महाकुंभ इलाहबाद......
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सदी के सबसे बड़े धार्मिक आयोजन महाकुंभ का आगाज हो चुका है। गंगा, यमुना
और सरस्वती के संगम तट पर एक नया शहर बस चुका है। करीब 54 दिनों तक चलने
वाले महामेले के लिए शहर में सभी मूलभूत सुविधाओं होंगी। करीब 58 वर्ग
किलोमीटर के क्षेत्र में फैले परिसर को कुल 6 जोन और 14 सेक्टरों में
विभाजित किया गया है। कुंभ मेला 14 जनवरी यानी मकर संक्रांति से शुरू होने
जा रहा है। यह 10 मार्च तक चलेगा, जिसमें करोड़ों लोग भाग लेंगे।
एक नजर तथ्यों पर...
193.5 हेक्टेयर में मेला स्थल।
22 हजार स्ट्रीट लाइट्स।
73 सब-स्टेशन बिजली के।
156 किमी अस्थाई सड़कें बनाईं।
550 किमी पेयजल पाइप बिछाई।
90 हजार लोग रोज आएंगे।
55 दिन चलेगा मेला।
750 स्पेशल ट्रेनें चलाईं।
नागा साधू
प्रयाग की ठण्ड में जब पारा शून्य पर पहुँच गया हो इन नागा साधुओं की देख
कर मन आश्चर्य से भर उठता है। कैसे जब हम इतने सारे स्वेटर , टोपी , शॉल ले
कर भी ठिठुर रहे है और ये सिर्फ भस्म लगा कर मस्त है। सच है फ़क़ीर ही
दुनिया का सबसे अमीर इंसान है।ये आकाश को ही अपना वस्त्र और भूमि को अपना
आसन मानते है।
नागा साधू सिर्फ कुम्भ मेले के दौरान आसानी से देखे जा सकते है अन्यथा ये हिमालय में कठिन स्थानों
पर कड़े अनुशासन में रहते है।इनके क्रोध के कारण मीडिया और आम जनता इनसे
दूर रहती है।पर सच्चाई यह है की ये तभी क्रोध में आते है जब कोई इनसे बुरा
व्यवहार करे। अन्यथा ये अपनी ही मस्ती में रहते है। जब जब कुम्भ मेले
पड़तें हैं तब तब नागा साधुओं की रहस्यमयी जीवन शैली देखने को मिलती है ।
पूरे शरीर मे भभूत मले , निर्वस्त्र तथा बड़ी बड़ी जटाओं वाले नागा साधू
कुम्भ स्नान का प्रमुख आकर्षण होते हैं । कुम्भ के सबसे पवित्र शाही स्नान
मे सब से पहले स्नान का अधिकार इन्हे ही मिलता है , पहले वर्षो कड़ी तपस्या
और वैरागी जीवन जीते हैं इसके बाद नागा जीवन की विलझण परंपरा से दीक्षित
होते है । ये लोग अपने ही हांथों अपना ही श्राद्ध और पिंड दान करते हैं ,
जब की श्राद्ध आदि का कार्य मरणोंपरांत होता है , अपना श्राद्ध और पिंड दान
करने के बाद ही साधू बनते हैऔर सन्यासी जीवन की उच्चतम पराकाष्ठा तथा
अत्यंत विकट परंपरा मे शामिल होने का गौरव प्राप्त होता है ।
भगवान शिव
से जुड़ी मान्यताओं मे जिस तरह से उनके गणो का वर्णन है ठीक उन्ही की तरह
दिखने वाले, हाथो मे चिलम लिए और चरस का कश लगते हुए इन साधुओं को देख कर
आम आदमी एक बारगी हैरत और विस्मयकारी की मिलीजुली भावना से भर उठता है
।ज़रूरी नहीं कि सारे साधू चिलम ही पिएँ, बहुत से कुछ अलग करतब करते भी
नज़र आ जाते है।ये अपने बाल तभी काटते है जब इन्हें कोई सिद्धि प्राप्त हो
जाती है अन्यथा ये भगवान् शिव की भांति जटाएं रखते है। ये लोग उग्र स्वभाओ
के होते हैं, साधु संतो के बीच इनका एक प्रकार का आतंक होता है , नागा लोग
हटी , गुस्सैल , अपने मे मगन और अड़ियल से नजर आते हैं , लेकिन सन्यासियों
की इस परंपरा मे शामील होना बड़ा कठिन होता है और अखाड़े किसी को आसानी से
नागा रूप मे स्वीकार नहीं करते। वर्षो बकायदे परीक्षा ली जाती है जिसमे तप ,
ब्रहमचर्य , वैराग्य , ध्यान ,सन्यास और धर्म का अनुसासन तथा निष्ठा आदि
प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं। फिर ये अपना श्राद्ध , मुंडन और पिंडदान
करते हैं तथा गुरु मंत्र लेकर सन्यास धर्म मे दीक्षित होते है इसके बाद
इनका जीवन अखाड़ों , संत परम्पराओं और समाज के लिए समर्पित हो जाता है,
अपना श्राद्ध कर देने का मतलब होता है सांसरिक जीवन से पूरी तरह विरक्त हो
जाना , इंद्रियों मे नियंत्रण करना और हर प्रकार की कामना का अंत कर देना
होता है। वे पूरी तरह निर्वस्त्र रह कर गुफाओं , कन्दराओं मे कठोर तप करते
हैं । पारे का प्रयोग कर इनकी कामेन्द्रियाँ भंग कर दी जाती हैं”। इस
प्रकार से शारीरिक रूप से तो सभी नागा साधू विरक्त हो जाते हैं लेकिन उनकी
मानसिक अवस्था उनके अपने तप बल निर्भर करती है ।
शंकराचार्य ने
विधर्मियों के बढ़ते प्रचार को रोकने के लिए और सनातन धर्म की रक्षा के लिए
सन्यासी संघो का गठन किया था । कालांतर मे सन्यासियों के सबसे बड़े जूना
अखाड़े मे सन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र और शास्त्र दोनों
मे पारंगत करके संस्थागत रूप प्रदान किया । उद्देश्य यह था की जो शास्त्र
से न माने उन्हे शस्त्र से मनाया जाय । ये नग्ना अवस्था मे रहते थे , इन्हे
त्रिशूल , भाला ,तलवार,मल्ल और छापा मार युद्ध मे प्रशिक्षिण दिया जाता था
। औरंगजेब के खिलाफ युद्ध मे नागा लोगो ने शिवाजी का साथ दिया था , आज
संतो के तेरह अखाड़ों मे सात सन्यासी अखाड़े (शैव) अपने अपने नागा साधू
बनाते हैं :- ये हैं जूना , महानिर्वणी , निरंजनी , अटल ,अग्नि , आनंद और
आवाहन आखाडा ।
जूना के अखाड़े के संतों द्वारा तीनों योगों- ध्यान
योग , क्रिया योग , और मंत्र योग का पालन किया जाता है यही कारण है की
नागा साधू हिमालय के ऊंचे शिखरों पर शून्य से काफी नीचे के तापमान पर भी
जीवित रह लेते हैं, इनके जीवन का मूल मंत्र है आत्मनियंत्रण, चाहे वह भोजन
मे हो या फिर विचारों मे ।
धर्म की रक्षा के जिस उद्देश्य से नागा
परंपरा की स्थापना की गयी थी शायद अब वो समय आ गया है। नागा के धर्म मे
दीक्षित होने के बाद कठोरता से अनुसासन और वैराग्य का पालन करना होता है ,
यदि कोई दोषी पाया गया तो उसके खिलाफ कारवाही की जाती है और दुबारा ग्रहस्थ
आश्रम मे भेज दिया जाता है ।
एक बार एक राजा ने चित्रकारों को बुलाया और कहा—मेरा चित्र बनाओ और जो सबसे बढिया चित्र बनाएगा, उसे पुरस्कृत किया जाएगा।
अनेक चित्रकार आए। राजा सभी की परीक्षा लेता गया। परीक्षा में आखिर तीन चित्रकार ठहरे, शेष सब फेल हो गए। तीनों ने चित्र बनाए।
राजा के सामने पहला चित्र आया। राजा ने देखा तो कहा—चित्र तो बहुत सुन्दर
बना है, पर झूठा बना है। बात यह थी कि राजा था काना। चित्रकार ने सोचा—अब
काना कैसे दिखाऊं? इसलिए दोनों आंखें दिखा दीं। राजा ने कहा, चित्र असत्य
है। मैं असत्य को पसन्द नहीं करता।
दूसरा चित्र देखा, चित्र बहुत
भव्य था। राजा बोला, चित्र तो ठीक है, पर यह नग्न सत्य भी मुझे पसन्द नहीं
है। उस चित्र में राजा को काना दिखाया गया था। राजा ने उसे अस्वीकार कर
दिया।
तीसरा चित्र राजा ने देखा और मुग्ध हो गया। राजा ने कहा,
कितना बढिया चित्र है। चित्रकार ने बड़ी निपुणता के साथ चित्र बनाया था।
चित्रकार ने राजा को शिकार खेलते हुए दिखाया था। हाथ में धनुष। प्रत्यंचा
तनी हुई। मुटी बंधी हुई और उसकी ओट में आंख आ गई है। न तो कानापन दिखाई
देता है और न
ही झूठी बात। दोनों नहीं। राजा ने कहा, यह मुझे पसंद है, सबसे बढिया है और इसको प्रथम पुरस्कार दिया जाना चाहिए।
वह पुरस्कृत हो गया, जिसने सापेक्षता का प्रयोग किया। नग्न सत्य भी काम का
नहीं होता, असत्य भी काम का नहीं होता। सापेक्षता से हमारा व्यवहार चलता है। मूल तत्व और परिवर्तन दोनों को एक साथ में दिखा देना, यह सापेक्षता है।