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बुधवार, 5 जून 2024

सरकार बनाने का नंबर गेम:नीतीश-नायडू NDA छोड़ दें, तो भी कैसे तीसरी बार PM बनेंगे मोदी; 7 सिनेरियो से समझिए

*सरकार बनाने का नंबर गेम:नीतीश-नायडू NDA छोड़ दें, तो भी कैसे तीसरी बार PM बनेंगे मोदी; 7 सिनेरियो से समझिए..!!*
लोकसभा चुनाव के नतीजे साफ हो चुके हैं। अब सवाल सरकार बनाने का है। BJP अपने बूते बहुमत हासिल नहीं कर पाई, लेकिन उसकी NDA ने 292 सीटें जीत ली हैं। यानी बहुमत से 20 ज्यादा।

दूसरी तरफ 234 सीटों वाला इंडिया एलायंस भी सरकार बनाने की जुगत में है, लेकिन पलड़ा NDA का भारी है। मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से कुछ ही दिनों की दूरी पर हैं। मगर कैसे आइए 7 सिनेरियो से समझते हैं-

*सबसे पहले दोनों गठबंधनों के आंकड़े जान लेते हैं-*

लोकसभा में 543 सीटें हैं। सरकार बनाने के लिए कम से कम 272 सीटें चाहिए। BJP की अगुआई वाले NDA गठबंधन को 292 सीटें मिली हैं।


*पहला सिनेरियो :* अगर चंद्र बाबू की TDP, NDA का साथ छोड़ती है तो-
NDA के पास 292 सीटें हैं, इनमें TDP की हिस्सेदारी 16 है। अगर TDP, इंडी एलयांस के साथ जाती है, तो NDA के पास 276 सीटें बचेंगी। यानी बहुमत से 4 सीटें ज्यादा। NDA की सरकार बन जाएगी।
292-16 = 276 (NDA बहुमत से 4 ज्यादा)

*दूसरा सिनेरियो :* अगर नीतीश की जदयू, NDA का साथ छोड़ती है तो
NDA के पास 292 सीटे हैं, जिसमें जदयू के पास 12 सीटें हैं। अगर जदयू, इंडी के साथ जाती है, तो NDA के पास 280 सीटें रहेंगी। यानी बहुमत से 8 सीटें ज्यादा। NDA की सरकार बन जाएगी।
292-12=280 (NDA बहुमत से 8 ज्यादा)

*तीसरा सिनेरियो :* अगर TDP और जदयू दोनों NDA का साथ छोड़ते हैं
TDP की 16 और जदयू की 12 सीटें मिलकर 28 के आंकड़े पर पहुंचती हैं। अगर NDA की कुल 292 सीटों में से TDP और जदयू की सीटें माइनस कर दें तो आंकड़ा 264 पहुंचेगा। यानी बहुमत से 8 सीटें कम। ऐसे में NDA सरकार बहुमत से पीछे रह जाएगी।

TDP+ जदयू यानी 16+12 = 28
अब 292-28 = 264 (NDA बहुमत से 8 सीटें पीछे हो जाएंगी, लेकिन NDA बड़ा गठबंधन रहेगा)

पहले और दूसरे सिनेरियो में NDA के पास बहुमत है। ऐसे में प्री पोल एलायंस को बहुमत मिलने की स्थिति में राष्ट्रपति, NDA के नेता को सरकार बनाने के लिए इनवाइट करेंगे। गठबंधन के नेता होने की वजह से मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे।

तीसरे सिनेरियो में भले ही NDA बहुमत से पीछे रहेगी, लेकिन सबसे बड़ा गठबंधन होने की स्थिति में राष्ट्रपति उसे सरकार बनाने के लिए इनवाइट करेंगे। इस स्थिति में भी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। हालांकि, बहुमत साबित करने के लिए उन्हें 8 सीटों की जरूरत होगी।

इस बार निर्दलीय और कई छोटे-छोटे ऐसे दल, जो किसी गठबंधन में शामिल नहीं हैं, उन्हें कुल मिलाकर 18 सीटें मिली हैं। मोदी इन दलों या प्रत्याशियों को साथ लाकर बहुमत का आंकड़ा जुटा सकते हैं।

*क्या इंडी एलायंस की सरकार बन सकती है...आइए समझते हैं-*


*पहला सिनेरियो :* अगर जदयू, NDA छोड़कर इंडिया एलायंस के साथ आ जाए तो
जदयू के पास 12 सीटें हैं। अगर वह इंडी एलायंस के साथ आती है, तो इनका आंकड़ा 246 पहुंच जाएगा। इसके बाद भी वह बहुमत के आंकड़े से 28 सीटें पीछे रह जाएगी।
234+12 = 246 ( INDIA बहुमत से 28 सीटें कम)

*दूसरा सिनेरियो :* अगर TDP, NDA छोड़कर इंडिया एलांयस के साथ आए तो
TDP को 16 सीटों पर जीत मिली है। अगर वह इंडिया एलायंस के साथ आती है, तो इनका आंंकड़ा 250 पहुंच जाएगा। इसके बाद भी इंडिया बहुमत के आंकड़े से 22 सीटें पीछे रह जाएगी।234+16 = 250 ( INDIA बहुमत से 22 सीटें कम)

*तीसरा सिनेरियो :* अगर जदयू और TDP दोनों इंडिया एलायंस में आ जाए तो
TDP और जदयू को मिलाकर 28 सीटें हैं। ये दोनों इंडी एलायंस के साथ जुड़ती हैं, तो आंकड़ा 262 पहुंचेगा। इसके बाद भी इंडी एलायंस 10 सीटों से बहुमत से पीछे रह जाएगा।
TDP + जदयू यानी 16+12 = 28
अब 234+28 = 262 ( INDIA बहुमत से 10 सीटें पीछे)

*चौथे सिनेरियो :* अगर जदयू, TDP और लोजपा (राम विलास) इंडिया के साथ आ गए तो
TDP की 16, जदयू की 12 और लोजपा (राम विलास) की 5 सीटों को इंडिया एलायंस की सीटों में शामिल करें, तो इनका आंकड़ा पहुंचता है 267, यानी बहुमत से 5 सीटें कम। यानी इन तीनों पार्टियों के साथ आने के बाद भी इंडी एलायंस बहुमत से पीछ रह जाएगी।
TDP + जदयू यानी+ लोजपा (राम विलास) 16+12+5 = 33

*अब 234+33 = 267 ( INDIA बहुमत से 5 सीटें पीछे)*

इलेक्शन के नंबर गेम से साफ है कि नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। संवैधानिक रूप से भी मोदी का पलड़ा भारी है।

दरअसल, भारत के राष्ट्रपति परंपरा के मुताबिक सबसे बड़े एलायंस या सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए इनवाइट करते हैं। इस चुनाव में 292 सीटों के साथ NDA सबसे बड़ा गठबंधन है और 240 सीटों के साथ BJP सबसे बड़ा दल।

अगर NDA के कुछ साथी साथ छोड़ देते हैं और इंडी एलायंस बहुमत का दावा करता है, तो भी राष्ट्रपति अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए BJP को बड़ा दल होने के नाते सरकार बनाने के लिए इनवाइट कर सकते हैं।

एक्सपर्ट्स के मुताबिक एक बार सरकार बनाने के बाद मोदी को बहुमत जुटाने में खास दिक्कत नहीं होगी। यानी, इस बार भी मोदी के PM बनने की प्रबल संभावना है।

सोमवार, 3 जून 2024

श्री घुश्मेश्वर कैसे बने अंतिम ज्योर्तिलिंग, पढ़ें कथा

श्री घुश्मेश्वर कैसे बने अंतिम ज्योर्तिलिंग, पढ़ें कथा
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भगवान शिव के बारह ज्योर्तिलिंग देश के अलग-अलग भागों में स्थित हैं। इन्हें द्वादश ज्योर्तिलिंग के नाम से जाना जाता है। इन ज्योर्तिलिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मांतर के सारे पाप समाप्त हो जाते हैं। वे भगवान शिव की कृपा के पात्र बनते हैं। ऐसे कल्याणकारी ज्योर्तिलिंगों में श्री घुश्मेश्वर ज्योर्तिलिंग एक प्रमुख ज्योर्तिलिंग माना जाता है। द्वादश ज्योर्तिलिंगों में यह अंतिम ज्योर्तिलिंग है। इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मील दूर वेरुल गांव के पास स्थित है।

श्री घुश्मेश्वर ज्योर्तिलिंग के विषय में पुराणों में यह कथा वर्णित है- दक्षिण देश में देवगिरि पर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ठ ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था। दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया। पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जंची लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान शिव की अनन्य भक्त थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी।

भगवान शिव जी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुन्दर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों की ही आनंद की सीमा न रही। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है।

अब तक सुदेहा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। मेरे पति पर भी उसने अधिकार जमा लिया। संतान भी उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढऩे लगा। इधर घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। अंतत: एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला और उसके शव को ले जाकर उसी तालाब में फैंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फैंका करती थी।

सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कोहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों फूट-फूटकर रोने लगे लेकिन घुश्मा नित्य की भांति भगवान शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोडऩे के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखाई पड़ा।

वह सदा की भांति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा। जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान शिव भी वहां प्रकट होकर घुश्मा से वर मांगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घिनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान शिव से कहा, ‘प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किन्तु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो! मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।’

भगवान शिव ने उसकी ये दोनों प्रार्थनाएं स्वीकार कर लीं। ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहां घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। घुश्मेश्वर ज्योर्तिलिंग की महिमा पुराणों में बहुत विस्तार से वर्णित की गई है। इनका दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिए अमोघ फलदायी है।
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लिंग पूजन का विधान एवं महत्व

लिंग पूजन का विधान एवं महत्व
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 लिंगोपासना की महिमा का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। लिंग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। देव-चिह्न के अर्थ में लिंग शब्द शिवजी के ही लिंग के लिए आता है। पुराण में लयनालिंगमुच्यते कहा गया है अर्थात लय या प्रलय से लिंग कहते हैं। प्रलय की अग्नि में सब कुछ भस्म होकर शिवलिंग में समा जाता है। वेद-शास्त्रादि भी लिंग में लीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में सब कुछ लिंग से ही प्रकट होता है। शिव मंदिरों में पाषाण निर्मित शिवलिंगों की अपेक्षा बाणलिंगों की विशेषता ही अधिक है। अधिकांश उपासक मृण्मय शिवलिंग अर्थात बाणलिंग की उपासना करते हैं। गरुड़ पुराण तथा अन्य शास्त्रों में अनेक प्रकार के शिवलिंगों के निर्माण का विधान है। उसका संक्षिप्त वर्णन भी पाठकों के ज्ञानार्थ यहां प्रस्तुत है। दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन तथा तीन भाग कुंकुम से ‘गंधलिंग’ बनाया जाता है। इसकी यथाविधि पूजा करने से शिव सायुज्य का लाभ मिलता है। ‘रजोमय लिंग’ के पूजन से सरस्वती की कृपा मिलती है। व्यक्ति शिव सायुज्य पाता है। जौ, गेहूं, चावल के आटे से बने लिंग को ‘यव गोधूमशालिज लिंग’ कहते हैं। इसकी उपासना से स्त्री, पुत्र तथा श्री सुख की प्राप्ति होती है। आरोग्य लाभ के लिए मिश्री से ‘सिता खण्डमय लिंग’ का निर्माण किया जाता है। हरताल, त्रिकटु को लवण में मिलाकर लवज लिंग बनाया जाता है। यह उत्तम वशीकरण कारक और सौभाग्य सूचक होता है। पार्थिव लिंग से कार्य की सिद्धि होती है। भस्ममय लिंग सर्वफल प्रदायक माना गया है। गुडोत्थ लिंग प्रीति में बढ़ोतरी करता है। वंशांकुर निर्मित लिंग से वंश बढ़ता है। केशास्थि लिंग शत्रुओं का शमन करता है। दुग्धोद्भव लिंग से कीर्ति, लक्ष्मी और सुख प्राप्त होता है। धात्रीफल लिंग मुक्ति लाभ और नवनीत निर्मित लिंग कीर्ति तथा स्वास्थ्य प्रदायक होता है। स्वर्णमय लिंग से महाभुक्ति तथा रजत लिंग से विभूति मिलती है। कांस्य और पीतल के लिंग मोक्ष कारक होते हैं। पारद शिवलिंग महान ऐश्वर्य प्रदायक माना गया है। लिंग साधारणतया अंगुष्ठ प्रमाण का बनाना चाहिए। पाषाणादि से बने लिंग मोटे और बड़े होते हैं। लिंग से दोगुनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ करने का विधान है। लिंग की लंबाई उचित प्रमाण में न होने से शत्रुओं की संख्या में वृद्धि होती है। योनिपीठ बिना या मस्तकादि अंग बिना लिंग बनाना अशुभ है। पार्थिव लिंग अपने अंगूठे के एक पोर के बराबर बनाना चाहिए। इसके निर्माण का विशेष नियम आचरण है जिसका पालन नहीं करने पर वांछित फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। लिंगार्चन में बाणलिंग का अपना अलग ही महत्व है। वह हर प्रकार से शुभ, सौम्य और श्रेयस्कर होता है। प्रतिष्ठा में भी पाषाण की अपेक्षा बाण लिंग की स्थापना सरल व सुगम है। नर्मदा नदी के सभी कंकर ‘शंकर’ माने गए हैं। इन्हें नर्मदेश्वर भी कहते हैं। नर्मदा में आधा तोला से लेकर मनों तक के कंकर मिलते हैं। यह सब स्वतः प्राप्त और स्वतः संघटित होते हैं। उनमें कई लिंग तो बड़े ही अद्भुत, मनोहर, विलक्षण और सुंदर होते हैं। उनके पूजन-अर्चन से महाफल की प्राप्ति होती है। मिट्टी, पाषाण या नर्मदा की जिस किसी मूर्ति का पूजन करना हो, उसकी विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा, स्थापना आदि की विधियां अनेक ग्रंथों मे वर्णित है।

👉 पवित्र मनुष्य सदा ही उत्तराभिमुख होकर शिवार्चन करें।

👉 मृत्तिका, भस्म, गोबर, आटा, ताँबा और कांस का शिवलिङ्ग बानाकर जो मनुष्य एकबार भी पूजन करता है वह अयुतकल्प तक स्वर्ग में वास करता है।

👉 नौ, आठ, और सात अँगुल का शिवलिङ्ग उत्तम होता है। तीन, छः, पाँच तथा चार अँगुल का शिवलिङ्ग मध्यम होता है। तीन, दो, और एक अँगुल का शिवलिङ्ग कनिष्ठ होता है। इस प्रकार यथा क्रम से चर प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग नौ प्रकार का कहा गया है।

👉 शूद्र, जिसका उपनयन सँस्कार नहीं हुआ है, स्त्री और पतित ये लोग केशव या शिव का स्पर्श करते हैं तो नरक प्राप्त करते हैं। (स्कन्द पुराण)

👉 स्वयं प्रदुर्भूत बाणलिंग में, रत्नलिंग में, रसनिर्मित लिंग में और प्रतिष्ठित लिंग में चण्ड का अधिकार नहीं होता।

👉 जहाँ पर चण्डाधिकार होता है वहाँ पर मनुष्यों को उसका भोजन नहीं करना चाहिये। जहाँ चण्डाधिकार नहीं होता है वहाँ भक्ति से भोजन करें। (नि.सि.पृ.सं.७२ॉ)

👉 पृथिवी, सुवर्ण, गौ, रत्न, ताँबा, चाँदी, वस्त्रादि को छोड़कर चण्डेश के लिये निवेदन करें। अन्य अन्न आदि, जल, ताम्बूल, गन्ध और पुष्प, भगवान् शंकर को निवेदित किया हुआ सब चण्डेश को दे देना चाहिये।(नि.सि.पृ.सं.७१९)

👉 विल्वपत्र तीन दिन और कमल पाँच दिन वासी नहीं होता और तुलसी वासी नहीं होती। (नि.सि.पृ.सं.७१८)

👉 अँगुष्ठ, मध्यमा और अनामिका से पुष्प चढ़ाना चाहिये एवं अँगुष्ठ-तर्जनी से निर्माल्य को हटाना चाहिये।

‘अहं शिवः शिवश्चार्य, त्वं चापि शिव एव हि।
सर्व शिवमयं ब्रह्म, शिवात्परं न किञचन।। 

में शिव, तू शिव सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्। शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मेंगल, परम कल्याण। 

रोगं हरति निर्माल्यं शोकं तु चरणोदकं ।
अशेष पातकं हन्ति शम्भोर्नैवेद्य भक्षणम् ।।

भगवान् शिव का निर्माल्य समस्त रोगों को नष्ट कर देता है । चरणोदक शोक नष्ट कर देता है तथा शिव जी का नैवेद्य भक्षण करने से सम्पूर्ण पाप विनष्ट हो जाते हैं ।
इतना ही नहीं शिव जी के नैवेद्य प्रसाद का दर्शन करने मात्र से पाप दूर भाग जाते हैं और शिव का नैवेद्य ग्रहण करने से खाने से करोड़ों पुण्य प्रसाद ग्रहण करने वाले मनुष्य मे समा जाते हैं ।

दृष्ट्वापि शिवनैवेद्यं यान्ति पापानि दूरतः ।
भुक्ते तु शिव नैवेद्ये पुण्यान्यायान्त कोटिशः ।।

जो भक्त शिव मन्त्र से दीक्षित हैं वे समस्त शिव लिङ्गों पर चढ़े हुये प्रसाद को खाने के अधिकारी हैं क्यों कि शिव भक्त के लिये शिव नैवेद्य शुभदायक महाप्रसाद है ।

शिव दीक्षान्वितो भक्तो महाप्रसाद संज्ञकम् ।
सर्वेषामपि लिङ्गानां नैवेद्यं भक्षयेत् शुभम् ।।

यहाँ शिव मन्त्र के अतिरिक्त अन्य मन्त्रों की दीक्षा से सम्पन्न भक्तों के लिये शिव नैवेद्य ग्रहण विधि का वर्णन किया गया है।

अन्य दीक्षा युत नृणां शिवभक्ति रतात्मनाम् ।
चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्भोक्तव्यं न मानवैः ।।

जो शिवजी से भिन्न दूसरे देवता की दीक्षा से युक्त हैं और शिव भक्ति में भी जिनका मन लगा हुआ है ऐसे मनुष्यों को वह शिव नैवेद्य नहीं खाना चाहिये जिस पर भगवान् शङ्कर के गण चण्ड का अधिकार है । अर्थात् जहाँ चण्ड का अधिकार नहीं है ऐसे शिव नैवेद्य सभी भगवद्भक्त मनुष्य खायें तो कोई दोष नहीं है। अब यह बताते हैं कि चण्ड का अधिकार कहाँ नहीं होता है।

बाण लिङ्गे च लौहे च सिद्ध लिङ्गे स्वयंभुवि ।
प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोsधिकृतो भवेत् ।।

नर्मदेश्वर , स्वर्ण लिङ्ग , किसी सिद्ध पुरुष द्वारा स्थापित शिव लिङ्ग , स्वयं प्रगट होने वाले शिव लिङ्ग में तथा शङ्कर जी की सम्पूर्ण प्रतिमाओं के नैवेद्य पर चण्ड का अधिकार नहीं होता है । अतः इन शिव लिङ्गों पर चढ़ा हुआ प्रसाद शिवभक्त ग्रहण कर सकता है।

जिन शिव लिङ्गों के नैवेद्य पर चण्ड का अधिकार है वहाँ भी यह व्यवस्था है👉

लिङ्गोपरि च यद् द्रव्यं तदग्राह्यं मुनीश्वराः ।
सुपवित्रं च तज्ज्ञेयं यल्लिङ्ग स्पर्श बाह्यतः ।।

हे मुनीश्वरों शिव लिङ्ग के ऊपर जो द्रव्य चढ़ा दिया जाता है उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये , जो द्रव्य प्रसाद शिव लिङ्ग स्पर्श से बाहर होता है अर्थात् शिव लिङ्ग के समीप रख कर जो अर्पण किया जाता है भोग लगाया जाता है उसको विशेष रूप से पवित्र समझना चाहिये अतः ऐसे शिव नैवेद्यको सभी मनुष्य ग्रहण कर सकते हैं | 

ऐसे परम कल्याण ओर अभय के दाता औधरदानी आशुतोष क आराधन जीव मात्र के लिए सहज ओर मंगल दायक माना गया है।

बिना किसी भय या भ्रांति के शिव पूजन यजन आराधन कर भाव से प्रसाद जरूर ग्रहण करे।

ॐ नमःशिवाय ..... हर हर महादेव
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शुक्रवार, 31 मई 2024

अमावस्या तिथि का आध्यात्म एवं ज्योतिष में का महत्त्व

अमावस्या तिथि का आध्यात्म एवं ज्योतिष में का महत्त्व
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हिंदू धर्म में अमावस्या तिथि का बहुत अधिक महत्व है। हिंदू पंचांग की तीसवीं तिथि और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि अमावस्या कहलाती है। इस तिथि का नाम सिनीवाली भी है। इसे हिंदी में अमावसी भी कहते हैं। अमावस्या तिथि का निर्माण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा का अंतर शून्य हो जाता है। इस दिन आकाश में चांद नहीं दिखाई देता है। इस तिथि पर भगवान शिव और माता पार्वती के पूजन का विधान है। मान्यता है कि इस तिथि के दिन केतु का जन्म हुआ था। 

अमावस्या तिथि का ज्योतिष में महत्त्व
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अमावस्या तिथि के स्वामी पितर माने गए हैं। इस तिथि पर चंद्रमा की 16वीं कला जल में प्रविष्ट हो जाती है। इस दिन चंद्रमा आकाश में नहीं दिखाई देता है और इस तिथि पर वह औषधियों में  रहते हैं। अमावस्या तिथि के दिन कृष्ण पक्ष समाप्त होता है। इस तिथि के दिन सूर्य और चन्द्रमा दोनों समान अंशों पर होते है।

अमावस्या तिथि में जन्मे जातक
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अमावस्या तिथि में जन्मे जातकों की दीर्घायु होती है। ये लोग अपनी बुद्धि को कुटिल कार्यों में लगाते हैं। ये बहुत पराक्रमी होते हैं लेकिन इन्हें ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रयत्न बहुत करना पड़ता है। इनकी आदत व्यर्थ में सलाह देने की बहुत होती है। इन जातकों को जीवन में संघर्षों का सामना बहुत करना पड़ता है। ये लोग मानसिक रूप से स्वस्थ्य नहीं होते हैं। इनमें असंतुष्टी की भावना बहुत अधिक रहती है। 

अमावस्या के दिन क्या करें और क्या ना करें
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अमावस्या तिथि पर भगवान शिव और माता पार्वती का पूजन करना शुभ माना जाता है। 

इस तिथि पर पितरों का तर्पण करने का विधान है। यह तिथि चंद्रमास की आखिरी तिथि होती है।

इस तिथि पर गंगा स्नान और दान का महत्व बहुत है। 

इस दिन क्रय-विक्रय और सभी शुभ कार्यों को करना वर्जित है।

अमावस्या के दिन खेतों में हल चलाना या खेत जोतने की मनाही है।

इस तिथि पर जब कोई बच्चा पैदा होता है तो शांतिपाठ करना पड़ता है।

अमावस्या के दिन शुभ कर्म नहीं करना चाहिए।

अमावस्या तिथि के प्रमुख हिन्दू त्यौहार एवं व्रत व उपवास
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माघ अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि को मौनी अमावस्या के रूप में जाना जाता है। इस दिन गंगा स्नान करके मौन धारण किया जाता है।

फाल्गुन अमावस्या, अश्विन अमावस्या, चैत्र अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस अमावस्या को पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। इस दन दान, तर्पण और श्राद्ध किया जाता है।

वैशाख अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि के दिन सर्पदोष से मुक्ति पाने के लिए उज्जैन में पूजा करने का विधान है।

ज्येष्ठ अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️यह तिथि के दिन आप ज्योतिषाचार्य से शनिदोष निवारण का उपाय करा सकते हैं। इस दिन वट सावित्री की पूजा का भी प्रावधान है।

आषाढ़ अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस अमावस्या के दिन पितरों का तर्पण करते हैं उनकी आत्मा की शांति के लिए। इस दिन स्नान और दान का विशेष महत्व है।

श्रावण अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि को हरियाली अमावस्या के नाम से जानते हैं। इस तिथि को पितृकार्येषु अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है।

भाद्रपद अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि को कुशाग्रहणी अमावस्या के नाम से जाना जाता है। इस दिन कुशा को तोड़कर रख लिया जाता है।

कार्तिक अमावस्या
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि के दिन दीपों का पर्व दीवाली मनाते हैं। इस दिन 14 वर्ष का वनवास पूरा करके श्री राम अयोध्या वापस लौटे थे।

मार्गशीर्ष अमावस्या 
〰️〰️〰️〰️〰️〰️इस तिथि को सोमवती अमावस्या के नाम से जाना जाता है।
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तुलसी और वृंदा - जालंधर और शंखचूड़ में भेद

तुलसी और वृंदा - जालंधर और शंखचूड़ में भेद 
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जालंधर और शंखचूड़ दोनो की कथा अलग अलग है, जो इस प्रकार है-

शिव महापुराण के अनुसार, प्राचीन काल में, राक्षसों का राजा दंभ हुआ करता था। जो कि एक महान विष्णु भक्त थे। कई वर्षों तक संतान न होने के कारण, राजा दंभ ने शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाया और उनसे श्री कृष्ण का मंत्र प्राप्त किया। इस मंत्र को प्राप्त करने के बाद, उन्होंने पुष्कर सरोवर में तपस्या की। भगवान विष्णु उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें संतान प्राप्ति का वरदान दिया।

भगवान विष्णु के वरदान से राजा दंभ के यहां एक पुत्र ने जन्म लिया। इस पुत्र का नाम शंखचूड़ था। बड़े होकर, शंखचूड़ ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए पुष्कर में तपस्या की।

शंखचूड़ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने शंखचूड़ को वरदान मांगने को कहा। तब उसने ने वरदान मांगा कि वह हमेशा अमर रहे और कोई भी देवता उसे न मार सके। ब्रह्मा जी ने उन्हें यह वरदान दिया और कहा कि वह बदरीवन जाकर धर्मध्वज की बेटी तुलसी से विवाह करें। जो इस समय तपस्या कर रही है। शंखचूर्ण ने ब्रह्मा जी के अनुसार तुलसी से विवाह किया और सुखपूर्वक रहने लगा।

शंखचूर्ण ने अपने बल से देवताओं, राक्षसों, असुरों, गंधर्वों, यमदूतों, नागों, मनुष्यों और तीनो लोकों के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त की। शंखचूर्ण भगवान कृष्ण का अनन्य भक्त था । उसके अत्याचार से परेशान सभी देव ब्रह्मा जी के पास गए और ब्रह्मा जी को शंखचूर्ण के अत्याचार का हाल बताया तब ब्रह्माजी उन्हें भगवान विष्णु के पास ले गए। भगवान विष्णु ने कहा कि शंखचूड़ की मृत्यु भगवान शिव के त्रिशूल से ही संभव है, इसलिए तुम भगवान् शिव के पास जाओ।

भगवान शिव ने चित्ररथ नाम के गण को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। चित्ररथ ने शंखचूड़ को समझाया कि चित्ररथ देवताओं का राज्य उनको लौटा दे। लेकिन शंखचूड़ ने इनकार कर दिया और कहा कि वह महादेव से लड़ना चाहता है।

जब भगवान शिव को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने अपनी सेना के साथ युद्ध करने के लिए प्रस्थान किया। इस तरह, देवताओं और राक्षसों के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। लेकिन ब्रह्मा जी के वरदान के कारण देवता शंखचूड़ को हरा नहीं पाए। जैसे ही भगवान शिव ने शंखचूड़ को मारने के लिए अपना त्रिशूल उठाया, तब आकाशवाणी हुई- जब तक शंखचूड़ के हाथ में भगवान् श्री श्रीहरि का कवच है और उसकी पत्नी की सतीत्व अखंड है, तब तक उसे मारना असंभव है।

आकाशवाणी सुनकर भगवान विष्णु एक बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ के पास गए और उन्हें श्रीहरि कवच का दान करने को कहा। शंखचूड़ ने बिना किसी हिचकिचाहट के उस कवच को दान कर दिया। इसके बाद, भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप धारण किया और तुलसी के पास गए।

शंखचूड़ के रूप में भगवान विष्णु तुलसी के महल के द्वार पर गए और अपनी जीत की सूचना दी। यह सुनकर तुलसी बहुत खुश हुई और अपने पति रूप में आए भगवान की पूजा की। ऐसा करने से, तुलसी का सार टूट गया और भगवान शिव ने युद्ध में अपने त्रिशूल से शंखचूड़ को मार डाला।

तब तुलसी को पता चला कि वे उनके पति नहीं हैं, बल्कि वे भगवान विष्णु हैं। गुस्से में तुलसी ने कहा कि तुमने मेरे धर्म को धोखा देकर मेरे पति को मार डाला है। इसलिए, मैं आपको श्राप देती हूं कि आप पाषण काल तक पृथ्वी पर ही रहो।

तब भगवान विष्णु ने कहा👉 हे देवी। आपने लंबे समय तक भारत वर्ष में रहकर मेरे लिए तपस्या की है। आप का यह शरीर एक नदी में तब्दील हो जाएगा और गंडकी नामक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। आप फूलों में सबसे अच्छा तुलसी का पेड़ बन जाओगी और हमेशा मेरे साथ ही रहोगी। मैं आपके शाप को सच करने के लिए एक पत्थर (शालिग्राम) के रूप में पृथ्वी पर रहूंगा। मैं गंडकी नदी के किनारे पर रहूंगा। उसी दिन से देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी का विवाह संपन्न करके मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं। हिंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस दिन तुलसी-शालिग्राम विवाह करने से अपार सफलता की प्राप्ति भी होती है।

जालंधर की कथा 👉 श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार, प्राचीन काल में, जालंधर नाम के एक दानव ने चारों ओर बड़ी उथल-पुथल मचा रखी थी। जालंधर बहुत बहादुर और पराक्रमी था। उनकी वीरता का रहस्य उनकी पत्नी वृंदा का पुण्य धर्म था। उसी के प्रभाव में वह विजयी होता रहा। जालंधर के अत्याचारों से परेशान होकर देवता भगवान विष्णु के पास गए और उनसे सुरक्षा की गुहार लगाई।

देवताओं की प्रार्थना सुनकर, भगवान विष्णु ने वृंदा की धर्मपरायणता को भंग करने का फैसला किया। उसने जालंधर का रूप लिया और छल से वृंदा का धर्म भांग करने का निश्चय किया। जालंधर, वृंदा के पति, देवताओं के साथ लड़ रहे थे, लेकिन वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही जालंधर को भगवान् शिव ने मार दिया।

जैसे ही वृंदा का सतीत्व भंग हुआ, जालंधर का सिर उसके आंगन में आकर गिरा। जब वृंदा ने यह देखा, तो वह बहुत क्रोधित हो गई और उसने जानना चाहा कि जो उसके सामने खड़ा है वह कौन है। सामने भगवान विष्णु प्रकट हो गए । वृंदा ने भगवान विष्णु को शाप दिया, 'जिस तरह तुमने मेरे पति को छल से मारा है, उसी तरह तुम्हारी पत्नी भी छली जाएगी और तुम भी स्त्री वियोग को भोगने के लिए मृत्यु संसार में पैदा होगे।' यह कहते हुए वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। वृंदा के सती होने के स्थान पर तुलसी के पौधे का उत्पादन किया गया था।

भगवान् विष्णु ने कहा, 'हे वृंदा! यह आपके पुण्य का परिणाम है कि आप तुलसी के रूप में मेरे साथ रहोगी, और जो व्यक्ति मेरा विवाह आपके साथ कराएगा वह मेरे परम धाम का अधिकारी होगा। तभी से तुलसी दल के बिना शालिग्राम या विष्णु की पूजा करना अधूरा माना जाता है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी का प्रतीकात्मक विवाह माना जाता है।

इस कथा के अनुसार- इस कथा में वृंदा ने भगवान् विष्णु जी को शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। यही पत्थर शालिग्राम कहलाया।

शंखचूड और जालन्धर के आख्यानों मे बहुत कुछ समानताएँ विद्यमान है। ये दो कल्पभेद (अलग-अलग कल्पों में घटित घटनाओ) के कारण हुआ हो सकता है, और, तन्त्र मे जालन्धर का स्थान और शंख की नाद दोनों मे सम्बन्ध का कुछ एहसास है।
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बुधवार, 29 मई 2024

त्रयोदशी तिथि का आध्यात्म एवं ज्योतिष में महत्त्व

त्रयोदशी तिथि का आध्यात्म एवं ज्योतिष में महत्त्व
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हिंदू पंचाग की तेरहवीं तिथि त्रयोदशी कहलाती है। इस तिथि का नाम जयकारा भी है। इसे हिंदी में तेरस भी कहा जाता है। यह तिथि चंद्रमा की तेरहवीं कला है, इस कला में अमृत का पान धन के देवता कुबेर करते हैं। त्रयोदशी तिथि का निर्माण शुक्ल पक्ष में तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा का अंतर 145 डिग्री से 156 डिग्री अंश तक होता है। वहीं कृष्ण पक्ष में त्रयोदशी तिथि का निर्माण सूर्य और चंद्रमा का अंतर 313 से 336 डिग्री अंश तक होता है। त्रयोदशी तिथि के स्वामी कामदेव को माना गया है। जीवन में प्रेम और दांपत्य सुख प्राप्ति के लिए इस तिथि में जन्मे जातकों को कामदेव की पूजा अवश्य करनी चाहिए। 

त्रयोदशी तिथि का ज्योतिष में महत्त्व
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यदि त्रयोदशी तिथि बुधवार को पड़ती है तो मृत्युदा योग बनाती है। इस योग में शुभ कार्य करना वर्जित है। इसके अलावा त्रयोदशी तिथि मंगलवार को होती है तो सिद्धा कहलाती है। ऐसे समय कार्य सिद्धि की प्राप्ति होती है। बता दें कि त्रयोदशी तिथि जया तिथियों की श्रेणी में आती है। वहीं शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि पर भगवान शिव की पूजा करना शुभ माना जाता है लेकिन कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि पर भगवान शिव का पूजन वर्जित है।

त्रयोदशी तिथि में जन्मे जातक महासिद्ध और परोपकारी होते हैं। इन्हें कई विद्याओं का ज्ञान होता है और अधिक से अधिक विद्या अर्जन करने में रुचि रखते हैं। इन लोगों को धार्मिक शास्त्रों का ज्ञान होता है और इनको सभी इंद्रियों को जीतने वाला माना जाता है। इस तिथि में जन्मे जातक में सहनशीलता बहुत कम होती है। ये लोग आत्मविश्वास के साथ आगे तो बढ़ते हैं लेकिन सफलता हाथ नहीं लगती है। ये लोग वाद-विवाद में तेज होते हैं और अपने तर्कों के आगे दूसरों को कुछ नहीं समझते हैं। ये लोग जीवन में संघर्ष बहुत करते हैं और तब ही उन्हें सफलता का स्वाद चखने को मिलता है।

त्रयोदशी के शुभ कार्य 
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त्रयोदशी तिथि में यात्रा, विवाह, संगीत, विद्या व शिल्प आदि कार्य करना लाभप्रद रहता है। इसके अलावा किसी भी पक्ष की त्रयोदशी तिथि में उबटन लगाना औ बैंगन खाना वर्जित है।

त्रयोदशी तिथि के प्रमुख हिन्दू त्यौहार एवं व्रत व उपवास
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प्रदोष व्रत
〰️〰️〰️हिंदू पंचांग के मुताबिक हर माह के दोनों पक्षों की त्रयोदशी तिथि पर प्रदोष व्रत रखा जाता है। कुल मिलाकर वर्ष में 24 प्रदोष व्रत पड़ते हैं और इस दिन भगवान शिव की साधना और आराधना करना शुभ माना जाता है। इस तिथि पर व्रत करने से पुत्ररत्न की प्राप्ति, ऋण से मुक्ति, सुख-सौभाग्य, आरोग्य आदि की प्राप्ति होती है। 

अनंग त्रयोदशी
〰️〰️〰️〰️〰️अनंग त्रयोदशी पर्व मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को आता है। इसके अलावा चैत्र मास में भी आता है। इस तिथि पर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है। साथ ही कामदेव और रति की भी पूजा का विधान है। इस तिथि पर व्रत करन से प्रेम संबंधों में मधुरता बनी रहती है और संतान सुख की प्राप्ति होती है।

धन तेरस
〰️〰️〰️कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन भगवान धनवन्तरि अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है।
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सोलह पौराणिक कथाएं पिता के वीर्य और माता के गर्भ के बिना जन्मे पौराणिक पात्रों की

सोलह पौराणिक कथाएं
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पिता के वीर्य और माता के गर्भ के बिना जन्मे पौराणिक पात्रों की
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हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथो वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि में कई ऐसे पात्रों का वर्णन है जिनका जन्म बिना माँ के गर्भ और पिता के वीर्य के हुआ था। 

1👉 धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के जन्म कि कथा :
हस्तिनापुर नरेश शान्तनु और रानी सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। 
उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।
राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, “हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।”किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, “हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा।”
परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, “पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।” माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, “माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।”यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। तब उन्हें अपने ज्येष्ठ पुत्र वेदव्यास का स्मरण किया।स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, “हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम नियोग विधि से उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।” वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, “माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वो मेरे सामने से निवस्त्र हॉकर गुजरें जिससे की उनको गर्भ धारण होगा।”सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका और फिर छोटी रानी छोटी रानी अम्बालिका गई पर अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये जबकि अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, “माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा जबकि अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पैदा होगा ”यह जानकार इससे माता सत्यवती ने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, “माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।” इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।
समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

2. कौरवों के जन्म की कथा 👉
एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए। गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। 
समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को।जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल दो। अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।

3. पांडवों के जन्म की कथा 👉
पांचो पांडवो का जन्म भी बिना पिता के वीर्य के हुआ था। एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों – कुन्ती तथा माद्री – के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया।
मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया, “राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।”इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, “हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़” उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, “नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।” पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, “राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।”
ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, “हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?” कुन्ती बोली, “हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। 
आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।” इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी।
वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।
एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।

4. कर्ण के जन्म की कथ👉
कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। 
कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था, और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक-लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया।

5. राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुधन के जन्म की कथा👉
दशरथ अधेड़ उम्र तक पहुँच गये थे लेकिन उनका वंश सम्हालने के लिए उनका पुत्र रूपी कोई वंशज नहीं था। उन्होंने पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराने का विचार किया। उनके एक मंत्री सुमन्त्र ने उन्हें सलाह दी कि वह यह यज्ञ अपने दामाद ऋष्यशृंग या साधारण की बोलचाल में शृंगि ऋषि से करवायें। 
दशरथ के कुल गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ थे। उनके सारे धार्मिक अनुष्ठानों की अध्यक्षता करने का अधिकार केवल धर्म गुरु को ही था। अतः वशिष्ठ की आज्ञा लेकर दशरथ ने शृंगि ऋषि को यज्ञ की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया।शृंगि ऋषि ने दोनों यज्ञ भलि भांति पूर्ण करवाये तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ के दौरान यज्ञ वेदि से एक आलौकिक यज्ञ पुरुष या प्रजापत्य पुरुष उत्पन्न हुआ तथा दशरथ को स्वर्णपात्र में नैवेद्य का प्रसाद प्रदान करके यह कहा कि अपनी पत्नियों को यह प्रसाद खिला कर वह पुत्र प्राप्ति कर सकते हैं। दशरथ इस बात से अति प्रसन्न हुये और उन्होंने अपनी पट्टरानी कौशल्या को उस प्रसाद का आधा भाग खिला दिया। बचे हुये भाग का आधा भाग (एक चौथाई) दशरथ ने अपनी दूसरी रानी सुमित्रा को दिया। उसके बचे हुये भाग का आधा हिस्सा (एक बटा आठवाँ) उन्होंने कैकेयी को दिया। कुछ सोचकर उन्होंने बचा हुआ आठवाँ भाग भी सुमित्रा को दे दिया। सुमित्रा ने पहला भाग भी यह जानकर नहीं खाया था कि जब तक राजा दशरथ कैकेयी को उसका हिस्सा नहीं दे देते तब तक वह अपना हिस्सा नहीं खायेगी।अब कैकेयी ने अपना हिस्सा पहले खा लिया और तत्पश्चात् सुमित्रा ने अपना हिस्सा खाया। इसी कारण राम (कौशल्या से), भरत (कैकेयी से) तथा लक्ष्मण व शत्रुघ्न (सुमित्रा से) का जन्म हुआ।

6. पवन पुत्र हनुमान के जन्म कि कथा👉
पुराणों की कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।
अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।

7. हनुमान पुत्र मकरध्वज के ज़न्म की कथा👉
हनुमान वैसे तो ब्रह्मचारी थे फिर भी वो एक पुत्र के पिता बने थे हालांकि यह पुत्र वीर्य कि जगाह पसीनें कि बूंद से हुआ था। कथा कुछ इस प्रकार है जब हनुमानजी सीता की खोज में लंका पहुंचे और मेघनाद द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें रावण के दरबार में प्रस्तुत किया गया। तब रावण ने उनकी पूंछ में आग लगवा दी थी और हनुमान ने जलती हुई पूंछ से लंका जला दी।जलती हुई पूंछ की वजह से हनुमानजी को तीव्र वेदना हो रही थी जिसे शांत करने के लिए वे समुद्र के जल से अपनी पूंछ की अग्नि को शांत करने पहुंचे। उस समय उनके पसीने की एक बूंद पानी में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से वह मछली गर्भवती हो गई और उससे उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ।जिसका नाम पड़ा मकरध्वज। मकरध्वज भी हनुमानजी के समान ही महान पराक्रमी और तेजस्वी था उसे अहिरावण द्वारा पाताल लोक का द्वार पाल नियुक्त किया गया था। जब अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण को देवी के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए अपनी माया के बल पर पाताल ले आया था तब श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराने के लिए हनुमान पाताल लोक पहुंचे और वहां उनकी भेंट मकरध्वज से हुई। तत्पश्चात मकरध्वज ने अपनी उत्पत्ति की कथा हनुमान को सुनाई। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त किया।

8. द्रोणाचार्य के जन्म की कथा👉
द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है- एक समय गंगा द्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञ पात्र (यज्ञ के लिए उपयोग किया जाने वाला एक प्रकार का बर्तन) में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी।
अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था।

9. ऋषि ऋष्यश्रृंग के जन्म की कथा👉
ऋषि ऋष्यश्रृंग महात्मा काश्यप (विभाण्डक) के पुत्र थे। महात्मा काश्यप बहुत ही प्रतापी ऋषि थे। उनका वीर्य अमोघ था और तपस्या के कारण अन्त:करण शुद्ध हो गया था। एक बार वे सरोवर में पर स्नान करने गए। 
वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया। उस वीर्य को जल के साथ एक हिरणी ने पी लिया, जिससे उसे गर्भ रह गया। वास्तव में वह हिरणी एक देवकन्या थी। किसी कारण से ब्रह्माजी उसे श्राप दिया था कि तू हिरण जाति में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को जन्म देगी, तब श्राप से मुक्त हो जाएगी।
इसी श्राप के कारण महामुनि ऋष्यश्रृंग उस मृगी के पुत्र हुए। वे बड़े तपोनिष्ठ थे। उनके सिर पर एक सींग था, इसीलिए उनका नाम ऋष्यश्रृंग प्रसिद्ध हुआ।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था। इस यज्ञ को मुख्य रूप से ऋषि ऋष्यश्रृंग ने संपन्न किया था। 

10. कृपाचार्य व कृपी के जन्म की कथा👉
कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है। उसके अनुसार- महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए। 
शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर देवराज इंद्र बहुत भयभीत हो गए। उन्होंने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम में आकर उन्हें लुभाने लगी। उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया, लेकिन उनके मन में विकार आ गया था। 
इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। 
उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था, इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। 
शांतनु ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका नाम रखा कृपी। जब शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बच्चों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी। थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। कृपाचार्य को कुरुवंश का कुलगुरु नियुक्त किया गया।

11. द्रौपदी व धृष्टद्युम्न के जन्म की कथा 
द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन के मित्र थे। राजा बनने के बाद द्रुपद को अंहकार हो गया। जब द्रोणाचार्य राजा द्रुपद को अपना मित्र समझकर उनसे मिलने गए तो द्रुपद ने उनका बहुत अपमान किया। बाद में द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के माध्यम से द्रुपद को पराजित कर अपने अपमान का बदला लिया। राजा द्रुपद अपनी पराजय का बदला लेना चाहते थे था इसलिए उन्होंने ऐसा यज्ञ करने का निर्णय लिया, जिसमें से द्रोणाचार्य का वध करने वाला वीर पुत्र उत्पन्न हो सके। राजा द्रुपद इस यज्ञ को करवाले के लिए कई विद्वान ऋषियों के पास गए, लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की। अंत में महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया। महात्मा याज ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी। ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।

12. राधा के जन्म की कथा👉
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार एक बार गोलोक में किसी बात पर राधा और श्रीदामा नामक गोप में विवाद हो गया। इस पर श्रीराधा ने उस गोप को असुर योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। तब उस गोप ने भी श्रीराधा को यह श्राप दिया कि आपको भी मानव योनि में जन्म लेना पड़ेगा। वहां गोकुल में श्रीहरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छाया रूप उनके साथ रहेगा। भूतल पर लोग आपको रायाण की पत्नी ही समझेंगे, श्रीहरि के साथ कुछ समय आपका विछोह रहेगा। जब भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का समय आया तो उन्होंने राधा से कहा कि तुम शीघ्र ही वृषभानु के घर जन्म लो। श्रीकृष्ण के कहने पर ही राधा व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं। राधा देवी अयोनिजा थीं, माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई। उनकी माता ने गर्भ में वायु को धारण कर रखा था। उन्होंने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया परंतु वहां स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गईं।

13. राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के जन्म की कथा👉
रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा हुए। उनकी दो रानियां थीं- केशिनी और सुमति। दीर्घकाल तक संतान जन्म न होने पर राजा अपनी दोनों रानियों के साथ हिमालय पर्वत पर जाकर पुत्र कामना से तपस्या करने लगे। तब महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को साठ हजार अभिमानी पुत्र प्राप्त तथा दूसरी से एक वंशधर पुत्र होगा।कालांतर में सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हजार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे। समय आने पर उन मटकों से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। जब राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को उस घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त किया।
देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे तो उन्हें लगा कि मुनि ने ही यज्ञ का घोड़ा चुराया है। यह सोचकर उन्होंने कपिल मुनि का अपमान कर दिया। ध्यानमग्न कपिल मुनि ने जैसे ही अपनी आंखें खोली राजा सगर के 60 हजार पुत्र वहीं भस्म हो गए।

14. जनक नंदिनी सीता के जन्म की कहानी👉
भगवान श्रीराम की पत्नी सीता का जन्म भी माता के गर्भ से नहीं हुआ था। रामायण के अनुसार उनका जन्म भूमि से हुआ था। वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड में राजा जनक महर्षि विश्वामित्र से कहते हैं कि-

अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा।

अर्थात्- एक दिन मैं यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय खेत में हल चला रहा था। उसी समय हल के अग्र भाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। सीता (हल द्वारा खींची गई रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया। पृथ्वी से प्रकट हुई वह मेरी कन्या क्रमश: बढ़कर सयानी हुई।

15. मनु व शतरूपा के जन्म की कहानी👉
धर्म ग्रंथों के अनुसार मनु व शतरूपा सृष्टि के प्रथम मानव माने जाते हैं। इन्हीं से मानव जाति का आरंभ हुआ। मनु का जन्म भगवान ब्रह्मा के मन से हुआ माना जाता है। मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव सृष्टि के आदि प्रवर्तक और समस्त मानव जाति के आदि पिता के रूप में किया जाता रहा है। इन्हें ‘आदि पुरूष’ भी कहा गया है। वैदिक संहिताओं में भी मनु को ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। ये सर्वप्रथम मानव थे जो मानव जाति के पिता तथा सभी क्षेत्रों में मानव जाति के पथ प्रदर्शक स्वीकृत हैं। मनु का विवाह ब्रह्मा के दाहिने भाग से उत्पन्न शतरूपा से हुआ था।धर्मग्रंथों के बाद धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये आदिपुरुष स्वयंभुव मनु ने स्मृति की रचना की जो मनुस्मृति के नाम से विख्यात है। उत्तानपाद जिसके घर में ध्रुव पैदा हुआ था, इन्हीं का पुत्र था। मनु स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का प्रथम क्षत्रिय माना जाता है। 
इनके द्वारा प्रणीत ‘स्वायंभुव शास्त्र’ के अनुसार पिता की संपत्ति में पुत्र और पुत्री का समान अधिकार है। इनको धर्मशास्त्र का और प्राचेतस मनु अर्थशास्त्र का आचार्य माना जाता है। मनुस्मृति ने सनातन धर्म को आचार संहिता से जोड़ा था।

16. राजा पृथु के जन्म की कथा👉

पृथु एक सूर्यवंशी राजा थे, जो वेन के पुत्र थे। वाल्मीकि रामायण में इन्हें अनरण्य का पुत्र तथा त्रिशंकु का पिता कहा गया है। ये भगवान विष्णु के अंशावतार थे। स्वयंभुव मनु के वंशज अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसी पुत्री सुनीथा से हुआ था। वेन उनका पुत्र हुआ। सिंहासन पर बैठते ही उसने यज्ञ-कर्मादि बंद कर दिये। त्र+षियों ने मंत्रपूत कुशों से उसे मार डाला। सुनिथा ने पुत्र का शव सुरक्षित रखा, जिसकी दाहिनी जंघा का मंथन करके त्र+षियों ने एक नाटा और छोटा मुखवाला पुरुष उत्पन्न किया। उसने ब्राह्मणों से पूछा, कि ``मैं क्या करूं?'' ब्राह्मणों ने ``निषीद'' (बैठ) कहा। इसलिए उसका नाम निषाद पड़ा। उस निषाद द्वारा वेन के सारे पाप कट गये। बाद में ब्राह्मणों ने वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिसके फलस्वरूप स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम पृथु तथा स्त्री का नाम अर्चि हुआ। अर्चि पृथु की पत्नी हुई। यह लक्ष्मी का अवतार थी। पृथु का राज्याभिषेक हुआ।

वेन के पापाचरणों से पृथ्वी धन-धान्यहीन हो गई थी। प्रजा का क्लेश मिटाने के लिए पृथु अपना अजगर लेकर पृथ्वी के पीछे पड़े तो वह कांप उठी और गौ-रूप धारण कर शरण के लिए भागी, पर कहीं भी उसे रक्षा नहीं मिली। उसने राजा से प्रार्थना की कि वह अपने उदर में पचे धन-धान्य को दूध के रूप में दे देगी, बशर्ते कि एक बछड़ा दें। स्वायंभुव मनु को बछड़ा बनाकर पृथ्वी दुही गयी। अंत में राजा ने पृथ्वी को कन्या-रूप में ग्रहण किया। पृथु बड़े धर्मात्मा एवं भगवद्भक्त थे। इन्होंने ब्रह्मावर्त प्रदेश में पुण्यतोया सरस्वती के तट पर सौ यज्ञ किये। सौवां यज्ञ चलते समय ईर्ष्यालु इंद्र ने इनका अश्व चुरा लिया तो ये कुपित हों गये और धनुष पर अपना बाण चढ़ा लिया। ऋषियों के मना करने पर भी वे इंद्र को होम करने लगे तो ब्रह्मा ने उन्हें रोका। इस पर धर्मात्मा पृथु ने अपना यज्ञ ही रोक लिया। पृथु ने प्रयाग को निवासभूमि बना लिया। स्वयं सनकादि इनके यहां उपस्थित हुए।

अंतिम दिनों में पृथु अर्चि सहित तपस्या के लिए वन में चले गये। वहां योग-ध्यान में शरीर-त्याग किया। पृथु तथा अर्चि के पांच पुत्र हुए थे - विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक। अर्चि पति की चिता पर चढ़कर सती हुई थी। 

एक पृथु था वृष्णिवंश के चित्ररथ का पुत्र, जो विदूर का भाई था। कृष्ण ने इसे मथुरापुरी के उत्तरी द्वार की रक्षा पर नियुक्त किया था। प्रभास तीर्थ में यादव-वंश के अंत के समय यह भी परस्पर कलह में मारा गया

बुढ़वा (बड़ा) मंगल कथा और महत्व


बुढ़वा (बड़ा) मंगल कथा और महत्व
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लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥

बुढ़वा मंगल उत्सव हनुमान जी के वृद्ध रूप के लिए किया जाता है। यह उत्सव ज्येष्ठ माह के चारों मंगलवार को आयोजित किया जाता है, जिसे प्रचलित भाषा में बूढ़े मंगल के नाम से भी जाना जाता है। 

बुढ़वा मंगल हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण पर्व है, इसे भारत में वानर राज राम भक्त हनुमान जी के वृद्ध रूप की पूजा की जाती है। श्री हनुमंत शक्ति और ऊर्जा के प्रतीक हैं, वह जादुई शक्तियों और बुरी आत्माओं को जीनते की क्षमता रखने वाले देव के रूप मे पूजे जाते हैं।

बुढ़वा मंगल दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत मे ज्यादा प्रमुखता से मनाया जाता है। परंतु उत्तर भारत में ही कहीं-कहीं यह त्यौहार ज्येष्ठ माह के प्रथम मंगलवार को भी मनाया जाता है, जिनमे कानपुर एवं वाराणसी प्रमुख शहर हैं।

भगवान शिव के अवतार है हनुमान।

भगवान हनुमान को महादेव का 11वां अवतार भी माना जाता है। हनुमान जी की पूजा करने और व्रत रखने से हनुमान जी का आर्शीवाद प्राप्त होता है और जीवन में किसी भी प्रकार का संकट नहीं आता है, इसलिए हनुमान जी को संकट मोचक भी कहा गया है।

ज्योतिष विज्ञान के अनुसार जिन लोगों की कुंडली में शनि अशुभ स्थिति में होता हैं या फिर शनि की साढ़ेसाती चल रही होती है, उन लोगों को इस दिन हनुमान जी के सुन्दर कांड का 101 पाठ या हनुमान चालीसा का 1001 पाठ कराने से शनि ग्रह से जुड़ी समस्या में कमी आती हैं। हनुमान जी को मंगलकारी कहा गया है, इसलिए इनकी पूजा जीवन में मंगल लेकर आती हैं।

केसरी तथा माता अंजना के पुत्र श्री हनुमान को महावीर, बजरंगबली, मारुती, पवनपुत्र, अंजनीपुत्र तथा केसरीनन्दन के नाम से भी जाना जाता है। पवनपुत्र हनुमान को भगवान शिव का 11वां रूद्र अवतार माना गया है, अतः प्रत्येक हनुमान मंदिर में शिवलिंग स्थापित अवश्य किया जाता है।

हनुमानजी की प्रतिमा पर लगा केसरी सिन्दूर अत्यन्त पवित्र माना जाता है क्योंकि माना जाता है कि हनुमान को केसरी सिन्दूर अत्यन्त प्रिय है। भक्तगण प्रायः इस सिन्दूर को देसी घी में मिलाकर भगवान की प्रतिमा पर लगाते हैं और प्रसादस्वरूप उसी का टीका तिलक के रुप में अपने मस्तक पर लगाते हैं। ऐसा माना जाता है, कि इस तिलक के माध्यम से भक्त श्री हनुमानजी की कृपा से उन्हीं की तरह शक्तिशाली, ऊर्जावान तथा संयमित हो जाते हैं।

बुढ़वा मंगल का इतिहास और प्रचलित कथायें:
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वैसे तो बुढ़वा मंगल के बारे में कई कथायें प्रचलित हैं जिसका वर्णन मिलता है यहाँ पर कुछ ऐसी ही किवद्नतियां हैं जो सदियों से चली आ रही हैं । 

पुरानी मान्यताओं के अनुसार एक कथा यह है कि महाभारत काल में हजारों हाथियों के बल को धारण किए भीम को अपने शक्तिशाली होने पर बड़ा अभिमान और घमंड हो गया था। भीम के घमंड को तोड़ने के लिए रूद्र अवतार भगवान हनुमान ने एक बूढ़े बंदर का भेष धारण कर उनका घमंड चूर-चूर किया। आगे चलकर यही दिन बुढ़वा मंगल कहलाने लगा।

दूसरी कथा
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एक अन्य मत के अनुसार रामायण काल में भाद्रपद महीने के आखिरी मंगलवार को माता सीता की खोज में जब लंका पहुंचने पर हनुमान जी की पूंछ में रावण ने आग लगा दी थी तो हनुमान जी ने अपने विराट स्वरूप को धारण कर लंका को जलाकर रावण का घमंड चूर किया। 

मंत्र
ॐ हनु हनुमते नमो नमः, श्री हनुमते नमो नमः।
उत्सव व पूजा विधि
-हनुमान जी का जन्म सूर्योदय के समय हुआ था इसलिए बुढ़वा मंगल के दिन ब्रहम मुहूर्त में पूजा करना सबसे शुभ माना जाता है।
- हनुमान जी का उपवास रखें नमक का प्रयोग न करें। 
-हनुमान जी को प्रिय चीज़ों का भोग जैसे लड्डू,केला ,अंगूर व शुद्ध चावल की खीर चढ़ायें।

-बुढ़वा मंगल पर 101 बार हनुमान चालीसा,सुंदरकांड का पाठ,बजरंग बाण का -पाठ करना शुभ होता है सारे कष्ट संकटमोचन दूर कर देते हैं। 
-श्री हनुमंत लाल पर सिंदूर चढ़ाएँ, हनुमंत ध्वजा, प्रार्थना, भजन / कीर्तन करें।
-रामचरित मानस का पाठ कराना भी शुभ व अत्यन्त लाभकारी होता है।
-हनुमान मंदिर का दर्शन कर घर के मंदिर में करें पूजा।

धन और व्यापार से जुड़ी परेशानी दूर करने के लिए करें ये उपाय:
बुढ़वा मंगल के दिन कुछ उपाय करने से धन और व्यापार में आने वाली बाधाओं को दूर किया जा सकता है। बुढ़वा मंगल के दिन शुभ मुहूर्त में हनुमान जी को चमेली के तेल का दीपक जलाएं, इसके साथ ही इस दिन हनुमान जी को चोला और ध्वजा चढ़ाएं। हनुमान जी चोला चढ़ाने से भगवान विशेष प्रसन्न होते हैं।

मंत्र का ध्यान 
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मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये।। 

अर्थात : जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्द्रिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, उन पवनपुत्र वानरों में प्रमुख श्रीरामदूत की मैं शरण लेता हूं। कलियुग में हनुमानजी की भक्ति से बढ़कर किसी अन्य की भक्ति में शक्ति नहीं है। रामरक्षा स्तोत्र से लिए गए हनुमानजी के प्रति शरणागत होने के लिए इस श्लोक या मंत्र का जप करने से हनुमानजी तुरंत ही साधक की याचना सुन लेते हैं और वे उनको अपनी शरण में ले लेते हैं।   

जो व्यक्ति हनुमानजी का प्रतिदिन ध्यान करते रहते हैं, हनुमानजी उनकी बुद्धि से क्रोध को हटाकर बल का संचार कर देते हैं। हनुमान भक्त शांत चित्त, निर्भीक और समझदार बन जाता है।

॥ आरती ॥
आरती कीजै हनुमान लला की ।
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥

जाके बल से गिरवर काँपे ।
रोग-दोष जाके निकट न झाँके ॥
अंजनि पुत्र महा बलदाई ।
संतन के प्रभु सदा सहाई...

दे वीरा रघुनाथ पठाए ।
लंका जारि सिया सुधि लाये ॥
लंका सो कोट समुद्र सी खाई ।
जात पवनसुत बार न लाई ॥
लंका जारि असुर संहारे ।
सियाराम जी के काज सँवारे ॥
लक्ष्मण मुर्छित पड़े सकारे ।
लाये संजिवन प्राण उबारे ॥

पैठि पताल तोरि जाग कारे ।
अहिरावण की भुजा उखारे ॥
बाईं भुजा असुर संहारे ।
दाईं भुजा सब संत उबारें ॥

सुर नर मुनि जन आरती उतरें ।
जय जय जय हनुमान उचारें ॥
कचंन थाल कपूर की बाती ।
आरती करत अंजनी माई ॥

जो हनुमानजी की आरती गावे ।
बसहिं बैकुंठ परम पद पावे ॥
लंक विध्वंस किये रघुराई ।
तुलसीदास स्वामी कीर्ति गाई ॥

आरती कीजै हनुमान लला की ।
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥
॥ इति संपूर्णंम् ॥
श्री राम नवमी, विजय दशमी, सुंदरकांड, रामचरितमानस कथा, हनुमान जन्मोत्सव, मंगलवार व्रत, शनिवार पूजा, बूढ़े मंगलवार और अखंड रामायण के पाठ में प्रमुखता से गाये जाने वाला चालीसा, जो कि स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस की सबसे प्रसिद्ध रचना है।
हनुमान चालीसा
॥ दोहा॥
श्रीगुरु चरन सरोज रज
निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु
जो दायकु फल चारि ॥
बुद्धिहीन तनु जानिके
सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं
हरहु कलेस बिकार ॥

॥ चौपाई ॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥

राम दूत अतुलित बल धामा ।
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी ।
कुमति निवार सुमति के संगी ॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा ।
कानन कुण्डल कुँचित केसा ॥४॥

हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजै ।
काँधे मूँज जनेउ साजै ॥

शंकर सुवन केसरी नंदन ।
तेज प्रताप महा जगवंदन ॥

बिद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ।
राम लखन सीता मन बसिया ॥८॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा ।
बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे ।
रामचन्द्र के काज सँवारे ॥

लाय सजीवन लखन जियाए ।
श्री रघुबीर हरषि उर लाये ॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई ।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥१२॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ।
नारद सारद सहित अहीसा ॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते ।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीह्ना ।
राम मिलाय राज पद दीह्ना ॥१६॥

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना ।
लंकेश्वर भए सब जग जाना ॥

जुग सहस्त्र जोजन पर भानु ।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं ।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥
दुर्गम काज जगत के जेते ।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥२०॥

राम दुआरे तुम रखवारे ।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना ।
तुम रक्षक काहू को डरना ॥

आपन तेज सम्हारो आपै ।
तीनों लोक हाँक तै काँपै ॥
भूत पिशाच निकट नहिं आवै ।
महावीर जब नाम सुनावै ॥२४॥

नासै रोग हरै सब पीरा ।
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥

संकट तै हनुमान छुडावै ।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥

सब पर राम तपस्वी राजा ।
तिनके काज सकल तुम साजा ॥
और मनोरथ जो कोई लावै ।
सोई अमित जीवन फल पावै ॥२८॥

चारों जुग परताप तुम्हारा ।
है परसिद्ध जगत उजियारा ॥

साधु सन्त के तुम रखवारे ।
असुर निकंदन राम दुलारे ॥

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ।
अस बर दीन जानकी माता ॥
राम रसायन तुम्हरे पासा ।
सदा रहो रघुपति के दासा ॥३२॥

तुम्हरे भजन राम को पावै ।
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥

अंतकाल रघुवरपुर जाई ।
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥

और देवता चित्त ना धरई ।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥
संकट कटै मिटै सब पीरा ।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥३६॥

जै जै जै हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ॥

जो सत बार पाठ कर कोई ।
छूटहि बंदि महा सुख होई ॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा ।
होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा ।
कीजै नाथ हृदय मह डेरा ॥४०॥

॥ दोहा ॥
पवन तनय संकट हरन,
मंगल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित,
हृदय बसहु सुर भूप ॥
बजरंग बाण 
॥ दोहा ॥
निश्चय प्रेम प्रतीति ते,
बिनय करैं सनमान ।
तेहि के कारज सकल शुभ,
सिद्ध करैं हनुमान॥

॥ चौपाई ॥
जय हनुमंत संत हितकारी ।
सुन लीजै प्रभु अरज हमारी ॥
जन के काज बिलंब न कीजै ।
आतुर दौरि महा सुख दीजै ॥

जैसे कूदि सिंधु महिपारा ।
सुरसा बदन पैठि बिस्तारा ॥
आगे जाय लंकिनी रोका ।
मारेहु लात गई सुरलोका ॥

जाय बिभीषन को सुख दीन्हा ।
सीता निरखि परमपद लीन्हा ॥
बाग उजारि सिंधु महँ बोरा ।
अति आतुर जमकातर तोरा ॥
अक्षय कुमार मारि संहारा ।
लूम लपेटि लंक को जारा ॥
लाह समान लंक जरि गई ।
जय जय धुनि सुरपुर नभ भई ॥

अब बिलंब केहि कारन स्वामी ।
कृपा करहु उर अंतरयामी ॥
जय जय लखन प्रान के दाता ।
आतुर ह्वै दुख करहु निपाता ॥

जै हनुमान जयति बल-सागर ।
सुर-समूह-समरथ भट-नागर ॥
ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले ।
बैरिहि मारु बज्र की कीले ॥

ॐ ह्नीं ह्नीं ह्नीं हनुमंत कपीसा ।
ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर सीसा ॥
जय अंजनि कुमार बलवंता ।
शंकरसुवन बीर हनुमंता ॥
बदन कराल काल-कुल-घालक ।
राम सहाय सदा प्रतिपालक ॥
भूत, प्रेत, पिसाच निसाचर ।
अगिन बेताल काल मारी मर ॥

इन्हें मारु, तोहि सपथ राम की ।
राखु नाथ मरजाद नाम की ॥
सत्य होहु हरि सपथ पाइ कै ।
राम दूत धरु मारु धाइ कै ॥
जय जय जय हनुमंत अगाधा ।
दुख पावत जन केहि अपराधा ॥
पूजा जप तप नेम अचारा ।
नहिं जानत कछु दास तुम्हारा ॥

बन उपबन मग गिरि गृह माहीं ।
तुम्हरे बल हौं डरपत नाहीं ॥
जनकसुता हरि दास कहावौ ।
ताकी सपथ बिलंब न लावौ ॥
जै जै जै धुनि होत अकासा ।
सुमिरत होय दुसह दुख नासा ॥
चरन पकरि, कर जोरि मनावौं ।
यहि औसर अब केहि गोहरावौं ॥

उठु, उठु, चलु, तोहि राम दुहाई ।
पायँ परौं, कर जोरि मनाई ॥
ॐ चं चं चं चं चपल चलंता ।
ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता ॥
ॐ हं हं हाँक देत कपि चंचल ।
ॐ सं सं सहमि पराने खल-दल ॥
अपने जन को तुरत उबारौ ।
सुमिरत होय आनंद हमारौ ॥

यह बजरंग-बाण जेहि मारै ।
ताहि कहौ फिरि कवन उबारै ॥
पाठ करै बजरंग-बाण की ।
हनुमत रक्षा करै प्रान की ॥

यह बजरंग बाण जो जापैं ।
तासों भूत-प्रेत सब कापैं ॥
धूप देय जो जपै हमेसा ।
ताके तन नहिं रहै कलेसा ॥

॥ दोहा ॥
उर प्रतीति दृढ़, सरन ह्वै,
पाठ करै धरि ध्यान ।
बाधा सब हर,
करैं सब काम सफल हनुमान ॥

बड़ा मंगल 2023 की तिथियां
ज्येष्ठ महीने पहला बड़ा मंगल- 28 मई 2024
ज्येष्ठ महीने दूसरा बड़ा मंगल- 04 जून 
ज्येष्ठ महीने तीसरा बड़ा मंगल- 11 जून 
ज्येष्ठ महीने चौथा बड़ा मंगल- 18 जून 
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