यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 14 मार्च 2013

शंखपुष्पी -कन्वॉल्व्यूलस प्लूरीकॉलिस

शंखपुष्पी -कन्वॉल्व्यूलस प्लूरीकॉलिस

शंख के समान आकृति वाले श्वेत पुष्प होने से इसे शंखपुष्पी कहते हैं । इसे क्षीर पुष्प (दूध के समान सफेद फूल वाले) मांगल्य कुसुमा (जिसके दर्शन से मंगल माना जाता हो) भी कहते हैं । यह सारे भारत में पथरीली भूमि में जंगली रूप में पायी जाती हैं ।

वानस्पतिक परिचय-
पुष्पभेद से शंखपुष्पी की तीन जातियाँ बताई गई हैं । श्वेत, रक्त, नील पुष्पी । इनमें से श्वेत पुष्पों वाली शंखपुष्पी ही औषधि मानी गई है । शंखपुष्पी के क्षुप प्रसरणशील, छोटे-छोटे घास के समान होते हैं । इसका मूलस्तम्भ बहुवर्षायु होता है, जिससे 10 से 30 सेण्टीमीटर लम्बी, रोमयुक्त, कुछ-कुछ उठी शाखाएँ चारों ओर फैली रहती हैं । जड़ उंगली जैसी मोटी 1-1 इंच लंबी होती है । सिरे पर चौड़ी व नीचे सकरी होती है । अंदर की छाल और लकड़ी के बीच से दूध जैसा रस निकलता है, जिसकी गंध ताजे तेल जैसी दाहक व चरपरी होती है । तना और शाखाएँ सुतली के समान पतली सफेद रोमों से भरी होती हैं । पत्तियाँ 1 से 4 सेण्टीमीटर लंबी, रेखाकार, डण्ठल रहित, तीन-तीन शिराओं से युक्त होती हैं । पत्तियों के मलवे पर मूली के पत्तों सी गंध आती है ।

फूल हल्के गुलाबी रंग के संख्या में एक या दो कनेर के फूलों से मिलती-जुलती गंध वाले होते हैं । फल छोटे-छोटे कुछ गोलाई लिए भूरे रंग के, चिकने तथा चमकदार होते हैं । बीज भूरे या काले रंग के एक ओर तीन धार वाले, दूसरी ओर ढाल वाले होते हैं । बीज के दोनों ओर सफेद रंग की झाई दिखती है । मई से दिसम्बर तक इसमें पुष्प और फल लगते हैं । शेष समय यह सूखी रहती है । गीली अवस्था में पहचानने योग्य नहीं रह पाती । श्वेत पुष्पा शंखपुष्पी के क्षुप दूसरे प्रकारों की अपेक्षा छोटे होते हैं तथा इसके पुष्प शंख की तरह आवर्त्तान्तित होते हैं ।

पहचान एवं मिलावट-
श्वेत, रक्त एवं नील तीनों प्रकार के पौधों की ही मिलावट होती है । शंखपुष्पी नाम से श्वेत, पुष्प ही ग्रहण किए जाने चाहिए । नील पुष्पी नामक (कन्वांल्व्यूलस एल्सिनाइड्स) क्षुपों को भी शंखपुष्पी नाम से ग्रहणकिया जाता है जो कि त्रुटिपूर्ण है । इसके क्षुप छोटे क्रीपिंग होते हैं । मूल के ऊपर से 4 से 15 इंच लंबी अनेकों शाखाएँ निकली फैली रहती हैं । पुष्प नीले होते हैं तथा दो या तीन की संख्या में पुष्प दण्डों पर स्थित होते हैं । इसी प्रकार शंखाहुली, कालमेध (कैसकोरा डेकुसेटा) से भी इसे अलग पहचाना जाना चाहिए । अक्सर पंसारियों के पास इसकी मिलावट वाली शंखपुष्पी बहुत मिलती है । फूल तो इसके भी सफेद होते हैं पर पौधे की ऊँचाई, फैलने का क्रम, पत्तियों की व्यवस्था अलग होतीत है । नीचे पत्तियाँ लम्बी व ऊपर की छोटी होती हैं । गुण धर्म की दृष्टि से यह कुछ तो शंखपुष्पी से मिलती है पर सभी गुण इसमें नहीं होते । प्रभावी सामर्थ्य भी क्षीण अल्पकालीन होती है ।

संग्रह तथा संरक्षण एवं कालावधि-
छाया में सुखाए गए पंचांग को मुखंबद डिब्बों में सूखे शीतल स्थानों में रखते हैं । यह सूखी औषधि चूर्ण रूप में या ताजे स्वरस कल्क के रूप में प्रयुक्त हो सकती है । वीर्य कालावधि 6 माह से एक वर्ष तक की है ।

गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
इसे मेध्य (बुद्धिवर्धक), मस्तिष्क शामक एवं नाड़ी दौर्बल्य में सहायक माना गया है । महर्षि चरक ने मेध्या विशेषेण च शंखपुष्पी लिखते हुए कहा है-'स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली औषधियों में शंखपुष्पी प्रधान है ।' आयुर्वेद में मनुष्य के मस्तिष्क को बल देने वाली जितनी वनस्पतियाँ बतायी गई हैं, उनमें ब्राह्मी तथा शंखपुष्पी को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है ।
भाव प्रकाश के अनुसार यह मेधावर्धक, मानस रोगहन अपस्मारहन (एण्टीइपीलैप्टिक) भूतघ्न तथा विषहन है । राजनिघण्टुकार लिखते हैं-'ग्रहभूतादिदोषहनी वशीकरण सिद्धिदा'

अर्थात् यह भूत रोग (हिस्टीरिया) मिटाकर व्यक्ति की मेधा में वृद्धि कर उसके व्यक्तित्व को सम्मोहक बनाती है । लेखक ने इसे अनिद्रा के लिए सर्वश्रेष्ठ औषधि माना है ।
निघण्टु रतनाकर ने भी मेधा स्मृति वर्धक, कान्तिदायक, तेज बढ़ाने वाली एवं मस्तिष्क दोष हर इसे माना है । श्री भण्डारी (वनौषधि चन्द्रोदय) लिखते हैं कि शंखपुष्पी से मस्तिष्क को शांति व शक्ति मिलती है । विशेषणात्मक बुद्धि बढ़ती है । विशेषकर अल्पमंदता के लिए यह औषधि तथा मस्तिष्कीय कार्य अधिक करने वालों के लिए यह एक बलवर्धक टॉनिक है, जो सीधे स्नायु कोषों को प्रभावित करता है ।
डॉ. देसाई के मतानुसार शंखपुष्पी मस्तिष्क और मज्जा तंतुओं को बल देने वाली औषधि है । डॉ. खोरी लिखते हैं कि शंखपुष्पी ज्ञान तंतुओं को बल देने वाली 'नवाईन टॉनिक' है । उन्माद व मानसिक कमजोरी में इसका ताजा रस तुरंत लाभ देता है ।
डॉ. डिमक का कथन है कि वेदों के समय में शंखपुष्पी गर्भाशय पर कार्य करने वाली औषधि मानी जाती थी, परन्तु बाद के समय में टीकाकारों ने मस्तिष्क पर कार्य करने वाले सूत्र भी निकाले ।
यूनानी मतानुसार शंखपुष्पी तर है तथा बल्य रसायन है । इसका प्रयोग स्मृतिवर्धन और मस्तिष्क तथा नाड़ियों को शक्ति देने के लिए किया जाता है । भ्रम, अनिद्रा, अपस्मार एवं उन्माद को दूर करने के लिए यूनानी वैद्य इसका प्रयोग करते हैं ।

रासायनिक संगठन-
शंखपुष्पी से एक स्फटिकीय एल्केलाइड निकाला गया है, जिसे शंखपुष्पीन नाम दिया गया है । यही इसका सक्रिय संघटक है । इस औषधि में से एक 'इसेन्शियल ऑइल' भी निकाला गया है । पंचांग के किसी विशेष भाग में नहीं सारी औषधि में ही यह सक्रिय संघटक समान रूपसे वितरित पाया जाता है । इसी कारण शंखपुष्पी का पंचांग ही प्रयुक्त होता है ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग, निष्कर्ष-
'इण्डियन जनरल ऑफ मेडिकल रिसर्च' में डॉ. शर्मा ने शंखपुष्पी के मानसिक उत्तेजना शामक गुणों पर विस्तार से प्रकाश डाला है । इसके प्रयोग से प्रायोगिक जीवों में स्वतः होने वाली मांसपेशियों की हलचलें(स्पाण्टेनियम मोटर एक्टिविटी) घट गई । शंशपुष्पी के निष्कर्ष सेवन से चूहों में 'फिनोबार्ब' द्वारा उत्पन्न की गई निद्रा बढ़ गई । इनमें मार्फीन का दर्दनाशक प्रभाव भी बढ़ा । चूहों की लड़ने की प्रवृत्ति में कमी हुई तथा अंदर से आक्रामक प्रवृत्ति में शांति आयी । प्रायोगिक जीवों में विद्युत के झटकों द्वारा उत्पन्न आक्षेप (कन्वल्शन-मिर्गी जैसे झटके) तथा कंपन इस औषधि के प्रयोग के बाद शांत हो गए ।

थायराइड ग्रंथि के अतिस्राव से उत्पन्न घबराहट, अनिद्रा एवं कंपन जैसी उत्तेजनापूर्ण स्थिति में शंखपुष्पी अत्यधिक सफल पायी गई है । यह रोग अधिसंख्य जनता को अपने राष्ट्र में प्रभावित करता है । इसमें हृदय व मस्तिष्क समान रूपसे प्रभावित होते हैं । स्राव संतुलन बनाए रखना इस औषधि का प्रमुख कार्य है । बी.एच.यू. के डॉ. गुप्ता, प्रसाद व उडुप्पा के अनुसार शंखपुष्पी थायरोटॉ-क्सिकोसिस के नवीन रोगियों में आधुनिक औषधियों से अधिक लाभकारी सिद्ध हुई है । यदि किसी रोगी ने पूर्व में एलोपैथिक एण्टाथायराइड औषधि ली थी तो उस कारण उत्पन्न दुष्प्रभावों से भी शंखपुष्पी के कारण मुक्ति मिल गई ।

इन दोहरे लाभों को देखते हुए अब इस औषधि पर विस्तृत जाँच पड़ताल आरंभ कर दी गई है । सेण्ट्रल ड्रग रिसर्च इण्स्टीट्रयूट के वैज्ञानिकों ने पाया है कि यह औषधि सीधे थायराइड की कोशिकाओं पर प्रभाव डालकर स्राव व नियमन करती हैं । इसके प्रयोग से मस्तिष्क एसिटाइल कोलीन नामक महत्त्वपूर्ण न्यूरोकेमीकल की मात्रा बढ़ गई । इसका बढ़ना इस तथ्य का द्योतक है कि उत्तेजना के लिए उत्तरदायी केन्द्र शांत हो रहे है । मस्तिष्क रक्त अवरोधी झिल्ली (ब्लड-ब्रेनवैरियर) से शंखपुष्पी एसिटाइलकोलीन का मस्तिष्क से निकल कर रक्त में जाना रोकती है ।
यह उत्तेजना शामक प्रभाव रक्त चाप पर भी अनुकूल प्रभाव डालती है । प्रयोगों से पाया गया है कि भावनात्मक संक्षोभों, तनाव जन्य उच्च रक्त चाप जैसी परिस्थिति में शंखपुष्पी बड़ी लाभकारी सिद्ध होती है । आदत डालने वाले टैरक्विलाइजर्स की तुलना में यह अधिक उत्तम है, क्योंकि यह तनाव का शमन कर दुष्प्रभाव रहित निद्रा लाती है तथा हृदय परभी अवसादक प्रभाव डालती है ।

ग्राह्य अंग-
पंचांग-समग्र क्षुप का चूर्ण या कल्क ताजी अवस्था में स्वरस कल्क प्रयुक्त होता है ।

मात्रा-
कल्क- 10 से 20 ग्राम प्रतिदिन । चूर्ण- 3 से 6 ग्राम प्रतिदिन । स्वरस- 2 से 4 तोला प्रतिदिन ।
इस औषधि को सुबह या शाम को दो बार अथवा रोगावस्थानुसार रात्रि को ही प्रयुक्त किया जा सकता है ।

निर्धारणानुसार प्रयोग-
स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए 6 माशा शंखपुष्पी चूर्ण मिश्री की चाशनी या दूध के साथ प्रतिदिन प्रातः लेने का शास्रोक्त विधान बताया गया है । पंचांग को दूध के साथ घोंट कर भी देते हैं ।
ज्वर प्रलाप में होश खो बैठने तथा प्रलाप करने पर (डेलीरियम) मस्तिष्क को शक्ति देने तथा नींद लाने के लिए शंखपुष्पी फाण्ट रूप में या चूर्ण को मिश्री के साथ देते हैं । इसकी ठण्डाई भी प्रयुक्त की जा सकती है ।
उन्माद व अपस्मार में इसका स्वरस 20 ग्राम के लगभग मधु के साथ दिन में दो बार दिया जाता है । शय्या मूत्र का रोग जो अक्सर बच्चों को बढ़ती उम्र तक बना रहता है, (नॉक्चरनल एन्यूरेसिस) में रात्रि के समय शंखपुष्पी चूर्ण (3 ग्राम) दूध के साथ देने पर लाभ पहुँचाता है । मनोविकारों में भी इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है । जितने भी उत्तेजना कारक मनोविकार हैं, उन्हें प्रारंभिक स्थिति में ही शंखपुष्पी के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है ।

उच्च रक्तचाप व अन्य उत्तेजना जन्य स्थितियाँ जो उसे जन्म देती हैं, में रोकथाम के लिए एवं उपचार के लिए भी शंखपुष्पी का रस तीन समय अथवा चूर्ण दिन में दो बार देने पर आशातीत लाभ देखे जाते हैं ।
शंखपुष्पी का घृत शर्बत-सिरप भी प्रयुक्त होता है । पर इसमें योगों से बचकर एकाकी प्रयोग ही श्रेयस्कर है । अधिक से अधिक सरस्वती पंचक के रूप में प्रयोग क्षम्य है । (ब्राह्मी, शंखपुष्पी, बच, गोरखमुण्डी, शतावर) जो मेधावर्धन हेतु सिद्ध प्रयोग है ।

अन्य उपयोग-
यह कफ, वात शामक माना जाता है । वाह्य उपचारों में चर्मरोगों में तथा केशवृद्धि के लिए प्रयोग करते हैं । यह दीपक व पाचक है । पेट में गए विष को बाहर निकालने के लिए भी इसे प्रयुक्त किया जाता है । पेट में दर्द, वायु प्रदाह आदि में भी यह गुणकारी है । डॉ. प्रियव्रत के अनुसार यह हृदय रोगों, रक्तवमन आदि में लाभकारी है । खाँसी में भी यह लाभ पहुँचाती है गर्भाशय की दुर्बलता के कारण जिनको गर्भ धारण नहीं होता या नष्ट हो जाताहै, उनमें इसे चिर पुरातन काल से प्रयोग किया जाता रहा है । ज्वर-दाह में इसे शांतिदायक पेय के रूप में तथा पेशाब की जलन में डाययूरेटिक की तरह प्रयुक्त करते हैं । मस्तिष्क दौर्बल्य के अलावा यह एक सामान्य दौर्बल्य में हितकारी बल्य रसायन भी है । इसे जनरल टॉनिक के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है ।

धनिये के औषधि-प्रयोगः

धनिया

धनिया सर्वत्र प्रसिद्ध है। भोजन बनाने में इसका नित्य प्रयोग होता है। हरे धनिये के विकसित हो जाने पर उस पर हरे रंग के बीज की फलियाँ लगती हैं। वे सूख जाती हैं तो उन्हें सूखा धनिया कहते हैं। सब्जी, दाल जैसे खाद्य पदार्थों में काटकर डाला हुआ हरा धनिया उसे सुगंधित एवं गुणवान बनाता है। हरा धनिया गुण में ठंडा, रूचिकारक व पाचक है। इससे भोज्य पदार्थ अधिक स्वादिष्ट व रोचक बनते हैं। हरा धनिया केवल सब्जी में ही उपयोग में आने वाली वस्तु नहीं है वरन् उत्तम प्रकार की एक औषधि भी है। इसी कारण अनेक वैद्य इसका उपयोग करने की सलाह देते हैं।

गुणधर्मः हरा धनिया स्वाद में कटु, कषाय, स्निग्ध, पचने में हलका, मूत्रल, दस्त बंद करने वाला, जठराग्निवर्द्धक, पित्तप्रकोप का नाश करने वाला एवं गर्मी से उत्पन्न तमाम रोगों में भी अत्यंत लाभप्रद है।

औषधि-प्रयोगः

बुखारः अधिक गर्मी से उत्पन्न बुखार या टायफाइड के कारण यदि दस्त में खून आता हो तो हरे धनिये के 25 मि.ली. रस में मिश्री डालकर रोगी को पिलाने से लाभ होता है।

ज्वर से शरीर में होती जलन पर इसका रस लगाने से लाभ होता है।

आंतरदाहः चावल में पानी के बदले हरे धनिये का रस डालकर एक बर्तन (प्रेशर कूकर) में पकायें। फिर उसमें घी तथा मिश्री डालकर खाने से किसी भी रोग के कारण शरीर में होने वाली जलन शांत होती है।

अरुचिः सूखा, धनिया, इलायची व काली मिर्च का चूर्ण घी और मिश्री के साथ लें।

हरा धनिया, पुदीना, काली मिर्च, सेंधा नमक, अदरक व मिश्री पीसकर उसमें जरा सा गुड़ व नींबू का रस मिलाकर चटनी तैयार करें। भोजन के समय उसे खाने से अरुचि व मंदाग्नि मिटती है।

तृषा रोगः हरे धनिये के 50 मि.ली. रस में मिश्री या हरे अंगूर का रस मिलाकर पिलायें।

सगर्भा की उलटीः हरे धनिये के रस में हलका-सा नींबू निचोड़ लें। यह रस एक-एक चम्मच थोड़े-थोड़े समय पर पिलाने से लाभ होता है।

रक्तपित्तः सूखा धनिया, अंगूर व बेदाना का काढ़ा बनाकर पिलायें।

हरे धनिये के रस में मिश्री या अंगूर का रस मिलाकर पिलायें। साथ में नमकीन, तीखे व खट्टे पदार्थ खाना बंद करें और सादा, सात्त्विक आहार लें।

बच्चों के पेटदर्द व अजीर्णः सूखा धनिया और सोंठ का काढ़ा बनाकर पिलायें।

बच्चों की आँखें आने परः सूखे पिसे हुए धनिये की पोटली बाँधकर उसे पानी में भिगोकर बार-बार आँखों पर घुमायें।

हरा धनिया धोकर, पीसकर उसकी एक-दो बूँदें आँखों में डालें। आँखें आना, आँखों की लालिमा, आँखों की कील, गुहेरी एवं चश्मे के नंबर दूर करने में यह लाभदायक है।

मोतियाबिंद का आयुर्वेदिक इलाज

मोतियाबिंद का आयुर्वेदिक इलाज 


मोतियाबिंद एक आम समस्या बनता जा रहा है, अब तो युवा भी इस रोग के शिकार होने लगे हैं। अगर इस रोग का समय रहते इलाज न किया जाए तो रोगी अंधेपन का शिकार हो जाता है।

कारण : मोतियाबिंद रोग कई कारणों से होता है। आंखों में लंबे समय तक सूजन बने रहना, जन्मजात सूजन होना, आंख की संरचना में कोई कमी होना, आंख में चोट लग जाना, चोट लगने पर लंबे समय तक घाव बना रहना, कनीनिका में जख्म बन जाना, दूर की चीजें धूमिल नजर आना या सब्जमोतिया रोग होना, आंख के परदे का किसी कारणवश अलग हो जाना, कोई गम्भीर दृष्टि दोष होना, लंबे समय तक तेज रोशनी या तेज गर्मी में कार्य करना, डायबिटीज होना, गठिया होना, धमनी रोग होना, गुर्दे में जलन का होना, अत्याधिक कुनैन का सेवन, खूनी बवासीर का रक्त स्राव अचानक बंद हो जाना आदि समस्याएँ मोतियाति‍बिंद को जन्म दे सकती हैं।

मोतियाबिंद का आयुर्वेदिक इलाज
रक्त मोतियाबिंद में सभी चीजें लाल, हरी, काली, पीली और सफेद नजर आती हैं। परिम्लामिन मोतियाबिंद में सभी ओर पीला-पीला नजर आता है। ऐसा लगता है जैसे कि पेड़-पौधों में आग लग गई हो।
सभी प्रकार के मोतियाबिंद में आंखों के आस-पास की स्थिति भी अलग-अलग होती है। वातज मोतियाबिंद में आंखों की पुतली लालिमायुक्त, चंचल और कठोर होती है। पित्तज मोतियाबिंद में आंख की पुतली कांसे के समान पीलापन लिए होती है। कफज मोतियाबिंद में आंख की पुतली सफेद और चिकनी होती है या शंख की तरह सफेद खूँटों से युक्त व चंचल होती है। सन्निपात के मोतियाबिंद में आंख की पुतली मूंगे या पद्म पत्र के समान तथा उक्त सभी के मिश्रित लक्षणों वाली होती है। परिम्लामिन में आंख की पुतली भद्दे रंग के कांच के समान, पीली व लाल सी, मैली, रूखी और नीलापन लिए होती है।

मोतियाबिंद का आयुर्वेदिक इलाज


आंखों में लगाने वाली औषधियाँ-

त्रिफला के जल से आंखें धोना::
आयुर्वेद में हरड़ की छाल (छिलका), बहेड़े की छाल और आमले की छाल - इन तीनों को त्रिफला कहते हैं । यह त्रिदोषनाशक है अर्थात् वात, पित्त, कफ इन तीनों दोषों के कुपित होने से जो रोग उत्पन्न होते हैं उन सबको दूर करने वाला है । मस्तिष्क सम्बन्धी तथा उदर रोगों को दूर भगाता है तथा इन्हें शक्ति प्रदान करता है । सभी ज्ञानेन्द्रियों के लिये लाभदायक तथा शक्तिप्रद है । विशेषतया चक्षुरोग के लिये तो रामबाण है । कभी-कभी स्वस्थ मनुष्यों को भी त्रिफला के जल से अपने नेत्र धोते रहना चाहिये । नेत्रों के लिए अत्यन्त लाभदायक है । कभी-कभी त्रिफला की सब्जी खाना भी हितकर है ।
धोने की विधि - त्रिफला को जौ से समान (यवकुट) कूट लो और रात्रि के समय किसी मिट्टी, शीशे वा चीनी के पात्र में शुद्ध जल में भिगो दो । दो तोले वा एक छटांक त्रिफला को आधा सेर वा एक सेर शुद्ध जल में भिगोवो । प्रातःकाल पानी को ऊपर से नितारकर छान लो । उस जल से नेत्रों को खूब छींटे लगाकर धोवो । सारे जल का उपयोग एक बार के धोने में ही करो । इससे निरन्तर धोने से आंखों की उष्णता, रोहे, खुजली, लाली, जाला, मोतियाबिन्द आदि सभी रोगों का नाश होता है । आंखों की पीड़ा (दुखना) दूर होती है, आंखों की ज्योति बढ़ती है । शेष बचे हुए फोकट सिर पर रगड़ने से लाभ होता है ।
त्रिफला की टिकिया
(१) त्रिफला को जल के साथ पीसकर टिकिया बनायें और आंखों पर रखकर पट्टी बांध दें । इससे तीनों दोषों से दुखती हुई आंखें ठीक हो जाती हैं ।
(२) हरड़ की गिरी (बीज) को जल के साथ निरन्तर आठ दिन तक खरल करो । इसको नेत्रों में डालते रहने से मोतियाबिन्द रुक जाता है । यह रोग के आरम्भ में अच्छा लाभ करता है ।

* मोतियाबिंद की शुरुआती अवस्था में भीमसेनी कपूर स्त्री के दूध में घिसकर नित्य लगाने पर यह ठीक हो जाता है।

* हल्के बड़े मोती का चूरा 3 ग्राम और काला सुरमा 12 ग्राम लेकर खूब घोंटें। जब अच्छी तरह घुट जाए तो एक साफ शीशी में रख लें और रोज सोते वक्त अंजन की तरह आंखों में लगाएं। इससे मोतियाबिंद अवश्य ही दूर हो जाता है।

* छोटी पीपल, लाहौरी नमक, समुद्री फेन और काली मिर्च सभी 10-10 ग्राम लें। इसे 200 ग्राम काले सुरमा के साथ 500 मिलीलीटर गुलाब अर्क या सौंफ अर्क में इस प्रकार घोटें कि सारा अर्क उसमें सोख लें। अब इसे रोजाना आंखों में लगाएं।

* 10 ग्राम गिलोय का रस, 1 ग्राम शहद, 1 ग्राम सेंधा नमक सभी को बारीक पीसकर रख लें। इसे रोजाना आंखों में अंजन की तरह प्रयोग करने से मोतियाबिंद दूर होता है।

* मोतियाबिंद में उक्त में से कोई भी एक औषधि आंख में लगाने से सभी प्रकार का मोतियाबिंद धीरे-धीरे दूर हो जाता है। सभी औषधियां परीक्षित हैं।
नेत्र रोगों में कुदरती पदार्थों से ईलाज करना फ़ायदेमंद रहता है। मोतियाबिंद बढती उम्र के साथ अपना तालमेल बिठा लेता है। अधिमंथ बहुत ही खतरनाक रोग है जो बहुधा आंख को नष्ट कर देता है। आंखों की कई बीमारियों में नीचे लिखे सरल उपाय करने हितकारी सिद्ध होंगे-

१) सौंफ़ नेत्रों के लिये हितकर है। मोतियाबिंद रोकने के लिये इसका पावडर बनालें। एक बडा चम्मच भर सुबह शाम पानी के साथ लेते रहें। नजर की कमजोरी वाले भी यह उपाय करें।

२) विटामिन ए नेत्रों के लिये अत्यंत फ़ायदेमंद होता है। इसे भोजन के माध्यम से ग्रहण करना उत्तम रहता है। गाजर में भरपूर बेटा केरोटिन पाया जाता है जो विटामिन ए का अच्छा स्रोत है। गाजर कच्ची खाएं और जिनके दांत न हों वे इसका रस पीयें। २०० मिलि.रस दिन में दो बार लेना हितकर माना गया है। इससे आंखों की रोशनी भी बढेगी। मोतियाबिंद वालों को गाजर का उपयोग अनुकूल परिणाम देता है।

३) आंखों की जलन,रक्तिमा और सूजन हो जाना नेत्र की अधिक प्रचलित व्याधि है। धनिया इसमें उपयोगी पाया गया है।सूखे धनिये के बीज १० ग्राम लेकर ३०० मिलि. पानी में उबालें। उतारकर ठंडा करें। फ़िर छानकर इससे आंखें धोएं। जलन,लाली,नेत्र शौथ में तुरंत असर मेहसूस होता है।

४) आंवला नेत्र की कई बीमारियों में लाभकारी माना गया है। ताजे आंवले का रस १० मिलि. ईतने ही शहद में मिलाकर रोज सुबह लेते रहने से आंखों की ज्योति में वृद्धि होती है। मोतियाबिंद रोकने के तत्व भी इस उपचार में मौजूद हैं।

५) भारतीय परिवारों में खाटी भाजी की सब्जी का चलन है। खाटी भाजी के पत्ते के रस की कुछ बूंदें आंख में सुबह शाम डालते रहने से कई नेत्र समस्याएं हल हो जाती हैं। मोतियाबिंद रोकने का भी यह एक बेहतरीन उपाय है।

६) अनुसंधान में साबित हुआ है कि कद्दू के फ़ूल का रस दिन में दो बार आंखों में लगाने से मोतियाबिंद में लाभ होता है। कम से कम दस मिनिट आंख में लगा रहने दें।

७) घरेलू चिकित्सा के जानकार विद्वानों का कहना है कि शहद आंखों में दो बार लगाने से मोतियाबिंद नियंत्रित होता है।

८) लहसुन की २-३ कुली रोज चबाकर खाना आंखों के लिये हितकर है। यह हमारे नेत्रों के लेंस को स्वच्छ करती है।

९) पालक का नियमित उपयोग करना मोतियाबिंद में लाभकारी पाया गया है। इसमें एंटीआक्सीडेंट तत्व होते हैं। पालक में पाया जाने वाला बेटा केरोटीन नेत्रों के लिये परम हितकारी सिद्ध होता है। ब्रिटीश मेडीकल रिसर्च में पालक का मोतियाबिंद नाशक गुण प्रमाणित हो चुका है।

१०) एक और सरल उपाय बताते हैं- अपनी दोनों हथेलियां आंखों पर ऐसे रखें कि ज्यादा दबाव मेहसूस न हो। हां, हल्का सा दवाब लगावे। दिन में चार-पांच बार और हर बार आधा मिनिट के लिये करें। मोतियाबिंद से लडाई का अच्छा तरीका है।

११) किशमिश ,अंजीर और खारक पानी में रात को भिगो दें और सुबह खाएं । मोतियाबिंद की अच्छी घरेलू दवा है।

१२) भोजन के साथ सलाद ज्यादा मात्रा में शामिल करें । सलाद पर थोडा सा जेतून का तेल भी डालें। इसमें प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करने के गुण हैं जो नेत्रों के लिये भी हितकर है।

मोतियाबिंद दो प्रकार का होता है।

1.nuclear cataract.

2.cortical cataract.

उक्त दोनो तरह के मोतियाबिंद बनने से रोकने के लिये विटामिन ए तथा बी काम्प्प्लेक्स का दीर्घावधि तक उपयोग करने की सलाह दी जाती है। अगर मोतियाबिंद प्रारंभिक हालत में है तो रोक लगेगी।


खाने वाली औषधियाँ-
आंखों में लगने वाली औषधि के साथ-साथ जड़ी-बूटियों का सेवन भी बेहद फायदेमन्द साबित होता है। एक योग इस प्रकार है, जो सभी तरह के मोतियाबिंद में फायदेमन्द है-

* 500 ग्राम सूखे आँवले गुठली रहित, 500 ग्राम भृंगराज का संपूर्ण पौधा, 100 ग्राम बाल हरीतकी, 200 ग्राम सूखे गोरखमुंडी पुष्प और 200 ग्राम श्वेत पुनर्नवा की जड़ लेकर सभी औषधियों को खूब बारीक पीस लें। इस चूर्ण को अच्छे प्रकार के काले पत्थर के खरल में 250 मिलीलीटर अमरलता के रस और 100 मिलीलीटर मेहंदी के पत्रों के रस में अच्छी तरह मिला लें। इसके बाद इसमें शुद्ध भल्लातक का कपड़छान चूर्ण 25 ग्राम मिलाकर कड़ाही में लगातार तब तक खरल करें, जब तक वह सूख न जाए। इसके बाद इसे छानकर कांच के बर्तन में सुरक्षित रख लें। इसे रोगी की शक्ति व अवस्था के अनुसार 2 से 4 ग्राम की मात्रा में ताजा गोमूत्र से खाली पेट सुबह-शाम सेवन करें।


फायदेमन्द व्यायाम व योगासन-

* औषधियाँ प्रयोग करने के साथ-साथ रोज सुबह नियमित रूप से सूर्योदय से दो घंटे पहले नित्य क्रियाओं से निपटकर शीर्षासन और आंख का व्यायाम अवश्य करें।

* आंख के व्यायाम के लिए पालथी मारकर पद्मासन में बैठें। सबसे पहले आंखों की पुतलियों को एक साथ दाएँ-बाएँ घुमा-घुमाकर देखें फिर ऊपर-नीचे देखें। इस प्रकार यह अभ्यास कम से कम 10-15 बार अवश्य करें। इसके बाद सिर को स्थिर रखते हुए दोनों आंखों की पुतलियों को एक गोलाई में पहले सीधे फिर उल्टे (पहले घड़ी की गति की दिशा में फिर विपरीत दिशा में) चारों ओर घुमाएँ। इस प्रकार कम से कम 10-15 बार करें। इसके बाद शीर्षासन करें।

कुछ खास हिदायतें

* मोतियाबिंद के रोगी को गेहूँ की ताजी रोटी खानी चाहिए। गाय का दूध बगैर चीनी का ही पीएँ। गाय के दूध से निकाला हुआ घी भी सेवन करें। आंवले के मौसम में आंवले के ताजा फलों का भी सेवन अवश्य करें। फलों में अंजीर व गूलर अवश्यक खाएं।

* सुबह-शाम आंखों में ताजे पानी के छींटे अवश्य मारें। मोतियाबिंद के रोगी को कम या बहुत तेज रोशनी में नहीं पढ़ना चाहिए और रोशनी में इस प्रकार न बैठें कि रोशनी सीधी आंखों पर पड़े। पढ़ते-लिखते समय रोशनी बार्ईं ओर से आने दें।

* वनस्पति घी, बाजार में मिलने वाले घटिया-मिलावटी तेल, मांस, मछली, अंडा आदि सेवन न करें। मिर्च-मसाला व खटाई का प्रयोग न करें। कब्ज न रहने दें। अधिक ठंडे व अधिक गर्म मौसम में बाहर न निकलें

वात दोष नियंत्रण

वात दोष --

 
 
जब शरीर में वायु तत्व सामान्य से अधिक हो जाता है तो इसे वात दोष कहा जाता है।
- नाडी देखते समय अंगूठे के पास पहली अंगुली में ज़्यादा स्पंदन महसूस होगा।
- सामान्यतः शरीर में वात शाम के समय और रात्री के अंतिम प्रहर में बढ़ता है . इस समय किसी रोग की तीव्रता बढना रोग के वात रोग होने की तरफ इशारा करता है।
- जीवन के अंतिम प्रहर यानी बुढापे में भी वात प्रबल होता है।
- वात के साथ पित्त दोष भी होने से इसे नियंत्रित करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है ; पर असंभव नहीं।
- वात यानी हवा का गुण है की वह फुलाता है . इसलिए वात दोष होने से शरीर कभी कभी फूल जाता है . ऐसा मोटापा किसी गैस के भरे गुब्बारे के समान नज़र आता है . यह मोटापा मज़बूत नहीं करता बल्कि अन्दर से खोखला कर देता है।
- हवा का एक गुण है सुखाना . इसलिए कभी कभी वात रोगी सुख के काँटा हो जाता है . कितना भी खाए पिए , शरीर कृशकाय ही रहता है।
- सुखाने के गुण के कारण ही वात जब बढ़कर संधियों (joints ) में , रक्त नलिकाओं में प्रविष्ट होता है तो वहां सुखाता है . इससे संधियों का द्रव्य सूख जाता है और अर्थराइटिस की शुरुवात होने लगती है . घुटनों में हवा भरेगी और उठते बैठते कड कड आवाज़ आएगी . दर्द शुरू हो जाएगा .
- रक्त नलिकाओं की दीवार रुखी हो जाने से वहां कुछ ना कुछ चिपकने लगेगा और वह संकरी जायेगी। उसकी एलास्टिसिटी कम होने से रक्तदाब (ब्लड प्रेशर ) बढेगा।
- सुखाने के गुण के कारण ही त्वचा रुखी होने लगेगी। एडियों में दरारें पड़ने लगेंगी। बाल रूखे होंगे। dendruff होगा।
- दांत कमज़ोर हो कर हिलने लगेंगे।
- नर्वसनेस . कम्पवात आदि रहेगा।
- घबराहट रहेगी। ज़्यादा डर लगने से भी वात बढ़ता है।अतः हॉरर फिल्मे , सीरियल . क्राइम से कार्यक्रम देखना वात बढाता है।
- स्वप्न आते है। रात्री के अंतिम प्रहर में स्वप्न ज़्यादा आते है ; क्योंकि यह वात का समय है।
- शरीर में वात का घर है पैर और पेट में बड़ी आंत। इसलिए वात रोगी का पेट फुला हुआ और कड़क महसूस होगा जैसे किसी गुब्बारे में हवा भरी हो। पेट छूने में नर्म नहीं लगेगा। ज़्यादा भाग दौड़ और चलना फिरना होने से पैरों पर काम का दबाव बढ़ता है और वात बढ़ता है। इसके लिए घुटने और नीचे के पैरों को , तलवों को खूब दबाये , तेल मले। कुछ डकारें आ जाएंगी और आराम मिलेगा।
- शादी ब्याह में खूब भाग दौड़ करने से वात बढ़ जाता है। इसलिए आखिर में खूब घी वाली खिचड़ी खा कर गर्म कढ़ी पी जाती है। वात निकल जाता है। आराम मिलता है।
- हवा का गुण है चलना या रुकना। जब वात बढेगा तब शरीर की सामान्य हलन चलन की क्रियाएं जैसे आँतों का हलन चलन प्रभावित होगा और कब्ज होगी . कितना भी सलाद खाएं ; कब्ज बनी रहेगी . मल सुख जाएगा.
- मन चंचल रहेगा . कल्पनाएँ ज़्यादा करेगा . कभी कुछ सोचेगा ; कभी कुछ . मूड़ बदलता रहेगा . ज़्यादा वात विकार हिस्टीरिया , मानसिक विकार भी पैदा कर देता है। कभी कभी रचनात्मकता के लिए ये आवश्यक है पर इसकी अति विकार है , जैसे एम एफ हुसैन में हो गया था !
- कोई भी बदलाव वात बढ़ा देता है . फिर चाहे वो छोटा हो या बड़ा . जितना बड़ा बदलाव उतना ज़्यादा वात बढेगा . जैसे सुबह उठे - बदलाव है ( सोते से उठे ) ; सो वात थोड़ा बढ़ा . धुप से छाँव में या छाँव से धूप में गए , वात बढेगा . एसी कमरे से गर्मी में आये या गए , वात बढेगा . मौसम में बदलाव , अचानक सर्दी या गर्मी बढ़ने से वात बढेगा . अचानक गंभीर चोट लगी , मानसिक आघात लगा , वात बहुत बढेगा . ऐसे समय यंह सावधानी ले की कोई रुखी या ठंडी वस्तु का सेवन ना करें , ठंडा पानी या शीतल पेय ना पिए। गर्म पानी ले।
- जब विवाह होता है ; तो यह एक बहुत बड़ा बदलाव है . इसलिए पति पत्नी कम से कम छः महीने महीने तक रुखी और ठंडी वस्तु जैसे आइस क्रीम आदि का सेवन ना करें . इससे मन में रूखापन नहीं आयेंगा और नए रिश्ते आसानी से बन पायेंगे और ज़िन्दगी भर बने रहेंगे। आज कल तो पति पत्नी शादी में एक दुसरे को आइसक्रीम खिलाते है और रुखा डाएट फ़ूड लेतें है . ठंडा पानी , शीतल पेय लेते है। फिर रिश्तों की बुनियाद कमज़ोर रह जाती है।
- जब बच्चा होता है तो माँ के जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव है . इसलिए छः महीने तक सावधानी लेनी होती है . वरना शरीर फूल कर कमज़ोर हो जाता है . कई बार दूध सूख जाता है . कई बार गंभीर बीमारियाँ इसी समय हमला करती है जैसे दमा , अर्थराइटिस , रक्तचाप , पाइल्स , हिस्टीरिया आदि.
- वात यानी हवा शरीर में घुसने के द्वार है नाक , कान , मुंह आदि। इसलिए नाक , कान आदि में तेल डाले . कान ढकना चाहिए।आजकल के युवा गाडी चलाते नहीं उड़ाते है और कान ढकते नहीं। फिर उनमे उन्माद , अचानक तीव्र आवेश , दुबलापन या मोटापा , बाल झडना आदि समस्याएँ पाई जाती है। इसलिए याद रखे गाडी उड़ाना नहीं चलाना है . और कान ढकने में शर्म आती हो तो रुई डाल ले।
- बस या ट्रेन में खुली खिड़की के पास बैठने से सिरदर्द होने लगता है क्योंकि वात बढ़ जाता है।
- वात दोष दूर होता है गर्म पेय , गर्म पानी और शुद्ध घी और छने (fitered ) तेल से।
- कई बार ऐसा देखा गया की किसी को गंभीर चोट लगी और वह , है उसे अस्पताल ले जा रहा है . पर उसे किसी ने ठंडा पानी पिला पिला दिया और वह अचानक मर गया। किसी के करीबी व्यक्ति की मौत हुई। वह रो रहा है। किसी ने उसे ठंडा पानी पिला दिया ; उनकी भी बोलो राम हो गई।करीबी लोग सोचते रह जाते है की क्या हुआ ..... इसलिए हर एक को जानना ज़रूरी है की गंभीर चोट या मानसिक आघात लगे व्यक्ति को गर्म जल दे।
- वात दोष ना हो इसलिए ध्यान रखे पानी गटा गट ना पिए। मुंह में चबा चबाकर घूंट घूंट ले। कभी भी पानी खड़े खड़े ना पिए। हो सके तो उकडू बैठ कर पिए। जिससे वात के अंग - निचला पेट और पिंडलियाँ दबती है और उसमे वात नहीं घुसता।
- दूध हमेशा घी डाल कर खड़े खड़े पिए।
- रिफाइंड तेल का प्रयोग कभी ना करे। कच्ची घानी का कोई भी तेल जैसे फली दाना ,तिल नारियल , सरसों उत्तम है।
- वात बढाने वाला भोजन शाम 4 बजे के बाद ना ले। जैसे मूली , बैंगन , आलू ,गोभी आदि।
- वात दोष नियंत्रण में रखे और कई गंभीर बीमारियों को दूर रखे।
- वात के सन्दर्भ में और कुछ याद आया तो जोड़ते रहेंगे। अपना खूब ध्यान रखे। धन्यवाद।

function disabled

Old Post from Sanwariya