यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

नरसिंह कवच संरक्षण पाने के लिए बहुत शक्तिशाली कवच है। नरसिंह कवच एक सुरक्षा कवच या आध्यात्मिक कवच है।

*नरसिंह कवच ।*

नरसिंह कवच संरक्षण पाने के लिए बहुत शक्तिशाली कवच है। नरसिंह कवच एक सुरक्षा कवच या आध्यात्मिक कवच है।
भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार का यह कवच अत्यंत चमत्कारी प्रभाव देने वाला है।

नरसिंह कवच बुरी आत्माओं से सुरक्षा और भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के साथ-साथ भक्ति और शांति में वृद्धि के लिए मंत्र है।

भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार का यह कवच अत्यंत चमत्कारी प्रभाव देने वाला है।

नरसिंह कवच संरक्षण पाने के लिए बहुत शक्तिशाली कवच है। नरसिंह कवच एक सुरक्षा कवच या आध्यात्मिक कवच है। नरसिंह कवच बुरी आत्माओं से सुरक्षा और भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के साथ-साथ भक्ति और शांति में वृद्धि के लिए मंत्र है।

नरसिंह कवच का जप एक व्यक्ति की व्यक्तिगत कुंडली के अंदर की नकारात्मक ऊर्जा और कर्म संरचनाओं को शुद्ध करता है और सभी प्रकार की शुभता को प्रकट करता है।

नरसिंह कवच सबसे पवित्र हैं, सभी प्रकार की बाधाओं को खत्म कर देते हैं और सभी को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

जो व्यक्ति इसका नियमित जप करता है, वह काले जादू, तंत्र, भूत, आत्माओं, नकारात्मक विचारों, व्यसनों और अन्य हानिकारक चीजों से छुटकारा पाता है।

नरसिंह कवच, ब्रह्मानंद पुराण का एक शक्तिशाली मंत्र है, जिसे महाराजा प्रह्लाद महाराज द्वारा कृत किया गया था।

ऐसा कहा जाता है कि, जो इस मंत्र का जाप करता है, उसे सभी प्रकार के गुणों से युक्त किया जाता है और उसे स्वर्ग के ग्रहों से ऊपर का स्थान मिलता है !
नरसिंह कवच सभी मंत्रों (मंत्र-राज) का राजा है। इस कवच के उच्चारण से ही अति शुभ और अति शीग्र फल मिलता है !

श्री नरसिंह कवच !!

विनयोग-

ॐ अस्य श्रीलक्ष्मीनृसिंह कवच महामंत्रस्य

ब्रह्माऋिषः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीनृसिंहोदेवता, ॐ

क्षौ बीजम्, ॐ रौं शक्तिः, ॐ ऐं क्लीं कीलकम्

मम सर्वरोग, शत्रु, चौर, पन्नग,

व्याघ्र, वृश्चिक, भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी-

शाकिनी, यन्त्र मंत्रादि, सर्व विघ्न निवाराणार्थे

श्री नृसिहं कवचमहामंत्र जपे विनयोगः।।

एक आचमन जल छोड़ दें।

अथ ऋष्यादिन्यास –

ॐ ब्रह्माऋषये नमः शिरसि।

ॐ अनुष्टुप् छन्दसे नमो मुखे।

ॐ श्रीलक्ष्मी नृसिंह देवताये नमो हृदये।

ॐ क्षौं बीजाय नमोनाभ्याम्।

ॐ शक्तये नमः कटिदेशे।

ॐ ऐं क्लीं कीलकाय नमः पादयोः।

ॐ श्रीनृसिंह कवचमहामंत्र जपे विनयोगाय नमः सर्वाङ्गे॥

अथ करन्यास –

ॐ क्षौं अगुष्ठाभ्यां नमः।

ॐ प्रौं तर्जनीभ्यां नमः।

ॐ ह्रौं मध्यमाभयां नमः।

ॐ रौं अनामिकाभ्यां नमः।

ॐ ब्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।

ॐ जौं करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।

अथ हृदयादिन्यास –

ॐ क्षौ हृदयाय नमः।

ॐ प्रौं शिरसे स्वाहा।

ॐ ह्रौं शिखायै वषट्।

ॐ रौं कवचाय हुम्।

ॐ ब्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।

ॐ जौं अस्त्राय फट्।

नृसिंह ध्यान –

ॐ सत्यं ज्ञान सुखस्वरूप ममलं क्षीराब्धि मध्ये स्थित्।

योगारूढमति प्रसन्नवदनं भूषा सहस्रोज्वलम्।

तीक्ष्णं चक्र पीनाक शायकवरान् विभ्राणमर्कच्छवि।

छत्रि भूतफणिन्द्रमिन्दुधवलं लक्ष्मी नृसिंह भजे॥

कवच पाठ –

ॐ नमोनृसिंहाय सर्व दुष्ट विनाशनाय सर्वंजन मोहनाय सर्वराज्यवश्यं कुरु कुरु स्वाहा।

ॐ नमो नृसिंहाय नृसिंहराजाय नरकेशाय नमो नमस्ते।

ॐ नमः कालाय काल द्रष्ट्राय कराल वदनाय च।

ॐ उग्राय उग्र वीराय उग्र विकटाय उग्र वज्राय वज्र देहिने रुद्राय रुद्र घोराय भद्राय भद्रकारिणे ॐ ज्रीं ह्रीं नृसिंहाय नमः स्वाहा !!

ॐ नमो नृसिंहाय कपिलाय कपिल जटाय अमोघवाचाय सत्यं सत्यं व्रतं महोग्र प्रचण्ड रुपाय।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं ॐ ह्रुं ह्रुं ह्रुं ॐ क्ष्रां क्ष्रीं क्ष्रौं फट् स्वाहा।

ॐ नमो नृसिंहाय कपिल जटाय ममः सर्व रोगान् बन्ध बन्ध, सर्व ग्रहान बन्ध बन्ध, सर्व दोषादीनां बन्ध बन्ध, सर्व वृश्चिकादिनां विषं बन्ध बन्ध, सर्व भूत प्रेत, पिशाच, डाकिनी शाकिनी, यंत्र मंत्रादीन् बन्ध बन्ध, कीलय कीलय चूर्णय चूर्णय, मर्दय मर्दय, ऐं ऐं एहि एहि, मम येये विरोधिन्स्तान् सर्वान् सर्वतो हन हन, दह दह, मथ मथ, पच पच, चक्रेण, गदा, वज्रेण भष्मी कुरु कुरु स्वाहा।

ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं ह्रीं क्ष्रीं क्ष्रीं क्ष्रौं नृसिंहाय नमः स्वाहा।

ॐ आं ह्रीं क्ष्रौं क्रौं ह्रुं फट्।

ॐ नमो भगवते सुदर्शन नृसिंहाय मम विजय रुपे कार्ये ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल असाध्यमेनकार्य शीघ्रं साधय साधय एनं सर्व प्रतिबन्धकेभ्यः सर्वतो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।

ॐ क्षौं नमो भगवते नृसिंहाय एतद्दोषं प्रचण्ड चक्रेण जहि जहि स्वाहा।

ॐ नमो भगवते महानृसिंहाय कराल वदन दंष्ट्राय मम विघ्नान् पच पच स्वाहा।

ॐ नमो नृसिंहाय हिरण्यकश्यप वक्षस्थल विदारणाय त्रिभुवन व्यापकाय भूत-प्रेत पिशाच डाकिनी-शाकिनी कालनोन्मूलनाय मम शरीरं स्तम्भोद्भव समस्त दोषान् हन हन, शर शर, चल चल, कम्पय कम्पय, मथ मथ, हुं फट् ठः ठः।

ॐ नमो भगवते भो भो सुदर्शन नृसिंह ॐ आं ह्रीं क्रौं क्ष्रौं हुं फट्।

ॐ सहस्त्रार मम अंग वर्तमान ममुक रोगं दारय दारय दुरितं हन हन पापं मथ मथ आरोग्यं कुरु कुरु ह्रां ह्रीं ह्रुं ह्रैं ह्रौं ह्रुं ह्रुं फट् मम शत्रु हन हन द्विष द्विष तद पचयं कुरु कुरु मम सर्वार्थं साधय साधय।

ॐ नमो भगवते नृसिंहाय ॐ क्ष्रौं क्रौं आं ह्रीं क्लीं श्रीं रां स्फ्रें ब्लुं यं रं लं वं षं स्त्रां हुं फट् स्वाहा।

ॐ नमः भगवते नृसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे अविराभिर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान् रंधय रंधय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा।

अभयमभयात्मनि भूयिष्ठाः ॐ क्षौम्।

ॐ नमो भगवते तुभ्य पुरुषाय महात्मने हरिंऽद्भुत सिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने।

ॐ उग्रं उग्रं महाविष्णुं सकलाधारं सर्वतोमुखम्।

नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्युं मृत्युं नमाम्यहम्।
नरसिंह कवच मंत्र के फायदे

नरसिंह कवच दुनिया में बुराई और अत्याचार के खिलाफ अंतिम सुरक्षा है। इस नरसिंह कवच को स्मरण करने से भक्तों को किसी भी नुकसान से बचा जा सकता है और एक सुरक्षित,स्वस्थ और शांत और सामान्य जीवन प्रदान करता है।

नरसिंह कवच मंत्र भक्तों के कल्याण की रक्षा के लिए एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है।
यह एक सर्व अपारदर्शिता पर आधारित है और स्वर्गीय ग्रहों या मुक्ति के लिए या जीवन के उत्थान के लिए सहायक है । इसका जाप करते हुए ब्रह्मांड के भगवान नरसिंह का ध्यान करना चाहिए, जो एक स्वर्ण सिंहासन पर बैठा है।

वह विजयी हो जाता है ,जो जीत की इच्छा रखता है, और वास्तव में एक विजेता बन जाता है। यह कवच सभी ग्रहों के उलटे प्रभाव को खत्म करता है और समाज में प्रतिष्ठा दिलवाता है !

यह नागों और बिच्छुओं के जहरीले प्रभाव के लिए सर्वोच्च उपाय है, इसके पाठ करने से भूत प्रेत और यमराज भी दूर चले जाते है।

जो नियमित रूप से इस प्रार्थना का जप करता है, चाहे एक या तीन बार (दैनिक), वह विजयी हो जाता है चाहे वह राक्षसों,दुश्मनों या मनुष्यों के बीच हो। हर प्रकार से रक्षा करता है !

वह व्यक्ति, जो इस मंत्र का पाठ करता है, भगवान नरसिंह देव का ध्यान करता है, उसके पेट के रोग सहित उसके सभी रोग समाप्त हो जाते हैं।

शिव तांडव स्तोत्र‘ – भगवान शंकर की प्रसन्नता प्राप्ति का अमोघ साधन🔱

*🕉️🔱‘शिव तांडव स्तोत्र‘ – भगवान शंकर की प्रसन्नता प्राप्ति का अमोघ साधन🔱🕉️*


*मान्यता है कि शिवभक्त रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले चलने को उद्यत हुआ उस समय अपनी शक्ति पर पूर्ण अहंकार भाव में था। महादेव को उसका यह अहंकार पसंद नही आया तो भगवान् शिव ने अपने अंगूठे से तनिक सा जो दबाया तो कैलाश फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया। शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह आर्त्तनाद कर उठा – “शंकर शंकर” – अर्थात क्षमा करिए, क्षमा करिए, और स्तुति करने लग गया; जो कालांतर में शिव तांडव स्तोत्र कहलाया।*

*इस स्रोत की भाषा अनुपम और जटिल है, पर महाविद्वान रावण ने इसे कुछ पलो में ही बना दिया था। शिव स्तुति और प्रसन्नता में यह स्तोत्र राम बाण है।*

*शिवताण्डव स्तोत्र स्तोत्रकाव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है। यह पञ्चचामर छन्द में आबद्ध है। इसकी अनुप्रास और समास बहुल भाषा संगीतमय ध्वनि और प्रवाह के कारण शिवभक्तों में प्रचलित है। सुन्दर भाषा एवं काव्य-शैली के कारण यह स्तोत्र विशेषकर शिवस्तोत्रों में विशिष्ट स्थान रखता है।*

*🕉 #शिवताण्डव_स्तोत्र🕉*

*🚩जटाटवी गलज्जल प्रवाह पावित स्थले*
*गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुंगमालिकां*
*डमडुमडुमडुमनिनादवड्डमर्वयं*
*चकार चण्डताण्डवं तनोतु* 
*नःशिवः शिवम्।🚩*

`शिवताण्डवस्तोत्रम्` के रचयिता दशानन रावण ने इक्कीस श्लोकों के इस ताण्डव-स्तोत्र का शुभारम्भ भगवान शिव के ताण्डव-रत रूप की अभ्यर्थना (प्रार्थना) करते हुए किया है। शिव की घनी रुक्ष (रूखी ) जटा को घने जंगल की उपमा देते हुए वह कहता है कि जटा रुपी सघन वन से निकलती हुई गंगा के प्रवाह से पवित्र किये हुए स्थल पर, गले में विशाल सर्पों की माला पहने हुए और डमरू से डम-डम डम-डम का महाघोष करते हुए शिव ने प्रचंड ताण्डव किया, वे शिव हमारा कल्याण करें, हमारे हितों की रक्षा करें।

रावण ताण्डव-नृत्य करते हुए अपने आराध्य पर मुग्ध है और भलीभांति जानता है कि विकराल सर्पमाल धारण करने से भयंकर दिखने वाले भगवान शिव वास्तव में शुभंकर हैं, शंकर (शुभ करने वाले) हैं।

*🚩जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी*
*विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि*
*धगद्धगद्धगज्वाललाटपटापावके*
*किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम।🚩*

इस श्लोक में रावण ने शिव के सौम्य और रौद्र रूप का वर्णन किया है। यहाँ शिव की जटा को एक कड़ाह (कड़ाही जैसा एक बड़ा पात्र) की उपमा देते हुए वह कहता है कि जटा में बड़ी द्रुत (तेज) गति से चक्कर लगाती हुई देवनदी गंगा की चंचल लहरें लता की तरह (लिपटी हुई बेल की भांति) लग रहीं हैं व उनके शीश (सिर) पर प्रदीप्त हो रही हैं।

दूसरी ओर उनके भाल-पट पर अर्थात् माथे पर धक धक करती हुई भीषण अग्नि प्रज्वलित हो रही है। अपने शीश (सिर) पर वे बाल-चन्द्रमाँ (अर्ध-चन्द्र) धारण किये हुए हैं। स्तुतिकार कहता है कि ऐसे भगवान शंकर में हर पल मेरी प्रीति बनी रहे। जिससे हमारी प्रीति होती है, हम सदा उसके बारे में सोचा करते हैं, उसी का चिंतन किया करते हैं।

शिवजी रावण के आराध्य हैं । इस श्लोक के द्वारा वह दो बातें विशेष रूप से कहना चाहता है, एक तो यह कि भगवान शिव के स्वरूप में सभी विरोधाभासी तत्वों का समन्वय और संतुलन पाया जाता है, जैसे अग्नि भाल पर, चन्द्रमाँ कपाल पर। और दूसरी बात यह कि वह हमेशा उनके चिंतन में रत रहने का इच्छुक है।

*🚩धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर*
*स्फ़ुरद्दिगन्तसंततिप्रमोदमानमानसे*
*कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि*
*क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि।🚩*

इस श्लोक में रावण अपने आराध्य भगवान शिव की महिमा का गान करते हुए कहता है कि उनकी एक कृपा-दृष्टि भर से निरंतर आने वाली दुस्सह (जिसे सहन करना अति कठिन हो) विपत्तियों का सार्थवाह (कारवां) रुक जाता है। शिव तथा शक्ति दोनों एक ही हैं। वे पर्वतराज-पुत्री पार्वती के सुन्दर और सनातन लीला-सहचर है, उमाकांत हैं, देवी की विलास-लीला में उनके साथी हैं।

देवी उल्लसित हो रही है और सभी दिशाओं में दूर दूर तक उनके उल्लास की छटा विस्तार से फैली है जिसे देख कर शिव का मन प्रमुदित हो रहा हैं । रावण अभिलाषा करता है कि धराधरेन्द्रनन्दिनी यानि पर्वतेश-पुत्री पार्वती के चारु हास-विलास से दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिनका मन आनंदित हो रहा है, जिनकी कृपादृष्टि मात्र से निरंतर आने वाली दुस्सह आपदाएं नष्ट हो जाती हैं, ऐसे किसी दिगंबर तत्व में अर्थात् महादेव में मेरा मन विनोद प्राप्त करे l

*🚩जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणा मणिप्रभा*
*कदम्बकुमकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे*
*मदान्धसिन्धुस्फूर्त्त्वगुत्तरीयमेंदुरे*
*मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि |🚩*

अपने आराध्य भगवान शिव के लिए रावण के मन में इतनी निष्ठां है कि वह सदा उनके चिंतन में मग्न रहना चाहता है और भक्तों के मनरंजन एवं मनभावन भूतनाथ, जिनकी जटा में सर्प कुंडलित रहता है, के बारे में वह कहता है कि जटा से लिपटे मणिधारी सर्प की मणि के पीले प्रकाश से दिशाएं इस तरह परिव्याप्त हो गई हैं, मानो दिशा कोई सुंदरी स्त्री हो और उस दिशा रुपी सुंदरी के मुख पर केशर-चन्दन-हल्दी का अनुलेप मल दिया गया हो और वह पीली प्रभा से जगमगा उठी हो। भगवान शंकर के शरीर से लिपटा हुआ विशाल सर्प वासुकि मणिधारी महासर्प है।

एक ओऱ तो शिवजी का ऐसा अनुपम ऐश्वर्य है, और दूसरी ओर वे गजचर्म का उत्तरीय ओढ़े हुए हैं तथा उनकी मस्ती में वह उत्तरीय (उपरना या पटुका) लहरा रहा है, जो गजासुर की मेदुर (चर्बीयुक्त या वसायुक्त) त्वचा से बना हुआ है, जिसे शिवजी ने मार दिया था। रावण कहता है कि ऐसे महिमामय भूतनाथ में मेरा मन अद्भुत विनोद प्राप्त करता रहे। वह स्तुति करता है, हे भूतनाथ! मेरे मन को अपनी अद्भुत छवि के अनुपम आनन्द से भर दो!

*🚩सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर*
*प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांगघ्रिःपीठभूः*
*भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः*
*श्रीयै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः।🚩*

भगवान शिव इंद्र आदि समस्त देवताओं द्वारा पूजित एवं नमस्कृत हैं। इंद्र आदि सभी देवता जब शिवजी के चरण-स्पर्श के लिए उनके कदमों में झुकते हैं, तब देवताओं के मुकुटों पर सजे हुए पुष्पों से फूलों का पराग झड़ झड़ कर उनके चरणों को पुष्परज (पराग) से रंजित कर देता है। शिव के पदतल सदैव देव-मुकुट के पुष्पों की पराग से पिंगल रंग के हो जाते हैं । वे अपने केशों को ऊपर उठा कर उनकी जटा बनाते हैं और उस उठी हुई जटा को बांधने के लिये वे सर्पराज (वासुकि) को लपेट कर कस लेते हैं।

बड़ा मनोरम स्वरूप है शिवजी का। रावण स्तवन (स्तुति) करते हुए कहता है कि इस प्रकार पुष्परज से धूसरित पादपृष्ठ वाले तथा भुजंगराज से बंधी हुई जटा वाले भगवान चंद्रशेखर मेरी लक्ष्मी पर कृपा करें, जिससे वह चिर काल (दीर्घ काल) तक बनी रहे, अक्षुण्ण रहे। सप्तद्वीपाधिपति रावण की स्वर्ण लंका में अकूत सम्पत्ति थी, अथाह वैभव था, उसके पास पुष्पक विमान भी था। लक्ष्मी चंचल होती है, अतः वह अभ्यर्थना करता है कि वह वैभव चिर काल तक बना रहे।

*🚩ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा*
*निपीतपंचसायकम् नमन्निलिम्पनायकम्*
*सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरम्*
*महाकपालि संपदे शिरो जटालमस्तु नः।🚩*

शिवजी के भाल पर स्थित तीसरा नेत्र अग्नि का निवास-स्थान है। रावण का कहना है कि भाल के फलक पर जलती हुई अग्नि की लपटों में जिन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया तथा इंद्र (निलिम्पनायक) का गर्व से भरा हुआ शीश झुका दिया (क्योंकि देवराज इंद्र ने शिवजी को मोहित करने व उनके तपोभंग की योजना बनाई थी तथा इस आशय से कामदेव को उनके सम्मुख भेजा था), चन्द्रमाँ की अमृतवर्षी शीतल किरणों से जिनका शीश सुशोभित है , साथ ही जो महामुण्डमाली हैं, जटाजूटधारी हैं, ऐसे भगवान शिव से मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे हमारी श्री, हमारा विपुल वैभव सदा बनाये रखें।

*🚩करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्जवल*
*द्धनंजयाहुतीकृतप्रचंडपंचसायके*
*धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रक*
*प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम।🚩*

विकराल भाल-पट की धग् धग् धधकती अग्नि में जिन्होंने प्रचंड पुष्पशर (पुष्प है धनुष जिसका अर्थात् कामदेव) को आहुति बना डाला, भस्मीकृत कर दिया, जो गिरिराजनन्दिनी (पर्वतराज-पुत्री पार्वती) के अंगों पर, उनके वक्ष-कक्ष पर सुगन्धित द्रव्यों तथा वन-धातुओं से श्रृंगारिक चित्र-रचना करने वाले चतुर चितेरे हैं, कुशल शिल्पी हैं, उन भगवान त्रिनयन में मेरा प्रेम, मेरी धारणा सदा बनी रहे।

एक ओर कामदेव को भस्मीभूत करना व दूसरी ओर `धराधरेंद्रनन्दिनी` अर्थात् पार्वती के साथ शृंगार-लीला करना, दोनों में यद्यपि विरोधाभास दिखाई देता है, किन्तु इससे अभिप्राय यह प्रकट करने से है कि शिव गृहस्थ होते हुए भी, श्रृंगारलीला में रत दिखते हुए भी इन सभी भावों से निर्लिप्त रहते हैं, वे मायापति हैं, माया को वश में रखते हैं, उसमें लिप्त नहीं होते। वे माया से अतीत हैं।

*🚩नवीनमेघमण्डली निरुद्ध स्फुरत्*
*कुहू निशीथिनीतमःप्रबंधबद्धकन्धरः*
*निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः*
*कलनिधानबन्धुरः श्रियं जगत् धुरन्धरः।🚩*

सागर-मंथन के समय सागर से निकले कालकूट विष का पान करने वाले भगवान नीलकण्ठ के गले की श्यामलता (कालिमा) की उपमा रावण ने मेघाच्छादित अमावस्या की अर्ध-रात्रि से दी है, जब आकाश में काली घटा के छा जाने से अँधियारा और भी घना हो जाता है।

रावण इस श्लोक में शिवजी के नीलकण्ठ का चित्रण करते हुए स्तुति करता है कि नवीन मेघमाला (बादल-समूह) से आच्छादित, अमावस्या के अर्धकालीन सघन अंधकार की सी कालिमा जिनके गठीले (सुपुष्ट) गले पर अंकित है (अर्थात् गले का रंग गहरा नीला है) और जिन्होंने देवसरिता गंगा को धारण किया है, जो गजचर्म से सुसज्जित हैं तथा चन्द्रकला के सुन्दर आगार (आश्रयस्थान) हैं व जगत के आधार हैं, वे शिव मेरी लक्ष्मी का विस्तार करें।

*🚩प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा*
*वलंबीकंठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्*
*स्मरच्छिदम् पुरच्छिदम् भवच्छिदम् मखच्छिदम्*
*गजच्छिदान्धकच्छिदम् तमन्तकच्छिदम्* 
*भजे |🚩*

यहाँ इस श्लोक में रावण ने भगवान शिव के नीले कण्ठ का एक अन्य चित्रण प्रस्तुत किया है। शिव के गले की श्यामलता की उपमा नीलकमल की सांवली प्रभा से दी है इसके अलावा शिवजी को विविध नामों से पुकारते उनका स्तवन किया है। इन नामों का आधार है भगवान शिव के द्वारा किये गए वे कार्य, जिनसे देवताओं तथा मनुष्यों की बाधाएं और भय दूर हुआ।

रावण का कथन है, जिनका कंठ-प्रदेश (गले का बाहरी भाग) पूर्ण विकसित नीलकमल की श्यामल आभा से दीप्त है तथा जो स्मर यानि कामदेव, त्रिपुर तथा भव (जन्म-मरण रुपी संसार), के भय व बंधन को समाप्त करने वाले हैं, जो दक्ष द्वारा अभिमान के साथ किये गए यज्ञ के नष्टकर्ता हैं, जो गजासुर, अंधकासुर का संहार करने वाले हैं, तथा यमराज अर्थात् मृत्यु को भी नष्ट करने वाले हैं, ऐसे भगवान शिव की मैं आराधना करता हु!

*🚩अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमन्जरी*
*रसप्रवाहमाधुरीविज्रिम्भणामधुव्रतम्*
*स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं*
*गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं* 
*भजे।🚩*

दसवें श्लोक में भगवान शिव के लोकरंजक, लोकमंगल रूप को वर्णित किया गया है । यहाँ समाज का मंगल करने वाली, भव्य कलाओं की उपमा मंजरी (अविकसित फूलों या पत्तों के गुच्छे) से की है। जैसे भ्रमर मंजरी के मकरंद का पान करने के लिए अपना मुंह खोले हुए तत्पर रहते हैं, कुछ इसी तरह भगवान शिव कला रुपी मंजरी का रसपान करने के लिए तत्पर रहते है। भाव यह है कि भव्य कलाएं, लोकहितकारी कलाएं उन्हें प्रसन्न करती हैं और उन्हें महादेव का वरद आशीष मिलता है।

वे विविध कलाओं के प्रवर्तक भी कहे जाते हैं। नाट्य-संगीत आदि कलाओं के वे आदि गुरु हैं। अतःउन्हें कला रुपी मंजरी के पराग की मिठास का रसपान करने वाला रसिक बताते हुए आगे उनके मंगलकर्ता को रूप प्रकाशित करते हुए रावण कहता है कि वे कामदेव, भवभय, त्रिपुर, दक्ष-यज्ञ, गजासुर, अंधकासुर व यमराज के भी अंतक अर्थात् अंत करने वाले प्रभु हैं, मैं उनकी आराधना करता हूँ।

*🚩जयवदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस*
*द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्*
*धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदन्गतुङ्गमङ्गल*
*ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचंडताण्डवः शिवः |🚩*

इस श्लोक में ताण्डवनृत्य करते हुए भगवान शिव का चित्रण है, जो इस प्रकार है। जिनके मस्तक पर बड़े वेग से सर्प कुंडलाकार चक्कर लगा रहा है और उसके फुफकारने से, जिनके ललाट अर्थात् भाल की अग्नि और भी अधिक प्रचंडतर हो कर धधक उठती है, जो धिम धिम की ध्वनि से बजते हुए मृदंग के गंभीर घोष की ताल से ताल मिला कर प्रचंड ताण्डव कर रहे हैं, उन भगवान शिव की जय हो!

*🚩दृषद्विचित्र तलप्योर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजो*
*र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुर्हृद्विपक्षपक्षयोः*
*तृणरविन्द्चक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः*
*संप्रवर्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् |🚩*

भगवान शिव की भक्ति में रत रावण जानता है कि वे सभी के प्रति समभाव रखते हैं, सबसे प्रेम करते हुए भी सबसे निलिप्त रहते हैं।

उसके मन में यह अभिलाषा जागृत होती है कि उन्हें पाने के लिए, उनका सानिध्य पाने के लिए मैं भी उनके जैसा समभाव सब के प्रति रख पाउँ तो कितना अच्छा हो! इसलिए वह सोचता है कि मैं कब पत्थर की शय्या और सुन्दर बिछौनों में, सर्पमाला और मोतियों की माला में अंतर न करते हुए उन दोनों के प्रति एक ही अनासक्त दृष्टि और निलिप्त भाव रखूंगा! कब मित्र एवं शत्रु को समतुल्य समझ कर उनसे अप्रभावित अंतःकरण वाला बनूँगा तथा कमलनयनी रमणियों को तृणवत् (घास की तरह) तुच्छ समझूंगा।

ह्रदय में उठती हुई कामनाओं से मैं कब ऊपर उठ पाउँगा! क्या मैं किसी साधारण प्रजाजन और पृथ्वी के किसी चक्रवर्ती सम्राट के प्रति एक-सी दृष्टि, एक सा भाव रख पाउँगा? मेरे आराध्य के लिए तो दोनों ही समतुल्य हैं, तो फिर मैं कब इन सभी में समान भावना रखते हुए अपने भगवान सदाशिव की आराधना करूंगा!

*🚩कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन्*
*विमुक्तदुर्मतिः सदा* *शिरःस्थमञ्जलिं वहन्*
*विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः*
*शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी* 
*भवाम्यहम् |🚩*

रावण के भक्त-मन की यह साध है कि मैं भगवान शिव को निरंतर भजता रहूं। बस गंगाजी की गोद में, गंगा के कछारों में, किसी वन-उपवन में तृण-लताओं से आच्छादित छोटा सा कुटीर हो, जहाँ मैं सब कुछ बिसार कर केवल शिव-मन्त्र के जाप का सुख पाऊं!

अपने ह्रदय की इसी कामना को, अपनी आत्मा की इसी पुकार को रावण इस प्रकार इस श्लोक में ध्वनित करता है। वह कहता है कि कब निलिम्पनिर्झरी यानि सुरसरिता गंगा के तटवर्ती किसी कुंजबन में, पर्णकुटीर में निवास करता हुआ मैं अपने मन में उठने वाले दुर्विचारों को छोड़ पाउंगा तथा अपने माथे से अंजलि लगा कर शिव को भजूँगा!

इधर उधर घूमते नेत्रों वाला, चंचल नेत्रों वाला मैं कब अपने माथे पर पवित्र तिलक (त्रिपुण्ड्र तिलक) अंकित करूंगा, जो भाल पर भूषण- सा प्रतीत होगा । और फिर शिव का मंत्रोच्चार करता हुआ मैं कब सुखी होऊंगा ! अपने आराध्य शिव की निकटता उसे सुलभ हो, वही उसका सुख है।

*🚩निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका*
*निगुम्फनिर्भरक्षन्मधूष्णीकामनोहरः*
*तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीमहर्निशम्*
*परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चयः।🚩*

इस श्लोक में रावण ने बताया है कि भगवान शिव परम पद (मुक्ति) के देने वाले भी हैं तथा परम श्री के प्रदाता भी हैं। साथ ही शिव व शक्ति की एकता पर भी प्रकाश डाला है।

पार्वती को `निलिम्पनाथनागरी` कहा है, निलिम्पनाथ अर्थात् देवताओं के नाथ शिवजी हैं, क्योंकि देवता इन्हीं से सनाथ होते हैं, शिव ही देवों पर विपत्ति आने पर उनके हेतु राक्षसों का संहार करके उन सभी को भयमुक्त करते हैं। नागरी अर्थात् चतुर स्त्री। देवी पार्वती शिवजी की कुशल गृहिणी और उनकी लीलाओं में उनका साथ देने वाली पटु सहधर्मिणी हैं।

अतः उन्हें `निलिम्पनाथनागरी` कहा है। वर्णन इस प्रकार है कि साजसज्जा में निपुण देवी पार्वती के केशपाश में चमेली के फूलों की पुष्पमाला गुंथी है। इन फूलों से झरते हुए मधुकणों से, झरते उए परागकणों से भगवान निलिम्पनाथ (शिव) का स्वरूप मनोहारी लग रहा है, शिवप्रिया के फूलों की सौरभ से शिव का अंग अंग सुरभित हो उठा है।

इसके अलावा अपने अंगों से निकलते हुए तेजपुंज की आभा से वे देदीपमान हो रहे हैं। रावण प्रार्थना करता है कि दिनरात हमें मुदित रखने वाली, शोभाशालिनी परम श्री तथा परम पद के देने वाले, सौरभमय एवं कांतिमय शिव हमारी रक्षा करें।

*🚩प्रचंडवाडवानलप्रभाशुभप्रचारिणी*
*महाष्टसिद्धिकामिनीजनावहूत जल्पना*
*विमुक्तवामलोचनो विवाहकालिकध्वनिः*
*शिवेति मन्त्रभूषणो जगज्जजयाय* 
*जायताम् |🚩*

इस श्लोक में रावण पवित्र शिवमंत्र के प्रति अपनी अनन्य श्रद्धा व्यक्त करते हुए उसकी जयकार करता है। यहां वर्णन शिव-पार्वती के विवाह के समय का है। इस दिव्य विवाह में सभी दिव्य विभूतियां उपस्थित थीं । रावण का कथन है कि महा अष्टसिद्धियाँ साक्षात् स्त्री रूप धारण करके वहां आईं थीं।

इन महा अष्टसिद्धियों को रावण ने प्रचंड पापनाशिनी बताते हुए उन्हें बड़वानल की उपमा दी है। समुद्र के भीतर स्थित ज्वालामुखियों के विस्फोट से समुद्र में लगने वाली आग को बड़वानल कहते हैं, जो अतिशय विनाशकारी होती है, कई बार तो टापू के टापू उसके ज्वार में बह जाते हैं। यह सिद्धियां भी ठीक इसी तरह पापों को नष्ट कर देती हैं तथा उनके नष्ट हो जाने से सर्वत्र शुभ ही शुभ बच जाता है व शुभत्व का ही आगे प्रसार होता है।

यह `बड़वानल` जैसी पापनाशिनी सिद्धियां सिद्धिदात्री देवियों के रूप में साक्षात् विवाह में आईं और उन्होंने तथा अन्य चंचल नेत्रों वाली देवांगनाओं ने, विवाह-काल में दूल्हे बने हुए शिवजी का नाम ले लेकर, सस्वर मंगल गीत गाये व शिवमंत्र की पुण्य ध्वनि का घोष किया। उनके मंगल-गीतों में शिव नाम की गिरा गूंजी।

उस मंगल-निनाद में जिस शिवमंत्र की ध्वनि मुखरित हुई , स्तुतिकार उसे `मन्त्रभूषण` कह कर उसको नमन करता है, उस शिवमंत्र को सभी अन्य मन्त्रों का सिरमौर मानता है और कहता है कि यह मन्त्र जगत में दिग्विजय करें अर्थात् हम शिवमन्त्र का घोष करते हुए दिग्विजय करें। सर्वत्र निर्बाध गति से इसका प्रसार हो, जिससे लोक का मंगल हो । भगवान शिव की जय हो ! शिवमन्त्र की जय हो !

*🚩इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमस्तवम्*
*पठन् स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति सन्ततम्*
*हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं*
*विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य* 
*चिन्तनम्।🚩*

इस श्लोक में रावण ने शिव-चिंतन की गरिमा तथा महिमा पर प्रकाश डाला है। वह कहता है कि जो कोई भी व्यक्ति नियमित रूप से इस उत्तम स्तवन का पाठ अथवा स्मरण करता है, या इसे श्रवण करता है, वह सदैव परम शुद्ध व निर्मल रहता है। समस्त जगत के गुरु भगवान हर यानि शंकर की कृपा से अपनी निर्मल भक्ति में वह अविलम्ब (जल्दी) प्रगति करता है।

शम्भु उसे अपनी शरण में ले लेते हैं। शिवनिष्ठ व्यक्ति अथवा शिवभक्त की अन्य गति या दुर्गति नहीं होती। यह बात निश्चित है कि श्रीशंकर का चिंतन मनुष्य की मोहमाया को हर लेता है, देहधारी यानि मनुष्य का मोह दूर करता है एवं शिवभक्त इस प्रकार मायाजाल से मुक्त हो कर, निष्पाप हो कर, अंत में शिव-शरणागति पाता है।

*🚩पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं*
*यःशम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे*
*तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां*
*लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः।🚩*

शिवताण्डवस्तोत्रम्` के सत्रहवें और अंतिम श्लोक में रावण इस स्तोत्र या स्तवन की महत्ता बताते हुए कहता है कि प्रदोषकाल में अर्थात् संध्या के समय, पूजन के उपरांत (पूजा के बाद) इस शिवभक्तिमय स्तोत्र का पाठ जो कोई पूजापरायण व्यक्ति करता है, उस भक्त को शिवजी श्रेष्ठ हाथी-घोड़ों से युक्त रथ तथा सदैव अचल रहने वाली, सुमुखी और स्थिर लक्ष्मी प्रदान करते हैं, चंचला लक्ष्मी भी उसके पास अचंचल अर्थात् अचल बन कर स्थिर रहती है।

तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति विपुल वैभव दीर्घ काल तक भोगता है तथा लोक में सम्मानित होता है। लक्ष्मी को सुमुखी कहने से अभिप्राय है लक्ष्मी के सानुकूल रहने से। लक्ष्मी अनुकूल न रह कर यदि प्रतिकूल रहती है, तो व्यक्ति को धनवान तो बनाती है, किन्तु उसकी शुभ बुद्धि को हर लेती है तथा अंत में पीड़ादायिनी बनती है। इसलिए स्थिर और सुमुखी लक्ष्मी के प्रदान करने की महिमा गाई है।

*🚩।।इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।🚩*

*🚩।।रावण- रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् समाप्त🚩।।*

हेल्थ आईडी कार्ड, आयुष्मान कार्ड के तहत फ्री इलाज की सुविधा, घर बैठे यूं बनवाए अपना कार्ड ये रहा पूरा प्रोसेस_* #आयुष्मान भारत

हेल्थ आईडी कार्ड, आयुष्मान कार्ड के तहत फ्री इलाज की सुविधा, घर बैठे यूं बनवाए अपना कार्ड ये रहा पूरा प्रोसेस_*

भारतीय प्रधानमंत्री पीएम नरेंद्र मोदी ने आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन की शुरुआत की थी. इस मिशन का उदेश्य देश के हर नागरिक को एक हेल्थ आईडी देना है.
 
अगर आप अभी चाहते हैं तो घर बैठे अपना हेल्थ आईडी कार्ड बना सकते हैं. आपको बता दे कि यह आई डी कार्ड पूरी तरह से डिजिटल सेवा पर आधारित है. यह आधार कार्ड की तरह दिखता है. इस कार्ड पर आपको एक नंबर दिया जाता है, जैसा नंबर आधार कार्ड पर होता है. गूगल प्ले स्टोर पर NDHM हेल्थ रिकॉर्ड (PHR Application) उपलब्ध हो गया है.
 
आपको सबसे पहले https://healthid.ndhm.gov.in/register पर जाना होगा. यहां आपको ऐसा पेज दिखाई देगा. Genrate Via Aadhaar पर क्लिक या टैप करें.
अब आपके सामने यह पेज खुलेगा और आप इसमें अपना आधार नंबर डाल सकते है. इसके बाद आपके इस आधार से लिंक मोबाइल नंबर पर ओटीपी आएगा. इसे सबमिट कर दे.
 
इसके बाद एक और पेज खुलेगा, जिसमें अपना मोबाइल नंबर माँगा जायेगा. इसको डालते ही एक और ओटीपी आएगा. अब इस ओटीपी को डालकर सबमिट कर दे.

इतना करते ही आपके आधार से जुड़े डिटेल आपकी स्क्रीन पर आएगा. आपकी फोटो से लेकर नंबर तक सब कुछ होगा.

अब इस पेज पर थोड़ा नीचे देखेंगे तो आप अपनी हेल्थ आईडी, जैसा कि मेल आईडी बनाएं. नीचे वाले बाक्स में अपनी मेल आईडी डाले. फिर सबमिट करें.

लीजिए आपका हेल्थ कार्ड यूनीक आईडी के साथ तैयार हो गया है. अब इसे डाउनलोड कर लें. जिनके पास मोबाइल नहीं है, वे रजिस्टर्ड सरकारी-निजी अस्पताल, कम्युनिटी हेल्थ सेंटर, प्राइमरी हेल्थ सेंटर, वेलनेस सेंटर और कॉमन सर्विस सेंटर आदि पर कार्ड बनवा सकेंगे.

देखें आपका हेल्थ कार्ड यूनीक आईडी के साथ तैयार हो गया है. अब इसे डाउनलोड कर लें.

🇮🇳 वन्दे मातरम 🇮🇳


*जागरूकता के लिए शेयर अवश्य करें*


शनिवार, 9 दिसंबर 2023

जब नागों की माता पहुंची हनुमान जी की बल-बुद्धि की परीक्षा लेने!!!!

जब नागों की माता पहुंची हनुमान जी की बल-बुद्धि की परीक्षा लेने!!!!

हनुमान जी को आकाश में बिना विश्राम लिए लगातार उड़ते देखकर समुद्र ने सोचा कि ये प्रभु श्री रामचंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए जा रहे हैं। किसी प्रकार थोड़ी देर के लिए विश्राम दिलाकर इनकी थकान दूर करनी चाहिए। उसने अपने जल के भीतर रहने वाले मैनाक पर्वत से कहा, ‘‘मैनाक! तुम थोड़ी देर के लिए ऊपर उठकर अपनी चोटी पर हनुमान जी को बिठाकर उनकी थकान दूर करो।’’ 
समुद्र का आदेश पाकर मैनाक प्रसन्न होकर हनुमान जी को विश्राम देने के लिए तुरंत उनके पास आ पहुंचा। उसने उनसे अपनी सुंदर चोटी पर विश्राम के लिए निवेदन किया तो हनुमान बोले, ‘‘मैनाक ! तुम्हारा कहना ठीक है, लेकिन भगवान श्री राम चंद्र जी का कार्य पूरा किए बिना मेरे लिए विश्राम करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।’’ ऐसा कह कर उन्होंने मैनाक को हाथ से छूकर प्रणाम किया और आगे चल दिए।
हनुमान जी को लंका की ओर प्रस्थान करते देख कर देवताओं ने सोचा कि ये रावण जैसे बलवान राक्षस की नगरी में जा रहे हैं।  अत: इस समय इनके बल-बुद्धि की विशेष परीक्षा कर लेना आवश्यक है। यह सोच कर उन्होंने नागों की माता सुरसा से कहा, ‘‘देवी, तुम हनुमान के बल-बुद्धि की परीक्षा लो।’’

देवताओं की बात सुनकर सुरसा तुरंत एक राक्षसी का रूप धारण कर हनुमान जी के सामने जा पहुंची और उनका मार्ग रोकते हुए बोली, ‘‘वानर वीर ! देवताओं ने आज मुझे तुमको अपना आहार बनाने के लिए भेजा है।’’
उसकी बातें सुनकर हनुमान जी ने कहा, ‘‘माता ! इस समय मैं प्रभु श्री रामचंद्र जी के कार्य से जा रहा हूं। उनका कार्य पूरा करके मुझे लौट आने दो। उसके बाद मैं स्वयं ही आकर तुम्हारे मुंह में प्रविष्ट हो जाऊंगा। यह तुमसे मेरी प्रार्थना है।’’ 

इस प्रकार हनुमान जी ने सुरसा से बहुत प्रार्थना की, लेकिन उसने किसी प्रकार भी उन्हें जाने न दिया। अंत में हनुमान जी ने कुद्ध होकर कहा, ‘‘अच्छा तो लो तुम मुझे अपना आहार बनाओ।’’
उनके ऐसा कहते ही सुरसा अपना मुंह सोलह योजन तक फैलाकर उनकी ओर बढ़ी। हनुमान जी ने भी तुरंत अपना आकार उसका दुगना अर्थात 32 योजन तक बढ़ा लिया। इस प्रकार जैसे-जैसे वह अपने मुख का आकार बढ़ाती गई, हनुमान जी अपने शरीर का आकार उसका  दुगना करते गए। अंत में सुरसा ने अपना मुंह फैलाकर 100 योजन तक चौड़ा कर लिया। 
हनुमान जी तुरंत अत्यंत छोटा रूप धारण करके उसके उस 100 योजन चौड़े मुंह में घुस कर तुरंत बाहर निकल आए। उन्होंने आकाश में खड़े होकर सुरसा से कहा, ‘‘माता ! देवताओं ने तुम्हें जिस कार्य के लिए भेजा था, वह पूरा हो गया है। अब मैं भगवान श्री राम चंद्र जी के कार्य के लिए अपनी यात्रा पुन: आगे बढ़ाता हूं।’’ 
सुरसा ने तब उनके सामने अपने असली रूप में प्रकट होकर कहा, ‘‘महावीर हनुमान ! देवताओं ने मुझे तुम्हारे बल-बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए यहां भेजा था। तुम्हारे बल-बुद्धि की समानता करने वाला तीनों लोकों में कोई नहीं है। तुम शीघ्र ही भगवान श्री राम चंद्र जी के सारे कार्य पूर्ण करोगे। इसमें कोई संदेह नहीं है, ऐसा मेरा आशीर्वाद है।
🚩🙏 ॐ हं हनुमते नम:🙏🚩

उत्पन्ना एकादशी आज

उत्पन्ना एकादशी आज 

*********************
प्रत्येक वर्ष मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को उत्पन्ना एकादशी का व्रत किया जाता है। इस वर्ष 8 दिसंबर को उत्पन्ना एकादशी का व्रत रखा जाएगा। इस दिन भगवान विष्णु और माता एकादशी की पूजा की जाती है। हिंदू धर्म के अनुसार, इसे उत्पन्ना एकादशी इसलिए कहते हैं, क्योंकि इस दिन एकादशी माता की उत्पत्ति भगवान विष्णु द्वारा हुई थी। विष्णु जी ने ही इन्हें एकादशी नाम दिया और प्रत्येक व्रत में मां एकादशी को श्रेष्ट होने का वरदान भी दिया। उसके बाद से ही एकादशी का व्रत रखा जाने लगा, साथ ही विष्णु जी की पूजा की जाने लगी।

उत्पन्ना एकादशी का शुभ मुहूर्त
====================
8 दिसंबर को उत्पन्ना एकादशी का व्रत रखा जाएगा। प्रत्येक वर्ष 24 एकादशी होती है, जिसमें उत्पन्ना एकादशी सबसे महत्वपूर्ण होती है। 8 दिसंबर शुक्रवार को सुबह 5 बजकर 6 मिनट पर उत्पन्ना एकादशी की शुरुआत होगी। शनिवार यानी 9 दिसंबर को 6 बजकर 31 मिनट पर समाप्त हो जाएगी। ऐसे में आप पूजा 8 तारीख को सुबह 7 बजे से लेकर 10 बजकर 54 मिनट तक कर सकते हैं। साथ ही व्रत का पारण आप अगले दिन 9 तारीख को दिन के समय 1 बजकर 15 मिनट से लेकर 3 बजकर 20 मिनट पर कर सकते हैं।

उत्पन्ना एकादशी की पूजा विधि
=====================
सबसे पहले सुबह उठकर स्नान करें। विष्णु भगवान की पूजा और उत्पन्ना एकादशी व्रत करने का संकल्प लें। पूजा स्थल पर विष्णु जी और माता एकादशी की तस्वीर रखें। पंचामृत से भगवान विष्णु को स्नान कराएं। धूप, दीप, चंदन, वस्त्र, अक्षत, पान का पत्ता, पीले फूल, फल, मिठाई, सुपारी आदि चढ़ाएं। एकादशी माता को फल, मिठाई, फूल, धूप, दीप, अक्षत, कुमकुम अर्पित करें। विष्णु चालीसा और उत्पन्ना एकादशी व्रत कथा का पाठ करें। अंत में आरती करें और विष्णु भगवान, माता एकादशी से हाथ जोड़कर आशीर्वाद लें। क्षमा प्रार्थना करें। इस दिन गरीब ब्राह्मण, जरूरतमंदों को पूजा में इस्तेमाल किए गए सामानों को दान कर सकते हैं। उन्हें दक्षिणा दें। फिर अगले दिन पारण करके उत्पन्ना एकादशी व्रत का समापन करें।

उत्पन्ना एकादशी पर करें ये उपाय
======================
1. यदि आपको संतान की प्राप्ति नहीं हो रही है तो पति और पत्नी इस दिन एक साथ पूजा-पाठ और व्रत करें। विधि-विधान से पूजा करने से संतान की प्राप्ति होती है। आपकी अन्य मनोकामनाएं भी पूर्ण होंगी।

2. यदि आप विष्णु जी के साथ इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं तो मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। ऐसे में आपके घर में धन की कमी नहीं होती। सुख-समृद्धि में इजाफा हो सकता है।

3. भगवान विष्णु जी की पूजा करने के दौरान ओम नमो भगवते वासुदेवाय नम: मंत्र जपें। इससे आपकी अधूरी इच्छाएं, मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।

एकादशी व्रत की कथा
*********************
सूतजी कहने लगे- हे ऋषियों! इस व्रत का वृत्तांत और उत्पत्ति प्राचीनकाल में भगवान कृष्ण ने अपने परम भक्त युधिष्ठिर से कही थी। वही मैं तुमसे कहता हूँ।

एक समय यु‍धिष्ठिर ने भगवान से पूछा था ‍कि एकादशी व्रत किस विधि से किया जाता है और उसका क्या फल प्राप्त होता है। उपवास के दिन जो क्रिया की जाती है आप कृपा करके मुझसे कहिए। यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे- हे युधिष्ठिर! मैं तुमसे एकादशी के व्रत का माहात्म्य कहता हूँ। सुनो।

सर्वप्रथम हेमंत ऋ‍तु में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी से इस व्रत को प्रारंभ किया जाता है। दशमी को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश मुँह में रह न जाए। रात्रि को भोजन कदापि न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन प्रात: 4 बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात न करे।

स्नान के पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान का पूजन करें और रात को दीपदान करें। रात्रि में सोना या प्रसंग नहीं करना चाहिए। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए। जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए। धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए।

जो मनुष्य ऊपर लिखी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के भी समान नहीं है। व्यतिपात के दिन दान देने का लाख गुना फल होता है। संक्रांति से चार लाख गुना तथा सूर्य-चंद्र ग्रहण में स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है वही पुण्य एकादशी के दिन व्रत करने से मिलता है।

अश्वमेध यज्ञ करने से सौ गुना तथा एक लाख तपस्वियों को साठ वर्ष तक भोजन कराने से दस गुना, दस ब्राह्मणों अथवा सौ ब्रह्मचारियों को भोजन कराने से हजार गुना पुण्य भूमिदान करने से होता है। उससे हजार गुना पुण्य कन्यादान से प्राप्त होता है। इससे भी दस गुना पुण्य विद्यादान करने से होता है। विद्यादान से दस गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है। अन्नदान के समान इस संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिससे देवता और पितर दोनों तृप्त होते हों परंतु एकादशी के व्रत का पुण्य सबसे अधिक होता है।

हजार यज्ञों से भी ‍अधिक इसका फल होता है। इस व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है। रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है और दिन में एक बार भोजन करने वाले को भी आधा ही फल प्राप्त होता है। जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते।

युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन! आपने हजारों यज्ञ और लाख गौदान को भी एकादशी व्रत के बराबर नहीं बताया। सो यह तिथि सब तिथियों से उत्तम कैसे हुई, बताइए।

भगवन कहने लगे- हे युधिष्ठिर! सतयुग में मुर नाम का दैत्य उत्पन्न हुआ। वह बड़ा बलवान और भयानक था। उस प्रचंड दैत्य ने इंद्र, आदित्य, वसु, वायु, अग्नि आदि सभी देवताओं को पराजित करके भगा दिया। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने भयभीत होकर भगवान शिव से सारा वृत्तांत कहा और बोले हे कैलाशपति! मुर दैत्य से भयभीत होकर सब देवता मृत्यु लोक में फिर रहे हैं। तब भगवान शिव ने कहा- हे देवताओं! तीनों लोकों के स्वामी, भक्तों के दु:खों का नाश करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाओ।

वे ही तुम्हारे दु:खों को दूर कर सकते हैं। शिवजी के ऐसे वचन सुनकर सभी देवता क्षीरसागर में पहुँचे। वहाँ भगवान को शयन करते देख हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे‍कि हे देवताओं द्वारा स्तुति करने योग्य प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है, देवताओं की रक्षा करने वाले मधुसूदन! आपको नमस्कार है। आप हमारी रक्षा करें। दैत्यों से भयभीत होकर हम सब आपकी शरण में आए हैं।

आप इस संसार के कर्ता, माता-पिता, उत्पत्ति और पालनकर्ता और संहार करने वाले हैं। सबको शांति प्रदान करने वाले हैं। आकाश और पाताल भी आप ही हैं। सबके पितामह ब्रह्मा, सूर्य, चंद्र, अग्नि, सामग्री, होम, आहुति, मंत्र, तंत्र, जप, यजमान, यज्ञ, कर्म, कर्ता, भोक्ता भी आप ही हैं। आप सर्वव्यापक हैं। आपके सिवा तीनों लोकों में चर तथा अचर कुछ भी नहीं है।

हे भगवन्! दैत्यों ने हमको जीतकर स्वर्ग से भ्रष्ट कर दिया है और हम सब देवता इधर-उधर भागे-भागे फिर रहे हैं, आप उन दैत्यों से हम सबकी रक्षा करें।

इंद्र के ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु कहने लगे कि हे इंद्र! ऐसा मायावी दैत्य कौन है जिसने सब देवताअओं को जीत लिया है, उसका नाम क्या है, उसमें कितना बल है और किसके आश्रय में है तथा उसका स्थान कहाँ है? यह सब मुझसे कहो।

भगवान के ऐसे वचन सुनकर इंद्र बोले- भगवन! प्राचीन समय में एक नाड़ीजंघ नामक राक्षस थ उसके महापराक्रमी और लोकविख्यात मुर नाम का एक पुत्र हुआ। उसकी चंद्रावती नाम की नगरी है। उसी ने सब देवताअओं को स्वर्ग से निकालकर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया है। उसने इंद्र, अग्नि, वरुण, यम, वायु, ईश, चंद्रमा, नैऋत आदि सबके स्थान पर अधिकार कर लिया है।

सूर्य बनकर स्वयं ही प्रकाश करता है। स्वयं ही मेघ बन बैठा है और सबसे अजेय है। हे असुर निकंदन! उस दुष्ट को मारकर देवताओं को अजेय बनाइए।

यह वचन सुनकर भगवान ने कहा- हे देवताओं, मैं शीघ्र ही उसका संहार करूंगा। तुम चंद्रावती नगरी जाओ। इस प्रकार कहकर भगवान सहित सभी देवताओं ने चंद्रावती नगरी की ओर प्रस्थान किया। उस समय दैत्य मुर सेना सहित युद्ध भूमि में गरज रहा था। उसकी भयानक गर्जना सुनकर सभी देवता भय के मारे चारों दिशाओं में भागने लगे। जब स्वयं भगवान रणभूमि में आए तो दैत्य उन पर भी अस्त्र, शस्त्र, आयुध लेकर दौड़े।
 
भगवान ने उन्हें सर्प के समान अपने बाणों से बींध डाला। बहुत-से दैत्य मारे गए। केवल मुर बचा रहा। वह अविचल भाव से भगवान के साथ युद्ध करता रहा। भगवान जो-जो भी तीक्ष्ण बाण चलाते वह उसके लिए पुष्प सिद्ध होता। उसका शरीर छिन्न‍-भिन्न हो गया किंतु वह लगातार युद्ध करता रहा। दोनों के बीच मल्लयुद्ध भी हुआ।

10 हजार वर्ष तक उनका युद्ध चलता रहा किंतु मुर नहीं हारा। थककर भगवान बद्रिकाश्रम चले गए। वहां हेमवती नामक सुंदर गुफा थी, उसमें विश्राम करने के लिए भगवान उसके अंदर प्रवेश कर गए। यह गुफा 12 योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था। विष्णु भगवान वहां योगनिद्रा की गोद में सो गए।
 
मुर भी पीछे-पीछे आ गया और भगवान को सोया देखकर मारने को उद्यत हुआ तभी भगवान के शरीर से उज्ज्वल, कांतिमय रूप वाली देवी प्रकट हुई। देवी ने राक्षस मुर को ललकारा, युद्ध किया और उसे तत्काल मौत के घाट उतार दिया। 
 
श्री हरि जब योगनिद्रा की गोद से उठे, तो सब बातों को जानकर उस देवी से कहा कि आपका जन्म एकादशी के दिन हुआ है, अत: आप उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजित होंगी। आपके भक्त वही होंगे, जो मेरे भक्त हैं।

गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

पुण्य का फल देखना चाहता हूं…

रात्रि की कहानी 

पुण्य का फल देखना चाहता हूं…

एक सेठ बस से उतरे, उनके पास कुछ सामान था। आस-पास नजर दौडाई, तो उन्हें एक मजदूर दिखाई दिया। सेठ ने आवाज देकर उसे बुलाकर कहा- “अमुक स्थान तक इस सामान को ले जाने के कितने पैसे लोगे?’…….’आपकी मर्जी, जो देना हो, दे देना, लेकिन मेरी शर्त है कि जब मैं सामान लेकर चलूँ, तो रास्ते में या तो मेरी सुनना या आप सुनाना । सेठ ने डाँट कर उसे भगा दिया और किसी अन्य मजदूर को देखने लगे, लेकिन आज वैसा ही हुआ जैसे राम वन गमन के समय गंगा के किनारे केवल केवट की ही नाव थी। मजबूरी में सेठ ने उसी मजदूर को बुलाया । मजदूर दौड़कर आया और बोला – “मेरी शर्त आपको मंजूर है?”…..सेठ ने स्वार्थ के कारण हाँ कर दी। सेठ का मकान लगभग 500मीटर की दूरी पर था । मजदूर सामान उठा कर सेठ के साथ चल दिया और बोला, सेठजी आप कुछ सुनाओगे या मैं सुनाऊँ। सेठ ने कह दिया कि तू ही सुना। मजदूर ने खुश होकर कहा- ‘जो कुछ मैं बोलू, उसे ध्यान से सुनना , यह कहते हुए मजदूर पूरे रास्ते बोलता गया । और दोनों मकान तक पहुँच गये। मजदूर ने बरामदे में सामान रख दिया , सेठ ने जो पैसे दिये, ले लिये और सेठ से बोला! सेठजी मेरी बात आपने ध्यान से सुनी या नहीं।

सेठ ने कहा, मैने तेरी बात नहीं सुनी, मुझे तो अपना काम निकालना था। मजदूर बोला-” सेठजी! आपने जीवन की बहुत बड़ी गलती कर दी, कल ठीक सात बजे आपकी मौत होने वाली है”। सेठ को गुस्सा आया और बोले: तेरी बकवास बहुत सुन ली, जा रहा है या तेरी पिटाई करूँ???:….. मजदूर बोला: मारो या छोड दो, कल शाम को आपकी मौत होनी है, अब भी मेरी बात ध्यान से सुन लो । अब सेठ थोड़ा गम्भीर हुआ और बोला: सभी को मरना है, अगर मेरी मौत कल शाम होनी है तो होगी , इसमें मैं क्या कर सकता हूं । मजदूर बोला: तभी तो कह रहा हूं कि अब भी मेरी बात ध्यान से सुन लो। सेठ बोला: सुना, ध्यान देकर सुनूंगा । मरने के बाद आप ऊपर जाओगे तो आपसे यह पूछा जायेगा कि “हे मनुष्य ! पहले पाप का फल भोगेगा या पुण्य का “क्योंकि मनुष्य अपने जीवन में पाप-पुण्य दोनों ही करता है, तो आप कह देना कि पाप का फल भुगतने को तैयार हूं लेकिन पुण्य का फल आँखों से देखना चाहता हूं ।

इतना कहकर मजदूर चला गया । दूसरे दिन ठीक सात बजे सेठ की मौत हो गयी। सेठ ऊपर पहुँचा तो यमराज ने मजदूर द्वारा बताया गया प्रश्न कर दिया कि ‘पहले पाप का फल भोगना चाहता है कि पुण्य का’ । सेठ ने कहा ‘पाप का फल भुगतने को तैयार हूं लेकिन जो भी जीवन में मैंने पुण्य किया हो, उसका फल आंखों से देखना चाहता हूं। यमराज बोले-” हमारे यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, यहाँ तो दोनों के फल भुगतवाए जाते हैं।” सेठ ने कहा कि फिर मुझसे पूछा क्यों, और पूछा है तो उसे पूरा करो, धरती पर तो अन्याय होते देखा है, पर यहाँ पर भी अन्याय है। यमराज ने सोचा, बात तो यह सही कह रहा है, इससे पूछकर बड़े बुरे फंसे, मेरे पास कोई ऐसी पावर ही नहीं है, जिससे इस जीव की इच्छा पूरी हो जाय, विवश होकर यमराज उस सेठ को ब्रह्मा जी के पास ले गये , और पूरी बात बता दी

ब्रह्मा जी ने अपनी पोथी निकालकर सारे पन्ने पलट डाले, लेकिन उनको कानून की कोई ऐसी धारा या उपधारा नहीं मिली, जिससे जीव की इच्छा पूरी हो सके। ब्रह्मा भी विवश होकर यमराज और सेठ को साथ लेकर भगवान के पास पहुचे और समस्या बतायी । भगवान ने यमराज और ब्रह्मा से कहा: जाइये , अपना -अपना काम देखिये , दोनों चले गये। भगवान ने सेठ से कहा- “अब बोलो, तुम क्या कहना चाहते हो?…सेठ बोला- “अजी साहब, मैं तो शुरू से एक ही बात कह रहा हूं कि पाप का फल भुगतने को तैयार हूं लेकिन पुण्य का फल आँखों से देखना चाहता हूं ।

भगवान बोले- “धन्य है वो सदगुरू(मजदूर) जो तेरे अंतिम समय में भी तेरा कल्याण कर गया , अरे मूर्ख ! उसके बताये उपाय के कारण तू मेरे सामने खडा है, अपनी आँखों से इससे और बड़ा पुण्य का फल क्या देखना चाहता है। मेरे दर्शन से तेरे सभी पाप भस्मीभूत हो गये। इसीलिए बचपन से हमको सिखाया जाता है कि, गुरूजनों की बात ध्यान से सुननी चाहिए , पता नहीं कौन सी बात जीवन में कब काम आ जाए।

जय श्रीराम

मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

आज है काल भैरव अष्टमी शिवजी के भैरव रूप की पूजा का है दिन

आज है काल भैरव अष्टमी
**********************
शिवजी के भैरव रूप की पूजा का है दिन 
==========================
आज यानी 5 दिसंबर को काल भैरव अष्टमी है। इसे कालाष्टमी भी कहते हैं। इस दिन शिवजी के भैरव रूप की पूजा की जाती है। काल भैरव अष्टमी यानी कालाष्टमी का त्यौहार हर माह की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन कालभैरव की पूजा की जाती है जिन्हें शिवजी का एक अवतार माना जाता है. इसे कालाष्टमी, भैरवाष्टमी आदि नामों से जाना जाता है। आज के दिन मां दुर्गा की पूजा और व्रत का भी विधान माना गया है।

कालाष्टमी व्रत विधि 
=============
नारद पुराण के अनुसार कालाष्टमी के दिन कालभैरव और मां दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। इस रात देवी काली की उपासना करने वालों को अर्ध रात्रि के बाद मां की उसी प्रकार से पूजा करनी चाहिए जिस प्रकार दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि को देवी कालरात्रि की पूजा का विधान है।

इस दिन शक्ति अनुसार रात को माता पार्वती और भगवान शिव की कथा सुन कर जागरण का आयोजन करना चाहिए. आज के दिन व्रती को फलाहार ही करना चाहिए. कालभैरव की सवारी कुत्ता है। अतः इस दिन कुत्ते को भोजन करवाना शुभ माना जाता है।

क्यों रखा जाता है कालाष्टमी का व्रत 
======================
कथा के अनुसार एक दिन भगवान ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठ होने का विवाद उत्पन्न हुआ. विवाद के समाधान के लिए सभी देवता और मुनि शिव जी के पास पहुंचे. सभी देवताओं और मुनि की सहमति सेशिव जी को श्रेष्ठ माना गया. परंतु ब्रह्मा जी इससे सहमत नहीं हुए. ब्रह्मा जी, शिव जी का अपमान करने लगे.
अपमान जनक बातें सुनकर शिव जी को क्रोध आ गया जिससे कालभैरव का जन्म हुआ. उसी दिन से कालाष्टमी का पर्व शिव के रुद्र अवतार कालभैरव के जन्म दिन के रूप में मनाया जाने लगा।

कालाष्टमी व्रत फल 
==============
कालाष्टमी व्रत बहुत ही फलदायी माना जाता है. इस दिन व्रत रखकर पूरे विधि-विधान से काल भैरव की पूजा करने से व्यक्ति के सारे कष्ट मिट जाते हैं काल उससे दूर हो जाता है. इसके अलावा व्यक्ति रोगों से दूर रहता है और उसे हर कार्य में सफलता प्राप्त होती है।

इस मंत्र का करें जाप
----------------------------
शिव पुराण में कहा है कि भैरव परमात्मा शंकर के ही रूप हैं इसलिए आज के दिन इस मंत्र का जाप करना फलदायी होता है

अतिक्रूर महाकाय कल्पान्त दहनोपम्, 
भैरव नमस्तुभ्यं अनुज्ञा दातुमर्हसि!!

भैरव अष्टमी की पौराणिक कथा
*************************
एक बार की बात है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों में श्रेष्ठता की लड़ाई चली। इस बात पर बहस बढ़ गई तो सभी देवताओं को बुलाकर बैठक की गई। सबसे यही पूछा गया कि श्रेष्ठ कौन है। सभी ने अपने अपने विचार व्यक्त किए और उतर खोजा लेकिन उस बात का समर्थन शिवजी और विष्णु ने तो किया परन्तु ब्रह्माजी ने शिवजी को अपशब्द कह दिए। इस बात पर शिवजी को क्रोध आ गया और शिवजी ने अपना अपमान समझा। 

शिवजी ने उस क्रोध में अपने रूप से भैरव को जन्म दिया। इस भैरव अवतार का वाहन काला कुत्ता है। इनके एक हाथ में छड़ी है इस अवतार को महाकालेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। इसलिए ही इन्हें दंडाधिपति कहा गया है। शिवजी के इस रूप को देख कर सभी देवता घबरा गए। भैरव ने क्रोध में ब्रह्मा जी के पांच मुखों में से एक मुख को काट दिया। तब से ब्रह्मा के पास चार मुख है। इस प्रकार ब्रह्माजी के सर को काटने के कारण भैरव जी पर ब्रह्महत्या का पाप आ गया। ब्रह्माजी ने भैरव बाबा से माफ़ी मांगी तब जाकर शिवजी अपने असली रूप में आए। 

भैरव बाबा को उनके पापों के कारण दंड मिला इसीलिए भैरव को कई दिनों तक भिखारी की तरह रहना पड़ा। इस प्रकार कई वर्षो बाद वाराणसी में इनका दंड समाप्त होता हैं। इसका एक नाम दंडपाणी पड़ा था। इस प्रकार भैरव जयंती को पाप का दंड मिलने वाला दिवस भी माना जाता है।
 

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

74 वर्षों से लगा हुआ कलंक सिर्फ 30 मिनट में हटाया*भारत पिछले 74 साल से एक जहरीले कीड़े से पीड़ित था, जिसका नाम है *संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह* UNMO *United Nations Military Observer*

*74 वर्षों से लगा हुआ कलंक सिर्फ 30 मिनट में हटाया*
भारत पिछले 74 साल से एक जहरीले कीड़े से पीड़ित था, जिसका नाम है *संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह* UNMO *United Nations Military Observer*
 अब इसे मोदी सरकार ने खत्म कर दिया।

विदेश मंत्री एस जयशंकर जी ने इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। केवल 30 मिनट में इस पूरी समिति को अगले दस दिनों के भीतर भारत छोडने का आदेश दे दिया गया!

संयुक्त राष्ट्र की एक समिति संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह को भारत ने भारत से बाहर का रास्ता दिखा दिया है! 
 यह कमेटी 1948 से भारत में काम कर रही थी और कश्मीर मसले पर भारत और पाकिस्तान के रवैए खासकर खुद भारत के रवैए पर पैनी नजर रख रही थी!
  काम करने, घूमने, रहने, खाने-पीने, उठने-बैठने का सारा खर्च भारत उठा रहा था! 
 इस कमेटी ने भारत के खिलाफ काफी कड़े बयान दिए थे। उन्होंने कश्मीर को द्विपक्षीय मामला न बनाकर त्रिपक्षीय घोषित करने की कोशिश की और साथ ही भारत पर गंभीर आरोप लगाए जैसे "भारत हमारे, भारत और पाकिस्तान के बीच संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह के काम में बाधा डाल रहा है ताकि समिति ठीक से काम न कर सके"।
समिति यहीं नहीं रुकी... उन्होंने आगे कहा "वह राशि जो भारत हमें देता है हमारे खर्चों को कवर नहीं करता है। 
इसलिए भारत को हमारे भत्ते और खर्च बढ़ाने होंगे और भारत को इसका भुगतान करना होगा!"

ऐसा हुआ कि जिस कुत्ते को हमने पाल रखा था, वह हमारा खा रहा था और हम पर ही भौंक रहा था और तो अब काटने भी लगा था।
इस पर भारत सरकार ने उनसे इतना ही कहा: "तुम्हारे नाटक से हमने बहुत कुछ सहा है। अब तुम यहाँ से फौरन चले जाओ"। "तुम्हारे लिए भारत में कोई जगह नहीं बची है!" 
 केवल 30 मिनट में मोदी सरकार ने उनका वीजा रद्द कर दिया और उन्हें भारत छोडकर तुरंत अपने देश जाने के लिए कहा... 
अगले 10 दिनों के भीतर!!!
 पिछले 74 वर्षों से भारत इनमें से 40 से अधिक लोगों का खर्च वहन कर रहा था, 
जिन्हें अब निर्वासित कर दिया गया है!
और आपको पता है 74 वर्ष पूर्व उन्हें कौन लाया था...?
कांग्रेसियों के चिचा जान "जवाहर लाल नेहरू"!

99% जनता को तो इसकी जानकारी ही नहीं होगी कि अंग्रेजो की एक टीम आज तक भारत पर राज कर रहीं थीं *इन कांग्रेसियों के कारण से'*
आज मोदी जी ने अंग्रेजो के आखिरी स्तम्भ को भी भारत से उखाड़ फेंकने का कार्य किया है ''
🙏🙏वन्देमातरम 🙏🙏

*इस संदेश को कम से कम पांच ग्रुप में जरूर भेजे, ताकि समस्त भारतीयों को कांग्रेस की छद्म राजनीति के संबंध में पता चले*

function disabled

Old Post from Sanwariya