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रविवार, 2 सितंबर 2012

न्यूटन से पहले महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने बताया था गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त

न्यूटन से पहले महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने बताया था गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त

खगोल विज्ञान को वेद का नेत्र कहा गया, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टियों में होने वाले व्यवहार का निर्धारण काल से होता है और काल का ज्ञान ग्रहीय गति से होता है। अत: प्राचीन काल से खगोल विज्ञान वेदांग का हिस्सा रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राहृण आदि ग्रथों में नक्षत्र, चान्द्रमास, सौरमास, मल मास, ऋतु परिवर्तन, उत्तरायन, दक्षिणायन, आकाशचक्र, सूर्य की महिमा, कल्प का माप आदि के संदर्भ में अनेक उद्धरण मिलते हैं। इस हेतु ऋषि प्रत्यक्ष अवलोकन करते थे। कहते हैं, ऋषि दीर्घतमस् सूर्य का अध्ययन करने में ही अंधे हुए, ऋषि गृत्स्मद ने चन्द्रमा के गर्भ पर होने वाले परिणामों के बारे में बताया। यजुर्वेद के 18वें अध्याय के चालीसवें मंत्र में यह बताया गया है कि सूर्य किरणों के कारण चन्द्रमा प्रकाशमान है।

यंत्रों का उपयोग कर खगोल का निरीक्षण करने की पद्धति रही है। आर्यभट्ट के समय आज से 1500 से अधिक वर्ष पूर्व पाटलीपुत्र में वेधशाला (Observatory) थी, जिसका प्रयोग कर आर्यभट्ट ने कई निष्कर्ष निकाले।

भास्कराचार्य सिद्धान्त शिरोमणि ग्रंथ के यंत्राध्याय प्रकरण में कहते हैं, "काल" के सूक्ष्म खण्डों का ज्ञान यंत्रों के बिना संभव नहीं है। इसलिए अब मैं यंत्रों के बारे में कहता हूं। वे नाड़ीवलय यंत्र, यष्टि यंत्र, घटी यंत्र, चक्र यंत्र, शंकु यंत्र, चाप, तुर्य, फलक आदि का वर्णन करते हैं।

प्रत्यक्ष निरीक्षण एवं अचूक ग्रहीय व कालगणना का 6000 वर्ष से अधिक पुराना इतिहास :-

श्री धर्मपाल ने "Indian Science and Technology in the Eighteenth Century" नामक पुस्तक लिखी है। उसमें प्रख्यात खगोलज्ञ जॉन प्लेफेयर का एक लेख "Remarks on the Astronomy of the brahmins" (1790 से प्रकाशित) दिया है। यह लेख सिद्ध करता है कि 6000 से अधिक वर्ष पूर्व में भारत में खगोल का ज्ञान था और यहां की गणनाएं दुनिया में प्रयुक्त होती थीं। उनके लेख का सार यह है कि सन् 1667 में एम.लॉ. लाबेट, जो स्याम के दूतावास में थे, जब वापस आये तो अपने साथ एक पंचांग लाए। दो पंचांग मिशनरियों ने भारत से भेजे, जो एक दक्षिण भारत से था और एक वाराणसी से। एक और पंचांग एम.डी. लिस्ले ने भेजा, जो दक्षिण भारत के नरसापुर से था। वह पंचांग जब उस समय के फ्रेंच गणितज्ञों की समझ में न आया तो उन्होंने वह जॉन प्लेफेयर के पास भेज दिया, जो उस समय रॉयल एस्ट्रोनोमर थे। उन्होंने जब एक और विचित्र बात प्लेफेयर के ध्यान में आई कि स्याम के पंचांग में दी गई यामोत्तर रेखा-दी मेरिडियन (आकाश में उच्च काल्पनिक बिन्दु से निकलती रेखा) 180-15"। पश्चिम में है और स्याम इस पर स्थित नहीं है। आश्चर्य कि यह बनारस के मेरिडियन से मिलती है। इसका अर्थ है कि स्याम के पंचांग का मूल हिन्दुस्तान है।

दूसरी बात वह लिखता है, "एक आश्चर्य की बात यह है कि सभी पंचांग एक संवत् का उल्लेख करते हैं, जिसे वे कलियुग का प्रारंभ मानते हैं। और कलियुग के प्रारंभ के दिन जो नक्षत्रों की स्थिति थी, उसका वर्णन अपने पंचांग में करते हैं तथा वहीं से काल की गणना करते हैं। उस समय ग्रहों की क्या स्थिति थी, यह बताते हैं। तो यह बड़ी विचित्र बात लगती है। क्योंकि कलियुग का प्रारंभ यानि ईसा से 3000 वर्ष पुरानी बात।

(1) ब्राहृणों ने गिनती की निर्दोष और अचूक पद्धति विकसित की होगी तथा ब्रह्मांड में दूर और पास के ग्रहों को आकर्षित करने के लिए कारणीभूत गुरुत्वाकर्षण के नियम से ब्राहृण परिचित थे।

(2) ब्राहृणों ने आकाश का निरीक्षण वैज्ञानिक ढंग से किया।

प्लेफेयर के निष्कर्ष
अंत में प्लेफेयर दो बातें कहते हैं-

(1) यह सिद्ध होता है कि भारत वर्ष में एस्ट्रोनॉमी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व से थी तथा कलियुगारम्भ पर सूर्य और चन्द्र की वर्णित स्थिति वास्तविक निरीक्षण पर आधारित थी।

(2) एक तटस्थ विदेशी का यह विश्लेषण हमें आगे कुछ करने की प्रेरणा देता है।

श्री धर्मपाल ने अपनी इसी पुस्तक में लिखा है कि तत्कालीन बंगाल की ब्रिाटिश सेना के सेनापति, जो बाद में ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य बने, सर रॉबर्ट बारकर ने 1777 में लिखे एक लेख Bramins observatory at Banaras (बनारस की वेधशाला) पर प्रकाश डाला है। सन् 1772 में उन्होंने वेधशाला का निरीक्षण किया था। उस समय इसकी हालत खराब थी क्योंकि लंबे समय से उसका कोई उपयोग नहीं हुआ था। इसके बाद भी उस वेधशाला में जो यंत्र व साधन बचे थे , उनका श्री बारकर ने बारीकी से अध्ययन किया। उनके निरीक्षण में एक महत्वपूर्ण बात यह ध्यान में आई कि ये साधन लगभग 400 वर्ष पूर्व तैयार किए गए थे।

हवाई जहाज़ : भारत की महान तकनीक

हवाई जहाज़ : भारत की महान तकनीक

आज राइट बंधु को हवाई जहाज के आविष्कार के लिए श्रेय दिया जाता है क्योंकि उन्होंने 17 दिसम्बर 1903 हवाई जहाज उड़ाने का प्रदर्शन किया था। किन्तु बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि उससे लगभग 8 वर्ष पहले सन् 1895 में संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित शिवकर बापूजी तलपदे ने “मारुतसखा” या “मारुतशक्त ” नामक विमान का सफलतापूर्व क निर्माण कर लिया था, जो कि पूर्णतः वैदिक तकनीकी
पर आधारित था। पुणे केसरी नामक समाचारपत्र के अनुसार श्री तलपदे ने सन् 1895 में एक दिन (दुर्भाग्य से से सही दिनांक की जानकारी नहीं है) बंबई वर्तमान (मुंबई) के चौपाटी समुद्रतट में उपस्थित कई जिज्ञासु व्यक्तियों ( जिनमें अनेक भारतीय न्यायविद्/ राष्ट्रवादी सर्वसाधारण जन के साथ ही महादेव गोविंद रानाडे और बड़ौदा के महाराज सायाजी राव गायकवाड़ जैसे विशिष्टजन सम्मिलित थे ) के समक्ष अपने द्वारा निर्मित “चालकविहीन ” विमान “मारुतशक्त ि” के उड़ान का प्रदर्शन किया था। वहाँ उपस्थित समस्त जन यह देखकर आश्चर्यचकि त रह गए कि टेक ऑफ करने के बाद “मारुतशक्त ि” आकाश में लगभग 1500 फुट की ऊँचाई पर चक्कर लगाने लगा था। कुछ देर आकाश में चक्कर लगाने के के पश्चात् वह विमान धरती पर गिर पड़ा था। यहाँ पर यह बताना अनुचित नहीं होगा कि राइट बंधु ने जब पहली बार अपने हवाई जहाज को उड़ाया था तो वह आकाश में मात्र 120 फुट ऊँचाई तक ही जा पाया था जबकि श्री तलपदे का विमान 1500 फुट की ऊँचाई तक पहुँचा था। दुःख की बात तो यह है कि इस घटना के विषय में विश्व की समस्त प्रमुख वैज्ञानिको ं और वैज्ञानिक संस्थाओं/संगठनों पूरी पूरी जानकारी होने के बावजूद भी आधुनिक हवाई जहाज के प्रथमनिर्माण का श्रय राईट बंधुओं को दियाजाना बदस्तूर जारी है और हमारे देश की सरकार ने कभी भी इस विषय में आवश्यक संशोधन करने/ करवाने के लिए कहीं आवाज नहीं उठाई . (हम सदा सन्तोषी और आत्ममुग्ध लोग जो है!)। कहा तो यह भी जाता है कि संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित एवं वैज्ञानिक तलपदे जी की यहसफलता भारत के तत्कालीन ब्रिटिश शासकों को फूटी आँख भी नहीं सुहाई थी और उन्होंने बड़ोदा के महाराज श्री गायकवाड़, जो कि श्री तलपदे के प्रयोगों के लिए आर्थिक सहायता किया करते थे, पर दबाव डालकर श्री तलपदे केप्रयोगों को अवरोधित कर दिया था। महाराज गायकवाड़ की सहायता बन्द हो जाने पर अपने प्रयोगों को जारी रखने के लिए श्री तलपदे एक प्रकार से कर्ज में डूब गए। इसी बीच दुर्भाग्य से उनकी विदुषी पत्नी, जो कि उनके प्रयोगों में उनकी सहायक होने के साथही साथ उनकी प्रेरणा भी थीं, का देहावसान हो गया और अन्ततः सन् 1916या 1917 में श्री तलपदे का भी स्वर्गवास हो गया। बताया जाता है कि श्री तलपदे के स्वर्गवास हो जाने के बाद उनके उत्तराधिका रियों ने कर्ज सेमुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से “मारुतशक्त ि” के अवशेष को उसके तकनीकसहित किसी विदेशी संस्थान को बेच दिया था। श्री तलपदे का जन्म सन् 1864 में हुआ था। बाल्यकाल से ही उन्हें संस्कृत ग्रंथों, विशेषतः महर्षि भरद्वाज रचित “वैमानिक शास्त्र” (Aeronauti cal Science) में अत्यन्त रुचि रही थी। वे संस्कृतके प्रकाण्ड पण्डित थे। पश्चिम के एकप्रख्यात भारतविद् स्टीफन नैप (Stephen-K napp) श्री तलपदे के प्रयोगों को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं। एक अन्य विद्वान श्री रत्नाकर महाजन ने श्री तलपदे के प्रयोगों पर आधारित एक पुस्तिका भी लिखी हैं। श्री तलपदे का संस्कृत अध्ययन अत्यन्त ही विस्तृत था और उनके विमान सम्बन्धित प्रयोगों के आधार निम्न ग्रंथ थेः * महर्षि भरद्वाज रचित् वृहत् वैमानिक शास्त्र * आचार्य नारायण मुन रचित विमानचन्द् रिका * महर्षि शौनिक रचित विमान यन्त्र * महर्षि गर्ग मुनि रचित यन्त्र कल्प * आचार्य वाचस्पति रचित विमान बिन्दु * महर्षि ढुण्डिराज रचित विमान ज्ञानार्क प्रकाशिका स्वामी दयानंद द्वारा वेदों में विज्ञान की अवधारणा को साक्षात् रूप से दर्शन करवाने वाले श्री तलपडे पहले व्यक्ति थे .हमारे प्राचीन ग्रंथ ज्ञान के अथाह सागर हैं किन्तु वे ग्रंथ अब लुप्तप्राय -से हो गए हैं। यदि कुछ ग्रंथ कहीं उपलब्ध भी हैं तो उनका किसी प्रकार का उपयोग ही नहीं रह गया है क्योंकि हमारी दूषित शिक्षानीति हमें अपने स्वयं की भाषा एवं संस्कृति को हेय तथा पाश्चात्य भाषा एवं संस्कृति को श्रेष्ठ समझना ही सिखाती है।

महर्षि आर्यभट्ट ने कोपर्निकस / गैलेलियो से हजारों साल पहले ही बता दिया था कि पृथ्वी सूर्य के चारो ओर चक्कर लगाती है

महर्षि आर्यभट्ट ने कोपर्निकस / गैलेलियो से हजारों साल पहले ही बता दिया था कि पृथ्वी सूर्य के चारो ओर चक्कर लगाती है और सूर्य-पृथ्वी-चन्द्रमा और अन्य ग्रहों के आपस का सम्बन्ध.........

आर्यभट प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे।आर्यभट ने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें वर्
गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। आर्यभट्ट ने अपने इस छोटे से ग...्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित की।भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'सुवर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालंदा विश्वविद्याल ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया[क] तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी, उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। "गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है। आर्यभट पहले आचार्य थे की जिन्होने ज्योतिषशास्त्रमें अंकगणित, बीजगणित और रेखागणितको शामील किया. 'आर्यभट्टीय' ग्रंथमें उन्होने ज्योतिष्यशास्त्रके मूलभूत सिध्दांतके बारेमें लिखा. आर्यभट एक युगप्रवर्तक थे.उन्होने सारी दुनियाको बताया की पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहोंको खुदका प्रकाश नही होता और वे सुरजकी वजहसे प्रकाशित होते है. उन्होने पृथ्वीका आकार, गती, और परिधीका अंदाज भी लगाया था. और सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहणके बारेमेंभी संशोधन किया था

शनिवार, 1 सितंबर 2012

शनि की कृपा देश पर बनेँ,जय शनि महाराज


श्री शनि देवजी की आरती
जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूरज के पुत्र प्रभु छाया महतारी॥ जय.॥
श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ जय.॥
क्रीट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥ जय.॥
मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥ जय.॥
देव दनुज ऋषि मुनि सुमरिन नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥जय.॥

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