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मंगलवार, 25 अक्टूबर 2022

आज का संदेश "दीपावली" पर विशेष

*आज का संदेश* 
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*🏮 "दीपावली" पर विशेष 🏮*
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दीपावली का पावन पर्व आज हमारे देश में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में भी यह पर्व मनाया जा रहा है। मान्यता के अनुसार आज दीपमालिकाओं को प्रज्वलित करके धरती से अंधकार भगाने का प्रयास मानव समाज के द्वारा किया जाता है। दीपावली मुख्य रूप से प्रकाश का पर्व है। विचार करना चाहिए कि क्या सिर्फ वाह्य अंधकार को दूर करके यह पर्व मनाना सार्थक हो सकता है ? प्रकाश पर्व मनाना तभी सार्थक हो सकता है जब मनुष्य स्वयं को आन्तरिक प्रकाश से प्रकाशित कर ले। प्रकाश का अर्थ मात्र सांसारिक अवयवों को चमकाना ही नहीं बल्कि मनुष्य को अपने भीतर के प्रकाश को भी चमकाने का प्रयास करना चाहिए। हमारे मनीषियों ने आंतरिक प्रकाश को "आत्मप्रकाश" कहा है। मनुष्य के हृदय में काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, छल, कपट, ईर्ष्या आदि अवगुण अंधकार रूप में व्याप्त हो जाते हैं। इन अंधकार के प्रारूपों को हृदय से भगाने के लिए मनुष्य को अपने हृदय में दया, क्षमा, करुणा, परोपकार, एवं सहृदयता का दीपक प्रज्वलित करना चाहिए। जब हृदय में इन सद्गुणों का दीपक प्रज्वलित होता है तो अवगुण रूपी अंधकार को भागना ही पड़ता है। इस प्रकार के दीपक को जलाने की विधा किसी योग्य गुरु की शरण अथवा सतसंग से ही जानी जा सकती है। दीपावली के पावन पर्व पर धरती पर अनेकों दीपक जलाकर उसके प्रकाश से अंधकार को तो दूर करना ही चाहिए साथ प्रत्येक मनुष्य स्वयं को "आत्मप्रकाश" से भी प्रकाशित करना चाहिए तभी सच्चे अर्थों में दीपावली मनाना सार्थक कहा जा सकता है। अन्यथा यह पर्व दिखावा करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मनुष्य को ऐसी दीपावली मनाने का प्रयास करना चाहिए जिससे धरती तो प्रकाशित हो ही साथ ही "आत्मप्रकाश" भी प्रखर हो।

आज के वर्तमान आधुनिक युग में एक ओर तो इन पर्वों ने भव्यता पाई है वहीं दूसरी ओर मनुष्य "आत्मप्रकाश" से च्युत होता जा रहा है। आज के दिन समाज के बड़े - छोटे सभी लोग धन की देवी महालक्ष्मी का पूजन करके उनकी कृपा प्राप्त करने का उद्योग करते हैं, परंतु महालक्ष्मी के ही प्रतिबिम्ब किसी नारी के प्रति उनके हृदय में करुणा एवं दया रूपी दीपक नहीं प्रज्वलित होता। मनुष्य की अंधकारमय कुत्सित भावनायें नारी जाति के साथ ही सम्पूर्ण मानव समाज को भी लज्जित कर रही हैं। 

मैं *"पनपा"* यह  देख रहा हूँ कि आज जहाँ समाज में एक तबका भव्यता के साथ यह पर्व मनाते हुए अनेक प्रकार के मिष्ठानों/पकवानों का भोग लगा रहा है वहीं दूसरी ओर एक तबका ऐसा भी है जिसके घर में न तो दिया जलाने की व्यवस्था है और न ही बच्चों के लिए भोजन। चाहिए तो यह कि अपने अगल बगल ऐसे लोगों को चिन्हित करके उनके घर भी प्रकाश एवं मिष्ठान्न की व्यवस्था की जाय। परोपकार की भावना से बेसहारों का सहारा बना जाय। ऐसा करना तभी सम्भव हो सकता है जब मनुष्य में "आत्मप्रकाश" होगा। जब मनुष्य में आंतरिक ज्योति जगमगाती है तभी मनुष्य के भीतर दया, करुणा एवं परोपकार आदिक भावनाओं का उदय होता है। आज के युग में ऐसा नहीं है कि किसी भीतर "आत्मप्रकाश" नहीं है परंतु ऐसे लोग बिरले ही होते हैं आंतरिक दीपावली मनाने एवं "आत्मप्रकाश" जगाने के लिए मनुष्य को सच्चे सद्गुरु की शरण में रहते हुए दीर्घकालिक सतसंग का लाभ लेना पड़ता है। परंतु आज शिष्य भी गुरु के पास स्वार्थवश ही रहता है, जैसे ही उसका स्वार्थ पूरा होता है वह वहाँ से हट जाता है। ऐसे में दीपावली तो नहीं मनाई जा सकती बल्कि दीपावली मनाने का ढोंग ही मनुष्यों के द्वारा किया जा रहा है।

"जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये" किसी कवि द्वारा कही गयीं ये पंक्तियां तभी सार्थक हो सकती हैं जब मनुष्य में "आत्मप्रकाश" होगा।
*पनपा*

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