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मंगलवार, 23 जुलाई 2024

मंगला गौरी व्रत विशेष -उपवास विधि

मंगला गौरी व्रत विशेष
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उपवास विधि 
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मंगला गौरी व्रत श्रावण मास में पडने वाले सभी मंगलवार को रखा जाता है. श्रावण मास में आने वाले सभी व्रत-उपवास व्यक्ति के सुख- सौभाग्य में वृ्द्धि करते है. सौभाग्य से जुडे होने के कारण इस व्रत को विवाहित महिलाएं और नवविवाहित महिलाएं करती है. इस उपवास को करने का उद्धेश्य अपने पति व संतान के लम्बें व सुखी जीवन की कामना करना है।

पूजन सामग्री
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मंगलागौरी व्रत-पूजन के लिये निम्न सामग्री चाहियें।

1. फल, फूलों की मालाएं, लड्डू, पान, सुपारी, इलायची, लोंग, जीरा, धनिया (सभी वस्तुएं सोलह की संख्या में होनी चाहिए), साडी सहित सोलह श्रंगार की 16 वस्तुएं, 16 चूडियां इसके अतिरिक्त पांच प्रकार के सूखे मेवे 16 बार. सात प्रकार के धान्य (गेंहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर) 16 बार।

मंगला गौरी व्रत कैसे करें 
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इस व्रत को करने वाली महिलाओं को श्रावण मास के प्रथम मंगलवार के दिन इन व्रतों का संकल्प सहित प्रारम्भ करना चाहिए. श्रावण मास के प्रथम मंगलवार की सुबह, स्नान आदि से निर्वत होने के बाद, मंगला गौरी की मूर्ति या फोटो को लाल रंग के कपडे से लिपेट कर, लकडी की चौकी पर रखा जाता है. इसके बाद गेंहूं के आटे से एक दीया बनाया जाता है, इस दीये में 16-16 तार कि चार बतियां कपडे की बनाकर रखी जाती है।

व्रत विधि
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मंगला गौरी उपवास रखने के लिये सुबह स्नान आदि कर व्रत का प्रारम्भ किया जाता हैं।

एक चौकी पर सफेद लाल कपडा बिछाना चाहियें।

सफेद कपडे पर चावल से नौ ग्रह बनाते है, तथा लाल कपडे पर षोडश माताएं गेंहूं से बनाते है।

चौकी के एक तरफ चावल और फूल रखकर गणेश जी की स्थापना की जाती है।

दूसरी और गेंहूं रख कर कलश स्थापित करते हैं। कलश में जल रखते है।

आटे से चौमुखी दीपक बनाकर कपडे से बनी 16-16 तार कि चार बतियां जलाई जाती है।

सबसे पहले श्री गणेश जी का पूजन किया जाता है।

पूजन में श्री गणेश पर जल, रोली, मौली, चन्दन, सिन्दूर, सुपारी, लोंग, पान,चावल, फूल, इलायची, बेलपत्र, फल, मेवा और दक्षिणा चढाते हैं।

इसके पश्चात कलश का पूजन भी श्री गणेश जी की पूजा के समान ही किया जाता है।

फिर नौ ग्रहों तथा सोलह माताओं की पूजा की जाती है. चढाई गई सभी सामग्री ब्राह्माण को दे दी जाती है।

मंगला गौरी की प्रतिमा को जल, दूध, दही से स्नान करा, वस्त्र आदि पहनाकर रोली, चन्दन, सिन्दुर, मेंहन्दी व काजल लगाते है. श्रंगार की सोलह वस्तुओं से माता को सजाया जाता हैं।

सोलह प्रकार के फूल- पत्ते माला चढाते है, फिर मेवे, सुपारी, लौग, मेंहदी, शीशा, कंघी व चूडियां चढाते है। अंत में मंगला गौरी व्रत की कथा सुनी जाती हैं।

कथा सुनने के बाद विवाहित महिला अपनी सास तथा ननद को सोलह लड्डु देती हैं। इसके बाद वे यही प्रसाद ब्राह्मण को भी देती हैं। अंतिम व्रत के दूसरे दिन बुधवार को देवी मंगला गौरी की प्रतिमा को नदी या पोखर में विर्सिजित कर दिया जाता हैं।

मंगलागौरी व्रत का वर्णन तथा व्रत कथा
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ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं अत्युत्तम भौम व्रत का वर्णन करूँगा, जिसके अनुष्ठान करने मात्र से वैधव्य नहीं होता है। विवाह होने के पश्चात पाँच वर्षों तक यह व्रत करना चाहिए. इसका नाम मंगला गौरी व्रत है। यह पापों का नाश करने वाला है। विवाह के पश्चात प्रथम श्रावण शुक्ल पक्ष में पहले मंगलवार को यह व्रत आरंभ करना चाहिए। केले के खम्भों से सुशोभित एक पुष्प मंडल बनाना चाहिए और उसे अनेक प्रकार के फलों तथा रेशमी वस्त्रों से सजाना चाहिए। उस मंडप में अपने सामर्थ्य के अनुसार देवी की सुवर्णमयी अथवा अन्य धातु की बनी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। उस प्रतिमा को सोलह उपचारों से, सोलह दूर्वा दलों से सोलह चावलों से तथा सोलह चने की दालों से मंगला गौरी नामक देवी की पूजा करनी चाहिए और सोलह बत्तियों से सोलह दीपक जलाने चाहिए. दही तथा भात का नैवेद्य भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए. देवी के पास ही पत्थर का सील तथा लोढ़ा स्थापित करना चाहिए. पाँच वर्ष तक इस प्रकार से करने के पश्चात उद्यापन करना चाहिए।

माता को वायन प्रदान करना चाहिए जिसकी विधि आप सुनिए – अपने सामर्थ्य अनुसार एक पल प्रमाण सुवर्ण की अथवा उसके आधे प्रमाण की अथवा उसके भी आधे प्रमाण की मंगला गौरी की प्रतिमा निर्मित करानी चाहिए. अपनी शक्ति के अनुसार स्वर्ण आदि के बने तंडुलपूरित पात्र पर वस्त्र तथा रमणीय कंचु की ओढ़नी रखकर उन दोनों के ऊपर देवी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. पास में चाँदी से निर्मित सिल तथा लोढ़ा रखकर माता को वायन प्रदान करना चाहिए. इसके बाद सोलह सुवासिनियों को प्रयत्नपूर्वक भोजन कराना चाहिए. हे विप्र ! इस विधि से व्रत करने पर सात जन्मों तक सौभाग्य बना रहता है और पुत्र, पुत्र आदि के साथ संपदा विद्यमान रहती है।

सनत्कुमार बोले – सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया था और किसको इसका फल प्राप्त हुआ? हे शम्भो ! जिस तरह से मुझे इसके प्रति निष्ठा हो जाए, कृपा करके वैसे ही बताइए।

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! पूर्वकाल में कुरु देश में श्रुतकीर्ति नामक एक विद्वान्, कीर्तिशाली, शत्रुओं का नाश करने वाला, चौसंठ कलाओं का ज्ञाता तथा धनुर्विद्या में कुशल राजा हुआ था. पुत्र के अतिरिक्त अन्य सभी शुभ चीजें उस राजा के पास थी. अतः वह राजा संतान के विषय में अत्यंत चिंतित हुआ और जप-ध्यानपूर्वक देवी की आराधना करने लगा तब उसकी कठोर तपस्या से देवी प्रसन्न हो गई और उस से यह वचन बोली – हे सुव्रत ! वर माँगों।

श्रुतकीर्ति बोला – हे देवी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सुन्दर पुत्र दीजिए. हे देवी ! आपकी कृपा से अन्य किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है. उसका यह वचन सुनकर पवित्र मुसकान वाली देवी ने कहा – हे राजन ! तुमने अत्यंत दुर्लभ वर माँगा है, फिर भी कृपा वश मैं तुम्हें अवश्य दूंगी. किन्तु हे राजेंद्र ! सुनिए, यदि परम गुणी पुत्र चाहते हो तो वह केवल सोलह वर्ष तक जीवित रहेगा और यदि रूप तथा विद्या से विहीन पुत्र चाहते हो तो दीर्घजीवी होगा. देवी का यह वचन सुनकर राजा चिंतित हो उठा और पुनः अपनी पत्नी से परामर्श कर के उसने गुणवान तथा सभी शुभ लक्षणों से संपन्न सोलह वर्ष की आयु वाला पुत्र माँगा तब देवी ने भक्ति संपन्न राजा से कहा – हे नृपनन्दन ! मेरे मंदिर के द्वार पर आम का वृक्ष है, उसका एक फल लाकर मेरी आज्ञा से अपनी भार्या को उसे भक्षण करने हेतु प्रदान करो. जिससे वह शीघ्र ही गर्भ धारण करेगी, इसमें संदेह नहीं है.
प्रसन्न होकर राजा ने वैसा ही कियाऔर उसकी पत्नी ने गर्भ धारण कर लिया. दसवें महीने में उसने देवतुल्य सुन्दर पुत्र को जन्म दिया तब हर्ष तथा शोक से युक्त राजा ने बालक का जातकर्म आदि संस्कार किया और शिव का स्मरण करते हुए उसका नाम चिरायु रखा. इसके बाद पुत्र के सोलह वर्ष के होने पर पत्नी सहित राजा चिंता में पड़ गए और वे विचार करने लगे कि यह पुत्र बड़े कष्ट से प्राप्त हुआ है और मैं इसकी दुःखद मृत्यु अपने ही सामने कैसे देख सकूंगा, ऐसा विचार कर के राजा ने पुत्र को उसके मामा के साथ काशी भेज दिया. प्रस्थान के समय राजा की पत्नी ने अपने भाई से कहा कि कार्पटिक का वेश धारण कर के आप मेरे पुत्र को काशी ले जाइए. मैंने भगवान् मृत्युंजय से पूर्व में पुत्र के लिए प्रार्थना की थी और कहा था कि – “हे विश्वेश ! आप जगत्पति की यात्रा के लिए मैं उस पुत्र को अवश्य भेजूंगी”. अतः आप मेरे पुत्र को आज ही ले जाइए और सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा कीजिएगा।

 अपनी बहन की यह बात सुनकर भांजे के साथ वह चल पड़ा। कई दिनों तक चलते-चलते वह ‘आनंद’ नामक नगर में पहुंचा. वहाँ सभी प्रकार की समृद्धियों से संपन्न वीरसेन नाम वाला राजा रहता था. उस राजा की एक सर्वलक्षण संपन्न, युवावस्था प्राप्त, मनोहर तथा रूपलावण्यमयी मंगलागौरी नामक कन्या थी. सभी उपमानों को तुच्छ कर के सौंदर्य-अभिवृद्धि को प्राप्त वह कन्या किसी समय सखियों के साथ नगर के उपवन में क्रीड़ा करने के लिए गई हुई थी. उसी समय वह चिरायु तथा उसका मामा वे दोनों भी वहाँ पहुँच गए और उन कन्याओं को देखने की लालसा से वहीँ विश्राम करने लगे. इसी बीच विनोदपूर्वक क्रीड़ा करती हुई उन कन्याओं में से किसी एक ने कुपित होकर राजकुमारी को रांडा – यह कुवचन कह दिया तब उस अशुभ वचन को सुनकर राजकुमारी ने कहा – “तुम अनुचित बात क्यों बोल रही हो, मेरे कुल में तो इस प्रकार की कोई नहीं है. मंगला गौरी की कृपा से तथा उनके व्रत के प्रभाव से विवाह के समय जिस के सर पर मेरे हाथ से अक्षत पड़ेंगे, हे सखी ! वह यदि अल्प आयु वाला होगा तो भी चिरंजीवी हो जाएगा.” इसके बाद वह सभी कन्याएं अपने-अपने घर चली गई।

उसी दिन राजकुमारी का विवाह था. बाह्लीक देश के दृढ़धर्मा नामक राजा के सुकेतु नाम वाले पुत्र के साथ उसका विवाह निश्चित किया गया था. वह सुकेतु विद्याहीन, कुरूप तथा बहरा था तब सुकेतु के साथ आए हुए उन लोगों ने विचार किया कि इस समय कोई दूसरा श्रेष्ठ वर ले जाना चाहिए और विवाह संपन्न हो जाने के बाद वहाँ सुकेतु पहुँच जाए. उन लोगों ने चिरायु के मामा के पास जाकर याचना की कि आप इस बालक को हमें दे दीजिए, जिस से हमारा कार्य सिद्ध हो जाए. इस पृथ्वी पर परोपकार के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है. उनकी बात सुनकर चिरायु का मामा मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इसने उपवन में पहले ही कन्या मंगला गौरी की बात सुन ली थी फिर भी उसने एक बार कहा कि आप लोग इसे किसलिए मांग रहे हैं? कार्य की सिद्धि हेतु वस्त्र, अलंकार आदि मांगे जाते हैं, वर तो कहीं भी नहीं माँगा जाता तथापि आप लोगों का सम्मान रखने के लिए मैं इसे दे रहा हूँ।

इसके बाद चिरायु को वहाँ ले जाकर उन लोगों ने विवाह संपन्न कराया. सप्तपदी आदि के हो जाने पर रात्रि में शिव-पार्वती की प्रतिमा के समक्ष उस चिरायु ने हर्षयुक्त होकर मंगलागौरी के साथ शयन किया. उसी दिन चिरायु के सोलह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और अर्धरात्रि में साक्षात काल सर्परूप में वहाँ आ गया. इसी बीच संयोगवश राजकुमारी जाग गई. उसने उस महासर्प को वहाँ देखा और वह भय से व्याकुल होकर कांपने लगी तभी उस कन्या ने धैर्य धारण सोलह उपचारों से सर्प की पूजा की और पीने के लिए उसे दूध दिया. उसने दीनता भरी वाणी में उस सर्प की प्रार्थना तथा स्तुति की. मंगलागौरी प्रार्थना करने लगी कि मैं उत्तम व्रत को करुँगी जिससे मेरे पति जीवित रहें, ये जिस तरह से चिरकाल तक जीवित रहें, आप वैसा कीजिए.
इतने में सर्प वहाँ स्थित एक कमण्डलु में प्रवेश कर गया और उस मंगलागौरी ने अपनी कंचुकी से उस कमण्डलु का मुँह बाँध दिया. इसी बीच उसका पति अंगड़ाई लेकर जाग गया और अपनी पत्नी से बोला – हे प्रिये ! मुझे भूख लगी है तब वह अपनी माता के पास जाकर खीर, लड्डू आदि ले आई और उसके द्वारा दिए भोज्य पदार्थ को उसने प्रसन्न मन होकर खाया. भोजन के पश्चात् हाथ धोते समय उसके हाथ से अँगूठी गिर पड़ी. ताम्बूल खाकर वह पुनः सो गया. इसके बाद मंगलागौरी कमण्डलु को फेंकने के लिए जाने लगी. विधि की कैसी गति है कि उस कमण्डलु में से बाहर की ओर जगमग करती हुई हारकान्ति को देखकर वह आश्चर्यचकित हो गई. घट में स्थित उस हार को उसने अपने कंठ में धारण कर लिया. इसके बाद कुछ रात शेष रहते ही चिरायु का मामा आकर उसे ले गया. इसके बाद वर पक्ष के लोग सुकेतु को वहाँ ले आए. उसे देख मंगलागौरी ने कहा कि यह मेरा पति नहीं है तब उन सभी ने उससे कहा – हे शुभे ! तुम यह क्या बोल रही हो? यहाँ तुम्हारा कोई परिचायक हो तो उसे हम लोगों को बताओ।

मंगलागौरी बोली – जिसने रात्रि में नौ रत्नों से बानी अँगूठी दी है, उसकी अंगुली में इसे डालकर परिचायक निशानी देख लें. मेरे पति ने रात्रि में मुझे जो हार दिया था, उसके रत्नों का समुदाय कैसा है, इस बात को यह बताए, यह तो कोई अन्य ही है. इसके अतिरिक्त रात्रि में आम सींचते समय उनका पैर कुमकुम से लिप्त हो गया था, वह मेरी जांघ पर अब भी विद्यमान है, उसे आप लोग शीघ्र देख लें. साथ ही रात में परस्पर भाषण तथा भोजन आदि जो कुछ किया गया था, उसे भी यह बता दें तब यह निश्चय ही मेरा पति है।

इस प्रकार उसका वचन सुनकर सभी ठीक है-ठीक है कहने लगे किन्तु जब एक भी बात न मिली तब सभी ने सुकेतु को उसका पति होने से निषिद्ध कर दिया और वर पक्ष वाले जिस तरह से आए थे उसी तरह से चले गए. उसके बाद अपने वंश को बढ़ाने वाले, महान यश से संपन्न तथा परम मनस्वी मंगलागौरी के पिता ने अन्न, पान आदि का सत्र चलाया. उन्होंने वर पक्ष का वृत्तांत कानों-कान सुन लिया कि स्वरुप से कुरूप होने के कारण लोगों के द्वारा किसी अन्य को वर के रूप में आदरपूर्वक लाया गया था तब उन्होंने अपनी कन्या को परदे के भीतर बिठा दिया. उसके बाद एक वर्ष बीतने पर यात्रा करके चिरायु अपने मामा के साथ यह देखने आया कि विवाह के बाद वहाँ क्या हुआ? तब उसे गवाक्ष के भीतर से देखकर वह मंगलागौरी अत्यंत प्रसन्न हुई और माता-पिता से बोली कि मेरे पति आ गए हैं।

राजा ने अपने सुहृज्जनों को बुलाकर पूर्व में कहे गए सभी परिचायकों को निशानी को देखकर मंद मुस्कान वाली अपनी कन्या चिरायु को सौंप दी. राजा ने शिष्टजनों को साथ लेकर विवाह का उत्सव कराया. इसके बाद राजा वीरसेन ने वस्त्र, आभूषण आदि, सेना, घोड़े, रथ और अन्य भी बहुत-सी सामग्रियां देकर उन्हें विदा किया।

उसके बाद कुल को आनंदित करने वाला वह चिरायु पत्नी तथा मामा को साथ लेकर सेना के साथ अपने नगर पहुँचा. लोगों के मुख से उसे आया हुआ सुनकर उसके माता-पिता को विशवास नहीं हुआ, उन्होंने सोचा कि प्रारब्ध अन्यथा कैसे हो सकता है! इतने में वह अपने माता-पिता के पास आ गया और स्नेह से परिपूर्ण वह चिरायु भक्तिपूर्वक उनके चरणों में गिर पड़ा, तब अपने पुत्र का मस्तक सूंघ कर उन दोनों ने परम आनंद प्राप्त किया. पुत्रवधु मंगलागौरी ने भी सास-ससुर को प्रणाम किया. तब सास उसे अपनी गोद में बिठाकर सारा वृत्तांत शीघ्रतापूर्वक पूछने लगी।

हे महामुने ! तब पुत्रवधु ने भी मंगलागौरी के उत्तम व्रत माहात्म्य तथा जो कुछ घटित हुआ था वह सब वृत्तांत बताया. हे सनत्कुमार ! मैंने आपसे इस मंगलागौरी व्रत का वर्णन कर दिया. जो कोई भी इसका श्रवण करता है अथवा जो इसे कहता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।

सूतजी बोले – हे ऋषियों ! इस प्रकार शिवजी ने सनत्कुमार को यह मंगलागौरी व्रत बताया और उन्होंने सभी कार्यों को पूर्ण करने वाले इस व्रत को सुनकर महान आनंद प्राप्त किया।

||इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में “मंगलागौरी व्रत कथन” नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ||

मंगला गौरी आरती 
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जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता ब्रह्मा सनातन देवी शुभ फल कदा दाता।
जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता।।

अरिकुल पद्मा विनासनी जय सेवक त्राता जग जीवन जगदम्बा हरिहर गुण गाता।
जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता।।

सिंह को वाहन साजे कुंडल है, साथा देव वधु जहं गावत नृत्य करता था।
जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता।।

सतयुग शील सुसुन्दर नाम सटी कहलाता हेमांचल घर जन्मी सखियन रंगराता।
जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता।।

शुम्भ निशुम्भ विदारे हेमांचल स्याता सहस भुजा तनु धरिके चक्र लियो हाता।
जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता।।

सृष्टी रूप तुही जननी शिव संग रंगराता नंदी भृंगी बीन लाही सारा मद माता।
जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता।।

देवन अरज करत हम चित को लाता गावत दे दे ताली मन में रंगराता।
जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता।।

मंगला गौरी माता की आरती जो कोई गाता सदा सुख संपति पाता।
जय मंगला गौरी माता, जय मंगला गौरी माता।।
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श्रावण मास माहात्म्य"अध्याय -02


                       "श्रावण मास माहात्म्य"
                               अध्याय -02

          इस अध्याय में पढ़िये:- (श्रावण मास में विहित कार्य)

          ईश्वर बोले–'हे महाभाग ! आपने उचित बात कही है। हे ब्रह्मपुत्र ! आप विनम्र, गुणी, श्रद्धालु तथा भक्तिसम्पन्न श्रोता हैं। हे अनघ ! आपने श्रावण मास के विषय में विनम्रता पूर्वक जो पूछा है, उसे तथा जो नहीं भी पूछा है–वह सब अत्यन्त हर्ष तथा प्रेम के साथ मैं आपको बताऊँगा।
          द्वेष ना करने वाला सबका प्रिय होता है और आप उसी प्रकार के विनम्र हैं क्योंकि मैंने आपके अभिमानी पिता ब्रह्मा का पाँचवाँ मस्तक काट दिया था तो भी आप उस द्वेष भाव का त्याग कर मेरी शरण को प्राप्त हुए हैं। अतः हे तात ! मैं आपको सब कुछ बताऊँगा, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए।
          हे योगिन ! मनुष्य को चाहिए कि श्रावण मास में नियम पूर्वक नक्तव्रत करे और पूरे महीने भर प्रतिदिन रुद्राभिषेक करे। अपनी प्रत्येक प्रिय वस्तु का इस मास में त्याग कर देना चाहिए। 
          पुष्पों, फलों, दांतों, तुलसी की मंजरी तथा तुलसी दलों और बिल्वपत्रों से शिव जी की लक्ष पूजा करनी चाहिए, एक करोड़ शिवलिंग बनाना चाहिए और ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। महीने भर धारण-पारण व्रत अथवा उपवास करना चाहिए। इस मास में मेरे लिए अत्यन्त प्रीतिकर पंचामृताभिषेक करना चाहिए।
          इस मास में जो-जो शुभ कर्म किया जाता है वह अनन्त फल देने वाला होता है। हे मुने ! इस माह में भूमि पर सोयें, ब्रह्मचारी रहें और सत्य वचन बोले। इस मास को बिना व्रत के कभी व्यतीत नहीं करना चाहिए। फलाहार अथवा हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिए। पत्ते पर भोजन करना चाहिए। व्रत करने वाले को चाहिए कि इस मास में शाक का पूर्ण रूप से परित्याग कर दे। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस मास में भक्तियुक्त होकर मनुष्य को किसी ना किसी व्रत को अवश्य करना चाहिए।
          सदाचारपरायण, भूमि पर शयन करने वाला, प्रातः स्नान करने वाला और जितेन्द्रिय होकर मनुष्य को एकाग्र किए गए मन से प्रतिदिन मेरी पूजा करनी चाहिए।  इस मास में किया गया पुरश्चरण निश्चित रूप से मन्त्रों की सिद्धि करने वाला होता है। इस मास में शिव के षडाक्षर मन्त्र का जप अथवा गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिए और शिवजी की प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा वेदपारायण करना चाहिए।
          पुरुषसूक्त का पाठ अधिक फल देने वाला होता है। इस मास में किया गया ग्रह यज्ञ, कोटि होम, लक्ष होम तथा अयुत होम शीघ्र ही फलीभूत होता है और अभीष्ट फल प्रदान करता है। जो मनुष्य इस मास में एक भी दिन व्रतहीन व्यतीत करता है, वह महाप्रलय पर्यन्त घोर नरक में वास करता है। यह मास मुझे जितना प्रिय है, उतना कोई अन्य मास प्रिय नहीं है। यह मास सकाम व्यक्ति को अभीष्ट फल देने वाला तथा निष्काम व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करने वाला है।
          हे सत्तम ! इस मास के जो व्रत तथा धर्म हैं, उन्हें मुझ से सुनिए। रविवार को सूर्यव्रत तथा सोमवार को मेरी पूजा व नक्त भोजन करना चाहिए। श्रावण मास के पहले सोमवार से आरम्भ कर के साढ़े तीन महीने का “रोटक” नामक व्रत किया जाता है। यह व्रत सभी वांछित फल प्रदान करने वाला है।
          मंगलवार को मंगल गौरी का व्रत, बुधवार व बृहस्पतिवार के दिन इन दोनों वारों का व्रत, शुक्रवार को जीवंतिका व्रत और शनिवार को हनुमान तथा नृसिंह का व्रत करना बताया गया है।
          हे मुने ! अब तिथियों में किये जाने वाले व्रतों का श्रवण करें। श्रावण के शुक्ल पक्ष की द्वित्तीया तिथि को औदुम्बर नामक व्रत होता है। श्रावण के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को गौरी व्रत होता है। इसी प्रकार शुक्ल की चतुर्थी तिथि को दूर्वागणपति नामक व्रत किया जाता है। हे मुने ! उसी चतुर्थी का दूसरा नाम विनायकी चतुर्थी भी है। शुक्ल पक्ष में पंचमी तिथि नागों के पूजन के लिए प्रशस्त होती है।
          हे मुनिश्रेष्ठ ! इस पंचमी को ‘रौरवकल्पादि’ नाम से जानिए। षष्ठी तिथि को सुपौदन व्रत और सप्तमी तिथि को शीतला व्रत होता है। अष्टमी अथवा चतुर्दशी तिथि को देवी का पवित्रारोपण व्रत होता है। इस माह के शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की दोनों नवमी तिथियों को नक्तव्रत करना बताया गया है।
          शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को ‘आशा’ नामक व्रत होता है। इस मास में दोनों पक्षों में दोनों एकादशी तिथियों को इस व्रत की कुछ और विशेषता मानी गई है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को श्रीविष्णु का पवित्रारोपण व्रत बताया गया है। इस द्वादशी तिथि में भगवान् श्रीधर की पूजा कर के मनुष्य परम गति प्राप्त करता है।
          उत्सर्जन, उपाकर्म, सभादीप, सभा में उपाकर्म, इसके बाद रक्षाबन्धन, पुनः श्रवणाकर्म, सर्पबलि और हयग्रीव का अवतार–ये सात कर्म पूर्णमासी तिथि को करने हेतु बताए गए हैं। श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी तिथि को ‘संकष्टचतुर्थी’ व्रत कहा गया है और श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि के दिन ‘मानवकल्पादि’ नामक व्रत को जानना चाहिए। हे द्विजोत्तम ! कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्रीकृष्ण का पूर्णावतार हुआ, इस दिन उनका अवतार हुआ, अतः महान उत्सव के साथ इस दिन व्रत करना चाहिए। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस अष्टमी को मन्वादि तिथि जानना चाहिए।
          श्रावण मास की अमावस्या तिथि को पिठोराव्रत कहा जाता है। इस तिथि में कुशों का ग्रहण और वृषभों का पूजन किया जाता है। इस मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से लेकर सब तिथियों के पृथक-पृथक देवता हैं।
          प्रतिपदा तिथि के देवता अग्नि, द्वितीया तिथि के देवता ब्रह्मा, तृतीया तिथि की गौरी और चतुर्थी के देवता गणपति हैं। पंचमी के देवता नाग हैं और षष्ठी तिथि के देवता कार्तिकेय हैं। सप्तमी के देवता सूर्य और अष्टमी के देवता शिव हैं।
          नवमी की देवी दुर्गा, दशमी के देवता यम और एकादशी तिथि के देवता विश्वेदेव कहे गए हैं। द्वादशी के विष्णु तथा त्रयोदशी के देवता कामदेव हैं। चतुर्दशी के देवता शिव, पूर्णिमा के देवता चन्द्रमा और अमावस्या के देवता पितर हैं। ये सब तिथियों के देवता कहे गए हैं। जिस देवता की जो तिथि हो उस देवता की उसी तिथि में पूजा करनी चाहिए। प्रायः इसी मास में ‘अगस्त्य’ का उदय होता है। हे मुने ! मैं उस काल को बता रहा हूँ, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिए।
          सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने के दिन से जब बारह अंश चालीस घडी व्यतीत हो जाती है तब अगस्त्य का उदय होता है। उसके सात दिन पूर्व से अगस्त्य को अर्ध्य प्रदान करना चाहिए। बारहों मासों में सूर्य पृथक-पृथक नामों से जाने जाते हैं। उनमें से श्रावण मास में सूर्य ‘गभस्ति’ नाम वाला होकर तपता है। इस मास में मनुष्यों को भक्ति सम्पन्न होकर सूर्य की पूजा करनी चाहिए।  हे सत्तम ! चार मासों में जो वस्तुएं वर्जित हैं, उन्हें सुनिए। श्रावण मास में शाक तथा भाद्रपद में दही का त्याग कर देना चाहिए। इसी प्रकार आश्विन में दूध तथा कार्तिक में दाल का परित्याग कर देना चाहिए।
          यदि इन मासों में इन वस्तुओं का त्याग नहीं कर सके तो केवल श्रावण मास में ही उक्त वस्तुओं का त्याग करने से मानव उसी फल को प्राप्त कर लेता है।
          हे मानद  ! यह बात मैंने आपसे संक्षेप में कही है, हे मुनिश्रेष्ठ! इस मास के व्रतों और धर्मों के विस्तार को सैकड़ों वर्षों में भी कोई नहीं कह सकता। मेरी अथवा विष्णु की प्रसन्नता के लिए सम्पूर्ण रूप से व्रत करना चाहिए। परमार्थ की दृष्टि से हम दोनों में भेद नहीं है। जो लोग भेद करते हैं, वे नरकगामी होते हैं। अतः हे सनत्कुमार ! आप श्रावण मास में धर्म का आचरण कीजिए।
          ॥इस प्रकार ईश्वरसनत्कुमार संवाद के अंतर्गत “श्रावणव्रतोंद्देशकथन”  नामक दुसरा अध्याय पूर्ण हुआ॥२॥
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                           "ॐ नमःशिवाय"

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