भारत को बदलने के षडयंत्र
हमारे देश में नये त्योहारों को लाया जा रहा है। टीचर्स डे, फादर डे, फ्रेंड्स डे, मदर डे आदि डे बनाने की एक शृंखला बनायी जा रही है। कोई पता नहीं कि कहां से इनका निर्धारण व संचालन होता है, तिथियां निश्चित की जाती हैं
पहले लुप्त हुये देवनागरी अंक
भारत को ‘इंडिया’ में बदलने के कुप्रयास अब तीव्रता के साथ सफल हो रहे हैं। इस बदलने के क्रम में मात्र संस्कृति ही निशाने पर नहीं है, बल्कि हमारी भाषा, त्योहार, खान-पान, पहनावा, सोच, पारिवारिक संबंध भी हैं। भारत जब स्वतंत्र हुआ, तभी से इन षडयंत्रों का आरम्भ होना प्रारम्भ हो गया था। भारत की राजनीति में षडयंत्र कैसे-कैसे चलते हैं, इसकी कल्पना करना कठिन तो अवश्य है लेकिन असंभव नहीं है। मैंने स्वतंत्रता से पूर्व की ऐसी कई पत्र-पत्रिकाएं देखी हैं जो हिन्दी पढ़ने के लिये रोमन लिपि में थीं। जब भारत के संविधान के बनने का समय आया, तब भी रोमन लिपि की लाबी इतनी शक्तिशाली थी कि राजभाषा में अंक मात्र देवनागरी में न होकर मात्र रोमन लिपि में ही लिखे जायें, यह प्रावधान संविधान में दर्ज करवाने में सफल हो गयी।
अब देवनागरी लिपि की बारी
आज देवनागरी के अंकों को लिखना तो दूर, आम लोग तो इसे बोल भी नहीं पाते। पहले सप्ताह के दिन और देसी मास के नामों का हिन्दी में प्रचलन था, पर अब बोलने पर विशेष रूप में नव पीढ़ी के लिये इन्हें समझना तक कठिन है। पत्र लिखने की परंपरा समाप्त हो रही है, अब इसका स्थान एसएमएस और ई-मेल ने ले लिया है। विश्व के सभी देशों में एसएमएस और ई-मेल के लिये वहां की राष्ट्रभाषा का प्रयोग होता है, लेकिन हमारे देश में अभी तक मोबाइल फोन के लिये सूचना और संचार मंत्रालय ने देवनागरी भाषा का मानकीकरण नहीं किया, जिसे अनिवार्य रूप से सभी मोबाइल कंपनियों को लागू करने के लिये कहा जाये। इस कार्य में हो रही देरी का परिणाम यह है कि लोगों को विवश होकर रोमन लिपि में ही अपनी भाषा के संदेश भेजने पड़ते हैं, जिन्हें पढ़ना कठिन होता है। इंटरनेट पर अभी तक सरकारी नोटिफिकेशन के निकलने के पश्चात 20 वर्ष हो गये, पर ऐसा देवनागरी संस्करण नहीं बना पाये, जबकि देवनागरी लिपि के माध्यम से भारतीय भाषाओं को ही नहीं, बल्कि श्रीलंका, तिब्बत, म्यांमार (पूर्व का बर्मा), इंडोनेशिया, मलेशिया देशों की लिपि को भी देवनागरी पर आधारित होने के कारण जोड़ा जा सकता है, जिससे एक भाषा से दूसरी भाषा का भाषांतरण होना सहज और सरल हो जायेगा। लेकिन पिछले 20 वर्षों में एक नई पीढ़ी अंग्रेजी न जानने के बावजूद भी रोमन लिपि में संदेश भेजने में अभ्यस्त हो चुकी है। धीरे-धीरे देवनागरी लिपि उनके लिए लिखना एकदम असंभव और पढ़ना कठिन हो जायेगा। मान लिया जाये कि अगर यही क्रम बना रहा तो देवनागरी लिपि भी देवनागरी के अंकों की भांति हमारे देश से सदैव के लिये विदा हो जायेगी।
त्योहार/भारतीय अस्मिता भी निशाने पर
अब धीरे-धीरे भारतीय त्योहारों को समाप्त किया जा रहा है और उनके स्थान पर नये-नये अंग्रेजी त्योहारों को लाया जा रहा है। यही स्थिति हमारी वेशभूषा की है। पहले पुरुषों ने पैंट/पतलून और कमीज पहननी आरंभ की, लेकिन भारतीय नारी ने अपनी भारतीयता गौरवमयी ढंग से बना कर रखी। अब जिस वेशभूषा को पहन कर घर के पुरुष भी शर्म महसूस करते हैं, घर की लड़कियां विद्यालयों और महाविद्यालयों में रूटीन में पहन कर जाती हैं कि देखने वाले की ही नजर शर्म से झुक जाये। शालीनता, शर्म और लाज जैसे शब्द सभ्य समाज के गुण हैं। ‘मदर इंडिया’ फिल्म का एक गाना था- ‘संसार में लाज ही नारी का धर्म है, जिन्दा है जो वो इज्जत से मरेगा।’ अब सुनने को मिलता है- ‘सैक्सी-सैक्सी मुझे लोग कहें….।’ जैसे कि वो बाजार में कोई बिकने वाली वस्तु हो। इसी तरह फास्ट-फूड लोगों के शरीर में विष घोल रहा है। लोग इसे समझ भी रहे हैं, लेकिन मार्केटिंग की आंधी में अपने को इससे बचा नहीं पा रहे हैं।
हमारे देश में नये त्योहारों को लाया जा रहा है। टीचर्स डे, फादर डे, प्रफेंड्स डे, मदर डे आदि डे बनाने की एक शृंखला बनायी जा रही है। कोई पता नहीं कि कहां से इनका निर्धारण व संचालन होता है, तिथियां निश्चित की जाती हैं। मीडिया में तुरन्त इन डे-त्योहारों का धुआंधार प्रचार किया जाता है और देखते-देखते युवा पीढ़ी पर ये पश्चिम प्रेरित त्योहार छा जाते हैं। भारतीय त्योहारों में जो पवित्रता होती है, वह इन त्योहारों में नहीं दिखती।
वास्तव में तर्कों और कुतर्कों की कमी नहीं है। कहा जाता है कि यह आधुनिकता है। क्या पश्चिम की नकल करने को आधुनिकता कहा जाना उचित है? अगर आधुनिकता दिन-ब-दिन विकसित हो रहे आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरती है तो उसे अपनाने में कोई कठिनाई नहीं है। पर यहां तो इस पश्चिमी आधुनिकता से एड्स जैसे रोग समाज में पनप रहे हैं।
आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर
हमारी भाषा में हमारी संस्कृति छिपी है। आज से 40 वर्ष पूर्व योग जानने वाले लोग कितने थे? संस्कृत ने विश्व को योग, प्राणायाम और आयुर्वेद दिये। इसी कड़ी में नाड़ी विज्ञान भी है। मात्र नाड़ी की चाल से किसी भी रोग व शरीर की दशा को बिना किसी एक्सरे या स्कैन के बिना समय खोये जाना जा सकता है। हमारे त्योहार मौसम, जलवायु और सामाजिक आश्यकताओं को पूरा करते हैं। सामाजिक समरसता को पैदा करते हैं। हां, समय के अनुसार उसमें परिवर्तन भी किये जा रहे हैं जो उसे आधुनिक बनाते हैं। जीवन शैली को आधुनिक बनाने का अर्थ यह नहीं है कि पश्चिम की आंख बंद करके नकल की जाये। आज पश्चिमी देशों की गली-गली में भारतीय जीवन पध्दति को अपनाया जा रहा है। न्यूयार्क स्कायर की सड़कों पर योग हो रहा है। पश्चिम भारत के विज्ञान को अपना रहा है और हम उसका सड़ा-गला खाने में भी नहीं हिचकचा रहे हैं।
आशा की किरण
इस षडयंत्र में भारत का मीडिया मार्केट के दलालों के साथ बुरी तरह से मिला हुआ है व उनके पैरोकार भारत की राजनीति में जगह-जगह पर देखे जा सकते हैं। फिर भी आशा की एक किरण है- जिस प्रकार पश्चिम ने अपने पैदा किये हुये भस्मासुर को समझा है और उससे निपट भी रहा है, शायद निकट भविष्य में हमारे देश के जनमानस को भी यह भस्मासुर समझ में आये।
हमारे देश में नये त्योहारों को लाया जा रहा है। टीचर्स डे, फादर डे, फ्रेंड्स डे, मदर डे आदि डे बनाने की एक शृंखला बनायी जा रही है। कोई पता नहीं कि कहां से इनका निर्धारण व संचालन होता है, तिथियां निश्चित की जाती हैं
पहले लुप्त हुये देवनागरी अंक
भारत को ‘इंडिया’ में बदलने के कुप्रयास अब तीव्रता के साथ सफल हो रहे हैं। इस बदलने के क्रम में मात्र संस्कृति ही निशाने पर नहीं है, बल्कि हमारी भाषा, त्योहार, खान-पान, पहनावा, सोच, पारिवारिक संबंध भी हैं। भारत जब स्वतंत्र हुआ, तभी से इन षडयंत्रों का आरम्भ होना प्रारम्भ हो गया था। भारत की राजनीति में षडयंत्र कैसे-कैसे चलते हैं, इसकी कल्पना करना कठिन तो अवश्य है लेकिन असंभव नहीं है। मैंने स्वतंत्रता से पूर्व की ऐसी कई पत्र-पत्रिकाएं देखी हैं जो हिन्दी पढ़ने के लिये रोमन लिपि में थीं। जब भारत के संविधान के बनने का समय आया, तब भी रोमन लिपि की लाबी इतनी शक्तिशाली थी कि राजभाषा में अंक मात्र देवनागरी में न होकर मात्र रोमन लिपि में ही लिखे जायें, यह प्रावधान संविधान में दर्ज करवाने में सफल हो गयी।
अब देवनागरी लिपि की बारी
आज देवनागरी के अंकों को लिखना तो दूर, आम लोग तो इसे बोल भी नहीं पाते। पहले सप्ताह के दिन और देसी मास के नामों का हिन्दी में प्रचलन था, पर अब बोलने पर विशेष रूप में नव पीढ़ी के लिये इन्हें समझना तक कठिन है। पत्र लिखने की परंपरा समाप्त हो रही है, अब इसका स्थान एसएमएस और ई-मेल ने ले लिया है। विश्व के सभी देशों में एसएमएस और ई-मेल के लिये वहां की राष्ट्रभाषा का प्रयोग होता है, लेकिन हमारे देश में अभी तक मोबाइल फोन के लिये सूचना और संचार मंत्रालय ने देवनागरी भाषा का मानकीकरण नहीं किया, जिसे अनिवार्य रूप से सभी मोबाइल कंपनियों को लागू करने के लिये कहा जाये। इस कार्य में हो रही देरी का परिणाम यह है कि लोगों को विवश होकर रोमन लिपि में ही अपनी भाषा के संदेश भेजने पड़ते हैं, जिन्हें पढ़ना कठिन होता है। इंटरनेट पर अभी तक सरकारी नोटिफिकेशन के निकलने के पश्चात 20 वर्ष हो गये, पर ऐसा देवनागरी संस्करण नहीं बना पाये, जबकि देवनागरी लिपि के माध्यम से भारतीय भाषाओं को ही नहीं, बल्कि श्रीलंका, तिब्बत, म्यांमार (पूर्व का बर्मा), इंडोनेशिया, मलेशिया देशों की लिपि को भी देवनागरी पर आधारित होने के कारण जोड़ा जा सकता है, जिससे एक भाषा से दूसरी भाषा का भाषांतरण होना सहज और सरल हो जायेगा। लेकिन पिछले 20 वर्षों में एक नई पीढ़ी अंग्रेजी न जानने के बावजूद भी रोमन लिपि में संदेश भेजने में अभ्यस्त हो चुकी है। धीरे-धीरे देवनागरी लिपि उनके लिए लिखना एकदम असंभव और पढ़ना कठिन हो जायेगा। मान लिया जाये कि अगर यही क्रम बना रहा तो देवनागरी लिपि भी देवनागरी के अंकों की भांति हमारे देश से सदैव के लिये विदा हो जायेगी।
त्योहार/भारतीय अस्मिता भी निशाने पर
अब धीरे-धीरे भारतीय त्योहारों को समाप्त किया जा रहा है और उनके स्थान पर नये-नये अंग्रेजी त्योहारों को लाया जा रहा है। यही स्थिति हमारी वेशभूषा की है। पहले पुरुषों ने पैंट/पतलून और कमीज पहननी आरंभ की, लेकिन भारतीय नारी ने अपनी भारतीयता गौरवमयी ढंग से बना कर रखी। अब जिस वेशभूषा को पहन कर घर के पुरुष भी शर्म महसूस करते हैं, घर की लड़कियां विद्यालयों और महाविद्यालयों में रूटीन में पहन कर जाती हैं कि देखने वाले की ही नजर शर्म से झुक जाये। शालीनता, शर्म और लाज जैसे शब्द सभ्य समाज के गुण हैं। ‘मदर इंडिया’ फिल्म का एक गाना था- ‘संसार में लाज ही नारी का धर्म है, जिन्दा है जो वो इज्जत से मरेगा।’ अब सुनने को मिलता है- ‘सैक्सी-सैक्सी मुझे लोग कहें….।’ जैसे कि वो बाजार में कोई बिकने वाली वस्तु हो। इसी तरह फास्ट-फूड लोगों के शरीर में विष घोल रहा है। लोग इसे समझ भी रहे हैं, लेकिन मार्केटिंग की आंधी में अपने को इससे बचा नहीं पा रहे हैं।
हमारे देश में नये त्योहारों को लाया जा रहा है। टीचर्स डे, फादर डे, प्रफेंड्स डे, मदर डे आदि डे बनाने की एक शृंखला बनायी जा रही है। कोई पता नहीं कि कहां से इनका निर्धारण व संचालन होता है, तिथियां निश्चित की जाती हैं। मीडिया में तुरन्त इन डे-त्योहारों का धुआंधार प्रचार किया जाता है और देखते-देखते युवा पीढ़ी पर ये पश्चिम प्रेरित त्योहार छा जाते हैं। भारतीय त्योहारों में जो पवित्रता होती है, वह इन त्योहारों में नहीं दिखती।
वास्तव में तर्कों और कुतर्कों की कमी नहीं है। कहा जाता है कि यह आधुनिकता है। क्या पश्चिम की नकल करने को आधुनिकता कहा जाना उचित है? अगर आधुनिकता दिन-ब-दिन विकसित हो रहे आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरती है तो उसे अपनाने में कोई कठिनाई नहीं है। पर यहां तो इस पश्चिमी आधुनिकता से एड्स जैसे रोग समाज में पनप रहे हैं।
आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर
हमारी भाषा में हमारी संस्कृति छिपी है। आज से 40 वर्ष पूर्व योग जानने वाले लोग कितने थे? संस्कृत ने विश्व को योग, प्राणायाम और आयुर्वेद दिये। इसी कड़ी में नाड़ी विज्ञान भी है। मात्र नाड़ी की चाल से किसी भी रोग व शरीर की दशा को बिना किसी एक्सरे या स्कैन के बिना समय खोये जाना जा सकता है। हमारे त्योहार मौसम, जलवायु और सामाजिक आश्यकताओं को पूरा करते हैं। सामाजिक समरसता को पैदा करते हैं। हां, समय के अनुसार उसमें परिवर्तन भी किये जा रहे हैं जो उसे आधुनिक बनाते हैं। जीवन शैली को आधुनिक बनाने का अर्थ यह नहीं है कि पश्चिम की आंख बंद करके नकल की जाये। आज पश्चिमी देशों की गली-गली में भारतीय जीवन पध्दति को अपनाया जा रहा है। न्यूयार्क स्कायर की सड़कों पर योग हो रहा है। पश्चिम भारत के विज्ञान को अपना रहा है और हम उसका सड़ा-गला खाने में भी नहीं हिचकचा रहे हैं।
आशा की किरण
इस षडयंत्र में भारत का मीडिया मार्केट के दलालों के साथ बुरी तरह से मिला हुआ है व उनके पैरोकार भारत की राजनीति में जगह-जगह पर देखे जा सकते हैं। फिर भी आशा की एक किरण है- जिस प्रकार पश्चिम ने अपने पैदा किये हुये भस्मासुर को समझा है और उससे निपट भी रहा है, शायद निकट भविष्य में हमारे देश के जनमानस को भी यह भस्मासुर समझ में आये।