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सोमवार, 19 जून 2023

महत्मा गांधी की हत्या के जुर्म में नाथूराम गोडसे ने कोर्ट में क्या बयान दिया था?

 

"मैंने अपनी पूरी हिम्मत जुटाई और 30 जनवरी, 1948 को बिड़ला हाउस में पूजा स्थल पर गांधीजी को गोली मार दी।"

अपने बचाव के लिए एक शब्द खर्च किए बिना, नथूराम गोडसे ने अदालत में कहा कि उसने गांधीजी को गोली मार दी थी और उसके बाद एक ऐसा मुकदमा शुरू हुआ, जो अभूतपूर्व था।

हत्या क्यों? इस सवाल के जवाब में नथूराम ने कहा,

  • "ऐसे अपराधी (गांधी) को न्याय दिलाने के लिए कोई कानूनी तंत्र नहीं था और इसलिए मैंने गांधी को गोली मारने का सहारा लिया क्योंकि मेरे लिए यही एकमात्र समाधान था।"

गांधीजी को गोली मारने के पहले, हाथ मे पिस्तौल लिए गोडसे…(प्रातिनिधिक चित्र)

वास्तव में, यह एक थंडे दिमाग से किया हुआ अपराध (कोल्ड-ब्लडेड मर्डर) था, कानून की भाषा में! सैकड़ों लोगों द्वारा देखी गई इस हत्या को किसी गवाह के सबूत की जरूरत नहीं थी!

फिर भी, नथूराम गोडसे ने, 'मैंने ऐसा क्यों किया?' इस बारे में कुछ बयान देने की अनुमति के लिए अदालत से अनुरोध किया।

यहां तक ​​कि उन्होंने कानूनी प्रक्रिया का पूरा फायदा उठाकर यह अनुमति भी हासिल कर ली!

न्यायिक दृष्टिकोण से यह आश्चर्य की बात है कि एक अभियुक्त दिनदहाड़े हत्यारे को हत्या के कारण बताने की अनुमति दी जा सकती है। लेकिन अदालत ने उनके तर्क, उनके दृष्टिकोण को जानना आवश्यक समझा और इसलिए अनुमति दी गई। न्यायाधीश आत्मा चरण ने गांधी पर वैचारिक हमले के संबंध में नथूराम गोडसे को नौ घंटे तक बोलने की अनुमति दी।

पहली पंक्ति में नथूराम गोडसे और नारायण आपटे, पीछे सावरकर...

ऐसा माना जाता है कि हालांकि सावरकर ने एक बार भी कठघरे में खड़े गोडसे पर नजर नहीं डाली, उन्होंने या तो पूरा बयान लिखा होगा या कम से कम इसे अंतिम रूप दिया होगा।

लगभग इकतालीस साल पहले सावरकर ने मदनलाल ढींगरा मामले में यही किया था। लेकिन लंदन के ओल्ड बेली कोर्ट के एक जज ने ढींगरा को इसे पढ़ने की अनुमति नहीं दी।

8 नवंबर, 1948 को अदालत ने गोडसे को बहस करने की अनुमति देने के बाद उन्होंने 92 पन्नों का एक हस्तलिखित बयान पढ़ा।

पंजाब हाई कोर्ट की तीन जजों की बेंच के एक जज जस्टिस खोसला ने मामले के तथ्यों से बयान की अप्रासंगिकता का हवाला देते हुए रिकॉर्डिंग को रोकने की कोशिश की, लेकिन बाकी दो जज इस बयान से मंत्रमुग्ध नजर आए.

और फिर दुनिया के सामने आया, यह था ...

गोडसे का समापन वक्तव्य (असंपादित)

“13 जनवरी, 1948 को मुझे पता चला कि गांधीजी ने आमरण अनशन करने का फैसला कर लिया है। कारण यह दिया गया था कि वे हिंदू-मुस्लिम एकता का आश्वासन चाहते थे... लेकिन मैं और कई अन्य लोग आसानी से देख सकते थे कि असली मकसद... सरकार को पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए मजबूर करना था। जिसे सरकार ने पुरजोर तरीके से मना कर दिया.... लेकिन सरकार का यह फैसला गांधी जी के अनशन का पूरक था। मैंने महसूस किया कि गांधीजी की पाकिस्तान समर्थक विचारधारा की तुलना में जनमत की शक्ति कोई छोटी चीज नहीं थी।

….1946 में या उसके बाद नोआखली में सुराहवर्दी की सरकार में हिन्दुओं पर मुसलमानों के अत्याचारों से हमारा खून खौल उठा। हमारी शर्म और आक्रोश की कोई सीमा नहीं रही जब गांधीजी उस सुराहवर्दी को बचाने के लिए आगे आए और अपनी प्रार्थना सभाओं में भी उन्हें शहीद साहब, शहीद जैसी उपाधियाँ देने लगे।

कांग्रेस के भीतर गांधीजी का प्रभाव पहले बढ़ा और फिर सर्वोच्च हो गया। जनजागृति के लिए उनका कार्य अभूतपूर्व था और सत्य और अहिंसा के नारों से उन्हें बल मिला, जिसे उन्होंने आडंबरपूर्ण ढंग से राष्ट्र के सामने प्रस्तुत किया... मैं कभी कल्पना नहीं कर सकता कि एक आक्रमणकारी के लिए सशस्त्र प्रतिरोध अन्यायपूर्ण है...

...राम ने रावण का वध किया... कृष्ण ने कंस की दुष्टता को समाप्त करने के लिए कंस का वध किया... गांधीजी ने शिवाजी, राणा प्रताप और गुरु गोबिंद को 'पथभ्रष्ट देशभक्त' के रूप में निंदा करके अपना तिरस्कार प्रकट किया... गांधीजी, विरोधाभासी रूप से, एक हिंसक शांतिवादी थे। वे सत्य और अहिंसा के नाम पर देश पर अनकही आपदाएं लेकर आए। राणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोविंद हमारे देशवासियों के दिलों में हमेशा रहेंगे...

1919 तक, गांधीजी मुसलमानों का विश्वास हासिल करने की असफल कोशिश कर रहे थे और इसके लिए उन्होंने मुसलमानों से एक के बाद एक कई वादे किए। ... उन्होंने इस देश में खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और इसके लिए राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्ण समर्थन की पेशकश भी की। ... जल्द ही मोपला विद्रोह ने दिखाया कि मुसलमानों को राष्ट्रीय एकता का कोई विचार नहीं है ... फिर हिंदुओं का बड़े पैमाने पर कत्लेआम हुआ ... विद्रोह को महीनों के भीतर ब्रिटिश सरकार ने बिल्कुल भी सहानुभूति नहीं दिखाते हुवे दबा दिया था और गांधीजी तब भी हिंदू-मुस्लिम एकता के गीत गाते थे ...ब्रिटिश साम्राज्यवाद मजबूत हुआ, मुसलमान अधिक कट्टर हुए और इसका असर हिंदुओं पर पड़ा...

इन 32 वर्षों के गांधीजी के लगातार उकसावे, जिसकी परिणति मुस्लिम समर्थक अंतिम उपवास में हुई, ने मुझे इस निष्कर्ष पर पहुँचाया कि गांधीजी को तुरंत समाप्त कर दिया जाना चाहिए ... उन्होंने एक व्यक्तिपरक मानसिकता विकसित की जिसके तहत वे अकेले ही अंतिम न्यायाधीश थे।

सही या गलत... या तो कांग्रेस को अपनी इच्छा को उनके सामने समर्पण करना था और उनकी सभी सनक के आगे झुकना था... या उनके बिना आगे बढ़ना था... सविनय अवज्ञा आंदोलन का मार्गदर्शन करने वाले वे मास्टर ब्रेन थे... आंदोलन सफल या असफल हो सकता था; इससे अनकहे संकट और राजनीतिक उथल-पुथल हो सकती है, लेकिन महात्माजी की लापरवाही...बचकानापन, नासमझी और जिद...गांधीजी एक के बाद एक गलतियां करते जा रहे थे।

….गांधी ने बॉम्बे प्रेसीडेंसी से सिंध के अलगाव का भी समर्थन किया और सिंध के हिंदुओं को सांप्रदायिक भेड़ियों के हवाले कर दिया। कराची, सुक्कुर, शिकारपुर और अन्य जगहों पर कई दंगे हुए जहां केवल हिंदू ही प्रभावित हुए...

अगस्त 1946 से मुस्लिम लीग की निजी सेना ने हिंदुओं का कत्ल करना शुरू कर दिया... बंगाल से कराची तक हिंदू खून बह रहा था... सितंबर में बनी अंतरिम सरकार को मुस्लिम लीग के सदस्यों ने तोड़ दिया था। लेकिन जिस अंतरिम सरकार का वह हिस्सा थे, उसके प्रति वे जितने अधिक अविश्वासी और देशद्रोही होते गए, गांधी का उनके प्रति उतना ही आकर्षण बढ़ता गया।

….कांग्रेस ने अपने राष्ट्रवाद और समाजवाद का घमंड करते हुए गुप्त रूप से पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। भारत का विभाजन हुआ और भारत का एक तिहाई हिस्सा हमारे लिए विदेशी भूमि बन गया... गांधीजी ने 30 साल की निर्विवाद तानाशाही के बाद यही हासिल किया और इसे ही कांग्रेस पार्टी 'आजादी' कहती है...।

  • उपवास समाप्त करने के लिए गांधीजी की शर्तों में से एक यह थी कि हिंदू शरणार्थियों द्वारा कब्जा की गई दिल्ली की मस्जिदों पर से हिंदुओं का कब्जा तत्काल छोड़ देना चाहिए। लेकिन जब पाकिस्तान में हिंदुओं पर हिंसक हमले हुए, तो उन्होंने पाकिस्तान सरकार के विरोध में एक शब्द भी नहीं बोला...

गांधी को राष्ट्रपिता कहा जाता है। लेकिन अगर ऐसा है, तो वह देश के विभाजन के लिए सहमत होकर अपने पैतृक कर्तव्य में विफल रहे हैं, क्योंकि उन्होंने देश के प्रति सबसे विश्वासघाती कार्य किया है ... इस देश के लोग पाकिस्तान के विरोध में उत्सुक और तीव्र थे। लेकिन गांधीजी ने लोगों के साथ नकली खेल खेला...

मुझे पता है कि मैंने जो किया है उससे मैं पूरी तरह से तबाह हो जाऊंगा, और मुझे लोगों से नफरत के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन अगर मैं गांधीजी को मार देता हूं, तो उनकी अनुपस्थिति में भारतीय राजनीति निश्चित रूप से व्यावहारिक, बदला लेने में सक्षम और सशस्त्र बलों के साथ मजबूत साबित होगी। बेशक मेरा अपना भविष्य पूरी तरह बर्बाद हो जाएगा, लेकिन पाकिस्तान की घुसपैठ से देश बच जाएगा।

….मैं कहता हूं कि मेरी गोलियां उस व्यक्ति पर चलाई गईं, जिसकी नीतियों और कार्यों ने लाखों हिंदुओं को बर्बाद और तबाह कर दिया… ऐसे अपराधी को न्याय दिलाने के लिए कोई कानूनी तंत्र नहीं था और इस कारण मैंने उन घातक गोलियों को निकाल दिया…

.. मैं दया नहीं दिखाना चाहता... मैंने गांधीजी को दिनदहाड़े गोली मारी थी। मैंने बचने का कोई प्रयास नहीं किया; वास्तव में मैंने कभी भागने के बारे में नहीं सोचा था। मैंने खुद को गोली मारने की कोशिश नहीं की... क्योंकि खुले दरबार में अपने विचार व्यक्त करने की तीव्र इच्छा थी। मेरी कार्रवाई के नैतिक पक्ष में मेरा विश्वास हर तरफ से आलोचना से नहीं डगमगाया है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार छात्र मेरे काम का मूल्यांकन करेंगे और भविष्य में इसका वास्तविक महत्व पाएंगे।

नथूराम गोडसे…

यह है नथूराम गोडसे का अदालत में दिया गया बयान, संक्षिप्त रूप में, जिसमें उन्होंने बताया था कि उन्होंने 'गांधी को क्यों मारा'.

आज भी पुणे के शिवाजीनगर में अजिंक्य डेवलपर्स के कार्यालय में एक कांच के बक्से में नथूराम की अस्थियां संरक्षित हैं।

यहां गोडसे के कुछ कपड़े और हस्तलिखित नोट भी रखे गए हैं। नथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे के पोते अजिंक्य गोडसे ने कहा, 'इन अस्थियों को सिंधु नदी में तभी विसर्जित किया जाएगा, जब अखंड भारत का उनका सपना पूरा होगा।' अजिंक्य ने कहा, "यह मेरे दादाजी की आखिरी इच्छा थी, इसमें कई पीढ़ियां लगेंगी, लेकिन मुझे उम्मीद है कि यह एक दिन जरूर पूरी होगी।"

नमोस्तुते !

यह जवाब मेरे मराठी कोरापर लिखे हुवे एक जवाब का हिंदी रूपांतर हो सकता है।

चित्र : Speakola

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