*लुप्त होती कला और परंपरा* *संझा तू थारे घर जा .. थारी बई मारेगा ... कुटेगा ....डेरी में ड़चोकेगा* और वास्तव में *संझा* अपने घर चली गई।
क्यो ना आज *संझा* के एक एक गीत हो जाए और अपने *बचपन* की यादें ताजा की जाए
😊😊 *संझा* को देखकर अपना *बचपन याद* आ जाता है। कल से *श्राद्ध पक्ष* की शुरुआत हो रहा हैं...*श्राद्ध* के यह *सोलह दिन मालवांचल* की *बालिकाओं* के लिए बड़े मस्ती भरे होते है... दुर्भाग्य बस इतना है कि हम *अच्छी शिक्षा* के नाम पर अपनी *परम्पराओ* को खोते जा रहे है..
*संझा गीत बाल कविताएं हैं* इनके अर्थ और भाव के बजाय *अटपटे ध्वनि प्रधान* शब्द और *गाने वालों* की मस्ती भरी सपाट शैली आकर्षित करती है ।
कुछ गीतों को बरसों-बरस से दोहराने से शब्द घिस कर नये रूप पा गए - कहीं अर्थहीन हैं या अन्य अर्थ देते हैं किन्तु बच्चों को इस सबसे क्या ?
उनका *उत्सव* तो *गोबर* से बनाएं भित्ति चित्रों की *रचनात्मकता , गीतों की अल्हड़ - अलबेली ध्वनियों* से है ।
*तालियों और कन्या-कंठों से संध्या* समय नये *कलरव* से भर जाता है । बच्चे हर घर जा जा कर इन गीतों को दोहराते हैं और *संझा माता* का *प्रसाद हर घर , हर दिन नया* ..बड़े गोपनीय ढंग से प्रसाद पर कपड़ा ढक कर लायेगी बिटिया और पूछेगी - ताड़ो ?
मतलब, बताओ इसमें क्या है ?
सब *हिला - डुला कर देखेंगे सूंघेंगे*, यदि फिर भी न बता पाये तो *लाइफ लाइन - कौन सी परी ? मीठी परी, चरकी परी, खट्टी परी ????*
*बड़ा हो हुल्लड़ श्राद्ध पक्ष के सोलह दिन चलता है । शाम ढलते ही गोबर लाओ, दीवार लीपो, कोट -कंगूरे, पालकी, पलना, सीढ़ी, चांद-सूरज, फूल-पत्ते, घोड़ा बारात, गनपति* .. जाने कितने तरह के *चित्र रोज हर घर* की बाहरी *दीवार* पर बनते हैं । इन चित्रों को *गुलबास , कनेर , गुड़हल के फूलों* से सजाती हैं *बालिकाएं* । कभी *रंगीन चमकीले , कागजों* से भी । किसकी *संझा* सुन्दर हो ,यह होड़ भी है । हर घर के *आंगन* में अनौपचारिक उत्सव के मजे लेते बच्चे .. *संझा* का असली *सौंदर्य* है ।
आओ हम सब मिलकर फिर से अपनी इस *लुप्त होती परम्परा को पुनः प्रारंभ* करें ।
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