर्भ में पल रहा होता है तो कुछ कारणों से क्रोमोजोम नंबर में या क्रोमोसोम की आकृतियों में परिवर्तन हो जाता है जिसके कारण किन्नर पैदा हो जाते है।इसके लिए निम्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं..

अगर गर्भावस्था के शुरूआती 3 महीने में गर्भवती महिला को बुखार आए और उसने गलती से कोई हेवी डोज़ मेडिसिन ले ली हो। गर्भवती महिला ने कोई ऐसी दवा या चीज का सेवन किया हो जिससे शिशु को नुकसान हो सकता हो. या फिर गर्भावस्था में महिला ने विषाक्त खाद्य पदार्थ जैसे कोई केमिकली ट्रीटेड या पेस्टिसाइड्स वाले फ्रूट-वेजिटेबल्स खाएं लिए हों। या फिर प्रेग्नेंसी के 3 महीने के दौरान किसी एक्सीडेंट या चोट से शिशु के ऑर्गन्स को नुकसान पहुंचा हो

इनके अलावा 10-15% मामलों में जेनेटिक डिसऑर्डर के कारण भी शिशु के लिंग निर्धारण पर असर पड़ जाता है। इसलिए जरूरी है कि प्रेग्नेंसी के शुरूआती 3 महीनों में बुखार या कोई दूसरी तकलीफ होने पर बिना डॉक्टर को दिखाए कोई दवा ना लें .. साथ ही इस दौरान हेल्थी डाइट लें और बाहर के खाने से बचें। इसके आलावा अगर आपको थाइरॉइड,डायबिटीज़, मिर्गी की दिक्क्त है तो फिर ऐसे में डॉक्टर की सलाह के बाद ही प्रेग्नेंसी प्लान करें।

ज्यादातर दंपतियों में पुरुषों की मौत पहले क्यों होती है?

 

ज्यादातर दंपतियों में पुरुषों की मौत पहले होती है इसका चित्र सहित आप उदाहरण व कारण समझिये, कुछ तरह की जानलेवा हरकतें केवल पुरुष ही करते हैं जैसे…

भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र में कितनी तीलियां हैं?


इस विषय मे हमें धार्मिक ग्रंथों में अलग अलग जानकारी मिलती है। कई जगह ये कहा गया है कि सुदर्शन चक्र में कुल 1000 आरे थे। ऐसा इसीलिए है कि भगवान विष्णु ने इसे प्राप्त करने के लिए 1000 वर्षों तक, 1000 नील कमल के पुष्पों द्वारा भगवान शिव के 1000 नामों से स्तुति की थी। तब प्रसन्न होकर महादेव ने अपने तीसरे नेत्र से उस महान अस्त्र को उत्पन्न किया था।

शिव पुराण में वीरभद्र और श्रीहरि के युद्ध के संदर्भ में कहा गया है -

1000 आरों वाला वो महान अस्त्र (सुदर्शन चक्र) भयंकर प्रलयाग्नि निकालता है वीरभद्र की ओर बढ़ा किन्तु उस रुद्रावतार ने, जो बल में स्वयं रुद्र के समान ही था, उस महान अस्त्र को इस प्रकार मुख में रख लिया जैसे कोई जल को पी जाता है।

हरिवंश पुराण के अनुसार सुदर्शन चक्र में 108 आरे थे और इसे भगवान परशुराम ने श्रीकृष्ण को प्रदान किया था। 108 आरों का विवरण तब भी मिलता है जब महावीर हनुमान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र को पकड़ कर अपने मुख में रख लेते हैं।

हालांकि इस चक्र का सबसे प्रासंगिक विवरण विष्णु पुराण में मिलता है। विष्णु पुराण के अनुसार सुदर्शन चक्र में कुल 12 आरे थे। भगवान विष्णु की तपस्या से प्रसन्न हो महादेव उन्हें सुदर्शन चक्र देते हुए कहते है -

"हे नारायण! सुदर्शन नाम का ये महान आयुध 12 आरों, 6 नाभियों एवं 2 युगों ये युक्त है। इनके 12 आरों में 12 आदित्यों का तथा 6 नाभियों में 6 ऋतुओं का वास है। अतः आप इसे लेकर निर्भय रूप से दुष्टों का संहार करें।"

जय श्रीहरि। 🚩

शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

धैर्य खोने की ज़रूरत नहीं एक गहरी सोच वाली पोस्ट - अपने धर्मग्रंथों को पढ़िए , ये सारे राक्षसों के वध से भरे पड़े हैं.राक्षस भी ऐसे-२ वरदानों से प्रोटेक्टेड थे कि दिमाग घूम जाए...

धैर्य खोने की ज़रूरत नहीं

एक गहरी सोच वाली पोस्ट किसी मित्र ने भेजी है

अपने धर्मग्रंथों को पढ़िए , ये सारे राक्षसों के वध से भरे पड़े हैं.

राक्षस भी ऐसे-२ वरदानों से प्रोटेक्टेड थे कि दिमाग घूम जाए...

एक को वरदान प्राप्त था कि वो न दिन में मरे, न रात में, न आदमी से मर , न जानवर से, न घर में मरे, न बाहर, न आकाश में मरे, न धरती पर...

तो दूसरे को वरदान था कि वे भगवान भोलेनाथ और विष्णु के संयोग से उत्पन्न पुत्र से ही मरे.

तो, किसी को वरदान था कि... उसके शरीर से खून की जितनी बूंदे जमीन पर गिरें ,उसके उतने प्रतिरूप पैदा हो जाएं.

तो, कोई अपने नाभि में अमृत कलश छुपाए बैठा था.

लेकिन... हर राक्षस का वध हुआ.

हालाँकि... सभी राक्षसों का वध अलग अलग देवताओं ने अलग अलग कालखंड एवं भिन्न भिन्न जगह किया...

लेकिन... सभी वध में एक  बात कॉमन रही और वो यह कि... किसी भी राक्षस का वध उसका वरदान विशेष  निरस्त कर अर्थात उसके वरदान को कैंसिल कर के नहीं किया गया...

ये नहीं किया गया कि, तुम इतना उत्पात मचा रहे हो इसीलिए तुम्हारा वरदान कैंसिल कर रहे हैं...और फिर उसका वध कर दिया.

बल्कि... हुआ ये कि... देवताओं को उन राक्षसों को निपटाने के लिए उसी वरदान में से रास्ता निकालना पड़ा कि इस वरदान के मौजूद रहते हम इनको कैसे निपटा सकते हैं.

और अंततः कोशिश करने पर वो रास्ता निकला भी... 
सब राक्षस निपटाए भी गए.

तात्पर्य यह है कि... परिस्थिति कभी भी अनुकूल होती नहीं है,   अनुकूल बनाई जाती हैं.

आप किसी भी एक राक्षस के बारे में सिर्फ कल्पना कर के देखें कि अगर उसके संदर्भ में अनुकूल परिस्थिति का इंतजार किया जाता तो क्या वो अनुकूल परिस्थिति कभी आती ??

उदाहरण के लिए चर्चित राक्षस रावण को ही ले लेते हैं.

रावण के बारे में ये विवशता   कही जा सकती थी कि... 
भला रावण को कैसे मार पाएंगे?

 पचासों तीर मारे और बीसों भुजाओं व दसों सिर भी काट दिए.. लेकिन, उसकी भुजाएँ व सिर फिर जुड़ जाते हैं तो इसमें हम क्या करें ???

इसके बाद अपनी असफलता का सारा ठीकरा ऐसा वरदान देने वाले ब्रह्मा पर फोड़ दिया जाता कि... उन्होंने ही रावण को ऐसा वरदान दे रखा है कि अब उसे मारना असंभव हो चुका है.

और फिर.. ब्रह्मा पर ये भी आरोप डाल दिया जाता कि जब स्वयं ब्रह्मा रावण को ऐसा अमरत्व का वरदान देकर धरती पर राक्षस-राज लाने में लगे हैं तो भला हम कर भी क्या सकते हैं? 

लेकिन... ऐसा हुआ नहीं ... 

बल्कि, भगवान राम ने उन वरदानों के मौजूद रहते हुए ही रावण का वध किया.

*क्योंकि, यही "सिस्टम" है.*

तो... पुरातन काल में हम जिसे वरदान कहते हैं... आधुनिक काल में हम उसे संविधान द्वारा प्रदत्त स्पेशल स्टेटस कह सकते हैं...

जैसे कि... अल्पसंख्यक स्टेटस, पर्सनल बोर्ड आदि आदि.

इसीलिए... आज भी हमें राक्षसों को इन वरदानों (स्पेशल स्टेटस) के मौजूद रहते ही निपटाना होगा.. 

जिसके लिए इन्हीं स्पेशल स्टेटस में से लूपहोल खोजकर रास्ता निकालना होगा.

और, आपको क्या लगता है कि... इनके वरदानों (स्पेशल स्टेटस) को हटाया जाएगा...

क्योंकि, हमारे पौराणिक धर्मग्रंथों में ऐसा एक भी साक्ष्य नहीं मिलता कि किसी राक्षस के स्पेशल स्टेटस (वरदान) को हटा कर पहले परिस्थिति अनुकूल की गई हो तदुपरांत उसका वध किया गया हो.

और, जो हजारों लाखों साल के इतिहास में कभी नहीं हुआ... अब उसके हो जाने में संदेह लगता है.

*परंतु... हर युग में एक चीज अवश्य हुई है...*

*और, वो है राक्षसों का विनाश.*
*एवं, सनातन धर्म की पुनर्स्थापना*.

इसीलिए... इस बारे में जरा भी भ्रमित न हों कि ऐसा नहीं हो पायेगा.

लेकिन, घूम फिर कर बात वहीं आकर खड़ी हो जाती है कि.... भले ही त्रेतायुग के भगवान राम हों अथवा द्वापर के भगवान श्रीकृष्ण..

राक्षसों के विनाश के लिए हर किसी को जनसहयोग की आवश्यकता पड़ी थी.

और, जहाँ तक धर्मग्रंथों के सार की बात है तो वो भी यही है कि हर युग में राक्षसों के विनाश में सिर्फ जनसहयोग की आवश्यकता पड़ती है...

ये इसीलिए भी पड़ती है ताकि... राक्षसों के विनाश के बाद जो एक नई दुनिया बनेगी... 

उस नई दुनिया को उनके बाद के लोग संभाल सके, संचालित कर सकें.

नहीं तो इतिहास गवाह है कि.... बनाने वालों ने तो भारत में आकाश छूती इमारतें और स्वर्ग को भी मात देते हुए मंदिर बनवाए थे... 

लेकिन, उसका हश्र क्या हुआ ये हम सब जानते हैं.

इसीलिए... राक्षसों का विनाश जितना जरूरी है...
उतना ही जरूरी उसके बाद उस धरोहर को संभाल के रखने का भी है.

और... अभी शायद उसी की तैयारी हो रही है.

*अर्थात... सभी समाज को गले लगाया जा रहा है.. और, माता शबरी को उचित सम्मान दिया जा रहा है.*

वरना, सोचने वाली बात है कि जो रावण ... पंचवटी में लक्ष्मण के तीर से खींची हुई एक रेखा तक को पार नहीं कर पाया था...

भला उसे पंचवटी से ही एक तीर मारकर निपटा देना क्या मुश्किल था? 

अथवा... जिस महाभारत को श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र के प्रयोग से महज 5 मिनट में निपटा सकते थे भला उसके लिए 18 दिन तक युद्ध लड़ने की क्या जरूरत थी? 

लेकिन... रणनीति में हर चीज का एक महत्व होता है... जिसके काफी दूरगामी परिणाम होते हैं.

*इसीलिए...  कभी भी* *उतावलापन नहीं होना चाहिए. और फिर वैसे भी कहा जाता है कि जल्द काम शैतान का*

*क्योंकि,  ये बात अच्छी तरह मालूम है कि.... रावण, कंस, दुर्योधन, रक्तबीज और हिरणकश्यपु आदि का विनाश तो निश्चित है तथा यही उनकी नियति है..!!*

*लंका जल रही है,*
*अयोध्या सज रही है और शबरी राष्ट्रपति बन रही है इतिहास से सीख लेकर कार्य जारी है!*

*जय महाकाल,* *जय सनातन जय मौलिक* *भारत...!!!*

*नोट : धर्मग्रंथ रोज सुबह नहा धो कर सिर्फ पुण्य कमाने के उद्देश्य से पढ़ने के लिए ही नहीं होते ..*

*बल्कि, हमारे धर्मग्रंथों के रूप में हमारे पूर्वज/देवताओं ने अपने अनुभव हमें ये बताने के लिए लिपिबद्ध किया ताकि आगामी पीढ़ी ये जान सके कि अगर फिर कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो तो उससे कसे निपटा जाए.*

🙏🙏🙏🌷
सत्य सनातन धर्म की जय 🙏🙏🙏🌷

गुरुवार, 2 नवंबर 2023

कैसे करें घर की सफाई

कैसे करें घर की सफाई  
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कहते हैं जिस घर में साफ-सफाई होती है वहां माता लक्ष्मी का वास होता है। क्योंकि धन की देवी मां लक्ष्मी को सफाई अत्यंत प्रिय है। परंतु वास्तु शास्त्र में सफाई को लेकर कुछ नियम बताए गए हैं, जिनके अनुसार घर की सफाई की जाए तो घर में सुख-समृद्धि के सारे रास्ते खुल जाते हैं।

अपने घर को साफ रखना किसको पसंद नहीं होता। घर की साफ सफाई से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार तो बढ़ता ही है साथ की घर में बीमारियां भी कम फैलती हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार घर में रखी हर वस्तु का प्रभाव घर के सदस्यों की तरक्की, सेहत और मानसिक स्थिति पर पड़ता है। वास्तु शास्त्र में बताया गया है कि यदि आप वास्तु के कुछ नियमों का पालन कर घर की साफ-सफाई करें तो आपके घर में सदैव सुख-समृद्धि बनी रहेगी।

साफ-सफाई का समय
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वास्तु शास्त्र में बताया गया है कि कभी भी सूर्यास्त के बाद या फिर सुबह-सुबह ब्रह्म मुहूर्त में घर में झाड़ू नहीं लगाई जानी चाहिए। ऐसा माना जाता है कि यह समय माता लक्ष्मी के घर में प्रवेश करने का होता है, लेकिन यदि किन्हीं कारणों से आपको इस समय झाड़ू लगाना पड़ जाए तो इसमें निकले कचरे को सुबह सूर्य उदय के बाद ही घर से बाहर फेंकें।

घर के कोनों का रखें ध्यान
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वास्तु शास्त्र के अनुसार घर की उत्तर दिशा, ईशान कोण और वायव्य कोण का साफ सुथरा और खाली होना बहुत जरूरी है। ऐसा माना जाता है कि घर की इन दिशाओं में धन के देवता कुबेर का वास होता है। इसीलिए घर के सभी कोनों की साफ-सफाई रखना बहुत जरूरी है।

बाथरूम की साफ सफाई
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ऐसा देखा गया है कि बहुत से लोग अपने घर को तो साफ सुथरा रखते हैं, लेकिन बाथरूम की साफ सफाई की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देते। आपको बता दें कि घर के साथ-साथ अपने टॉयलेट, बाथरूम को साफ रखना भी बहुत जरूरी होता है। इसके अलावा घर के बाथरूम और टॉयलेट में कभी भी मकड़ी के जाले लगने ना दें। ऐसा होने से घर में वास्तु दोष उत्पन्न होता है।

छत पर कबाड़
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वास्तु शास्त्र में कहा गया है कि घर की बालकनी या छत पर टूटी फूटी चीजें या कबाड़ इकट्ठा नहीं होने देना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि ऐसा होने से घर में दरिद्रता का प्रवेश होता है। साथ ही टूटी फूटी चीजों में पानी जमा होने के कारण मलेरिया जैसी घातक बीमारियां भी पनपती हैं।


रविवार, 29 अक्टूबर 2023

कार्तिक मास आज से आरम्भ

कार्तिक मास आज से आरम्भ
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हिंदू धर्म में कार्तिक मास का विशेष महत्व है। यह माह भगवान विष्णु के सबसे प्रिय मास में से एक है। इस पूरे महीने भगवान विष्णु और उनके अवतारों की पूजा करने का विधान है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, आठवां माह कार्तिक मास होता है, जो आश्विन मास के बाद आता है। शास्त्रों के अनुसार माना जाता है कि कार्तिक मास के दौरान भगवान विष्णु जल में निवास करते हैं। इस कारण इस पूरे मास स्नान-दान करने से विशेष फलों की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही इस पूरे महीने में तुलसी के पौधे की पूजा करने से भी मां लक्ष्मी के साथ श्री हरि की असीम कृपा प्राप्त होती है।

कब से शुरू हो रहा कार्तिक मास?
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भगवान विष्णु का प्रिय माह कार्तिक मास 29 अक्टूबर से आरंभ हो रहा है, जो 27 नवंबर 2023 को समाप्त हो रहा है।

कार्तिक मास का महत्व-
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कार्तिक मास में तुलसी की पूजा का भी बहुत खास महत्व बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार तुलसी का पौधा भगवान विष्णु को बहुत ही प्रिय है। इस महीने में नियमित रूप से तुलसी की पूजा करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। कार्तिक मास में पूजा पाठ और उपवास करने से मनुष्य को वैभव की प्राप्ति होती है। इसके अलावा जो भी मनुष्य इस महीने में नियमित रूप से पूजा पाठ करता है और भगवान् विष्णु को तुलसी के पत्ते अर्पित करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। कार्तिक मास में श्रद्धा पूर्वक पूजा करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और मनुष्य के सभी रोग दूर हो जाते हैं और उनके जीवन में कभी भी धन की कमी नहीं होती है।

कार्तिक मास से जुडी विशेष बातें
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हिंदू धर्म में कार्तिक मास को बहुत ही खास महत्व दिया गया है। कार्तिक मास का आरंभ शरद पूर्णिमा के दिन से होता है और कार्तिक पूर्णिमा के दिन कार्तिक मास का अंत होता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में दान पुण्य, पूजा पाठ और गंगा स्नान का बहुत ही महत्व बताया गया है। हमारे शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु 4 महीने की निद्रा के बाद कार्तिक मास में देव उठनी एकादशी के दिन जागते हैं,  इसलिए इस महीने में भगवान विष्णु की पूजा का भी बहुत महत्व माना जाता है। धर्म पुराणों के अनुसार कार्तिक के महीने में श्रीमद् भागवत और गीता का पाठ करने से मनुष्य के सभी पाप दूर हो जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

कार्तिक मास में तुलसी के पौधे में राधा कृष्ण और भगवान् विष्णु के नाम का कलावा बांधकर विधिवत पूजा-अर्चना करें। ऐसा करने से आपकी सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाएँगी और आपके घर में कभी भी धन की कमी नहीं होगी।

कार्तिक मास में हरी बोधनी एकादशी को भी बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु के सामने घी कपूर का दीपक जलाने से अकाल मृत्यु की संभावना खत्म हो जाती है। 

हमारे शास्त्रों में बताया गया है की दीपावली के 4 दिन पहले मां लक्ष्मी तेल में निवास करती हैं। इस दिन को नरक चौदस के रूप में मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि नरक चौदस के दिन शरीर में सरसों का तेल लगाने से मनुष्य के जीवन में धन की कमी दूर हो जाती है। इसके अलावा नरक चौदस के दिन स्नान करने के बाद दीपदान करना शुभ माना जाता है।

कार्तिक मास में दीपदान का भी बहुत खास विधान है। आप चाहे तो मंदिर या नदी में दीप दान कर सकते हैं। इसके अलावा इस महीने में ब्राह्मणों को भोजन कराना, क्षमता अनुसार दान करना, तुलसी के पत्तों का दान करना, आंवले का दान करना और अन्न का दान करना भी बहुत शुभ माना जाता है।


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