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सोमवार, 4 मार्च 2024

भगवान की गोद में सिर

भगवान की गोद में सिर


       एक लड़की ने, एक सन्त जी  को बताया कि मेरे पिता बहुत बीमार हैं और अपने पलंग से उठ भी नहीं सकते क्या आप उनसे मिलने हमारे घर पे आ सकते हैं। सन्त जी ने कहा, हां बेटी! मैं जरूर  जाऊँगा । संत जब उनसे मिलने उसके घर पर गए तो देखा कि एक बूढ़ा और बीमार आदमी पलँग पर दो तकियों पर सिर रख कर लेटा हुआ है।  लेकिन एक खाली कुर्सी उसके पलँग के सामने पड़ी थी।   सन्त जी ने उस बूढ़े और बीमार आदमी से पूछा, कि मुझे लगता है कि शायद आप मेरे ही आने की उम्मीद कर रहे थे।  उस वृद्ध आदमी ने कहा, जी नहीं, आप कौन हैं?……सन्त जी ने अपना परिचय दिया और फिर कहा मुझे ये खाली कुर्सी देखकर लगा कि आप को मेरे आने का आभास हो गया है।  वो आदमी बोला, सन्त जी, अगर आपको अगर बुरा न लगे तो कृपया कमरे का दरवाज़ा बंद कर दीजिये। संत जी को थोड़ी हैरानी तो हुई, फिर भी सन्त जी ने दरवाज़ा बंद कर दिया।

वो बीमार आदमी बोला कि दरअसल इस खाली कुर्सी का राज़ मैंने आजतक भी किसी को नहीं बताया। अपनी बेटी को भी नहीं, दरअसल अपनी पूरी ज़िंदगी में मैं ये जान नहीं सका कि प्रार्थना कैसे की जाती है। लेकिन मैं हर.रोज मंदिर जाता ज़रूर था लेकिन कुछ समझ नहीं आता था। लगभग चार साल पहले मेरा एक दोस्त मुझे मिलने आया, उसने मुझे बताया, कि हर प्रार्थना भगवान से सीधे ही हो सकती है। उसी ने मुझे सलाह दी कि एक खाली कुर्सी अपने सामने रखो और ये विश्वास करो कि भगवान खुद इस कुर्सी पर तुम्हारे सामने बैठे हैं, फिर भगवान से ठीक वैसे ही बातें करना शुरू करो, जैसे कि अभी तुम मुझसे कर रहे हो!,वो हमारी हर फरियाद सुनता है, और जब मैंने ऐसा ही करके देखा मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर तो मैं रोज़ दो-दो घंटे तक ऐसे ही भगवान से बातें करने लगा।  लेकिन मैं इस बात का ख़ास ध्यान रखता था कि मेरी बेटी कभी मुझे ऐसा करते न देख ले। अगर वो देख लेती तो उसे लगता कि मैं पागल हो गया हूँ।

  ये सुनकर सन्त जी की आँखों में, प्रेम और भाव से आँसू बहने लगे, सन्त जी ने उस बुजुर्ग से कहा कि आप सबसे ऊँची भक्ति कर रहे हो, फिर उस बीमार आदमी के सिर पर पर हाथ रखा और कहा अपनी सच्ची प्रेम भक्ति को ज़ारी रखो।

सन्त जी, अपने आश्रम में लौट गये, लेकिन पाँच दिन बाद वही बेटी सन्त जी से मिलने आई और उन्हें बताया कि जिस दिन आप मेरे पिता जी से मिले थे, वो बेहद खुश थे, लेकिन कल सुबह चार बजे मेरे पिता जी ने प्राण त्याग दिये हैं। बेटी ने बताया, कि मैं जब घर से अपने काम पर जा रही थी तो उन्होंने मुझे बुलाया मेरा माथा प्यार से चूमा, उनके चेहरे पर बहुत शांति थी, उनकी आँखे आँसुओं से भरी हुई थीं, लेकिन वापिस लौटकर  मैंने एक अजीब सी चीज़ भी देखी वो ऐसी मुद्रा में अपने बिस्तर पर बैठे थे जैसे खाली कुर्सी पर उन्होंने ने किसी की गोद में अपना सिर झुका रखा हो, जबकि कुर्सी तो हमेशा की तरह ख़ाली थी।

सन्त जी, मेरे पिता जी ने ख़ाली कुर्सी के आगे सिर क्यों झुका रखा था?….बेटी से पिता का ये हाल सुन कर सन्त जी फूटफूट कर रोने लगे और मालिक के आगे फरियाद करने लगे, हे मालिक, मैं भी,जब इस दुनिया से जाऊं तो ऐसे ही जाऊं, मुझ पर भी ऐसी ही कृपा करना। यदि हम भी इसी तरह अपने इष्ट देव की गोद में बैठकर, यहाँ से जाना चाहते हैं तो हर पल अपने इष्टदेव की हाज़री को हर जगह महसूस करेगें, एक दिन हमारी अवस्था भी ज़रूर बदलेगी

जय श्रीराम

सूर्यदेव और ग्रहण स्वर्भानु था राहु केतु का वास्तविक नाम

सूर्यदेव और ग्रहण 
स्वर्भानु था राहु केतु का वास्तविक नाम 
स्वर्भानु का नाम शायद आपने पहली बार सुना हो किन्तु मुझे विश्वास है कि उसका दूसरा नाम आप सभी जानते होंगे। कुछ लोग स्वर्भानु नाम को शायद ना जानते हों किन्तु उसका दूसरा नाम हिन्दू धर्म के सबसे प्रसिद्द पात्रों में से एक है और हम सभी उससे परिचित हैं। हम उसे राहु एवं केतु के नाम से जानते हैं। अधिकतर धर्मग्रंथों में केवल राहु का विवरण ही मिलता है जिससे बाद में केतु अलग होता है किन्तु उसका वास्तविक नाम स्वर्भानु था। स्वर्भानु दैत्यराज बलि का एक महत्वपूर्ण सेनानायक था। समुद्र मंथन के समय जब अंत में अमृत की उत्पत्ति हुई तो देवों और दैत्यों में उसे पाने के लिए प्रतिस्पर्धा आरम्भ हो गयी।

अमृत दैत्यों के हाथों में ना चला जाये इस कारण भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धरा जिसे देखकर सभी मंत्रमुग्ध हो गए और सम्मोहित हो मोहिनी रुपी भगवान विष्णु का अनुसरण करने लगे। मोहिनी ने कहा कि देव और दैत्य दोनों अपनी-अपनी पंक्तियों में बैठ जाएँ ताकि वो सभी को अमृत-पान करा सके। बलि के नेतृत्व में दैत्य और इंद्र के नेतृत्व में देवता अपनी-अपनी पंक्तियों में बैठ गए और मोहिनी उन्हें अमृत पिलाने को आयी। मोहिनी दैत्यों को केवल अमृत पिलाने का अभिनय करती किन्तु देवों को वास्तव में अमृतपान करवाती। ऐसा करते-करते सभी देव अमर हो गए किन्तु किसी भी दैत्य को अमृत की एक बूँद भी नहीं मिली। 

दैत्यों में बैठा स्वर्भानु मोहिनी के इस छल को समझ गया और देव का रूप बना कर उन्ही के मध्य सूर्यदेव एवं चंद्रदेव के बीच में जाकर बैठ गया। जब मोहिनी ने उसे अमृत दिया तो उसने उसका पान करना चाहा। उसी समय सूर्य एवं चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी रुपी भगवान विष्णु को सचेत कर दिया। ये देख कर कि उसका भेद खुल गया है, स्वर्भानु ने तुरंत अमृत का पान कर लिया किन्तु इससे पहले कि अमृत उसके कंठ से नीचे उतरता, भगवान नारायण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका मस्तक काट लिया। स्वर्भानु का सर राहु कहलाया और धड़ केतु। चूँकि अमृत स्वर्भानु के कंठ तक पहुँच चुका था इसी कारण राहु भी देवों की तरह अमर हो गया। अपने साथ हुआ ये छल देखकर राहु एवं केतु बड़े क्रोधित हुए। चूँकि सूर्य एवं चंद्र ने ही उसका भेद खोला था इसीलिए दोनों ने प्रतिज्ञा की कि वे समय आने पर दोनों को ग्रसेगे। तब से वर्ष में एक बार राहु सूर्य को एवं केतु को चंद्र को ग्रसते हैं जिससे सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण लगता है। ग्रहण समाप्त होने के बाद सूर्य राहु के और चंद्र केतु के कंठ के मार्ग से बाहर निकल जाते हैं। 

पद्म पुराण के अनुसार इंद्र की पत्नी शची कश्यप पुत्र दैत्य पौलोमी की पुत्री थी। पौलमी का वध इंद्र ने किया क्यूंकि उसने इन्द्रपद प्राप्त कर लिया था। उसके बाद पौलोमी के छोटे भाई विप्रचित्ति ने हिरण्यकशिपु की बहन होलिका और सिंहिका से विवाह किया जिससे राहु या स्वर्भानु का जन्म हुआ जो प्रह्लाद के पुत्र पुरोचन और उसके पश्चात उसके पुत्र बलि का सहायक बना। विप्रचित्ति ने उसके पश्चात इंद्र पद भी प्राप्त किया हालाँकि वो उसपर अधिक समय तक नहीं रह सका। होलिका प्रह्लाद को मरने के प्रयास में मृत्यु को प्राप्त हुई और सिंहिका का वध हनुमान ने समुद्र लंघन के समय किया। अमृत के स्पर्श के कारण राहु एवं केतु को नवग्रह में स्थान मिला है। आम तौर पर राहु को अशुभ ही माना जाता है वही केतु अधिकतर शुभ परिणाम देता है। 

एक दिन के २४ घंटों में २४ मिनट राहुकाल कहलाता है जो कि अशुभ माना जाता है। राहु और केतु को उत्तर एवं दक्षिण ध्रुव को जोड़ने वाली रेखा के रूप में भी देखा जाता है जहाँ राहु उत्तर आसंधि एवं केतु दक्षिण आसंधि कहलाता है। राहु हुए केतु चूंकि कोई वास्तविक ग्रह नहीं है इसीलिए छाया ग्रह भी कहा जाता है जहाँ राहु को ड्रैगन और केतु को एक विशाल सर्प के रूप में दिखाया जाता है जो राहु के संयोग से किसी व्यक्ति के जीवन में कालसर्प योग बनता है।

रविवार, 3 मार्च 2024

सीता अष्टमी आज

सीता अष्टमी आज

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फाल्गुन मास की अष्टमी तिथि को माता सीता का प्राकट्य हुआ था, हालांकि कुछ जगहों पर वैशाख मास की नवमी तिथि को जानकी नवमी के दिन माता सीता की सही जन्म तिथि मानते हैं। 

फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को माता सीता पृथ्वी पर प्रकट हुई थीं। इस बार यह शुभ तिथि 04 मार्च के दिन है। इस तिथि को जानकी जंयती या सीता अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। वहीं कई जगहों पर वैशाख मास की नवमी तिथि को देवी सीता की जन्मतिथि मानते हैं, जिसे जानकी नवमी या सीता नवमी के नाम से जाना जाता है। माता सीता के कारण ही भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बने थे। माता सीता मिथिला के राजा जनक की पुत्री थीं इसलिए उनको जानकी भी कहा जाता है। इसलिए रामायण में माता सीता को जानकी कहकर संबोधित किया गया है। 

सीता अष्टमी का महत्व 
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धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, गुरु वशिष्ठजी के कहने पर भगवान राम ने समुद्र तट की तपोमय भूमि पर बैठकर यह व्रत किया था। यह व्रत अभीष्ट सिद्धि के लिए किया जाता है। इस व्रत को करने से माता सीता के साथ भगवान राम का आशीर्वाद मिलता है और सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। माता सीता को माता लक्ष्मी का अवतार माना गया है, जिनका विवाह विष्णु अवतार भगवान राम से हुआ था। सीता जयंती पर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मी स्वरूपा देवी सीता की पूजा करने से व्यक्ति को जीवन में कभी किसी चीज की कमी नहीं होती और सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।

सीता अष्टमी की पूजा विधि 
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सीता अष्टमी के व्रत में माता सीता के साथ भगवान राम की भी पूजा की जाती है और उनका ध्यान करते हुए व्रत का संकल्प किया जाता है। पूजा से भगवान गणेश और माता दुर्गा की पूजा करें। इसके बाद लाल चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर माता सीता के साथ भगवान राम की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद माता सीता को सिंदूर, अक्षत, फूल, फल आदि समेत सुहाग का सामान अर्पित किया जाता है। माता सीता का लाल या पीले रंग की चीजें अर्पित की जाती हैं। इसके बाद माता देवी सीता की आरती उतारें। फिर इस मंत्र 'ॐ जनकनंदिन्यै विद्महे, भुमिजायै धीमहि, तन्नो सीता: प्रचोदयात्' का 108 बार जप करें। सीता जंयती की पूजा में सर्व धान्य (जौ-चावल आदि) समेत हवन किया जाता है और खीर, पुए और गुड़ से बने पारंपरिक व्यंजनों का नैवेघ अर्पण किया जाता है। माता सीता की पूजा करने के बाद सुहाग के सामान को किसी सुहागिन महिला को दान में दे दें। फिर शाम के समय पूजा करने के बाद माता सीता को चढ़ाए गई चीजों से व्रत खोलें।

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