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रविवार, 23 मार्च 2025

हिन्दू चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् 2082 तदनुसार (30 मार्च 2025) दिन रविवार को अपना नववर्ष है।


आयो रे आयो नव वर्ष आयो
सनातन धर्म प्रेमी परिवारों से विनम्र आग्रह है कि गर्वित हिन्दू चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् 2082 तदनुसार (30 मार्च 2025) दिन रविवार को अपना नववर्ष है।


उस दिन ये कार्य अवश्य करें:

(01). पुरुष सफेद वस्त्र व महिलाएँ पीला या भगवा वस्त्र पहनें। भारतीय वेश धारण करें।
(02). मस्तिष्क पर उस दिन तिलक अवश्य लगायें।
(03). घर पर मिष्ठान्न बनायें।
(04). घर की छत पर भगवा झंडा अवश्य लगायें।
(05). रात्रि को घर के बाहर दीप अवश्य जलायें।
(06). घर के द्वार को सजाएँ।
(07). रंगोली बनाएँ।
(08). फूल और पत्तों के तोरण लगाएँ।
(09). कम से कम 11 लोगों को ये संदेश भेजें, और उस दिन मिलकर या फोन कॉल पर नववर्ष की शुभकामनाएँ दें और उन्हें भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करें।

🚩🙏 सनातन संवत् 2082 की हार्दिक शुभकामनाएँ! 🙏🚩
नव संवत्सर आपके जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लेकर आए। आइए, हम सब मिलकर इस शुभ अवसर को हर्षोल्लास के साथ मनाएं और अपनी सनातन परंपरा पर गर्व करें।
धर्म, संस्कृति और गौरव के इस पर्व को उल्लास के साथ मनाएं!

🌺 जय श्री राम! 🌺

शनिवार, 15 मार्च 2025

होली का वास्तविक स्वरूप इस पर्व का प्राचीनतम नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।

होली का वास्तविक स्वरूप 
इस पर्व का प्राचीनतम नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।
यथा–
*तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।*(भाव प्रकाश)
*अर्थात्*―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।
*(ब) होलिका*―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चनादि का निर्माण करती *(माता निर्माता भवति)* यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि *होलिका माता की जय* अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया।
*(स)* अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम *होलिकोत्सव* है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम *नव सम्वतसर* है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है― *(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी।* इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं *रबी और खरीफ* की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। तो कहा गया है–
*अग्निवै देवानाम मुखं* अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।
हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली) यथा *फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी* अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।
*समीक्षा*―आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं–वे *अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं,* अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को *आहुति* कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष *सामूहिक यज्ञ* की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे *हवनों की है।* सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल *सामूहिक यज्ञ* होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।
*ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते*―अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली हेमन्त और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए *यज्ञ ही सर्वोत्तम* साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।
*पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―* होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का *प्रह्लाद* नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह *प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे।* वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्योहार मनाया जाता है l

मंगलवार, 4 मार्च 2025

पहले *भटूरे* को फुलाने के लिये उसमें *ENO* डालियेफिर *भटूरे* से फूले पेट को पिचकाने के लिये *ENO* पीजिये

पहले *भटूरे* को फुलाने के लिये 
उसमें *ENO* डालिये

फिर *भटूरे* से फूले पेट को 
पिचकाने के लिये *ENO* पीजिये 

*जीवन के कुछ गूढ़ रहस्य*
*आप कभी नहीं समझ पायेंगे*
*पांचवीं* तक *स्लेट* की बत्ती को 
*जीभ* से चाटकर कैल्शियम की 
कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी
*लेकिन*
इसमें *पापबोध* भी था कि कहीं 
*विद्यामाता* नाराज न हो जायें ...!!!☺️

*पढ़ाई* के *तनाव* हमने 
*पेन्सिल* का पिछला हिस्सा 
चबाकर मिटाया था ...!!!😀

*पुस्तक* के बीच *पौधे की पत्ती* 
और *मोरपंख* रखने से हम 
*होशियार* हो जाएंगे ...
ऐसा हमारा *दृढ विश्वास* था।😀

*कपड़े* के *थैले* में *किताब-कॉपियां*
जमाने का *प्रयास* हमारा 
*रचनात्मक कौशल* था ...!!!☺️🙏🏻

हर साल जब नई *कक्षा* के *बस्ते बंधते*
तब *कॉपी किताबों* पर *जिल्द* चढ़ाना 
हमारे जीवन का *वार्षिक उत्सव* मानते थे ...!!!☺️

*माता - पिता* को हमारी *पढ़ाई* की 
कोई *फ़िक्र* नहीं थी, न हमारी *पढ़ाई* 
उनकी *जेब* पर *बोझा* थी ...☺️💕
*सालों साल* बीत जाते पर *माता - पिता* के 
*कदम* हमारे *स्कूल* में न पड़ते थे ...!!!😀
एक *दोस्त* को *साईकिल* के 
बीच वाले *डंडे* पर और *दूसरे* को 
*पीछे कैरियर* पर *बिठा* कर 
हमने कितने रास्ते *नापें* हैं, 
यह अब याद नहीं बस कुछ 
*धुंधली* सी *स्मृतियां* हैं ...!!!💕

*स्कूल* में *पिटते* हुए और 
*मुर्गा* बनते हमारा *ईगो* 
हमें कभी *परेशान* नहीं करता था 
दरअसल हम जानते ही नही थे 
कि *ईगो* होता क्या है❓️💕

*पिटाई* हमारे *दैनिक जीवन* की 
*सहज सामान्य प्रक्रिया* थी😰😀
*पीटने वाला* और *पिटने वाला* दोनो *खुश* थे,
*पिटने वाला* इसलिए कि हम *कम पिटे*
*पीटने वाला* इसलिए *खुश* होता था 
कि *हाथ साफ़* हुआ ...!!!😀
हम अपने *माता - पिता* को कभी नहीं बता पाए 
कि हम उन्हें कितना *प्यार* करते हैं, क्योंकि 
हमें *"आई लव यू"* कहना आता ही नहीं था ...!!!
😰😀💕
आज हम *गिरते- सम्भलते*, *संघर्ष* 
करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं, 
कुछ *मंजिल* पा गये हैं तो 
कुछ न जाने *कहां खो* गए हैं ...!!!😰

हम दुनिया में कहीं भी हों 
लेकिन यह सच है, 
हमे *हकीकतों* ने *पाला* है, 
हम सच की दुनियां में थे ...!!!
😰
*कपड़ों* को *सिलवटों* से बचाए रखना
और *रिश्तों* को *औपचारिकता* से 
बनाए रखना हमें कभी आया ही नहीं ...
इस मामले में हम सदा *मूर्ख* ही रहे ...!!!
😰
अपना अपना *प्रारब्ध* झेलते हुए 
हम आज भी *ख्वाब* बुन रहे हैं, 
शायद *ख्वाब बुनना* ही 
हमें *जिन्दा* रखे है वरना 
जो *जीवन* हम *जीकर* आये हैं 
उसके सामने यह *वर्तमान* कुछ भी नहीं ...!!!
😰
हम *अच्छे* थे या *बुरे* थे 
पर हम सब साथ थे *काश* 
वो समय फिर लौट आए ...!!!
😰😰
"एक बार फिर अपने *बचपन* के *पन्नो* 
को पलटिये, सच में फिर से जी उठेंगे”...💕
  
और अंत में ...

हमारे *पिताजी* के समय में *दादाजी* गाते थे ...

*मेरा नाम करेगा रोशन*
*जग में मेरा राज दुलारा*💕

हमारे *ज़माने* में हमने गाया ...

*पापा कहते है बड़ा नाम करेगा*💕

अब *हमारे बच्चे* गा रहे हैं …

*बापू सेहत के लिए ...*
*तू तो हानिकारक है*। 😰😰

*सही* में हम 
*कहाँ से कहाँ* आ गए ...???😰

एक बार मुड़ कर देखिये ...
और 
मुस्कुरा दीजिए 
क्योंकि ......
*Change is part of life.*
*Accept it gracefully.*
           🙏😊😊🙏

रविवार, 2 मार्च 2025

बर्तन का महत्वएल्युमिनियम और स्टील के बर्तन दोनो ही जहर है।।।

बर्तन का महत्व

एल्युमिनियम और स्टील के बर्तन दोनो ही जहर है।।।

ऐसा भोजन कभी ना खाएं जो सूर्य के प्रकाश और वायु के सम्पर्क में ना बनाया गया हो , जैसे कुकर,माइक्रोवेव ओवन,फ्रिज आदि में पका हुआ रखा हुआ चावल , दाल, आलू आदि ।।।

🥗एल्युमिनियम के बर्तन जेल में बन्द भारत के क्रांतिकारी के लिए अंग्रेजो ने चलवाये जिससे ये कमजोर हो एव बीमार रहे और स्वत् ही मृत्यु को प्राप्त हो

🥗एल्युमिनयम बहुत भारी तत्व है, हमारा शरीर यह पदार्थ शरीर से बाहर नही निकाल पाता है, और विष के रूप में शरीर मे एकत्रित होता रहता है

🥗एल्युमिनियम के बर्तन में पका हुआ एव रखा हुआ भोजन जहर के समान ही है, कुल 48 बीमारियों का कारण है

🥗एल्युमिनियम के बर्तनों में पके भोजन से अस्थमा ,दमा,  शुगर,थाइराइड, लकवा, ब्रेनहेमरेज और टीबी 100% हो जाएगा मात्र 10 वर्ष में

🥗सोलर कुकर में भी आजकल एल्युमिनियम का प्रयोग कर रहे है, वह भी बहुत हानिकारक है

🥗कुछ बदलाव घर के बर्तनों में कीजिये, सबसे अच्छे तो मिट्टी के है, सभी बर्तन मिट्टी के हो तो सबसे अच्छा।।

🥗कम से कम लोहे की एक कढ़ाई अवश्य हो,जिसमें सब्जी पकाई जाए

🥗दूध,दही आदि रखने के लिए मिट्टी के बर्तन हो

🥗दूध गर्म करने के लिए भी मिट्टी के बर्तन ही हो

🥗दाले आदि पकाने के बाद मिट्टी के बर्तन में ही रखें तो सबसे बेहतर

🥗सब्जी पकाने और पकाकर रखने के लिये कांसे के बर्तन भी अच्छे है एक दो बर्तन पतीला आदि लेकर रखें

🥗कांसे में खट्टी चीजे या खट्टी सब्जियां न पकाये न
और ना ही पकाकर रखे

🥗घर मे सभी सदस्यो के अनुसार ताँबे का लोटा रखें,जिससे समय समय पर ताँबे का पानी पीते रहे

🥗ताँबे के लोटे में दूध या इससे बना कुछ भी न पिएं

🥗सब्जी बनाने और बनाकर रखने के लिए पतीला, भगोना आदि पीतल के भी एक दो बर्तन लाये

🥗खांना खाने के लिए भी पीतल के कटोरी, चम्मच, थाली आदि लाये..... यदि घर मे 6 सदस्य है तो कम से कम....4 थाली कटोरी चम्मच गिलास आदि तो पीतल का ला ही सकते है

🥗सोना-
सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने, रखने और करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनों हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ता है।
इसका इस्तेमाल सर्दी के मौसम में करे

🥗चाँदी-
चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है  इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रौशनी बढती है और इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रहता है।
इसका इस्तेमाल गर्मी के मौसम में करे

🥗तांबा-
तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है.

🥗तांबे के बर्तन में दूध,दही, छाछ नहीं पीना चाहिए इससे शरीर को नुकसान होता है।
इसका इस्तेमाल बारिश के मौसम में करे

🥗लोहा-
लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से  शरीर  की  शक्ति बढती है, लोह्तत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहा कई रोग को खत्म करता है, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन और  पीलापन नहीं आने देता, कामला रोग को खत्म करता है, और पीलिया रोग को दूर रखता है।

✔लोहे के पात्र में दूध पीना अच्छा होता है।
🥗लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कम होती है और दिमाग का नाश होता है। 
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते ह

🥗पीतल-
पीतल के बर्तन में भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल 7 प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते है

🥗स्टील-
ये ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से. इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा भी नहीं पहुँचता
इसका इस्तेमाल न करें तो बेहतर अगर करे तो भी कोई फायदा नही।

🥗एलुमिनियम-
यह जहर है। एल्युमिनियम बॉक्साइट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुकसान होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। उसके साथ साथ किडनी फेल होना, टी बी, अस्थमा, दमा, बात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है। एलुमिनियम में खांना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं।
इसका इस्तेमाल कभी न करें

🥗काँसा-
काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में  शुद्धता आती है, रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल 3 प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।
🥗लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है।
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते है, यह मिट्टी के बाद सर्वश्रेष्ट धातु है

🥗🥗🥗मिट्टी-
मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते थे। इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा ज्यादा लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए सबसे उपयुक्त है मिट्टी के बर्तन। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पूरे 100 प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं। और यदि मिट्टी के बर्तन में खाना खाया जाए तो उसका अलग से स्वाद भी आता है।
इसका उपयोग जीवन भर किसी भी मौसम में कर सकते है, यह एकलौता सर्वोत्तम धातु है

🥗मिट्टी के बर्तन में पके भोजन के लाभ:-

🥗गठिया ठीक
🥗शुगर ठीक
🥗दमा ठीक
🥗अर्थराइटिस ठीक
🥗आंखे कभी खराब नहीं होगी
🥗सरदर्द कभी नही
🥗फेफड़े, लीवर, किडनी कभी खराब नहीं
🥗कोई रोग कभी नही आएगा, यदि रोग है तो खुद ठीक हो जाएगा बिना किसी दवा के।

🥗कैंसर कभी नही हो सकता

🥗शरीर को सभी 18 पोषक तत्व मिलते है

🥗मिट्टी की हांडी की दाल,दूध, पानी, सब्जी, चावल, रोटी आदि के लिए बर्तन अवश्य लाये, यदि सभी बर्तन नही ला सकते तो।।।

बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

महाशिवरात्रि व्रत की पौराणिक कथा

महाशिवरात्रि व्रत की पौराणिक कथा


पूर्व काल में चित्रभानु नामक एक शिकारी था। जानवरों की हत्या करके वह अपने परिवार को पालता था। वह एक साहूकार का कर्जदार था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी।

शाम होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार खोजता हुआ वह बहुत दूर निकल गया। जब अंधकार हो गया तो उसने विचार किया कि रात जंगल में ही बितानी पड़ेगी। वह वन एक तालाब के किनारे एक बेल के पेड़ पर चढ़ कर रात बीतने का इंतजार करने लगा।

बिल्व वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढंका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरती चली गई। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बिल्वपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुंची।

शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली- ‘मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और हिरणी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाने तथा ढीली करने के वक्त कुछ बिल्व पत्र अनायास ही टूट कर शिवलिंग पर गिर गए। इस प्रकार उससे अनजाने में ही प्रथम प्रहर का पूजन भी सम्पन्न हो गया।

शिकारी ने मृग परिवार को जाने दिया। यह करुणा ही वस्तुत: उस शिकारी को उन पंडित एवं पुजारियों से उत्कृष्ट बना देती है जो कि सिर्फ रात्रि जागरण, उपवास एवं दूध, दही, बेल-पत्र आदि द्वारा शिव को प्रसन्न कर लेना चाहते हैं। इस कथा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कथा में ‘अनजाने में हुए पूजन’ पर विशेष बल दिया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शिव किसी भी प्रकार से किए गए पूजन को स्वीकार कर लेते हैं अथवा भोलेनाथ जाने या अनजाने में हुए पूजन में भेद नहीं कर सकते हैं।

वास्तव में वह शिकारी शिव पूजन नहीं कर रहा था। इसका अर्थ यह भी हुआ कि वह किसी तरह के किसी फल की कामना भी नहीं कर रहा था। उसने मृग परिवार को समय एवं जीवन दान दिया जो कि शिव पूजन के समान है। शिव का अर्थ ही कल्याण होता है। उन निरीह प्राणियों का कल्याण करने के कारण ही वह शिव तत्व को जान पाया तथा उसका शिव से साक्षात्कार हुआ।

परोपकार करने के लिए महाशिवरात्रि का दिवस होना भी आवश्यक नहीं है। पुराण में चार प्रकार के शिवरात्रि पूजन का वर्णन है। मासिक शिवरात्रि, प्रथम आदि शिवरात्रि, तथा महाशिवरात्रि। पुराण वर्णित अंतिम शिवरात्रि है- नित्य शिवरात्रि। वस्तुत: प्रत्येक रात्रि ही शिवरात्रि’ है अगर हम उन परम कल्याणकारी आशुतोष भगवान में स्वयं को लीन कर दें तथा कल्याण मार्ग का अनुसरण करें, वही शिवरात्रि का सच्चा व्रत है।

जय श्रीराम

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

कौन सा फूल एवं प्रदार्थ चढ़ाएं शिव को,

कौन सा फूल एवं प्रदार्थ चढ़ाएं शिव को
भगवान शिव बड़े दयालु और शीघ्र फल प्रदान करने वाले देव है। शिव से अपने मनवांछित फल पाने के लिए निम्न फूल एवं प्रदार्थ चढ़ा सकते है -
 
- वाहन सुख के लिए चमेली का फूल।
- दौलतमंद बनने के लिए कमल का फूल, शंखपुष्पी या बिल्वपत्र।
- विवाह में समस्या दूर करने के लिए बेला के फूल। इससे योग्य वर-वधू मिलते हैं।
- पुत्र प्राप्ति के लिए धतुरे का लाल फूल वाला धतूरा शिव को चढ़ाएं। यह न मिलने पर सामान्य धतूरा ही चढ़ाएं।
- मानसिक तनाव दूर करने के लिए शिव को शेफालिका के फूल चढ़ाएं।
- जूही के फूल को अर्पित करने से अपार अन्न-धन की कमी नहीं होती।
- अगस्त्य के फूल से शिव पूजा करने पर पद, सम्मान मिलता है।
- शिव पूजा में कनेर के फूलों के अर्पण से वस्त्र-आभूषण की इच्छा पूरी होती है।
- लंबी आयु के लिए दुर्वाओं से शिव पूजन करें।
- सुख-शांति और मोक्ष के लिए महादेव की तुलसी के पत्तों या सफेद कमल के फूलों से पूजा करें।
इसी तरह भगवान शिव की प्रसन्नता से मनोरथ पूरे करने के लिए शिव पूजा में कई तरह के अनाज चढ़ाने का महत्व बताया गया है। इसलिए श्रद्धा और आस्था के साथ इस उपाय को भी करना न चूकें। जानिए किस अन्न के चढ़ावे से कैसी कामना पूरी होती है -
- शिव पूजा में गेहूं से बने व्यंजन चढ़ाने पर कुंटुब की वृद्धि होती है।
- मूंग से शिव पूजा करने पर हर सुख और ऐश्वर्य मिलता है।
- चने की दाल अर्पित करने पर श्रेष्ठ जीवन साथी मिलता है।
- कच्चे चावल अर्पित करने पर कलह से मुक्ति और शांति मिलती है।
- तिलों से शिवजी पूजा और हवन में एक लाख आहुतियां करने से हर पाप का अंत हो जाता है।
- उड़द चढ़ाने से ग्रहदोष और खासतौर पर शनि पीड़ा शांति होती है।
इसी तरह भगवान शिव की प्रसन्नता से मनोरथ पूरे करने के लिए शिव पूजा में कई तरह के अनाज चढ़ाने का महत्व बताया गया है। इसलिए श्रद्धा और आस्था के साथ इस उपाय को भी करना न चूकें। जानिए किस अन्न के चढ़ावे से कैसी कामना पूरी होती है -
- शिव पूजा में गेहूं से बने व्यंजन चढ़ाने पर कुंटुब की वृद्धि होती है।
- मूंग से शिव पूजा करने पर हर सुख और ऐश्वर्य मिलता है।
- चने की दाल अर्पित करने पर श्रेष्ठ जीवन साथी मिलता है।
- कच्चे चावल अर्पित करने पर कलह से मुक्ति और शांति मिलती है।
- तिलों से शिवजी पूजा और हवन में एक लाख आहुतियां करने से हर पाप का अंत हो जाता है।
- उड़द चढ़ाने से ग्रहदोष और खासतौर पर शनि पीड़ा शांति होती है।

महादेव शिव के दिव्य 108 मंत्र

महादेव शिव के दिव्य 108 मंत्र
त्रिदेवों में भगवान शिव को सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाला माना गया है। भगवान शिव को ‘भोलेनाथ’ और ‘औघड़’ माना गया है जिसका तात्पर्य यह है कि वो किसी को बहुत अधिक परेशान नहीं देख सकते और भक्त की थोड़ी सी भी परेशानी उनकी करुणा को जगा देती है।

नीलकंठ रूपेण करुणामय भगवान शिव अपने भक्तों की पीड़ा स्वयं पर ले लेते हैं। इसलिए शास्त्रानुसार, जो कोई भी भगवान शिव की दिल से पूजा करता है, वह सदैव ही सभी परेशानियों से मुक्त रहता है।

यूँ तो भगवान शिव की पूजा की कई विधियां हैं लेकिन सामान्य रूप से बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग पर केवल जल अर्पण करना भी भोलेनाथ की कृपा दिलाता है। अगर यह क्रिया कुछ मंत्रों के उच्चारण के साथ की जाय, तो भोलेशंकर व्यक्ति की हर मनोकामना पूर्ण करते हैं।

हर प्रकार की पूजा और मंत्र उच्चारण में 108 का बहुत महत्व है। यहां 108 शिव मंत्रों के बारे में बताया गया हैं, किसी भी दिन इन 108 मंत्रों के साथ भगवान शिव की पूजा या शिवलिंग पर जलापर्ण करने से शिव भक्त श्रद्धालु की हर मनोकामना पूर्ण होगी। सोमवार या श्रावण सोमवार के दिन ऐसा करना विशेष रूप से फलदायी माना जाता है।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् ।
त्रिजन्म पापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१॥
त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः।
तव पूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२॥
सर्वत्रैलोक्यकर्तारं सर्वत्रैलोक्यपालनम् ।
सर्वत्रैलोक्यहर्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३॥
नागाधिराजवलयं नागहारेण भूषितम् ।
नागकुण्डलसंयुक्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४॥
अक्षमालाधरं रुद्रं पार्वतीप्रियवल्लभम् ।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५॥
त्रिलोचनं दशभुजं दुर्गादेहार्धधारिणम् ।
विभूत्यभ्यर्चितं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६॥
त्रिशूलधारिणं देवं नागाभरणसुन्दरम् ।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७॥
गङ्गाधराम्बिकानाथं फणिकुण्डलमण्डितम् ।
कालकालं गिरीशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८॥
शुद्धस्फटिक सङ्काशं शितिकण्ठं कृपानिधिम् ।
सर्वेश्वरं सदाशान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९॥
सच्चिदानन्दरूपं च परानन्दमयं शिवम् ।
वागीश्वरं चिदाकाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०॥
शिपिविष्टं सहस्राक्षं कैलासाचलवासिनम् ।
हिरण्यबाहुं सेनान्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥११॥
अरुणं वामनं तारं वास्तव्यं चैव वास्तवम् ।
ज्येष्टं कनिष्ठं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१२॥
हरिकेशं सनन्दीशं उच्चैर्घोषं सनातनम् ।
अघोररूपकं कुम्भं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१३॥
पूर्वजावरजं याम्यं सूक्ष्मं तस्करनायकम् ।
नीलकण्ठं जघन्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१४॥
सुराश्रयं विषहरं वर्मिणं च वरूधिनम् ।
महासेनं महावीरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१५॥
कुमारं कुशलं कूप्यं वदान्यञ्च महारथम् ।
तौर्यातौर्यं च देव्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१६॥
दशकर्णं ललाटाक्षं पञ्चवक्त्रं सदाशिवम् ।
अशेषपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१७॥
नीलकण्ठं जगद्वन्द्यं दीननाथं महेश्वरम् ।
महापापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१८॥
चूडामणीकृतविभुं वलयीकृतवासुकिम् ।
कैलासवासिनं भीमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१९॥
कर्पूरकुन्दधवलं नरकार्णवतारकम् ।
करुणामृतसिन्धुं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२०॥
महादेवं महात्मानं भुजङ्गाधिपकङ्कणम् ।
महापापहरं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२१॥
भूतेशं खण्डपरशुं वामदेवं पिनाकिनम् ।
वामे शक्तिधरं श्रेष्ठं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२२॥
फालेक्षणं विरूपाक्षं श्रीकण्ठं भक्तवत्सलम् ।
नीललोहितखट्वाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२३॥
कैलासवासिनं भीमं कठोरं त्रिपुरान्तकम् ।
वृषाङ्कं वृषभारूढं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२४॥
सामप्रियं सर्वमयं भस्मोद्धूलितविग्रहम् ।
मृत्युञ्जयं लोकनाथं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२५॥
दारिद्र्यदुःखहरणं रविचन्द्रानलेक्षणम् ।
मृगपाणिं चन्द्रमौळिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२६॥
सर्वलोकभयाकारं सर्वलोकैकसाक्षिणम् ।
निर्मलं निर्गुणाकारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२७॥
सर्वतत्त्वात्मकं साम्बं सर्वतत्त्वविदूरकम् ।
सर्वतत्त्वस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२८॥
सर्वलोकगुरुं स्थाणुं सर्वलोकवरप्रदम् ।
सर्वलोकैकनेत्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२९॥
मन्मथोद्धरणं शैवं भवभर्गं परात्मकम् ।
कमलाप्रियपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३०॥
तेजोमयं महाभीमं उमेशं भस्मलेपनम् ।
भवरोगविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३१॥
स्वर्गापवर्गफलदं रघुनाथवरप्रदम् ।
नगराजसुताकान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३२॥
मञ्जीरपादयुगलं शुभलक्षणलक्षितम् ।
फणिराजविराजं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३३॥
निरामयं निराधारं निस्सङ्गं निष्प्रपञ्चकम् ।
तेजोरूपं महारौद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३४॥
सर्वलोकैकपितरं सर्वलोकैकमातरम् ।
सर्वलोकैकनाथं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३५॥
चित्राम्बरं निराभासं वृषभेश्वरवाहनम् ।
नीलग्रीवं चतुर्वक्त्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३६॥
रत्नकञ्चुकरत्नेशं रत्नकुण्डलमण्डितम् ।
नवरत्नकिरीटं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३७॥
दिव्यरत्नाङ्गुलीस्वर्णं कण्ठाभरणभूषितम् ।
नानारत्नमणिमयं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३८॥
रत्नाङ्गुलीयविलसत्करशाखानखप्रभम् ।
भक्तमानसगेहं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३९॥
वामाङ्गभागविलसदम्बिकावीक्षणप्रियम् ।
पुण्डरीकनिभाक्षं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४०॥
सम्पूर्णकामदं सौख्यं भक्तेष्टफलकारणम् ।
सौभाग्यदं हितकरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४१॥
नानाशास्त्रगुणोपेतं स्फुरन्मङ्गल विग्रहम् ।
विद्याविभेदरहितं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४२॥
अप्रमेयगुणाधारं वेदकृद्रूपविग्रहम् ।
धर्माधर्मप्रवृत्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४३॥
गौरीविलाससदनं जीवजीवपितामहम् ।
कल्पान्तभैरवं शुभ्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४४॥
सुखदं सुखनाशं च दुःखदं दुःखनाशनम् ।
दुःखावतारं भद्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४५॥
सुखरूपं रूपनाशं सर्वधर्मफलप्रदम् ।
अतीन्द्रियं महामायं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४६॥
सर्वपक्षिमृगाकारं सर्वपक्षिमृगाधिपम् ।
सर्वपक्षिमृगाधारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४७॥
जीवाध्यक्षं जीववन्द्यं जीवजीवनरक्षकम् ।
जीवकृज्जीवहरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४८॥
विश्वात्मानं विश्ववन्द्यं वज्रात्मावज्रहस्तकम् ।
वज्रेशं वज्रभूषं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४९॥
गणाधिपं गणाध्यक्षं प्रलयानलनाशकम् ।
जितेन्द्रियं वीरभद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५०॥
त्र्यम्बकं मृडं शूरं अरिषड्वर्गनाशनम् ।
दिगम्बरं क्षोभनाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५१॥
कुन्देन्दुशङ्खधवलं भगनेत्रभिदुज्ज्वलम् ।
कालाग्निरुद्रं सर्वज्ञं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५२॥
कम्बुग्रीवं कम्बुकण्ठं धैर्यदं धैर्यवर्धकम् ।
शार्दूलचर्मवसनं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५३॥
जगदुत्पत्तिहेतुं च जगत्प्रलयकारणम् ।
पूर्णानन्दस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५४॥
सर्गकेशं महत्तेजं पुण्यश्रवणकीर्तनम् ।
ब्रह्माण्डनायकं तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५५॥
मन्दारमूलनिलयं मन्दारकुसुमप्रियम् ।
बृन्दारकप्रियतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५६॥
महेन्द्रियं महाबाहुं विश्वासपरिपूरकम् ।
सुलभासुलभं लभ्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ५७॥
बीजाधारं बीजरूपं निर्बीजं बीजवृद्धिदम् ।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५८॥
युगाकारं युगाधीशं युगकृद्युगनाशनम् ।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५९॥
धूर्जटिं पिङ्गलजटं जटामण्डलमण्डितम् ।
कर्पूरगौरं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६०॥
सुरावासं जनावासं योगीशं योगिपुङ्गवम् ।
योगदं योगिनां सिंहं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६१॥
उत्तमानुत्तमं तत्त्वं अन्धकासुरसूदनम् ।
भक्तकल्पद्रुमस्तोमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६२॥
विचित्रमाल्यवसनं दिव्यचन्दनचर्चितम् ।
विष्णुब्रह्मादि वन्द्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६३॥
कुमारं पितरं देवं श्रितचन्द्रकलानिधिम् ।
ब्रह्मशत्रुं जगन्मित्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६४॥
लावण्यमधुराकारं करुणारसवारधिम् ।
भ्रुवोर्मध्ये सहस्रार्चिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६५॥
जटाधरं पावकाक्षं वृक्षेशं भूमिनायकम् ।
कामदं सर्वदागम्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६६॥
शिवं शान्तं उमानाथं महाध्यानपरायणम् ।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६७॥
वासुक्युरगहारं च लोकानुग्रहकारणम् ।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६८॥
शशाङ्कधारिणं भर्गं सर्वलोकैकशङ्करम् ।
शुद्धं च शाश्वतं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६९॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणम् ।
गम्भीरं च वषट्कारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७०॥
भोक्तारं भोजनं भोज्यं जेतारं जितमानसम् ।
करणं कारणं जिष्णुं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७१॥
क्षेत्रज्ञं क्षेत्रपालञ्च परार्धैकप्रयोजनम् ।
व्योमकेशं भीमवेषं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७२॥
भवज्ञं तरुणोपेतं चोरिष्टं यमनाशनम् ।
हिरण्यगर्भं हेमाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७३॥
दक्षं चामुण्डजनकं मोक्षदं मोक्षनायकम् ।
हिरण्यदं हेमरूपं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७४॥
महाश्मशाननिलयं प्रच्छन्नस्फटिकप्रभम् ।
वेदास्यं वेदरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७५॥
स्थिरं धर्मं उमानाथं ब्रह्मण्यं चाश्रयं विभुम् ी
जगन्निवासं प्रथममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७६॥
रुद्राक्षमालाभरणं रुद्राक्षप्रियवत्सलम् ।
रुद्राक्षभक्तसंस्तोममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७७॥
फणीन्द्रविलसत्कण्ठं भुजङ्गाभरणप्रियम् ।
दक्षाध्वरविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७८॥
नागेन्द्रविलसत्कर्णं महीन्द्रवलयावृतम् ।
मुनिवन्द्यं मुनिश्रेष्ठमेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७९॥
मृगेन्द्रचर्मवसनं मुनीनामेकजीवनम् ।
सर्वदेवादिपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८०॥
निधनेशं धनाधीशं अपमृत्युविनाशनम् ।
लिङ्गमूर्तिमलिङ्गात्मं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८१॥
भक्तकल्याणदं व्यस्तं वेदवेदान्तसंस्तुतम् ।
कल्पकृत्कल्पनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८२॥
घोरपातकदावाग्निं जन्मकर्मविवर्जितम् ।
कपालमालाभरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८३॥
मातङ्गचर्मवसनं विराड्रूपविदारकम् ।
विष्णुक्रान्तमनन्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८४॥
यज्ञकर्मफलाध्यक्षं यज्ञविघ्नविनाशकम् ।
यज्ञेशं यज्ञभोक्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८५॥
कालाधीशं त्रिकालज्ञं दुष्टनिग्रहकारकम् ।
योगिमानसपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८६॥
महोन्नतमहाकायं महोदरमहाभुजम् ।
महावक्त्रं महावृद्धं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८७॥
सुनेत्रं सुललाटं च सर्वभीमपराक्रमम् ।
महेश्वरं शिवतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।८८॥
समस्तजगदाधारं समस्तगुणसागरम् ।
सत्यं सत्यगुणोपेतं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ८९॥
माघकृष्णचतुर्दश्यां पूजार्थं च जगद्गुरोः ।
दुर्लभं सर्वदेवानां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९०॥
तत्रापि दुर्लभं मन्येत् नभोमासेन्दुवासरे ।
प्रदोषकाले पूजायां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९१॥
तटाकं धननिक्षेपं ब्रह्मस्थाप्यं शिवालयम्
कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९२॥
दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।९३॥
तुलसीबिल्वनिर्गुण्डी जम्बीरामलकं तथा ।
पञ्चबिल्वमिति ख्यातं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९४॥
अखण्डबिल्वपत्रैश्च पूजयेन्नन्दिकेश्वरम् ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९५॥
सालङ्कृता शतावृत्ता कन्याकोटिसहस्रकम् ।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९६॥
दन्त्यश्वकोटिदानानि अश्वमेधसहस्रकम् ।
सवत्सधेनुदानानि एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।९७॥
चतुर्वेदसहस्राणि भारतादिपुराणकम् ।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९८॥
सर्वरत्नमयं मेरुं काञ्चनं दिव्यवस्त्रकम् ।
तुलाभागं शतावर्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९९॥
अष्टोत्तरश्शतं बिल्वं योऽर्चयेल्लिङ्गमस्तके ।
अधर्वोक्तं अधेभ्यस्तु एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१००॥
काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।१०१॥
अष्टोत्तरशतश्लोकैः स्तोत्राद्यैः पूजयेद्यथा ।
त्रिसन्ध्यं मोक्षमाप्नोति एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०२॥
दन्तिकोटिसहस्राणां भूः हिरण्यसहस्रकम्
सर्वक्रतुमयं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।१०३॥
पुत्रपौत्रादिकं भोगं भुक्त्वा चात्र यथेप्सितम् ।
अन्ते च शिवसायुज्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०४॥
विप्रकोटिसहस्राणां वित्तदानाच्च यत्फलम् ।
तत्फलं प्राप्नुयात्सत्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०५॥
त्वन्नामकीर्तनं तत्त्वं तवपादाम्बु यः पिबेत्
जीवन्मुक्तोभवेन्नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०६॥
अनेकदानफलदं अनन्तसुकृतादिकम् ।
तीर्थयात्राखिलं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०७॥
त्वं मां पालय सर्वत्र पदध्यानकृतं तव ।
भवनं शाङ्करं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०८॥

शिवरात्रि: आध्यात्मिक जागरण की पावन रात्रि

शिवरात्रि: आध्यात्मिक जागरण की पावन रात्रि

शिवरात्रि का पर्व भगवान शिव की आराधना का एक विशेष अवसर है, जो आत्मा को शुद्ध करने और ईश्वर के प्रति अटूट भक्ति व्यक्त करने का संदेश देता है। यह रात्रि आध्यात्मिक शक्ति, ध्यान, और आत्म-साक्षात्कार का अद्भुत संगम है। शिव भक्त इस दिन उपवास रखते हैं, रुद्राभिषेक करते हैं, और पूरी रात जागरण कर भगवान शिव के ध्यान में लीन रहते हैं।

शिव का दिव्य स्वरूप

भगवान शिव अनादि, अनंत और संहार के देवता हैं। उनका स्वरूप रहस्यमय और दिव्य है—त्रिशूलधारी, मस्तक पर चंद्रमा, तीसरी आँख की ज्योति, गले में नागों की माला और शरीर पर भस्म का लेप। वे न केवल संहार के प्रतीक हैं, बल्कि करुणा, प्रेम, और कल्याण के स्रोत भी हैं।

शिवरात्रि की इस पावन रात्रि में, भक्तगण भगवान शिव का ध्यान करते हुए इस श्लोक का उच्चारण करते हैं:

बं बं भो । बं बं भो
बं बं भो । बं बं भो
बं बं भो । बं बं भो
बं बं भो । बं बं भो


शिवरात्रि का महत्व

शास्त्रों के अनुसार, यह वह रात है जब भगवान शिव ने देवी पार्वती से विवाह किया था, और इसी रात वे तांडव नृत्य में लीन हुए थे, जो सृष्टि के चक्र को चलाने का प्रतीक है। यह दिन हमें यह भी सिखाता है कि आत्म-संयम, भक्ति और ध्यान के माध्यम से हम अपने भीतर छिपे दिव्यता को जाग्रत कर सकते हैं।

पंचभूतलिंगeshwara का आशीर्वाद:
शिव पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश) से संबद्ध हैं, और उनके आशीर्वाद से यह समस्त ब्रह्मांड संचालित होता है। वे समस्त प्राणियों के आत्मलिंग हैं और संसार में संतुलन बनाए रखते हैं।

शिवरात्रि की रात्रि—भक्ति और साधना

इस रात्रि में शिवलिंग का अभिषेक करना अत्यंत शुभ माना जाता है। भक्तजन जल, दूध, शहद, और बेलपत्र अर्पित कर भगवान शिव का पूजन करते हैं। कहा जाता है कि इस दिन सच्चे मन से की गई साधना और उपवास से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, और आत्मा मोक्ष की ओर अग्रसर होती है।

शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए करें ये कार्य:

  1. रुद्राभिषेक – दूध, शहद, और जल से भगवान शिव का अभिषेक करें।
  2. मौन व्रत – शिवरात्रि की रात मौन रहकर ध्यान करने से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है।
  3. शिव मंत्रों का जाप – "ॐ नमः शिवाय" मंत्र का जाप करने से आत्मिक शांति और शक्ति मिलती है।
  4. भस्म धारण – शिव की भक्ति में भस्म का महत्व अत्यधिक है, जो हमारी नश्वरता का प्रतीक है।
  5. शिव कथा का श्रवण – इस दिन शिव पुराण, शिवमहिम्न स्तोत्र, और तांडव स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत लाभकारी होता है।

शिव ही सत्य हैं

शिव हमें यह सिखाते हैं कि जीवन परिवर्तनशील है, और हर अंत एक नए आरंभ का संकेत होता है। वे हमें सिखाते हैं कि सच्ची भक्ति केवल मंदिरों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे कर्मों और आचरण में भी परिलक्षित होनी चाहिए। शिवरात्रि का पर्व हमें अपने भीतर के अज्ञान और अंधकार को समाप्त कर ज्ञान और भक्ति के प्रकाश की ओर ले जाता है।


(डमरुकम्)

बं बं भो । बं बं भो

बं बं भो । बं बं भो

बं बं भो । बं बं भो

बं बं भो । बं बं भो


सर्पप्रावितृ दर्पप्राभव विप्रप्रेरित परा ।

दिक्पूरप्रद कर्पूरप्रभ अर्पिंतुमु शङ्करा ॥


शिव शिव शङ्कर हर हर शङ्कर

जय जय शङ्कर दिगि-रा-रा ।

प्रिय-ताण्डव शङ्कर प्रकट-शुभङ्कर

प्रळय-भयङ्कर दिगि-रा-रा ॥


ॐ परमेश्वरा परा ॐ निखिलेश्वरा हरा ॐ जीवेश्वरेश्वरा गण-रा-रा ।

ॐ मन्त्रेश्वरा-स्वरा ॐ यन्त्रेश्वरा-स्थिरा ॐ तन्त्रेश्वरा-वरा रा-वे-रा ॥ 


आकशलिङ्गमय आवहिञ्चरा

डम-डम-मणि डमरुक-ध्वनि सलिपि जडतनि वदिलिञ्चरा ।

श्री वायुलिङ्गमय सञ्चरिञ्चरा 

अणुवणुवणुवुन तन तनुवुन निलचि चलनमे कलिगिञ्चरा ।

भस्मं चेसेय् असुरुलनु अग्निलिङ्गमय प्रलयकारा

वरदै मुञ्चेय् जललिङ्गमय घोरा

वरमै वशमै प्रबलमौ भूलिङ्गमय बलमिडरा

जगमे नडिपे पञ्चभूतलिङ्गेश्वरा करुणिञ्चरा ॥ 


विश्वेशलिङ्गमय खणिकरिञ्चरा

विधिलिखितमुनिक पर पर पर चेरिपि अमृतमे कुरिपिञ्चरा

रामेशलिङ्गमय महिमा चूपरा

पलु शुभमुलु गनि अभयमुलिडि हितमु सततमु अन्दिञ्चरा

ग्रहणं निधनं बापरा काळहस्तिलिङ्गेश्वरा

प्राणं नीवै आलिङ्गनम्मीरा

ऐदलो कोलुवै हरहरा आत्मलिङ्गमय निलबडरा

द्युतिवै गति

वै सर्वजीवलोकेश्वरा रक्षिञ्चरा ॥

ॐ नमः शिवाय! हर हर महादेव!

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

नक्षत्र से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण जानकारी

*🚩🌹नक्षत्र से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण जानकारी 🌹🚩*

*नक्षत्र मास के नाम:-*
*1.आश्विन, 2.भरणी, 3.कृतिका, 4.रोहिणी, 5.मृगशिरा, 6.आर्द्रा 7.पुनर्वसु, 8.पुष्य, 9.आश्लेषा, 10.मघा, 11.पूर्वा फाल्गुनी, 12.उत्तरा फाल्गुनी, 13.हस्त, 14.चित्रा, 15.स्वाति, 16.विशाखा, 17.अनुराधा, 18.ज्येष्ठा, 19.मूल, 20.पूर्वाषाढ़ा, 21.उत्तराषाढ़ा, 22.श्रवण, 23.धनिष्ठा, 24.शतभिषा, 25.पूर्वा भाद्रपद, 26.उत्तरा भाद्रपद और 27.रेवती।*
 
*नक्षत्रों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है। ये चार श्रेणियां हैं- 1. अन्ध नक्षत्र 2. मन्दलोचन नक्षत्र 3. मध्यलोचन नक्षत्र और 4. सुलोचन नक्षत्र।*
 
*1. अन्ध नक्षत्र:- पुष्य, उत्तराफ़ाल्गुनी, विशाखा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा, रेवती और रोहिणी।*

 
*2. मन्दलोचन नक्षत्र:- आश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, शतभिषा, अश्विनी और मृगशिरा।*
 
*3. मध्यलोचन नक्षत्र:- मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी और आर्द्रा।*
 
*4. सुलोचन नक्षत्र:- पूर्वा फाल्गुनी, स्वाति, मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपद, कृत्तिका और पुनर्वसु।*
 
*नक्षत्रों के गृह स्वामी कोन से ग्रह है:*
*केतु:- आश्विन, मघा, मूल।*
*शुक्र:- भरणी, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा।*
*रवि:- कार्तिक, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा।*
*चन्द्र:- रोहिणी, हस्त, श्रवण।*
*मंगल:- मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा।*
*राहु:- आर्द्रा, स्वाति, शतभिषा।*
*बृहस्पति:- पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वा भाद्रपद।*
*शनि:- पुष्य, अनुराधा, उत्तरा भाद्रपद।*
*बुध:- आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती।*
 
*1. शुभ फलदायी:1, 4, 8, 12, 13, 14, 17, 21, 22, 23, 24, 26 और 27 ये 13 नक्षत्र शुभ फलदायी है। इसमें किसी भी प्रकार का कार्य किया जा सकता है।*
 
*2. मध्यम फलदायी: 5, 7, 10 और 16 यह 4 नक्षत्र मध्यम फल देने वाले कहे गए हैं। कोई खास मजबूरी हो कि यह कार्य तो इस दिन करना ही होगा और इसे टाल नहीं सकते हैं तो इन नक्षत्रों में चौघड़िया देखकर कार्य किया जा सकता है।*
 
*3. अशुभ फलदायी: 2, 3, 6, 9, 11, 15, 18, 19, 20 और 25 ये 10 नक्षत्र अशुभ फल देने वाले माने गए हैं। अत: इन नक्षत्रों में शुभ कार्यो को करने से* *बचना चाहिए।*
*नक्षत्रों के उपाय::-*
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*हर नक्षत्र का एक वृक्ष होता है,कोई भी व्यक्ति अपने जन्म नक्षत्र के अनुसार उस वृक्ष की पूजा करके अपनें नक्षत्र को ठीक कर सकता है,यदि जन्म नक्षत्र अथवा गोचर के समय कोई नक्षत्र पीड़ित चल रहा हो तब उस नक्षत्र से संबंधित वृक्ष की पूजा करने से पीड़ा से राहत मिलती है ए अवश्य करे,*

*-:नक्षत्रों से संबंधित वृक्ष:-*
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*1,अश्विनी नक्षत्र का वृक्ष :केला,आक, धतूरा,*

*2– भरणी नक्षत्र का वृक्ष :केला,आंवला है।*

*3– कृत्तिका नक्षत्र का वृक्ष :– गूलर है ।*

*4– रोहिणी नक्षत्र का वृक्ष :– जामुन है* 

*5– मृगशिरा नक्षत्र का वृक्ष :– खैर है ।*

*6– आर्द्रा नक्षत्र का वृक्ष :– आम, बेल है ।*

*7– पुनर्वसु नक्षत्र का वृक्ष:– बांस है ।*
*8– पुष्य नक्षत्र का वृक्ष :– पीपल है ।*

*9,आश्लेषा नक्षत्र का वृक्ष :नाग केसर और चंदन है*

*10- मघा नक्षत्र का वृक्ष :– बड़ है ।*

*11- पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का वृक्ष :- ढाक है*

*12-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का वृक्ष :बड़ और पाकड़ है*

*13- हस्त नक्षत्र का वृक्ष :– रीठा है ।*

*14- चित्रा नक्षत्र का वृक्ष :– बेल है ।*

*15- स्वाति नक्षत्र का वृक्ष :– अर्जुन है ।*

*16- विशाखा नक्षत्र का वृक्ष :– नीम है ।*

*17- अनुराधा नक्षत्र का वृक्ष :–मौलसिरी है* 

*18- ज्येष्ठा नक्षत्र का वृक्ष :– रीठा है ।*

*19- मूल नक्षत्र का वृक्ष :– राल का पेड़ है।*

*20- मपूर्वाषाढ़ा नक्षत्र का वृक्ष : मौलसिरी/जामुन,*

*21- उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का वृक्ष :– कटहल है,*

*22- श्रवण नक्षत्र का वृक्ष :– आक है ।*

*23- धनिष्ठा नक्षत्र का वृक्ष :– शमी और सेमर है,*

*24- शतभिषा नक्षत्र का वृक्ष :– कदम्ब है ।*

*25- पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का वृक्ष :–आम है* 

*26-उत्तराभाद्रपद का वृक्ष:पीपल व सोनपाठा*

*27- रेवती नक्षत्र का वृक्ष :–महुआ है,*

*इनकी पूजा करने से नक्षत्रों का दोष दूर होता है प्रतिदिन इन पेडो़ के दर्शन मात्र से नक्षत्र का दोष दूर हो जाता है।🌹🚩*

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

क्या माहेश्वरी साढ़े तीन गांठ हैं

*साढ़े तीन गांठ कौनसी जाती है*
"साढ़े तीन गांठ" का संबंध राजस्थान और विशेष रूप से मारवाड़ क्षेत्र में सामाजिक एवं जातीय संदर्भों से है। यह आमतौर पर उन जातियों के लिए प्रयुक्त होता है जो चारण, राजपूत, ब्राह्मण और एक आधी गांठ के रूप में विशिष्ट जातियों से जुड़ी होती हैं।

साढ़े तीन गांठ की परिभाषा:
यह परंपरागत रूप से चारण, राजपूत, ब्राह्मण और साढ़ी (आधी) गांठ के रूप में वैश्यों को सम्मिलित करता है।

1. चारण – जो साहित्य, भक्ति और प्रशस्ति लेखन में प्रसिद्ध रहे हैं।


2. राजपूत – जो योद्धा और शासक वर्ग के रूप में जाने जाते हैं।


3. ब्राह्मण – जो वेद, पुरोहित्य और ज्ञान परंपरा के संरक्षक रहे हैं।


4. साढ़ी गांठ (वैश्य/महाजन वर्ग) – जो व्यापार एवं आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।



यह विभाजन पारंपरिक सामाजिक मान्यताओं और क्षेत्रीय परंपराओं से प्रेरित है।



*क्या माहेश्वरी साढ़े तीन गांठ हैं*
हाँ, माहेश्वरी समाज को पारंपरिक रूप से "साढ़े तीन गांठ" में शामिल किया जाता है। इस प्राचीन सामाजिक विभाजन के अनुसार, चारण, राजपूत, ब्राह्मण को पूर्ण गांठ मानी जाती हैं, और वैश्य (जिसमें माहेश्वरी, ओसवाल आदि शामिल हैं) को आधी गांठ के रूप में गिना जाता है।

माहेश्वरी समाज मूल रूप से वैश्य (व्यापारी) वर्ग से संबंधित है और इनकी उत्पत्ति भगवान महेश (शिव) के आशीर्वाद से मानी जाती है। इन्हें व्यापार, समाज सेवा और धार्मिक परंपराओं में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए जाना जाता है।

इसलिए, माहेश्वरी आधी गांठ के अंतर्गत आते हैं, और वैश्य समुदाय की प्रतिष्ठा के कारण "साढ़े तीन गांठ" की परंपरा में इनका स्थान बना हुआ है।



*एक मरा हुआ माहेश्वरी जीते जीत बनिया को खा जाता है,इस कहावत को सच करे

यह कहावत माहेश्वरी समाज की आर्थिक बुद्धिमत्ता, व्यापारिक कौशल और पारंपरिक सूझबूझ को दर्शाती है। इसका अर्थ यह है कि एक माहेश्वरी, चाहे मृत भी हो जाए (अर्थात निष्क्रिय अवस्था में भी हो), फिर भी अपनी व्यवसायिक चतुराई और रणनीति से एक जीवित बनिया (जो सामान्य रूप से व्यापार में कुशल माना जाता है) से भी बेहतर कर सकता है।

इस कहावत को सच करने के पीछे के कारण:

1. व्यापारिक कौशल – माहेश्वरी समाज के लोग अपनी आर्थिक समझ, पूंजी प्रबंधन और व्यावसायिक निर्णयों में अत्यधिक कुशल होते हैं।


2. साख और भरोसा – माहेश्वरी समाज के लोगों की व्यापार में गहरी जड़ें होती हैं और उनकी साख इतनी मजबूत होती है कि वे बिना सक्रिय व्यापार किए भी लाभ कमा सकते हैं।


3. निवेश और संपत्ति प्रबंधन – माहेश्वरी व्यापारियों की रणनीति ऐसी होती है कि उनके निवेश और संपत्तियाँ वर्षों तक लाभ देती रहती हैं, भले ही वे सक्रिय रूप से व्यापार न कर रहे हों।


4. विरासत और नेटवर्क – माहेश्वरी समाज में व्यापार को अगली पीढ़ी तक संरक्षित रखने की परंपरा होती है, जिससे उनका प्रभाव हमेशा बना रहता है।


5. लेखा-जोखा और कर्ज प्रबंधन – पुराने समय में माहेश्वरी अपनी बही-खाते और ऋण वसूली की कुशलता से भी पहचाने जाते थे।


इस कहावत का वास्तविकता में अर्थ यही है कि माहेश्वरी समाज की व्यापारिक निपुणता इतनी प्रभावशाली होती है कि उनका प्रभाव मरने के बाद भी उनके व्यवसाय और संपत्ति पर बना रहता है, जबकि अन्य लोग पूरी मेहनत के बावजूद वैसी सफलता नहीं पा पाते।

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