प्राचीन भारत का वस्त्र उद्योग:---------
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विनोबा भावे ने १६-६-८६ को ‘भूमिपुत्र‘ में एक लेख में वस्त्र बनना कैसे
प्रारंभ हुआ, इसका वर्णन किया है। वस्त्रोद्योग के मूल में सूत है और सूत
का उत्पादन कपास से होता है। वैदिक आख्यानों में वर्णन आता है कि सर्वप्रथम
ऋषि गृत्स्मद ने कपास का पेड़ बोया और अपने इस प्रयोग से दस सेर कपास
प्राप्त की। इस कपास से सूत बनाया। इस सूत से वस्त्र कैसे बनाना, यह समस्या
थी। इसके समाधान के लिए उन्होंने लकड़ी की तकली बनायी। वैदिक भाषा में
कच्चे धागे को तंतु कहते हैं। तंतु बनाते समय अधिक बचा हिस्सा ओतु कहा जाता
है। इस प्रकार सूत से वस्त्र बनाने की प्रक्रिया ऋषि गृत्स्मद ने दी।
आगे चलकर विकास होता गया और सूती से आगे बढ़कर रेशम, कोशा आदि के द्वारा
वस्त्र बनने लगे। बने हुए वस्त्रों, साड़ियों आदि पर सोने, चांदी आदि की
कढ़ाई, रंगाई का काम होने लगा। वस्त्रों को भिन्न-भिन्न प्राकृतिक रंगों
में रंग कर तैयार किया जाने लगा और एक समय में भारतीय वस्त्रों का सारे
विश्व में निर्यात होता था। यहां के सूती वस्त्र तथा विशेष रूप से बंगाल की
मलमल ढाका की मलमल के नाम से जगत् में प्रसिद्ध हुई। इनकी मांग प्राचीन
ग्रीक, इजिप्ट और अरब व्यापारियों द्वारा भारी मात्रा में होती थी और ये
व्यापारी इसका अपने देश के विभिन्न प्रांतों व नगरों में विक्रय करते थे।
प्रमोद कुमार दत्त अपने शोध प्रबंध की प्रस्तावना में भारतीय वस्त्रों के
वैशिष्ट्य और उनके संदर्भ में विभिन्न लोगों की टिप्पणियों के संदर्भ में
लिखते हैं-
‘नवीं शताब्दी में अरब के दो यात्री यहां आए। उन्होंने
लिखा कि भारतीय वस्त्र इतने असामान्य हैं कि ऐसे वस्त्र और कहीं नहीं देखे
गए। इतना महीन तथा इतनी सफाई और सुन्दरता का वस्त्र बनता है कि एक पूरा
थान अंगूठी के अन्दर से निकाल लिया जाए।‘
तेरहवीं सदी में आए
मार्क◌ो पोलो ने तो अनूठी घोषणा की कि ‘विश्व के किसी भी कोने में प्राप्त
सुन्दर व बढ़िया सूती वस्त्र का निर्माण स्थल कोरोमंडल और मछलीपट्टनम् के
किनारे होंगे।‘
इन वस्त्रों की बारीकी और सफाई को लेकर कहानियां
प्रचलित हैं। एक बार औरंगजेब की पुत्री दरबार में गई तो औरंगजेब उसके
वस्त्रों को देखकर बहुत खफा हुआ और उसने कहा, नामाकूल! तेरे अंदर की
शर्म-हया कहां चली गई जो दुनिया को तू अपने अंग दिखा रही है। उस पर उसकी
पुत्री ने कहा, क्या करूं अब्बाजान, यह वस्त्र जो पहना है, वह एक के ऊपर एक
ऐसे सात बार तह करने के बाद पहना है।
सत्रहवीं सदी के मध्य में
भारत भ्रमण पर आने वाले फ्र्ांसीसी व्यापारी टेवर्नीय सूती वस्त्रों का
वर्णन करते हुए लिखता है ‘वे इतने सुन्दर और हल्के हैं कि हाथ पर रखें तो
पता भी नहीं लगता। सूत की महीन कढ़ाई मुश्किल से नजर आती है।‘ वह आगे कहता
है कि कालीकट की ही भांति सिकन्ज (मालवा प्रांत) में भी इतना महीन ‘कालीकट‘
(सूती कपड़े का नाम) बनता है कि पहनने वाले का शरीर ऐसा साफ दिखता था
मानों वह नग्न ही हो। टेवर्नीय अपना एक और संस्मरण लिखता है, ‘एक पर्शियन
राजदूत भारत से वापस गया तो उसने अपने सुल्तान को एक नारियल भेंट में दिया।
दरबारियों को आश्चर्य हुआ कि सुल्तान को नारियल भेंट में दे रहा है, पर
उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उस नारियल को खोला तो उसमें से ३० गज
लम्बा मलमल का थान निकला।‘ सर जोसेफ बेक को मि. विल्कीन्स ने ढाका की मलमल
का एक टुकड़ा दिया। बेक कहते हैं कि यह विगत कुछ समय का वस्त्र की बारीकी
का श्रेष्ठतम नमूना है। बेक ने स्वयं जो विश्लेषण, माप उस वस्त्र का
निकालकर इंडिया हाउस को लिखकर भेजा, वह निम्न प्रकार है-
मि. बेक
कहते हैं कि विल्कीन्स द्वारा दिए गए टुकड़े का वजन-३४.३ ग्रेन था (एक
पाउण्ड में ७००० ग्रेन होते हैं तथा १ ग्राम में १५.५ ग्रेन होते हैं।),
लम्बाई-५ गज ७ इंच थी, इसमें धागे-१९८ थे। यानी धागे की कुल लम्बाई-१०२८.५
गज थी। अर्थात् १ ग्रेन में २९.९८ गज धागा बना था। इसका मतलब है कि यह
धागा २४२५ काऊंट का था। आज की आधुनिक तकनीक में भी धागा ५००-६०० काऊंट से
ज्यादा नहीं होता।
सर जी. बर्डवुड ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट इण्डिया
के अनुरोध पर एक पुस्तक लिखी थी ‘दी इंडस्ट्रियल आट्र्स ऑफ इंडिया‘। इसके
पृष्ठ ८३ पर वे लिखते हैं कि ‘बताया जाता है कि जहांगीर के काल में पंद्रह
गज लम्बी और एक गज चौड़ी ढाका की मलमल का वजन केवल १०० ग्रेन होता था।‘ इसी
पुस्तक के पृष्ठ ९५ पर लिखा है-‘अंग्रेज और अन्य यूरोपीय लेखकों ने तो
यहां की मलमल, सूती व रेशमी वस्त्रों को ‘बुलबुल की आंख‘ ‘मयूर कंठ‘ ‘चांद
सितारे‘ ‘बफ्ते हवा‘ (पवन के तारे) ‘बहता पानी‘ और ‘संध्या की ओस‘ जैसी
अनेक काव्यमय उपमाएं दी हैं। सूती कपड़े और मलमल का उत्पादन इंग्लैण्ड में
क्रमश: १७७२ तथा १७८१ में प्रारंभ हुआ।
१८३५ में एडवर्ड बेञ्ज ने
लिखा ‘अपने वस्त्र उद्योग में भारतीयों ने प्रत्येक युग के अतुलित और
अनुपमेय मानदंड को बनाए रखा। उनके कुछ मलमल के वस्त्र तो मानो मानवों के
नहीं अपितु परियों और तितलियों द्वारा तैयार किए लगते हैं। ऐसे वस्त्र जहां
बनते थे, उन कुटीर उद्योगों को अंग्रेजों ने षड्यंत्रपूर्वक नष्ट किया। जो
अगूंठे उन्हें बनाते थे, उन्हें काट दिया गया। देश आजाद होने के बाद आशा
थी, हम पुन: अपनी जड़ों में जुड़ेंगे। जो अंगूठे कटे, वे वापस मिलेंगे। पर
आज भी पश्चिमी तकनीक के आभामंडल में देश जी रहा है। इसे बदलने हेतु चितंन
की आवश्यकता है।
सोचो जरा !!
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