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शुरुआत की दस लाइनों से ही ये लेख आपको इसे पूरा पढने पर बाध्य कर देगा
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* पूरे विश्व को सभ्यता हमने सिखाई और आज हम उनसे सभ्यता सिख रहे हैं
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ध्यान-साधना, योग, आयुर्वेद, ये सारी अनमोल चीजें हमारी विरासत थी लेकिन
अंग्रेजों ने हम लोगों के मन में बैठा दिया कि ये सब फालतू कि चीज़े हैं और
हम लोगों ने मान भी लिया पर आज जब उनको जरुरत पड़ रही हैं इन सब चीजों कि
तो फिर से हम लोगों कि शरण में दौड़े-भागे आ रहे हैं और अब हमारा योग
'योगा' बनकर हमारे पास आया तब जाकर हमें एहसास हो रहा हैं कि जिसे हम कंचे
समझकर खेल रहे थे, वो हीरा था। उस आयुर्वेद के ज्ञान को विदेशी वाले अपने
नाम से पेटेंट करा रहे हैं जिसके बाद उसका व्यापारिक उपयोग हम नहीं कर
पायेंगे। इस आयुर्वेद का ज्ञान इस तरह रच बस गया हैं हम लोगों के खून में
कि चाहकर भी हम इसे भुला नहीं सकते ...आज भले ही बहुत कम ज्ञान हैं हमें
आयुर्वेद का पर पहले घर कि हरेक औरतों को इसका पर्याप्त ज्ञान था तभी तो आज
दादी माँ के नुस्खे या नानी माँ के नुख्से पुस्तक बनकर छप रहे हैं। उस
आयुर्वेद की छाया प्रति तैयार करके अरबी वाले 'यूनानी चिकित्सा' का नाम
देकर प्रचलित कर रहे हैं।
जिस समय पश्चिम में आदिमानवों ने कपडे
पहनना सीखा था...उस समय हमारे यहाँ लोग पुष्पक विमान में उड़ा करते थे। आज
अगर विदेशी वाले हमारे ज्ञान को अपने नाम से पेटेंट करा रहे हैं तो हमारी
नपुंसकता के कारण ही ना ??
वो तो योग के ज्ञाता नहीं रहे होंगे विदेश
में और जब तक होते तब तक स्वामी रामदेव जी आते नहीं तो ये किसी विदेशी के
नाम से पेटेंट हो चुका होता....हमारी एक और महान विरासत हैं संगीत की जो
माँ सरस्वती की देन हैं किसी साधारण मानवों की नहीं। फिर इसे हम तुच्छ
समझकर इसका अपमान कर रहे हैं। याद हैं आज से साल भर पहले हमारे
संगीत-निर्देशक ए.आर. रहमान (पहले नाम दिलीप कुमार) को संगीत के लिए आस्कर
पुरूस्कार दिया गया था.....और गर्व से सीना चौड़ा हम भारतियों का जबकि मुझे
ऐसा लग रहा था कि मेरे अपनों ने मुझे जख्म दिया और अंग्रेज उसमे नमक छिड़क
रहे हैं और मेरे अपने उसे देखकर खुश हो रहे हैं।
किस तरह भीगा कर जूता
मारा था अंग्रेजों ने हम भारतियों के सर पर और हम गुलाम भारतीय उसमे भी
खुश हो रहे थे कि मालिक ने हमें पुरस्कार तो दिया..... भले ही वो जूतों का
हार ही क्यों ना हों ?? अरे शर्म से डूब जाना चाहिए हम भारतियों को अगर
रत्ती भर भी शर्म बची है तो ??
बेशक रहमान की जगह कोई सच्चा देशभक्त
होता तो ऐसे आस्कर को लात मार कर चला आता ........क्योंकि वो पुरस्कार
अच्छे संगीत के लिए नहीं दिए गए थे बल्कि उसने पश्चिमी संगीत को मिलाया था
भारतीय संगीत में इसलिए मिला वो पुरस्कार....यानी कि भारतीय संगीत कितना भी
मधुर क्यों न हों आस्कर लेना हैं तो पश्चिमी संगीत को अपनाना
होगा........सीधा सा मतलब यह हैं कि हमें कौन सा संगीत पसंद करना हैं और
कौन सा नहीं ये हमें अब वो बताएँगे .........इससे बड़ा और गुलामी का सबूत
और क्या हो सकता हैं कि हम अपनी इच्छा से कुछ पसंद भी नहीं कर
सकते......कुछ पसंद करने के लिए भी विदेशियों कि मुहर लगवानी पड़ेगी उस पर
हमें.... जिसे क,ख,ग भी नहीं पता अब वो हमें संगीत सिखायेंगे जहाँ संगीत का
मतलब सिर्फ गला फाड़कर चिल्ला देना भर होता हैं वो सिखायेंगे ??
ज्यादा पुरानी बात भी नहीं हैं ये ......हरिदास जी और उसके शिष्य तानसेन
(जो अकबर के दरबारी संगीतज्ञ थे) के समय कि बात हैं जब राज्य के किसी भाग
में सुखा और आकाल कि स्थिति पैदा हो जाती थी तो तानसेन को वहां भेजा जाता
था वर्षा करने के लिए......तानसेन में इतनी क्षमता थी कि मल्हार गाके वर्षा
करा दे, दीपक राग गाके दीपक जला दे और शीतराग से शीतलता पैदा कर दे तो
प्राचीन काल में अगर संगीत से पत्थर मोम बन जाता था, जंगल के जानवर खींचे
चले आते थे कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये बात कोई भी
अनुभव कर सकता हैं की किस तरह दिनों-दिन संगीत-कला विलुप्त होती जा रही हैं
.....और संगीत कला का गुण तो हम भारतियों के खून में हैं .......किशोर
कुमार, उषा मंगेशकर, कुमार सानू जैसे अनगिनत उदाहरण हैं जो बिना किसी से
संगीत की शिक्षा लिए बॉलीवुड में आये थे।
एक और उदहारण हैं जब तानसेन
की बेटी ने रात भर में ही "शीत राग" सीख लिया था.......चूँकि दीपक राग गाते
समय शरीर में इतनी ऊष्मा पैदा हो जाती हैं कि अगर अन्य कोई “शीत राग” ना
गाये तो दीपक राग गाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जायेगी और तानसेन के
प्राण लेने के उद्द्येश्य से ही एक चाल चलकर उसे दीपक राग गाने के लिए
बाध्य किया था उससे इर्ष्या करने वाले दरबारियों ने ..........और तानसेन भी
अपनी मृत्यु निश्चित मान बैठे थे क्योंकि उनके अलावा कोई और इसका ज्ञाता
(जानकार) भी नहीं था और रातभर में सीखना संभव भी ना था किसी के लिए पर वो
भूल गए थे कि उनकी बेटी में भी उन्ही का खून था और जब पिता के प्राण पर बन
आये तो बेटी असंभव को भी संभव करने कि क्षमता रखती हैं ...... तानसेन के
ऐसे सैकड़ों कहानियां हैं पर ये छोटी सी कहानी मैंने आप लोगों को अपने भारत
के महान संगीत विरासत कि झलक दिखने के लिए लिखी.......अब सोचिये कि ऐसे
में अगर विदेशी हमें संगीत कि समझ कराये तो ऐसा ही हैं जैसे पोता, दादा जी
को धोती पहनना सिखाये, राक्षस साधू-महात्माओं को धर्म का मर्म समझाए और शेर
किसी हिरन को अपने पंजे में दबाये अहिंसा कि शिक्षा दे ......नहीं..??
हम लोगों के यहाँ सात सुर से संगीत बनता हैं इसलिए 'सात तारों से बना
सितार' बजाते हैं हमलोग, लेकिन अंग्रेजों को क्या समझ में आ गया जो छह तार
वाला वाध्य-यंत्र बना लिया और सितार कि तर्ज पर उन्सका नामकरण गिटार कर
दिया ??
इतना कहने के बाद भी हमारे भारतीय नहीं मानेगे मेरी बात
पर जब कोई अंग्रेज कहेगा कि उसने गायों को भारतीय संगीत सुनाया तो ज्यादा
दूध लिया या जब शोध सामने आएगा कि भारतीय संगीत का असर फसलों पर पड़ता हैं
और वे जल्दी-जल्दी बढ़ने लगते हैं तब हम विश्वास करेंगे.... क्यों ?? ये सब
शोध अंग्रेज को भले आश्चर्यचकित कर दे पर अगर ये शोध किसी भारतीय को
आश्चर्यचकित करते हैं तो ये दुःख: कि बात हैं।
हमारे देश वासियों
को लगता हैं हम लोग पिछड़े हुए हैं जो हमारे यहाँ छोटे-छोटे घर हैं और
दूसरी और अंग्रेज तकनीकी विद्या के कितने ज्ञानी हैं, वो खुशनसीब हैं जो
उनके यहाँ इतनी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाए (Buildings) हैं और इतने बड़े-बड़े
पुल हैं........ इस पर मैं अपने देशवासियों से यहीं कहूँगा कि ऊँचे घर
बनाना मज़बूरी और जरुरत हैं उनकी, विशेषता नहीं..... हमलोग बहुत भाग्यशाली
हैं जो अपनी धरती माँ कि गोद में रहते हैं विदेशियों कि तरह माँ के सर पर
चढ़ कर नहीं बैठते।
हम लोगों को घर के छत, आँगन और द्वार का सुख
प्राप्त होता हैं .....जिसमें गर्मी में सुबह-शाम ठंडी-ठंडी हवा जो हमें
प्रकृति ने उपहार-स्वरूप प्रदान किये हैं उसका आनंद लेते हैं और ठण्ड में
तो दिन-दिन भर छत या आँगन में बैठकर सूर्य देव कि आशीर्वाद रूपी किरणों को
अपने शारीर में समाते हैं, विदेशियों कि तरह धुप सेंकने के लिए नंगे होकर
समुन्द्र के किनारे रेत पर लेटते नहीं हैं.............रही बात क्षमता कि
तो जरुरत पड़ने पर हमने समुन्द्र पर भी पत्थरों का पुल बनाया था और रावण तो
पृथ्वी से लेकर स्वर्ग तक सीढ़ी बनाने कि तैयारी कर रहा था तो अगर वो
चाहता तो गगनचुम्बी इमारते भी बना सकता था लेकिन अगर नहीं बनाया तो इसलिए
कि वो विद्वान था।
तथ्यपूर्ण बात तो ये हैं कि हम अपनी धरती माँ के
जितने ही करीब रहेंगे रोगों से उतना ही दूर रहंगे और जितना दूर रहेंगे
रोगों के उतना करीब जायेंगे। हमारे मित्रों को इस बात कि भी शर्म महसूस
होती हैं कि हम लोग कितने स्वार्थी, बेईमान, झूठे, मक्कार, भ्रष्टाचारी और
चोर होते हैं जबकि अंग्रेज लोग कितने ईमानदार होते हैं ....हम लोगों के
यहाँ कितनी धुल और गंदगी हैं जबकि उनके यहाँ तो लोग महीने में एक-दो बार ही
झाड़ू मारा करते हैं.......तो जान लीजिये कि वैज्ञानिक शोध ये कहती हैं कि
साफ़ सुथरे पर्यावरण में पलकर बड़े होने वाले शिशु कमजोर होते हैं, उनके
अन्दर रोगों से लड़ने कि शक्ति नहीं होती दूसरी तरफ दूषित वातावरण में पलकर
बढ़ने वाले शिशु रोगों से लड़ने के लिए शक्ति संपन्न होते हैं। इसका अर्थ
ये मत लगा लीजियेगा कि मैं गंदगी पसंद आदमी हूँ, मैं भारत में गंदगी को
बढ़ावा दे रहा हूँ ........मेरा अर्थ ये हैं कि सीमा से बाहर शुद्धता भी
अच्छी नहीं होती और जहाँ तक भारत कि बात हैं तो यहाँ हद से ज्यादा गंदगी
हैं जिसे साफ़ करने कि अत्यंत आवश्यकता हैं.......रही बात झाड़ू मारने कि
तो घर गन्दा हो या ना हों झाड़ू तो रोज मारना ही चाहिए क्योंकि झाड़ू मारकर
हम सिर्फ धुल-गंदगी को ही बाहर नहीं करते बल्कि अपशकुन को भी झाड -फुहाड़
कर बाहर कर देते हैं तभी तो हम गरीब होते हुए भी खुश रहते हैं।
भारतीय
को समृद्धि कि सूची में पांचवे स्थान पर रखा गया था क्योंकि ये पैसे के
मामले में भले कम हैं लेकिन और लोगो से ज्यादा सुखी हैं और जहाँ तक हमारे
ऐसे बनने की बात है तो वो सब अंग्रेजों ने ही सिखाया है हमें, नहीं तो उसके
आने के पहले हम छल-कपट जानते तक नहीं थे........उन्होंने हमें धर्म-विहीन
और चरित्र-विहीन शिक्षा देना शुरू किया ताकि हम हिन्दू धर्म से घृणा करने
लगे और ईसाई बन जाए।
उन्होंने नौकरी आधारित शिक्षा व्यवस्था लागू की
ताकि बच्चे नौकरी करने कि पढाई के अलावा और कुछ सोच ही न पाए. इसका परिणाम
तो देख ही रहे हैं कि अभी के बच्चे को अगर चरित्र, धर्म या देशहित के बारे
में कुछ कहेंगे तो वो सुनना ही नहीं चाहता..........वो कहता है उसे अभी
सिर्फ अपने कोर्स कि किताबों से मतलब रखना हैं और किसी चीज़ से कोई मतलब
नहीं उसे......अभी कि शिक्षा का एकमात्र उद्द्येश्य नौकरी पाना रह गया हैं
....लोगो को किताबी ज्ञान तो बहुत मिल जाता हैं कि वो ……
डॉक्टर,
इंजिनियर, वकील, आई.ए.एस. या नेता बन जाता हैं पर उसकी नैतिक शिक्षा
न्यूनतम स्तर कि भी नहीं होती जिसका कारण रोज एक-से-बढ़कर एक अपराध और
घोटाले करते रहते हैं ये लोग। अभी कि शिक्षा पाकर बच्चे नौकरी पा लेते हैं
लेकिन उनका मानसिक और बौद्धिक विकास नहीं हो पाता हैं, इस मामले में वो
पिछड़े ही रह जाते हैं जबकि हमारी सभ्यता में ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे
उस व्यक्ति के पूर्ण व्यक्तिगत का विकास होता था.....उसकी बुद्धि का विकास
होता था, उसकी सोचने-समझने कि शक्ति बढती थी।
आज ये अंग्रेज जो पूरी
दुनिया में ढोल पिट रहे हैं कि ईसाईयत के कारण ही वो सभ्य और विकसित हुए और
उनके यहाँ इतनी वैज्ञानिक प्रगति हुई तो क्या इस बात का उत्तर हैं उनके
पास कि कट्टर और रुढ़िवादी ईसाई धर्म जो तलवार के बल पर 25-50 कि संख्या से
शुरू होकर पूरा विश्व में फैलाया गया, जो ये कहता हो कि सिर्फ बाईबल पर
आँख बंदकर भरोसा करने वाले लोग ही स्वर्ग जायेंगे बाकी सब नर्क
जाएंगे,,,जिस धर्म में बाईबल के विरुद्ध बोलने कि हिम्मत बड़ा से बड़ा
व्यक्ति भी नहीं कर सकता वो इतना विकासशील कैसे बन गया ???
400 साल
पहले जब गैलीलियों ने यूरोप की जनता को इस सच्चाई से अवगत कराना चाहा कि
पृथ्वी सूर्य कि परिक्रमा करती हैं तो ईसाई धर्म-गुरुओं ने उसे खम्बे से
बांधकर जीवित जलाये जाने का दंड दे दिया वो तो बेचारा क्षमा मांगकर बाल-बाल
बचा। एक और प्रसिद्ध पोप, उनका नाम मुझे अभी याद नहीं, वे भी मानते थे कि
पृथ्वी सूर्य के चारो और घुमती हैं लेकिन जीवन भर बेचारे कभी कहने की
हिम्मत नहीं जुटा पाए...उनके मरने के बाद उनकी डायरी से ये बात पता चली।
क्या ऐसा धर्म वैज्ञानिक उन्नति में कभी सहायक हो सकता हैं ??? ये तो सहायक
की बजाय बाधक ही बन सकता हैं।
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हिन्दू जैसे खुले धर्म को जिसे गरियाने की पूरी स्वतंत्रता मिली हुई हैं
सबको, जिसमें कोई मूर्ति-पूजा करता हैं, कोई ध्यान-साधना, कोई
तन्त्र-साधना, कोई मन्त्र-साधना ....... ऐसे अनगिनत तरीके हैं इस धर्म में,
जिस धर्म में कोई बंधन नहीं ..जिसमें नित नए खोज शामिल किये जा सकते हैं
और समय तथा परिस्थिति के अनुसार बदलाव करने की पूरी स्वतंत्रता हैं, जिसने
सिर्फ पूजा-पाठ ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला सिखाई, 'वसुधैव कुटुम्बकम'
का नारा दिया, पूरे विश्व को अपना भाई माना, जिसने अंक शास्त्र,
ज्योतिष-शास्त्र, आयुर्वेद-शास्त्र, संगीत-कला, भवन निर्माण कला, काम-कला
आदि जैसे अनगिनत कलाएं तुम लोगों (ईसाईयों) को दी और तुम लोग कृतघ्न, जो
नित्यकर्म के बाद अपने गुदा को पानी से धोना भी नहीं जानते, हमें ही
गरियाकर चले गए।
अगर ईसाई धर्म के कारण ही तुमने तरक्की की तो वो तो
1800 साल पहले कर लेनी चाहिए थी, पर तुमने तो 200-300 साल पहले जब सबको
लूटना शुरू किया और यहाँ (भारत) के ज्ञान को सीख-सीखकर यहाँ के धन-दौलत को
हड़पना शुरू किया तबसे तुमने तरक्की की ऐसा क्यों ???
ये दुनिया करोडों
वर्ष पुरानी हैं लेकिन तुम लोगों को 'ईसा और मुहम्मद' के पहले का इतिहास
पता ही नहीं ......कहते हो बड़े-बड़े विशाल भवन बना दिए तुमने.....अरे जाओ,
जब आज तक पिछवाडा धोना सीख ही नहीं पाए, खाना बनाना सीख ही नहीं पाए, जो
की अभी तक उबालकर नमक डालकर खाते तो बड़े-बड़े भवन बनाओगे तुम। एक भी
ग्रन्थ तुम्हारे पास-भवन निर्माण के ?? जो भी छोटे-मोटे होंगे वो हमारे ही
नक़ल किये हुए होंगे।
प्रोफ़ेसर ओक ने तो सिद्ध कर दिया की भारत
में जितने प्राचीन भवन हैं वो हिन्दू भवन या मंदिर हैं जिसे मुस्लिम शासकों
ने हड़प कर अपना नाम दे दिया और विश्व में भी जो बड़े-बड़े भवन हैं उसमें
हिन्दू शैली की ही प्रधानता हैं। ये भी हंसी की ही बात हैं की मुग़ल शासक
महल नहीं सिर्फ मकबरे और मस्जिद ही बनवाया करते थे भारत में। जो हमेशा
गद्दी के लिए अपने बाप-भाईयों से लड़ता-झगड़ता रहता था, अपना जीवन युद्ध
लड़ने में बिता दिया करते थे उसके मन में अपने बाप या पत्नी के लिए विशाल
भवन बनाने का विचार आ जाया करता था !! इतना प्यार करता था अपनी पत्नी से
जिसको बच्चा पैदा करवाते करवाते मार डाला उसने !! मुमताज़ की मौत बच्चा
पैदा करने के दौरान ही हुई थी और उसके पहले वो 14 बच्चे को जन्म दे चुकी थी
......जो भारत को बर्बाद करने के लिए आया था, यहाँ के नागरिकों को लूटकर,
लाखों-लाख हिन्दुओं को काटकर और यहाँ के मंदिर और संस्कृतिक विरासत को
तहस-नहस करके अपार खुशी का अनुभव करता था वो यहाँ कोई सृजनात्मक विरासत
कार्य करे ये तो मेरे गले से नहीं उतर सकता। जिसके पास अपना कोई स्थापत्य
कला का ग्रन्थ नहीं हैं वो भारत की स्थापत्य कला को देखकर ये कहने को मजबूर
हो गया था की भारत इस दुनिया का आश्चर्य हैं इसके जैसा दूसरा देश पूरी
दुनिया में कहीं नहीं हो सकता हैं, वो लोग अगर ताजमहल बनाने का दावा करते
हैं तो ये ऐसा ही हैं जैसा 3 साल के बच्चे द्वारा दसवीं का प्रश्न हल करना।
दुःख तो ये हैं की आज़ाद देश आज़ाद होने के बाद भी मुसलमानों को खुश रखने
के लिए इतिहास में कोई सुधर नहीं किये, हमारे मुसलमान और ईसाई भाइयों के
मूत्र-पान करने वाले हमारे राजनितिक नेताओं ने। आज जब ये सिद्ध हो चूका हैं
की ताजमहल शाहजहाँ ने नहीं बनवाया बल्कि उससे सौ-दो-सौ साल पहले का बना
हुआ हैं तो ऐसे में अगर सरकार सच्चाई लाने की हिम्मत करती तो क्या हम
भारतीय गर्व का अनुभव नहीं करते ? क्या हमारी हीन भावना दूर होने में मदद
नहीं मिलती? ताजमहल साथ आश्चर्यों में से एक हैं ये सब जानते हैं पर सात
आश्चर्यों में ये क्यों शामिल हैं ये कितने लोग जानते हैं ? इसके शामिल
होने का कारण इसकी उत्कृष्ट स्थापत्य कला, इसकी अदभुत कारीगरी को अब तक
आधुनिक इंजीनियर समझने की कोशिश कर रहे हैं। जिस प्रकार कुतुबमीनार के
लौह-स्तम्भ की तकनीक को समझने की कोशिश कर रहे हैं......जो की अब तक समझ
नहीं पाए हैं। (इस भुलावे में मत रहिएगा की कुतुबमीनार को कुतुबद्दीन एबक
ने बनवाया था)...... मोटी-मोटी तो मैं इतना ही जानता हूँ की यमुना नहीं के
किनारे के गीली मुलायम मिटटी को इतने विशाल भवन के भार को सेहन करने लायक
बनाना, पूरे में सिर्फ पत्थरों का काम करना समान्य सी बात नहीं हैं
.........इसको बनाने वाले इंजिनियर के इंजीनियरिंग प्रतिभा को देखकर अभी के
इंजीनियर दांतों तले ऊँगली दबा रहे हैं। अगर ये सब बातें जनता के सामने
आएगी तभी तो हम अपना खोया आत्मविश्वास प्राप्त कर पायेंगे ........1200
सालों तक हमें लूटते रहे, लूटते रहे, लूटते रहे और जब लुट-खसौट कर कंगाल कर
दिया तब अब हमें एहसास करा रहे हों की हम कितने दीन-हीन हैं और ऊपर से
हमें इतिहास भी गलत पढ़ा रहे हैं इस डर से की कहीं फिर से अपने पूर्वजों का
गौरव इतिहास पढ़कर हम अपना आत्मविश्वास ना पा लें। अरे, अगर हिम्मत हैं तो
एक बार सही इतिहास पढ़कर देखों हमें.....हम स्वाभिमानी भारतीय जो सिर्फ
अपने वचन को टूटने से बचाने के लिए जान तक गवां देते थे इतने दिनों तक
दुश्मनों के अत्याचार सहते रहे तो ऐसे में हमारा आत्म-विश्वास टूटना
स्वभाविक ही हैं .....हम भारतीय जो एक-एक पैसे के लिए, अन्न के एक-एक दाने
के लिए इतने दिनों तक तरसते रहे तो आज हीन भावना में डूब गए, लालची बन गए,
स्वार्थी बन गए तो ये कोई शर्म की बात नहीं........ऐसी परिस्थिति में तो
धर्मराज युधिष्ठिर के भी पग डगमगा जाएँ....आखिर युधिष्ठिर जी भी तो बुरे
समय में धर्म से विचलित हो गए थे जो अपनी पत्नी तक को जुए में दावं पर लगा
दिए थे।
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* चलिए इतिहास तो बहुत हो गया अब वर्तमान पर आते हैं *
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वर्तमान में आप लोग देख ही रहे हैं कि विदेशी हमारे यहाँ से
डाक्टर-इंजिनियर और मैनेजर को ले जा रहे हैं इसलिए कि उनके पास हम भारतियों
कि तुलना में दिमाग बहुत ही कम हैं। आप लोग भी पेपरों में पढ़ते रहते
होंगे कि अमेरिका में गणित पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी हो जाती हैं जिसके
लिए वो भारत में शिक्षक की मांग करते हैं तो कभी ओबामा भारतीय बच्चो की
प्रतिभा से डर कर अमेरिकी बच्चो को सावधान होने की नसीहत देते हैं ।
पूर्वजों द्वारा लुटा हुआ माल हैं तो अपनी कंपनी खड़ी कर लेते हैं लेकिन
दिमाग कहाँ से लायेंगे....उसके लिए उन्हें यहीं आना पड़ता हैं ....हम
बेचारे भारतीय गरीब पैसे के लालच में बड़े गर्व से उनकी मजदूरी करने चले
जाते थे, पर अब परिस्थिति बदलनी शुरू हो गयी हैं। अब हमारे युवा भी विदेश
जाने की बजाय अपने देश की सेवा करना शुरू कर दिए हैं ....वो दिन दूर नहीं
जब हमारे युवाओं पर टिके विदेशी फिर से हमारे गुलाम बनेंगे। फिर से इसलिए
कह रहा हूँ क्योंकि पूरे विश्व पर पहले हमारा शासन चलता था जिसका इतिहास
मिटा दिया गया हैं ........लेकिन जिस तरह सालों पहले हुई हत्या जिसकी खूनी
ने अपनी तरफ से सारे सबूत मिटा देने की भरसक कोशिश की हो, उसकी जांच अगर की
जाती हैं तो कई सुराग मिल जाते हैं जिससे गुत्थी सुलझ ही जाती हैं, बिलकुल
यहीं कहानी हमारे इतिहास के साथ भी हैं जिस तरह अब हमारे युवा विदेशों के
करोड़ों रुपये की नौकरी को ठुकराकर अपने देश में ही इडली, बड़ा पाव सब्जी
बेचकर या चालित शौचालय, रिक्शा आदि का कारोबार कर करोड़ों रुपये सालाना कम
रहे हैं, ये संकेत हैं की अब हमारे युवा अपना खोया आत्म-विशवास प्राप्त कर
रहे हैं और उनमे नेतृत्व क्षमता भी लौट चुकी हैं तो वो दीन भी दूर नहीं जब
पूरे विश्व का नेतृत्व फिर से हम भारतियों के हाथों में होगा और हम पुन:
विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीन होंगे। जिस तरह हरेक के लिए दिन के बाद रात
और रात के बाद दिन आता है वैसे हम लोगों के 1200 सालों से ज्यादा रात का
समय कट चुका हैं अब दिन निकल आया हैं ...इसका उदाहरण देख लो भारत का झारखंड
राज्य जहां जनसँख्या 3 करोड़ की नहीं हैं और यहाँ 14,000 करोड़ का घोटाला
हो जाता हैं फिर भी ये राज्य प्रगति कर रहा है।
इसलिए अपने पराधीन
मानसिकता से बाहर आओ, डर को निकालों अपने अन्दर से हमें किसी दूसरे का
सहारा लेकर नहीं चलना हैं। खुद हमारे पैर ही इतने मजबूत हैं की पूरी दुनिया
को अपने पैरों तले रौंद सकते हैं हम ...हम वही हैं जिसने विश्वविजेता का
सपना देखने वाले सिकन्दर का दंभ चूर-चूर कर दिया था। गौरी को 13 बार अपने
पैरों पर गिराकर गिडगिडाने को मजबूर किया और जीवनदान दिया। जिस प्रकार
बिल्ली चूहे के साथ खेलती रहती हैं वैसे ही ये दुर्भाग्य था हमारा जो शत्रू
के चंगुल में फंस गए क्योंकि उस चूहे ने अपनों की ही सहायता ले ली पर हमने
उसे छोड़ा नहीं, अँधा हो जाने के बावजूद भी उसे मारकर मरे........जिस
प्रकार जलवाष्प की नन्ही-नन्ही पानी की बूंदें भी एकत्रित हो जाने पर घनघोर
वर्षा कर प्रलय ला देती है, अदृश्य हवा भी गति पाकर भयंकर तबाही मचा देती
है, नदी-नाले की छोटी लहरें नदी में मिलकर एक होती है तो गर्जना करती हुई
अपने आगे आने वाली हरेक अवरोधों को हटाती हुई आगे बढती रहती है वैसे ही मैं
अभी भले ही जलवाष्प की एक छोटी सी बूंद हूँ, पर अगर आप लोग मेरा साथ दो तो
इसमें कोई शक नहीं की हम भारतीय फिर से इस दुनिया को अपने चरणों में झुका
देंगे....... और मुझे पता हैं दोस्त.........मेरे जैसी करोड़ों बूंदें एकृत
होकर बरसने को बेकरार हैं इसलिए अब और ज्यादा विलंब ना करो और मेरे हाँथ
में अपना हाँथ दो मित्र और अगर किसी को इस लेख से किसी भी प्रकार की चोट
पहुंचाई तो उसके लिए भी क्षमा मांगता हूँ।
मैं गर्व से कह सकता हूँ मैं भारतीय हूँ
मेरा भारत महान
जय माँ भारती