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रविवार, 12 मई 2024

संत कवि सूरदास जिसने जगत को दिखाई श्री कृष्णलीला

संत सूरदास जन्मोत्सव विशेष
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संत कवि सूरदास जिसने जगत को दिखाई श्री कृष्णलीला
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महाकवि सूरदास जिन्होंने जन-जन को भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं से परिचित करवाया। जिन्होंनें जन-जन में वात्सल्य का भाव जगाया। नंदलाल व यशोमति मैया के लाडले को बाल गोपाल बनाया। कृष्ण भक्ति की धारा में सूरदास का नाम सर्वोपरि लिया जाता है। सूरदास जिन्हें बताया तो जन्मांध जाता है लेकिन जो उन्होंने देखा वो कोई न देख पाया। गुरु वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग पर सूरदास ऐसे चले कि वे इस मार्ग के जहाज तक कहाये। अपने गुरु की कृपा से भगवान श्री कृष्ण की जो लीला सूरदास ने देखी उसे उनके शब्दों में चित्रित होते हुए हम भी देखते हैं। वैशाख शुक्ल पंचमी को सूरदास जी की जयंती मनाई जाती है। आइये जानते हैं इनके जीवन के बारे में।
 
सूरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय
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सूरदास का संपूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में बीता है। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर पद लिखे व गाये। यह जिम्मेदारी उन्हें सौंपी थी उनके गुरु वल्लभाचार्य ने। सूरदास के जन्म को लेकर विद्वानों के मत अलग-अलग हैं। कुछ उनका जन्म स्थान गांव सीही को मानते हैं जो कि वर्तमान में हरियाणा के फरीदाबाद जिले में पड़ता है तो कुछ मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक ग्राम को उनका जन्मस्थान मानते हैं। सूरदास एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में थे। इनके पिता रामदास भी गायक थे। इनके बारे में प्रचलित है कि ये बचपन से साधु प्रवृति के थे। इन्हें सगुन बताने कला वरदान रूप में मिली थी। जल्द ही ये बहुत प्रसिद्ध भी हो गये थे। लेकिन इनका मन वहां नहीं लगा और अपने गांव को छोड़कर समीप के ही गांव में तालाब किनारे रहने लगे। जल्द ही ये वहां से भी चल पड़े और आगरा के पास गऊघाट पर रहने लगे। यहां ये जल्द ही स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हो गये। यहीं पर इनकी मुलाकात वल्लभाचार्य जी से हुई। उन्हें इन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी और श्री कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करवाया। वल्लभाचार्य ने इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में लीलागान का दायित्व सौंपा जिसे ये जीवन पर्यंत निभाते रहे।
 
सूरदास की जन्मतिथि
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सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी' सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है -

मुनि पुनि के रस लेख।
दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख॥

इसका अर्थ संवत् 1607 ईस्वी में माना गया है, अतएव "साहित्य लहरी' का रचना काल संवत् 1607 वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री वल्लभाचार्य थे।

सूरदास का जन्म सं० 1540 ईस्वी के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् 1535 वि० समीचीन जान पड़ती है। 

क्या सूरदास जन्मान्ध थे ?
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सूरदास श्रीनाथ की "संस्कृतवार्ता मणिपाला', श्री हरिराय कृत "भाव-प्रकाश", श्री गोकुलनाथ की "निजवार्ता' आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रूप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।

श्यामसुन्दर दास ने इस सम्बन्ध में लिखा है - "सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।" डॉक्टर [(हजारीप्रसाद द्विवेदी)] ने लिखा है - "सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।"

सूरदास एक कृष्ण भक्त के रूप में 
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इनके विषय में कई कथा प्रचलित हैं कहते हैं एक बार ये एक कुंये में गिर जाते हैं और वहाँ भी कृष्ण भक्ति में लीन हो जाते हैं तब स्वयं कृष्ण भगवान ने उनकी जान बचाई थी तब देवी रुक्मणि नेश्री कृष्ण से पूछा था कि वे क्यूँ स्वयं सूरदास जी की जान बचा रहे हैं तब कृष्ण ने कहा था मैं एक सच्चे भक्त की मदद कर रहा हूँ यह उसकी उपासना का फल हैं.जब कृष्ण उन्हें बचाने गये तब उन्होंने सुरदार को उनकी नेत्र ज्योति दी तब सूरदास ने अपने इष्ट को देखा. तब कृष्ण ने सूरदास से कहा कि वे कोई भी वरदान मांगे. तब सूरदास ने उत्तर दिया उसे सब कुछ मिल चूका है और वो चाहता हैं कि उसे वापस अँधा कर दे क्यूंकि वो अपने इस इष्ट को देखने के बाद किसी अन्य को देखना नहीं चाहते. कृष्ण ने सुरदास की इच्छा पूरी की और उन्हें जन्म जन्मांतर तक ख्याति प्राप्त हो ऐसा आशीर्वाद दिया।

सूरदास एक कवी के रूप में
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सूरदास हिंदी भाषा के सूर्य कहे जाते हैं इनकी रचनाओं में कृष्ण की भक्ति का वर्णन मिलता हैं. इनकी सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती,ब्याहलों रचनाये प्रसिद्ध हैं।सूरदास जी ने अपने पदों के द्वारा यह संदेश दिया हैं कि भक्ति सभी बातों से श्रेष्ठ हैं। उनके पदों में वात्सल्य, श्रृंगार एवम शांत रस के भाव मिलते हैं। सूरदास जी कूट नीति के क्षेत्र में भी काव्य रचना करते हैं। उनके पदों में कृष्ण के बाल काल का ऐसा वर्णन हैं मानों उन्होंने यह सब स्वयं देखा हो. यह अपनी रचनाओं में सजीवता को बिखेरते हैं। इनकी रचनाओं में प्रकृति का भी वर्णन हैं जो मन को भाव विभोर कर देता हैं। सूरदास जी भावनाओं के घनी हैं इसलिए उनकी रचनायें भावनात्कम दृष्टि कोण से अत्यंत लुभावनी हैं। सूरदास जी के पद ब्रज भाषा में लिखे गये है। सूरसागर नामक इनकी रचना सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं।

 रचनाएं
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सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच मुख्य ग्रंथ

(1) सूरसागर 👉 जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।

(2)👉 सूरसारावली

(3) साहित्य-लहरी 👉 जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।

(4) 👉 नल-दमयन्ती

(5) 👉 ब्याहलो

(6) 👉  '''''पद संग्रह' दुर्लभ पद 

उपरोक्त में अन्तिम दो अप्राप्य हैं।
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रन्थों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।
साहित्य लहरी, सूरसागर, सूर की सारावली।श्रीकृष्ण जी की बाल-छवि पर लेखनी अनुपम चली।।

सूरसागर का मुख्य वर्ण्य विषय श्री कृष्ण की लीलाओं का गान रहा है।

सूरसारावली में कवि ने जिन कृष्ण विषयक कथात्मक और सेवा परक पदों का गान किया उन्ही के सार रूप में उन्होंने सारावली की रचना की है। सहित्यलहरी मैं सूर के दृष्टिकूट पद संकलित हैं।

कैसे हुई सूरदास की मृत्यु
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अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् 1620 से 1648 ईस्वी के मध्य स्वीकार किया जाता है। रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1540 वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् 1620 ईस्वी के आसपास माना जाता है।

मान्यता है कि इन्हें अपने देहावसान का आभास पहले से ही हो गया था। इनकी मृत्यु का स्थान गांव पारसौली माना जाता है। मान्यता है कि यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने रासलीला की थी। श्री नाथ जी की आरती के समय जब सूरदास वहां मौजूद नहीं थे तो वल्लाभाचार्य को आभास हो गया था कि सूरदास का अंतिम समय निकट है। उन्होंने अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए इसी समय कहा था कि पुष्टिमार्ग का जहाज़ जा रहा है जिसे जो लेना हो ले सकता है। आरती के बाद सभी सूरदास जी के निकट आये। तो अचेत पड़े सूरदास जी में चेतना आयी। कहते हैं कि जब उनसे सभी ज्ञान ग्रहण कर रहे थे तो चतुर्भुजदास जो कि वल्लाभाचार्य के ही शिष्य थे ने शंका प्रकट की कि सूरदास ने सदैव भगवद्भक्ति के पद गाये हैं गुरुभक्ति में कोई पद नहीं गाया। तब उन्होंने कहा कि उनके लिये गुरु व भगवान में कोई अंतर नहीं है जो भगवान के लिये गाया वही गुरु के लिये भी। तब उन्होंने भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो नामक पद गाया। इसके बाद चित्त और नेत्र की वृति को लेकर विट्ठलनाथ जी द्वारा पूछे प्रश्न पर बलि बलि हों कुमरि राधिका नंद सुवन जासों रति मानी और खंजन नैन रूप रस माते पद गाये। यही उनके अंतिम पद भी थे जो उन्होंने गाये। इसके बाद पुष्टिमार्ग का जहाज़ गोलोक को गमन कर गया।

सूरदास जी के पद 
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सूरदास एक महान कवि थे जिनकी बहुत सारी रचनाएँ ज्ञात हैं, और उनमे उनके पद भी शामिल हैं जिनमे निम्न पद प्रमुख है।

1 हरि पालनैं झुलावै

2 मुख दधि लेप किए

3 कबहुं बढ़ैगी चोटी

4 दाऊ बहुत खिझायो

5 मैं नहिं माखन खायो

6 हरष आनंद बढ़ावत

7 भई सहज मत भोरी

8 अरु हलधर सों भैया

9 कबहुं बोलत तात

10 चोरि माखन खात

11 गाइ चरावन जैहौं

12 धेनु चराए आवत

13 मुखहिं बजावत बेनु

14 कौन तू गोरी

15 मिटि गई अंतरबाधा

सूरदास के 11 पद अर्थ सहित 
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1👉 चरन कमल बंदौ हरि राई ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई ॥1॥

अर्थ👉 श्रीकृष्ण की कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ लेता है, अन्धे को सबकुछ दिखाई देने लगता है, बहरा व्यक्ति सुनने लगता है, गूंगा बोलने लगता है, और गरीब व्यक्ति भी अमीर हो जाता है. ऐसे दयालु श्रीकृष्ण की चरण वन्दना कौन नहीं करेगा.

👉 अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥2॥

अर्थ👉 यहाँ अव्यक्त उपासना को मनुष्य के लिए क्लिष्ट बताया है. निराकार ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है. वह मन और वाणी का विषय नहीं है. ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गूंगे को मिठाई खिला दी जाय और उससे उसका स्वाद पूछा जाए, तो वह मिठाई का स्वाद नहीं बता सकता है. उस मिठाई के रस का आनंद तो उसका अंतर्मन हीं जानता है. निराकार ब्रह्म का न रूप है, न गुण. इसलिए मन वहाँ स्थिर नहीं हो सकता है, सभी तरह से वह अगम्य है. इसलिए सूरदास सगुण ब्रह्म अर्थात श्रीकृष्ण की लीला का ही गायन करना उचित समझते हैं.

👉 अब कै माधव मोहिं उधारि।
मगन हौं भाव अम्बुनिधि में कृपासिन्धु मुरारि॥
नीर अति गंभीर माया लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥
मीन इन्द्रिय अतिहि काटति मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत उरझि मोह सिबार॥
काम क्रोध समेत तृष्ना पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥
थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल सुनहु करुनामूल।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु सूर ब्रज के कूल॥3॥

अर्थ👉  संसार रूपी सागर में माया रूपी जल भरा हुआ है, लालच की लहरें हैं, काम वासना रूपी मगरमच्छ है, इन्द्रियाँ मछलियाँ हैं और इस जीवन के सिर पर पापों की गठरी रखी हुई है. इस समुद्र में मोह सवार है. काम-क्रोध आदि की वायु झकझोर रही है. तब एक हरि नाम की नाव हीं पार लगा सकती है. स्त्री और बेटों का माया-मोह इधर-उधर देखने हीं नहीं देता. भगवान हीं हाथ पकड़कर हमारा बेड़ा पार कर सकते हैं।

👉 मोहिं प्रभु तुमसों होड़ परी।
ना जानौं करिहौ जु कहा तुम नागर नवल हरी॥
पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक पकरी।
मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो पाप पहार दरी॥
एक अधार साधु संगति कौ रचि पचि के संचरी।
भ न सोचि सोचि जिय राखी अपनी धरनि धरी॥
मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु पूंछत पहर घरी।
स्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं कत यह जकनि करी॥
सूरदास बिनती कहा बिनवै दोषहिं देह भरी।
अपनो बिरद संभारहुगै तब यामें सब निनुरी॥4॥

अर्थ👉  हे प्रभु, मैंने तुमसे एक होड़ लगा ली है. तुम्हारा नाम पापियों का उद्धार करने वाला है, लेकिन मुझे इस पर विश्वास नहीं है. आज मैं यह देखने आया हूँ कि तुम कहाँ तक पापियों का उद्धार करते हो. तुमने उद्धार करने का हठ पकड़ रखा है तो मैंने पाप करने का सत्याग्रह कर रखा है. इस बाजी में देखना है कौन जीतता है. मैं तुम्हारे कमलदल जैसे नेत्रों से बचकर, पाप-पहाड़ की गुफा में छिपकर बैठ गया हूं।

मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?
कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात?
गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत हँसत-सबै मुसकात।
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुँ न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत॥5।।

अर्थ👉 बालक श्रीकृष्ण मैया यशोदा से कहते हैं, कि बलराम भैया मुझे बहुत चिढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि तुमने मुझे दाम देकर खरीदा है, तुमने मुझे जन्म नहीं दिया है. इसलिए मैं उनके साथ खेलने नहीं जाता हूँ, वे बार-बार मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे माता-पिता कौन हैं. नन्द बाबा और मैया यशोदा दोनों गोरे हैं, तो तुम काले कैसे हो गए. ऐसा बोल-बोल कर वे नाचते हैं, और उनके साथ सभी ग्वाल-बाल भी हँसते हैं. तुम केवल मुझे हीं मारती हो, दाऊ को कभी नहीं मारती हो. तुम शपथ पूर्वक बताओ कि मैं तेरा हीं पुत्र हूँ. कृष्ण कि ये बातें सुनकर यशोदा मोहित हो जाती है.
 
👉 मुख दधि लेप किए सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥6।।

👉 अर्थ👉 भगवान श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल चलते हैं. उनके छोटे से हाथ में ताजा मक्खन है और वे उस मक्खन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं. उनके शरीर पर मिट्टी लगी हुई है. मुँह पर दही लिपटा है, उनके गाल सुंदर हैं और आँखें चपल हैं. ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा हुआ है. बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं. जब वे घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भौंरा मधुर रस पीकर मतवाले हो गए हैं. उनका सौंदर्य उनके गले में पड़े कंठहार और सिंह नख से और बढ़ जाती है. सूरदास जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए. अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक हीं है।।7।।
 
👉 बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
अर्थ👉 श्रीकृष्ण जब पहली बार राधा से मिले, तो उन्होंने राधा से पूछा कि हे गोरी! तुम कौन हो? कहाँ रहती हो? किसकी पुत्री हो? मैंने तुम्हें पहले कभी ब्रज की गलियों में नहीं देखा है. तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहती. इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी कि नंदजी का लड़का माखन चोरी करता फिरता है. तब कृष्ण बात बदलते हुए बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे. अच्छा चलो, हम दोनों मिलजुलकर खेलते हैं. सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।।8।।
 
👉 मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥9।।

अर्थ👉  यह ब्रज की मिट्टी धन्य है जहाँ श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं. उस भूमि पर कृष्ण का ध्यान करने से मन को बहुत शांति मिलती है. सूरदास मन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तुम क्यों इधर-उधर भटकते हो. ब्रज में हीं रहो, यहाँ न किसी से कुछ लेना है, और न किसी को कुछ देना है. ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बरतनों से जो कुछ मिले उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है. सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु गाय भी नहीं कर सकती है।।10।।
 
👉 चोरि माखन खात चली ब्रज घर घरनि यह बात।
नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥
कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।
कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥
कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।
हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥
कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।
कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥
सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।
जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार॥

अर्थ👉 ब्रज के घर-घर में यह बात फ़ैल गई है कि श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ चोरी करके माखन खाते हैं. एक स्थान पर कुछ ग्वालिनें आपस में चर्चा कर रही थी. उनमें से कोई ग्वालिन बोली कि अभी कुछ देर पहले हीं वो मेरे घर आए थे. कोई बोली कि मुझे दरवाजे पर खड़ी देखकर वे भाग गए. एक ग्वालिन बोली कि किस प्रकार कन्हैया को अपने घर में देखूं. मैं तो उन्हें इतना ज्यादा और बढ़िया माखन दूँ जितना वे खा सकें. लेकिन किसी तरह वे मेरे घर तो आएँ. तभी दूसरी ग्वालिन बोली कि यदि कन्हैया मुझे दिख जाएँ तो मैं उन्हें गोद में भर लूँ. एक और ग्वालिन बोली कि यदि मुझे वे मिल जाएँ तो मैं उन्हें ऐसा बांधकर रखूं कि कोई छुड़ा ही न सके. सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार ग्वालिनें प्रभु से मिलने की जुगत बिठा रही थी. कुछ ग्वालिनें यह भी कह कर रही थी कि यदि नंदपुत्र उन्हें मिल जाएँ तो वह हाथ जोड़कर उन्हें मना लें और पतिरूप में स्वीकार कर लें।
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संन्त सूरदास जी ने क्यों किया अपनी आँखों का त्याग

संन्त सूरदास जी ने क्यों किया अपनी आँखों का त्याग
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आपका जन्म से असली नाम मदन मोहन था जन्म से सूरदास अन्धे नहीं थे।

जवानी तक आपकी आंखें ठीक रहीं तथा विद्या ग्रहण की। विद्या के साथ-साथ राग सीखा।

हे भक्त जनो! जब किसी पुरुष के पास गुण तथा ज्ञान आ जाए, फिर उसको किसी बात की कमी नहीं रहती। गुण भी तो प्रभु की एक देन है, जिस पर प्रभु दयाल हुए उसी को ही ऐसी मेहर वरदान होती है।

मदन मोहन कविताएं गाकर सुनाता तो लोग प्रेम से सुनते तथा उसको धन, वस्त्र तथा उत्तम वस्तुएं भी दे देते। इस तरह मदन मोहन की चर्चा तथा यश होने लगा, दिन बीतते गए। मदन मोहन कवि के नाम से पहचाना जाने लगा।

 सूरदास बनना
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मदन मोहन एक सुंदर नवयुवक था तथा हर रोज़ सरोवर के किनारे जा बैठता तथा गीत लिखता रहता एक दिन ऐसा कौतुक हुआ, जिसने उसके मन को मोह लिया।

वह कौतुक यह था कि सरोवर के किनारे, एक सुन्दर नवयुवती, गुलाब की पत्तियों जैसा उसका तन था। पतली धोती बांध कर वह सरोवर पर कपड़े धो रही थी। उस समय मदन मोहन का ध्यान उसकी तरफ चला गया, जैसे कि आंखों का कर्म होता है, सुन्दर वस्तुओं को देखना। सुन्दरता हरेक को आकर्षित करती है।

उस सुन्दर युवती की सुन्दरता ने मदन मोहन को ऐसा आकर्षित किया कि वह कविता लिखने से रुक गया तथा मनोवृति एकाग्र करके उसकी तरफ देखने लगा।

उसको इस तरह लगता था जैसे यमुना किनारे राधिका स्नान करके बैठी हुई वस्त्र साफ करने के बहाने मोहन मुरली वाले का इंतजार कर रही थी, वह देखता गया।

उस भाग्यशाली रूपवती ने भी मदन मोहन की तरफ देखा। कुछ लज्जा की, पर उठी तथा निकट हो कर कहने लगी - 'आप मदन मोहन हैं?

हां, मैं मदन मोहन कवि हूं गीत लिखता हूं, गीत गाता हूं।

यहां गीत लिखने आया था तो आप की तरफदेखा 'क्यों?'

'क्योंकि आपका रूप सुन्दर लगा आप!'
'सुन्दर, बहुत सुन्दर-राधा प्रतीत हो रही हो यमुना किनारे-मान सरोवर किनारे अप्सरा-जो जीवन दे मेरी आंखों की तरफ देख सकोगे।

'हां, देख रही हूं 'क्या दिखाई दे रहा है'

'मुझे अपना चेहरा आपकी आंखों में दिखाई दे रहा है। मदन मोहन ने कहा, कल भी आओगी?' 'आ जाउंगी! जरूर आ जाउंगी! ऐसा कह कर वह पीछे मुड़ी तथा सरोवर में स्नान करके घर को चली गई।

अगले दिन वह फिर आई। मदन मोहन ने उसके सौंदर्य पर कविता लिखी, गाई तथा सुनाई। वह भी प्यार करने लग पड़ी। प्यार का सिलसिला इतना बढ़ा कि बदनामी का कारण बन गया। मदन मोहन का पिता नाराज हुआ तो वह घर से निकल गया और बाहर मंदिर में आया, फिर भी मन संतुष्ट न हुआ। वह चलता-चलता मथुरा आ गया। वृंदावन में इस तरह घूमता रहा। मन में बेचैनी रही। वह नारी सौंदर्य को न भूला एक दिन वह मंदिर में गया। मंदिर में वही सुन्दर स्त्री जो शादीशुदा थी उसके चेहरे की पद्मनी सूरत देख कर मदन मोहन का मन मोहित हो गया। वह मंदिर में से निकल कर घर को गई तो मदन मोहन भी उसके पीछे-पीछे चल दिया।

वह चलते-चलते-चलते उसके घर के आगे जा खड़ा हुआ। जब वह घर के अंदर गई तो मदन मोहन ने घर का दरवाज़ा खट-खटाया। उसका पति बाहर आया उसने मदन मोहन को देखा और उसकी संतों वाली सूरत पर वह बोला बताओ महात्मा जी?

मदन मोहन अभी जो आई है वह आप की भी कुछ लगती होगी पति-'हां, महात्मा जी! 

हुक्म करो क्या बात हुई? मदन मोहन-'हुआ कुछ नहीं बात यह है कि  मैं विनती करना चाहता हूं पति-'आओ! अंदर आओ बैठो,सेवा बताओ,  जो कहोगे किया जाएगा सब आप महात्मा पुरुषों की तो माया है। मदन मोहन घर के अंदर चला गया।

अंदर जा कर बैठा तो उसकी पत्नी को बुलाया। वह आ कर बैठ गई तो मदन मोहन ने कहा-हे भक्त जनो! दो सिलाईयां गर्म करके ले आओ भगवान आप का भला करेगा वे दम्पति समझ न सके कि किया मामला है। स्त्री सलाईयां गर्म करके ले आई।

मदन मोहन ने सलाईयां पकड़ ली तथा मन को कहता गया देख लो जी भर कर देख लो फिर नहीं देखना यह कह कर सलाईयों को आंखों में चुभो लिया तथा सूरदास बन गया वह स्त्री-पुरुष स्तब्ध तथा दुखी हुए उन्होंने महीना भर मदन मोहन को घर रख कर सेवा की आंखों के जख्म ठीक किये तथा फिर सूरदास बन कर मदन मोहन वहां से चल पड़ा।

बादशाही कोप 
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सूरदास गीत गाने लगा वह इतना विख्यात हो गया कि दिल्ली के बादशाह के पास भी उसकी शोभा जा पहुंची।

अपने अहलकारों द्वारा बादशाह ने सूरदास को अपने दरबार में बुला लिया।

उसके गीत सुन कर वह इतना खुश हुआ कि सूरदास को एक कस्बे का हाकिम बना दिया,  पर ईर्ष्या करने वालों ने बादशाह के पास चुगली करके फिर उसे बुला लिया और जेल में नज़रबंद कर दिया। 

सूरदास जेल में रहता था उसने जब जेल के दरोगा से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है?

तो उसने कहा -'तिमर' यह सुन कर सूरदास बहुत हैरान हुआ। कवि था, ख्यालों की उड़ान में सोचा,

 'तिमर.....मेरी आंखें नहीं मेरा जीवन तिमर (अन्धेर) में, बंदीखाना तिमर (अन्धेरा) तथा रक्षक भी तिमर (अन्धेर)!'

उसने एक गीत की रचना की तथा उस गीत को बार-बार गाने लगा।

*वह गीत जब बादशाह ने सुना तो खुश होकर सूरदास को आज़ाद कर दिया*

तथा सूरदास दिल्ली जेल में से निकल कर मथुरा की तरफ चला गया।

 रास्ते में कुआं था, उसमें गिरा, पर बच गया तथा मथुरा-वृंदावन पहुंच गया। वहां भगवान कृष्ण का यश गाने लगा।

सूर-सागर की रचना सूरदास भगवान श्री कृष्ण जी की नगरी में पहुंचा। अनुभवी प्रकाश से उसकी आंखों के आगे श्री कृष्ण लीला आई। 

उसने स्वामी 'वल्लभाचार्य' जी को गुरु माना तथा कहना मान कर 'गऊ घाट' बैठ कर  'श्री मद्भागवत' को भाषा कविता में उच्चारण करना शुरू किया एक आदमी लिखने के लिए रखा।

 *सूरदास बोलते जाते तथा लिखने वाला लिखते रहा*

 *सूरदास जी ने 75000 चरण लिखे थे कि आप का देहांत हो गया* 'सूर-सागर' आप की एक अटल स्मृति है। आपकी बाणी का एक शब्द है -

हरि के संग बसे हरि लोक|| 
तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक||१|| रहाउ ||
दरसनु पेखिभए निरबिखई पाए है सगले थोक|| 
आन बसतु सिउ काजुन कछुऐ सुंदर बदन अलोक ||१|| 
सिआम सुंदर तजि आन जुचाहत जिउ कुसटी तनि जोक || 
सूरदास मनु प्रभि हथि लीनोदीनो इहु परलोक ||२||

परमार्थ-परमात्मा के भक्त परमात्मा के साथ ही रहते हैं।

उन्होंने तो अपना सब कुछ हरि को अर्पण कर दिया है।

वह सदा सहज प्यार तथा खुशी को अनुभव करते रहते हैं। भगवान के दर्शनों ने उनको ऐसा संयम वाला बना दिया है कि उन्होंने इन्द्रियों पर काबू पा लिया है।

जिसका फल यह हुआ कि भगवान ने उनको सब पदार्थ दिए हैं।

जब प्रभु का खिलता मुख देखते हैं,

तो किसी के दीदार की आवश्यकता नहीं रहती| 
परमात्मा को छोड़ कर जो लोग अन्य तरफ घूमते हैं, वे अपने तन-मन को नष्ट करते हैं।

सूरदास जी कहते हैं, मैं तो उनका हूं,
 वह मेरे हैं भक्त प्रभु के हैं। 
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1236 वाँ आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य जन्मोत्सव 12-05-2024 विशेष

1236 वाँ आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य जन्मोत्सव 12-05-2024 विशेष
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*'शंकरो शंकर: साक्षात्'।*

एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र 7 वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘'शंकर'’, जी आगे चलकर '‘जगद्गुरु शंकराचार्य'’ के नाम से विख्यात हुआ। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’

कुछ समय के पश्चात ई. सन् 686 में वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिन्ह, ललाट पर नेत्र चिन्ह तथा स्कंध पर शूल चिन्ह परिलक्षित कर उसे शिव अवतार निरूपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्य जी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है। 

आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ई. सन् 788 को तथा मोक्ष ई. सन् 820 स्वीकार किया जाता है, परंतु सुधन्वा जो कि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द 2631 शक् (507 ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द 2663 शक् (475 ई०पू०) सर्वमान्य है। 

शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।

लेकिन हिंदुओं के साधुजनों और ब्राह्मणों ने मिलकर सब कुछ मटियामेट कर दिया। अब चार की जगह चालीस शंकराचार्य होंगे और उन सभी की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ठाठ-बाट है क्योंकि उनके पीछे चलने वाले उनके चेले-चपाटियों की भरमार है जो उनके अहंकार को पोषित करते रहते हैं।

चार प्रमुख मठ निम्न हैं:
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1. वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)

*शंकराचार्य के चार शिष्य*  
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1. पद्मपाद (सनन्दन)
2. हस्तामलक 
3. मंडन मिश्र 
4. तोटक (तोटकाचार्य)। 
माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।

*ग्रंथ* : 
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शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया। इनके अलावा भी शंकरचार्य जी ने अनेको ग्रंथ एवं भाष्य जंकल्याणार्थ लिखे। 

*दसनामी सम्प्रदाय* : 
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शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।

*दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्राय*:
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गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।

*यह दस संप्रदाय निम्न हैं* : 
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1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।

हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी हरिहर तीर्थ।

*शंकराचार्य का दर्शन* : 
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शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है।

अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।
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वैशाख की कहानियाँ (रविवार की कथा

वैशाख की कहानियाँ (रविवार की कथा)
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          एक बुढ़िया थी। रविवार के व्रत करती थी। उसका गोबर का नेम था। गोबर से चूल्हा लीप के तब रोटी बना के खाती थी। पड़ोसन के गऊ थी। उसके यहाँ से गोबर लाती थी। 
          एक दिन पड़ोसन ने गऊ अंदर बाँध ली। बुढ़िया का ना गोबर मिला, ना करा, ना खाया। भूखी रह गयी।
          सपने में सूर्य नारायण दीखे बोले बुढ़िया भूखी क्यों पड़ी है। बुढ़िया बोली, 'देव मुझे गोबर का नेम है। चूल्हा गोबर से लीप के, रोटी बनाऊँ हूँ। ना गोबर मिला, ना लीपा, ना खाया।' सूर्य नारायण बोले, 'बाहर निकल के देख, तेरे गोरी-गाय, गोरा बछड़ा बंध रहे हैं। 
          गाय ने एक लड़ी सोने की, एक गोबर की दी। पड़ोसन दे देख लिया। सोने की पड़ोसन ले गई, गोबर की बुढ़िया ले आई। लीप-पोत के खा ले। रोज ऐसे ही करे।
          भगवान ने सोचा मैंने बुढ़िया को धन दिया। बुढ़िया को लेना ना आया। अब सूरज भगवान ने आँधी-मेघ बरसा दिया। बुढ़िया ने गऊ अंदर बाँध ली। तब बुढ़िया को पता चला सोने की लड़ी घर में रख ली। गोबर से चूल्हा लीप के रोटी बना ली, और खाली।
          पड़ोसन को गुस्सा आया उसने राजा से शिकायत की कि बुढ़िया की गऊ तो सोना हगती है। ऐसी गऊ तो राजा-महाराजा के पास होनी चाहिए। राजा ने नौकर भेजकर गऊ मँगा ली। राजा बोला गलीचे बिछा दो गऊ सोना हगेगी। गऊ ने सारा घर गोबर से भर दिया।
          राजा ने बुढ़िया को बुलाया। राजा बोला तेरे घर पर तो सोना हगती है, हमारा महल गोबर से भर दिया। बुढ़िया बोली, 'महाराज मेरे गोबर का नेम है। गोबर से चूल्हा लीपकर खाना बनाकर खाती हूँ। एक दिन मुझे गोबर नहीं मिला, भूखी पड़ी रही, सो गई। सपने में सूर्य नारायण दीखे। उन्होंने कहा, बुढ़िया भूखी क्यों पड़ी है ?' मैंने कहा, 'बेटा मेरे गोबर का नेम है, आज गोबर नहीं मिला।' उसने कहा, 'बाहर जाके देखो।' मैंने जाके देखा गऊ बछड़ा बँधे हैं। गाय एक सोने की करे, एक गोबर की। पड़ोसन सोने की ले जावे, गोबर की मैं ले जाती। एक दिन आँधी-मेघ बरसा, मैंने गऊ अंदर बाँध ली जब देखा एक सोने की लड़ी, एक गोबर की पोथी। पड़ोसन को उस दिन सोना नहीं मिला तो आपसे चुगली कर दी। मुझे तो सूर्य नारायण ने दी थी।'
          राजा ने बुढ़िया को गऊ भी दी और धन दिया। पड़ोसन को दंड दिया। जैसे बुढ़िया ने पाई वैसे सब कोई पावें    

                          "जय जय श्री हरि"
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शनिवार, 11 मई 2024

कैसे पड़ा रिलायंस का नाम ?

 

बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि रिलायंस से पहले उनकी कंपनी का नाम तीन बार बदला गया. कंपनी की नींव रखने वाले रिलायंस के फाउंडर धीरूभाई अंबानी ने तीन बार बदलने के बाद कंपनी का नाम रिलायंस रखा, लेकिन इसके पीछे की वजह आप जानते हैं? रिलायंस नाम के पीछे का किस्सा बहुत ही दिलचस्प है.

कैसे पड़ा रिलायंस का नाम ?

धीरूभाई अंबानी ने साल 1958 में रिलायंस ग्रुप की नींव रखी. अपने चचेरे भाई चंपकलाल दमानी के साथ मिलकर उन्होंने कंपनी की शुरुआत की. इससे पहले 1950 के दशक में धीरूभाई अंबानी ने यमन में मसाले और पॉलिएस्टर यार्न लाने के लिए एक बिजनेस शुरु किया, जिसका नाम माजिन रखा. यहीं से रिलायंस की शुरुआत हुई. यही कंपनी आगे चलकर रिलायंस इंजस्ट्रीज बनी. कुछ साल वहां काम करने के बाद साल 1960 के दशक में धीरूभाई अंबानी और उनके भाई चंपकलाल दमानी भारत लौटे. उन्होंने भारत आकर रिलायंस कमर्शियल कॉर्पोरेशन नाम से नए बिजनेस की शुरुआत की.

छोटे से बिजनेस को बनाया बड़ा कारोबार

धीरूभाई अंबानी ने एक छोटे व्यापारी के तौर पर अपना कारोबार शुरू किया. अपने मेहनत के दम पर उन्होंने कुछ ही सालों में बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया. लेकिन कारोबार बढ़ने के बाद दोनों पार्टनर के बीच मतभेद भी शुरू हुआ, जिसके बाद साल 1965 में अंबानी और दमानी का बिजनेस बंट गया. बिजनेस पार्टनरशिप टूट गई. बंटवारे के बाद धीरूभाई अंबानी ने कपड़ा कारोबार पर फोकस किया. बंटवारे के बाद साल 1966 में धीरूभाई अंबानी के कंपनी का नाम रिलायंस कमर्शियल कॉपोरेशन से बदलकर रिलायंस टेक्सटाइल्ट कर दिया.

फिर पड़ा रिलायंस इंडस्ट्रीज का नाम

कपड़ा कारोबार में छा जाने के बाद धीरूभाई अंबानी ने अलग-अलग सेक्टर्स में अपना कारोबार फैलाना शुरू किया. उन्होंने अब कंपनी का नाम रिलायंस कमर्शियल कॉपोरेशन से बदलकर रिलायंस इंजस्ट्रीज लिमिटेड रखा. रिलायंस इंडस्ट्रीज तक पहुंचने में कंपनी का नाम तीन

बार बदल गया. पिता के निधन के बाद कंपनी को मुकेस अंबानी और अनिल अंबानी के बीच बांट दिया गया.

'रिलायंस' नाम ही क्‍यों ?

धीरूभाई अंबानी ने कंपनी का नाम 'रिलायंस' ही चुना. इस नाम के पीछे उनकी सोच थी कि यह कंपनी उत्पादों और असाधारण सेवा के लिए भरोसे का प्रतीक बनेगी. वो कंपनी के नाम पर भरोसे और आत्मनिर्भरता को बनाए रखना चाहते थे. इन नाम के पीछे उनका मकसद आत्मविश्वास पैदा करना और हाई क्‍वालिटी प्रोडक्‍ट बनाने की मिसाल पैदा करना था. Reliance का मतलब ही आश्वस्त या भरोसेमंद निर्भरता है, इसलिए उन्होंने अपनी कंपनी का नाम तीन बार बदलने के बाद भी रिलायंस शब्द को जारी रखा .

जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।


श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं।

इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।

जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।

एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-

नारद- बालक तुम कौन हो ?

बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।

नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ?

बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।

तब नारद ने ध्यान धर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।

बालक- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?

नारद- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।

बालक- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?

नारद- शनिदेव की महादशा।

इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।

नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।

ब्रह्मा जी से वरदान मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।

शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।

अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए।ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वरदान मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-

1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।

2- मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।

ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।अतः तभी से शनि "शनै:चरति य: शनैश्चर:" अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।

सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है.....


जय जय श्री राम 🙏🚩


हिंदू लङकियाँ सतर्क रहें और सावधान रहें, वरना नई मुसीबत के लिए तैयार रहिएगा...

 

हिंदू लङकियाँ सतर्क रहें और सावधान रहें, वरना नई मुसीबत के लिए तैयार रहिएगा...

बहुतों को शायद ये पता न हो कि दरगाहो मे एक बेड़ी बाँधने और काटने की रस्म होती है। दरगाह मे जाकर मन्नत माँगने वाली लड़की के पैर मे काले रंग के धागे से बेड़ी बाँध दी जाती है।

ये बेड़ी कथित मन्नत के पूरा होने पर दरगाह मे जाकर खादिम से कटवाई जाती है, तब जाकर वो लड़की बेड़ी कटवाकर मुक्त होती है।

ये मजारों के खादिमों का नया टंटा है, जिसमे अधिकतर हिन्दू लड़कियां दरगाहों पर बेड़ी बँधवा रही हैं। इसकी शुरुआत कलियर शरीफ से हुई थी... यह भोली भाली हिन्दू लड़कियों को फ़साने का टोटका है जो बहुत हद तक कामयाब हो रहा है।

आजकल हर छोटी बडी दरगाह मे यही बाँधने काटने का धंधा चाल रहा है। पैर के पास जहां पायल या धागा पहनते है उस जगह पर मंगल ग्रह का निवास माना जाता है और मंगल ग्रह को काली चीज पसंद नही इसलिए काला धागा पैरों में नही पहनना चाहिए। इससे अशुभ हो सकता है।

कई लडकियों और लेडीज के पैर में ऐसा धागा देखा है पर तब पता नही था कि ये धागा किसलिए है। सोचा कि फैशन होगा। यदि आप ऐसा धागा पहने किसी लडकी को देखें तो उसे समझाएं। वर्ना वो भी अगली "श्रद्धा" बनने की राह पर है और फिर सूटकेस में पैक होगी।

परंतु फिर भी कुछ लोग पैरों में काला धागा बांधने के पीछे अपने अज्ञानता पूर्ण तर्क देते हैं..

आंख कान खुला रखें.

"रेंगता था हर नज़र का सांप उसके जिस्म पर, मैं ये कैसे मान लूं उसका बदन संदल न था"

 


हाईवे में जमीन जाने से एकदम से अमीर हुए लोगों और टेबल के नीचे से कमाई करने वाले बाबुओं की तो मैं नहीं कहता लेकिन मेरे जैसे जिन साधारण मनुष्यों के बच्चे स्कूल में, वह भी प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं; उनके लिए अप्रैल का महीना बड़ा कठिन गुजरता है।

दिल्ली जैसे बड़े शहर में वैसे तो किसी ठीक-ठाक स्कूल में बच्चों को एडमिशन जल्दी से मिलता नहीं है। लेकिन एक बार जब एडमिशन मिल जाता है तो चालाक स्कूल वाले मोटी फीस के लिए फिर हर साल अप्रैल में बच्चों का रि-एडमिशन करते हैं और मोटी फीस वसूलते हैं।

तो हुआ यूं कि एक नामी गिरामी प्राइवेट स्कूल में दोनों बच्चों की भारी- भरकम फीस जमा करने के बाद शर्मा जी स्कूटी से ऑफिस आ रहे थे । रास्ते मे शर्मा जी के आगे एक सुंदर महिला स्कूटी से जा रही थी । शर्मा जी उस सुंदरी को देखते हुए मोटी फीस भरने का बिल्कुल ताज़ा गम भुलाकर एक रूमानी सा शेर-

"रेंगता था हर नज़र का सांप उसके जिस्म पर,

मैं ये कैसे मान लूं उसका बदन संदल न था"

गुनगुनाते हुए ऑफिस चले आ रहे थे।

अचानक जेएनयू चौराहे के पास लाइट रेड हो गई । वह महिला तो

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की उल्टी गिनती पूरी होने तक स्टॉप लाइन से पीछे रुक गई लेकिन शर्मा जी का ध्यान चूंकि रेड लाइट की तरफ कम और उस महिला की तरफ ज्यादा था, अतः इमरजेंसी ब्रेक मारते-मारते भी शर्मा जी ज़ेबरा क्रॉसिंग पार कर गए।

ट्रैफिक पुलिस वाले होते तो शर्मा जी कोई गोली दे देते लेकिन नाश जाए चौराहों पर लगे इन सीसीटीवी कैमरों का , जिसने झट से शर्मा जी की स्कूटी सहित फोटो खींची और फट से 2000 का चालान बना दिया। एक तो अप्रैल की गरीबी , उस पर आटा भी गीला हो गया।

अच्छा यहां तक तो फिर भी ठीक था। विद्वानों ने कहा है कि पैसा हाथ का मैल होता है, इसके नुकसान पर ज्यादा शोक नहीं करना चाहिए।

लेकिन असल शोक तब हुआ जब इन नासपीटे ट्रैफिक वालों ने फोटो सहित चालान शर्मा जी के घर भेज दिया । शर्मा जी का bad luck देखिये कि चालान शरमाईन भाभी ने रिसीव किया। भाभी जी को चालान की भाषा और पेनाल्टी की राशि तो समझ नहीं आई लेकिन चालान के साथ लगी हुई, हेलमेट लगाए महिला की तरफ घूरते हुए शर्मा जी की फ़ोटो उन्हें खूब समझ आई।

परिणाम यह हुआ कि शर्मा जी को आज टिफिन में सिर्फ दो संतरे और कुछ अंगूर मिले । वैसे तो शर्मा जी नवरात्र का व्रत कल से शुरू होना था लेकिन उस महिला की महिमा से इस बार उनका उपवास नवरात्रि से एक दिन पहले ही शुरू हो गया है।

हरि बोल

आपकी प्रतिक्रिया निजी है

वैशाख की कहानियाँ (बृहस्पतिवार की कथा)

 वैशाख की कहानियाँ (बृहस्पतिवार की कथा)
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दो भाई बहन थे। बहन बृहस्पतिवार के व्रत करती थी। बृहस्पति महाराज आते चार लड्डू चाँदी का कटोरा दे के चले जाते। बहन लड्डू खा लेती कटोरा कोठरी में धर देती।
         
एक दिन उसकी भाभी ने कोठरी खोल के देखा, कोठरी में जगमग हो रही है। उसने पड़ोसन से कहा, 'मेरी ननद चाँदी का कटोरा कहाँ से लाई, कोठरी जगमग हो रही है।' पड़ोसन बोली, 'अपने आदमी से पूछना।' भाभी बोली, 'मेरा आदमी तो मेरी बात ही नहीं सुनता।' पडोसन बोली, 'बोली दाल का चमचा भात में और भात का चमचा दाल में डाल देना।'
         
दूसरे दिन भाभी ने दाल का चमचा भात में और भात का चमचा दाल में डाल दिया। लड़की का भाई बोला, 'तू पागल हो गयी है।' भाभी बोली, 'पागल मैं नहीं हो रही, तुम्हारी बहन हो रही है। पता नहीं कहाँ से चाँदी के कटोरे ला-लाकर कोठरी भर रखी है। पूरी कोठरी जगमग कर रही है। इसे घर से निकाल दो।'
         
भाई जाकर अपनी बहन से बोला, 'जीजी मामा के घर चलें।' बहन जानती थी कैसे मामा के घर ले जा रहा है। बहन बोली, 'भाई जहाँ केले का पेड़ हो और पास में मन्दिर हो वहीं उतार देना।' भाई ने भी हाँ कर दी।
         
आगे जंगल में एक मन्दिर और केले के पेड़ के पास उसे उतार दिया। बृहस्पतिवार का दिन था लड़की ने केले के पेड़ की पूजा की बृहस्पति की कहानी कही। बृहस्पति महाराज आये चाँदी के कटोरे में चार लड्डू देकर जाने लगे। भाई छिपकर देख रहा था। उसने दौड़कर बृहस्पति के पैर पकड़ लिये। बृहस्पति बोले, 'छोड़ पापी मेरे पैर। यह तो सत् का व्रत करती है चाँदी का कटोरा मैं देकर जाता हूँ, तू इसे कलंक लगा रहा है।'

भाई बहन को लेकर बापस घर आ गया। भाभी दरवाजे पर खड़ी देख रही थी। बोली, 'इसको फिर लेकर आ गया।' भाई बोला, 'इसे कुछ मत कहना, ये बृहस्पति के व्रत करती है, वो ही इसे चाँदी का कटोरा देकर जाते हैं।'
         
भाभी ने सोचा, 'मैं भी देखूँगी ये कैसे बृहस्पति के व्रत करती है और वे इसे चाँदी का कटोरा देकर जाते हैं।' वो जाकर सारे पड़ोस में सबको बोल आयी, 'सब अपने-अपने बच्चे लेकर आ जाना, मेरी ननद बृहस्पति का व्रत करती है। सबको चार-चार लड्डू और चाँदी का कटोरा मिलेगा।'

          बहन ने यह बात सुनी तो वो एक टाँग पर खड़ी होकर बोली, 'हे बृहस्पति महाराज, आज मेरी लाज रखना।' तीन बार ऐसा कहा। बृहस्पति महाराज आये, सबको चार-चार लड्डू और चाँदी का कटोरा देकर चले गये।
        
 हे बृहस्पति महाराज, जैसे उस लड़की की लाज रखी, सबकी रखना।
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छत्रपति शिवाजी राजे (भोसले) जन्मोत्सव (तिथि प्रमाण)

 छत्रपति शिवाजी राजे (भोसले) जन्मोत्सव (तिथि प्रमाण)
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भारत के वीर सपूतों में से एक श्रीमंत छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में सभी लोग जानते हैं। बहुत से लोग इन्हें हिन्दू हृदय सम्राट कहते हैं तो कुछ लोग इन्हें मराठा गौरव कहते हैं, जबकि वे भारतीय गणराज्य के महानायक थे।

कुछ लोग मानते हैं कि शिवाजी की जन्मतिथि अंग्रेजी कैलेंडर के आधार पर तय की जाटी आई है। इस बात में भेद बिल्कुल नही होना चाहिये क्योंकि तारीख अंग्रेजी कलेंडर अनुसार मानी जाती है और तिथि भारतीय पञ्चाङ्ग अनुसार जो कि सर्वदा उचित भी है इसका कारण यह है कि तिथि अनुसार जन्मदिवस अथवा पुण्य तिथि के दिन अधिकांश ग्रह नक्षत्र जन्म अथवा मृत्यु के समय वाले ही रहते है उन्ही ग्रह नक्षत्रों में व्यक्ति विशेष के प्रति किये गए दान पुण्य का पूर्ण फल मिलता है।

शिवाजी की जन्मतारीख अंग्रेजी कलेंडर अनुसार 19 फरवरी 1630 है. वहीं पंचांग के अनुसार, वीरशिवाजी का जन्म वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया और तृतीया तिथि के मध्य 1551 शक संवत्सर में मानते है।

शिवाजी महाराज व्यक्तिगत विवरण
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पूरा नाम – शिवाजी राजे भोंसले
उप नाम – छत्रपति शिवाजी महाराज
जन्म – 19 फ़रवरी 1630, शिवनेरी दुर्ग, महाराष्ट्र
मृत्यु – 3 अप्रैल 1680, महाराष्ट्र
पिता का नाम – शाहजी भोंसले
माता का नाम – जीजाबाई
शादी – सईबाई निम्बालकर के साथ, लाल महल पुणे में सन 14 मई 1640 में हुई।

शिवाजी महाराज की जीवनी
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हमारा देश वीर शासको और राजाओं की पृष्ठभूमि रहा है. इस धरती पर ऐसे महान शासक पैदा हुए है जिन्होंने अपनी योग्यता और कौशल के दम पर इतिहास में अपना नाम बहुत ही स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया है. ऐसे ही एक महान योद्धा और रणनीतिकार थे – छत्रपति शिवाजी महाराज. वे शिवाजी महाराज ही थे जिन्होंने भारत में मराठा साम्राज्य की नीवं रखी थीं।

शिवाजी जी ने कई सालों तक मुगलों के साथ युद्ध किया था. सन 1674 ई. रायगड़ महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक किया गया था, तब से उन्हें छत्रपति की उपाधि प्रदान की गयी थीं. इनका पूरा नाम शिवाजी राजे भोसलें था और छत्रपति इनको उपाधि में मिली थी. शिवाजी महाराज ने अपनी सेना, सुसंगठित प्रशासन इकाईयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया था।

शिवाजी महाराज ने भारतीय सामाज के प्राचीन हिन्दू राजनैतिक प्रथाओं और मराठी एवं संस्कृत को राजाओं की भाषा शैली बनाया था. शिवाजी महाराज अपने शासनकाल में बहुत ही ठोस और चतुर किस्म के राजा थे. लोगो ने शिवाजी महाराज के जीवन चरित्र से सीख लेते हुए भारत की आजादी में अपना खून तक बहा दिया था।

शिवाजी महाराज का आरम्भिक जीवन
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शिवाजी महाराज का जन्म 19 फ़रवरी 1630 में शिवनेरी दुर्ग में हुआ था. इनके पिता का नाम शाहजी भोसलें और माता का नाम जीजाबाई था. शिवनेरी दुर्ग पुणे के पास हैं, शिवाजी का ज्यादा जीवन अपने माता जीजाबाई के साथ बीता था. शिवाजी महाराज बचपन से ही काफी तेज और चालाक थे. शिवाजी ने बचपन से ही युद्ध कला और राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर ली थी।

भोसलें एक मराठी क्षत्रिय हिन्दू राजपूत की एक जाति हैं. शिवाजी के पिता भी काफी तेज और शूरवीर थे. शिवाजी महाराज के लालन-पालन और शिक्षा में उनके माता और पिता का बहुत ही ज्यादा प्रभाव रहा हैं. उनके माता और पिता शिवाजी को बचपन से ही युद्ध की कहानियां तथा उस युग की घटनाओं को बताती थीं. खासकर उनकी माँ उन्हें रामायण और महाभारत की प्रमुख कहानियाँ सुनाती थी जिन्हें सुनकर शिवाजी के ऊपर बहुत ही गहरा असर पड़ा था. शिवाजी महाराज की शादी सन 14 मई 1640 में सईबाई निम्बलाकर के साथ हुई थीं।

एक सैनिक के रूप में शिवाजी महाराज का वर्चस्व
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सन 1640 और 1641 के समय बीजापुर महाराष्ट्र पर विदेशियों और राजाओं के आक्रमण हो रहे थें. शिवाजी महाराज मावलों को बीजापुर के विरुद्ध इकट्ठा करने लगे. मावल राज्य में सभी जाति के लोग निवास करते हैं, बाद में शिवाजी महाराज ने इन मावलो को एक साथ आपस में मिलाया और मावला नाम दिया. इन मावलों ने कई सारे दुर्ग और महलों का निर्माण करवाया था।

इन मावलो ने शिवाजी महाराज का बहुत ज्यादा साथ दिया. बीजापुर उस समय आपसी संघर्ष और मुगलों के युद्ध से परेशान था जिस कारण उस समय के बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गो से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों के हाथों में सौप दी दिया था। तभी अचानक बीजापुर के सुल्तान बीमार पड़ गए थे और इसी का फायदा देखकर शिवाजी महाराज ने अपना अधिकार जमा लिया था. शिवाजी ने बीजापुर के दुर्गों को हथियाने की नीति अपनायी और पहला दुर्ग तोरण का दुर्ग को अपने कब्जे में ले लिया था।

शिवाजी महाराज का किलों पर अधिकार
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तोरण का दुर्ग पूना (पुणे) में हैं. शिवाजी महाराज ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना एक दूत भेजकर खबर भिजवाई की अगर आपको किला चाहिए तो अच्छी रकम देनी होगी, किले के साथ-साथ उनका क्षेत्र भी उनको सौपं दिया जायेगा. शिवाजी महाराज इतने तेज और चालाक थे की आदिलशाह के दरबारियों को पहले से ही खरीद लिया था।

शिवाजी जी के साम्राज्य विस्तार नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली थी तब वह देखते रह गया. उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने के लिये कहा लेकिन शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया था और लगान देना भी बंद कर दिया था.
वे 1647 ई. तक चाकन से लेकर निरा तक के भू-भाग के भी मालिक बन चुके थें. अब शिवाजी महाराज ने पहाड़ी इलाकों से मैदानी इलाकों की और चलना शुरू कर दिया था. शिवाजी जी ने कोंकण और कोंकण के 9 अन्य दुर्गों पर अपना अधिकार जमा लिया था. शिवाजी महाराज को कई देशी और कई विदेशियों राजाओं के साथ-साथ युद्ध करना पड़ा था और सफल भी हुए थे।

शाहजी की बंदी और युद्ध बंद करने की घोषणा
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बीजापुर के सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही गुस्से में था. सुल्तान ने शिवाजी महाराज के पिता को बंदी बनाने का आदेश दिया था. शाहजी उनके पिता उस समय कर्नाटक राज्य में थें और दुर्भाग्य से शिवाजी महाराज के पिता को सुल्तान के कुछ गुप्तचरों ने बंदी बना लिया था. उनके पिता को एक शर्त पर रिहा किया गया कि शिवाजी महाराज बीजापुर के किले पर आक्रमण नहीं करेगा. पिताजी की रिहाई के लिए शिवाजी महाराज ने भी अपने कर्तव्य का पालन करते हुए 5 सालों तक कोई युद्ध नहीं किया और तब शिवाजी अपनी विशाल सेना को मजबूत करने में लगे रहे।

शिवाजी महाराज का राज्य विस्तार
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शाहजी की रिहा के समय जो शर्ते लागू की थी उन शर्तो में शिवाजी ने पालन तो किया लेकिन बीजापुर के साउथ के इलाकों में अपनी शक्ति को बढ़ाने में ध्यान लगा दिया था पर इस में जावली नामक राज्य बीच में रोड़ा बना हुआ था. उस समय यह राज्य वर्तमान में सतारा महाराष्ट्र के उत्तर और वेस्ट के कृष्णा नदी के पास था. कुछ समय बाद शिवाजी ने जावली पर युद्ध किया और जावली के राजा के बेटों ने शिवाजी के साथ युद्ध किया और शिवाजी ने दोनों बेटों को बंदी बना लिया था और किले की सारी संपति को अपने कब्जे में ले लिया था और इसी बीच कई मावल शिवाजियो के साथ मिल गए थे।

मुगलों से पहला मुकाबला
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मुगलों के शासक औरंगजेब का ध्यान उत्तर भारत के बाद साउथ भारत की तरफ गया. उसे शिवाजी के बारे में पहले से ही मालूम था. औरंगजेब ने दक्षिण भारत में अपने मामा शाइस्ता खान को सूबेदार बना दिया था. शाइस्ता खान अपने 150,000 सैनिकों को लेकर पुणे पहुँच गया और उसने 3 साल तक लूटपाट की।

एक बार शिवाजी ने अपने 350 मावलो के साथ उनपर हमला कर दिया था तब शाइस्ता खान अपनी जान निकालकर भाग खड़ा हुआ और शाइस्ता खान को इस हमले में अपनी 4 उँगलियाँ खोनी पड़ी. इस हमले में शिवाजी महाराज ने शाइस्ता खान के पुत्र और उनके 40 सैनिकों का वध कर दिया था. उसके बाद औरंगजेब ने शाइस्ता खान को दक्षिण भारत से हटाकर बंगाल का सूबेदार बना दिया था।

सूरत की लूट
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इस जीत से शिवाजी की शक्ति ओर मजबूत हो गयी थीं. लेकिन 6 साल बाद शाइस्ताखान ने अपने 15,000 सैनिको के साथ मिलकर राजा शिवाजी के कई क्षेत्रो को जला कर तबाह कर दिया था. बाद में शिवाजी ने इस तबाही को पूरा करने के लिये मुगलों के क्षेत्रों में जाकर लूटपाट शुरू कर दी. सूरत उस समय हिन्दू मुसलमानों का हज पर जाने का एक प्रवेश द्वार था. शिवाजी ने 4 हजार सैनिको के साथ सूरत के व्यापारियों को लुटा लेकिन उन्होंने किसी भी आम आदमी को अपनी लुट का शिकार नहीं बनाया।

आगरा में आमन्त्रित और पलायन
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शिवाजी महाराज को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया गया है. इसके खिलाफ उन्होंने अपना रोष दरबार पर निकाला और औरंगजेब पर छल का आरोप लगाया. औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर लिया था और शिवाजी पर 500 सैनिको का पहरा लगा दिया. कुछ ही दिनों बाद 1666 को शिवाजी महाराज को जान से मारने का औरंगजेब ने इरादा बनाया था लेकिन अपने बेजोड़ साहस और युक्ति के साथ शिवाजी और संभाजी दोनों कैद से भागने में सफल हो गये।

संभाजी को मथुरा में एक ब्राह्मण के यहाँ छोड़ कर शिवाजी महाराज बनारस चले गये थे और बाद में सकुशल राजगड आ गये. औरंगजेब ने जयसिंह पर शक आया और उसने विष देकर उसकी हत्या करा दी. जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद शिवाजी ने मुगलों से दूसरी बार संधि की. 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लुटा था, यहाँ से शिवाजी को 132 लाख की संपति हाथ लगी और शिवाजी ने मुगलों को सूरत में फिर से हराया था।

शिवाजी महाराज का राज्यभिषेक
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सन 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरंदर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे. बालाजी राव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश से मिलते हुए प्रमाण भेजे थें. इस कार्यक्रम में विदेशी व्यापारियों और विभिन्न राज्यों के दूतों को इस समारोह में बुलाया था. शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि धारण की और काशी के पंडित भट्ट को इसमें समारोह में विशेष रूप से बुलाया गया था. शिवाजी के राज्यभिषेक करने के 12वें दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया था और फिर दूसरा राज्याभिषेक हुआ।

शिवाजी महाराज की मृत्यु और वारिस
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शिवाजी अपने आखिरी दिनों में बीमार पड़ गये थे और 3 अप्रैल 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गयी थी. उसके बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र संभाजी को राजगद्दी मिली. उस समय मराठों ने संभाजी को अपना नया राजा मान लिया था. शिवाजी की मौत के बाद औरंगजेब ने पुरे भारत पर राज्य करने की अभिलाषा को पूरा करने के लिए अपनी 5,00,000 सेना को लेकर दक्षिण भारत का रूख किया इसी समय औरंगजेब के पुत्र ने विद्रोह कर दिया तब संभाजी ने उसे शरण दी लेकिन औरंगजेब ने विद्रोह शांत होने पर सम्भाजी को बंदी बनाकर मृत्यु कर  दी। इसके बाद संभाजी के छोटे भाई राजाराम ने मराठो की गद्दी संभाली।

1700 ई. में राजाराम की मृत्यु हो गयी थी उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई ने 4 वर्ष के पुत्र शिवाजी 2 की सरंक्षण बनकर राज्य किया। आखिरकार 25 साल मराठा स्वराज से युद्ध और थके हुए औरंगजेब को उसी छत्रपति शिवाजी के स्वराज में दफन किये गया।
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