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COVID 19 चुनौती या अवसर व्यवस्था परिवर्तन का ?
विगत लगभग २ माह से पुरे विश्व में कोरोना महामारी के आधुनिक जीवन शैली पर व्यापक प्रभाव को हम सब स्पष्ट रूप से देख पा रहे है | विभिन्न सामाजिक चिन्तक इसे सकारात्मक अथवा नकारात्मक दृष्टी से देख रहे है लेकिन कुछ चिरस्थायी प्राकृतिक प्रभाव जो रूप से स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे है उस पर गहराई से चिन्तन अवश्य किया जाना चाहिए | यह कहना कतई गलत नहीं होगा की इस महामारी ने दुनिया में कृत्रिम व्यवस्थाओं को अधिक हानि पहुंचाई है, आधुनिकता की चकाचौंध पर सबसे ज्यादा प्रहार किया है | इस संकट में प्राकृतिक संसाधन तो पहले से बेहतर हुवे है लेकिन सर्वाधिक परेशानी में वही लोग है जो प्रकृति से अधिक दूर हो गये थे, जो जन प्रकृति के निकट थे, वे तो आज भी उतने ही आनंद में है जितने पहले थे | जिन लोगो ने आधुनिकता का स्वाद चखने के लोभ में अपना गाँव, अपना देश, अपना पारिवारिक व्यवसाय छोड़ा, वे ही आज सर्वाधिक परेशानी में जी रहे है |
आज कोरोना महामारी के इस दौर में जबकि प्रकृति करवट ले रही है, स्वयं को पूर्ण परिष्कृत कर रही है, हमें प्रकृति द्वारा मानव जाति को दिए जा रहे इस सन्देश को समझने का प्रयास करना होगा | जिस आर्थिक युग की तरफ हम दौड़े चले जा रहे थे, क्या भविष्य में यह मानव जीवन के लिए बेहतर व्यवस्था कही जा सकती है ? क्या एक मजदुर जो की अपने गाँव को, परिवार को, पारिवारिक व्यवसाय को छोड़कर, शहर में गया था नौकरी के लिए और आज केवल १ माह के लॉक डाउन के चलते यदि उसके भूखे मरने की नौबत आ जाती है तो ऐसा रोजगार करके क्या हासिल किया उसने ? इससे तो कही गुना बेहतर वो किसान भी है जो पारंपरिक कृषि या पशुपालन में बहुत अधिक नवाचार नही कर सका फिर भी जितना कर पाया, उसी से अपने भरण पोषण के लिए दूसरो पर निर्भर नहीं है |
आने वाले समय में बहुत से रोजगारो पर मंदी, या कर्जे की मार बढ़ने से हो सकता है की शहरी क्षेत्र के रोजगार के अवसरों पर गहरा असर पड़े | क्या ऐसे में हम सबको प्रकृति द्वारा दिए जा रहे स्पष्ट सन्देश को समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए | क्या इस परिस्थिति में जबकि हर गाँव की सीमा को सील करना आवश्यक होता जा रहा है, गाँधी जी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना, अथवा पुरातन आत्मनिर्भर भारतीय व्यवस्था पर गहन चिन्तन, अधिक प्रासंगिक नहीं हो रहा है ? कोरोना जैसी महामारियो से उत्पन्न अनिश्चितताओ को देखते हुवे क्या आने वाले समय के लिए हमें अर्थव्यवस्था के ऐसे प्रारूप पर चिन्तन नहीं करना चाहिए जिसमे गाँव का व्यक्ति, गाँव में ही रहकर, गाँव के लिए ही कार्य करते हुवे ग्राम स्वराज के स्वप्न को साकार करने के संकल्प में अपना दायित्व निर्धारण करे ?
विगत २ माह के गृहवास (लॉक डाउन) ने यह भी स्पष्ट कर दिया की दुनिया भर के आधुनिक सुख सुविधाओ, आडम्बरो आदि के बिना भी घर में बड़े आनंद के साथ रहा जा सकता है | गाँव का प्रत्येक व्यक्ति यह तय कर ले की गाँव की रोजमर्रा की हर आवश्यक वस्तु जो की गाँव में ही निर्मित की जा सकती है या उपलब्ध करायी जा सकती है वह वस्तु कोई ग्रामवासी गाँव के बाहर से नहीं लेगा, अपने ग्राम को विकसित करने के लिए, ग्राम में रहने वालो के रोजगार की व्यवस्था के लिए, गाँव को उजड़ने से बचाने के लिए हर ग्रामवासी को यह संकल्प लेना ही होगा | स्वदेशी की कल्पना को स्वग्राम तक समझना होगा | जो वास्तु ग्राम में उपलब्ध नहीं हो सकती या निर्माण नहीं हो सकती उसके लिए गृहजिले से आपूर्ति की जाये | जो जिले में संभव नहीं है उसकी आपूर्ति राज्य स्तर पर और जो राज्य में नहीं हो सकता केवल उसकी आपूर्ति राष्ट्रीय स्तर पर की जाए | लेकिन रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं का केन्द्रीयकरण ही अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक घातक सिद्ध हो रहा है | आज यदि लॉक डाउन कुछ हद तक असफल रहा है या बार बार बढ़ाना पड़ रहा है तो उसका सबसे मुख्य कारण इन वस्तुओ की आपूर्ति के लिए बाह्य आपूर्तिकर्ताओ पर निर्भर होना भी रहा है |
आज समय आ गया है जबकि युवा वर्ग को अपनी सोच में बदलाव लाते हुवे अपनी जमीन से जुड़ना पडेगा, कृषि और पशुपालन, क्षेत्रीय विशिष्टता सम्बन्धी नवाचारो के माध्यम से अपने अपने ग्राम को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सामूहिक प्रयास करने होंगे | ग्राम स्तर पर राजनैतिक नेतृत्व (पंच-सरपंच आदि) को ग्रामवासियों को जागरूक करते हुवे, युवाओ के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सबको साथ लेकर ग्राम स्वराज की कल्पना को साकार करने हेतु पुरातन भारतीय व्यवस्था और विभिन्न नवाचारो पर चर्चा करनी होगी | अपने ग्राम को आत्म निर्भर बनाने हेतु स्वावलंबन आधारित योजनाऐ बनाकर समस्त ग्रामवासियो को विश्वास में लेकर स्वयं नेतृत्व करते हुवे सामूहिक संकल्प करने होंगे | गाँव के लिए जल, जमीन, शिक्षा, रोजगार व विभिन्न संसाधनों आदि के लिए सरकारों पर आश्रित रहने की बजाय सामूहिक संकल्प करते हुवे स्वयं इन व्यवस्थाओ की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक निर्णय और प्रयास करने होंगे | यदि गाँव का प्रत्येक व्यक्ति पूरी निष्ठा से अपने ग्राम को स्वयं के प्रयासों से स्वावलंबी बनाने का संकल्प कर लेगा तो प्रकृति स्वयं हर कदम पर साथ देगी, इसमें कोई संशय नहीं है | यदि इस प्रकार से देश के गाँव स्वावलंबी होने लगेंगे तो देश अवश्य आत्मनिर्भर हो जाएगा, देश की सबसे बड़ी समस्या रोजगार का हल निकल पायेगा |
मेरा युवा पीढी, विशेषकर जो हाल ही में नवनिर्वाचित जनप्रतिनिधि है उनसे विशेष अनुरोध है की जिस प्रकार संकट के इस समय में हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी देशवासियों को संबोधित करते हुवे हर देशवासी को साथ लेकर चलने का प्रयास करते है उसी भांति वे भी आगे आये, ग्रामवासियों से संपर्क कर उन्हें इस ग्राम स्वराज की संकल्पना से अवगत कराते हुवे सबकी सहमति बनाने का प्रयास करे | पशुपालन, जैविक कृषि, भूसंरक्षण एवं संवर्धन, जल संरक्षण, ग्राम्य पर्यटन, गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था, आयुर्वेद चिकित्सा जैसे अन्यान्य आयामों पर सबके साथ मिलकर विचार विमर्श कर अपने दम पर छोटी से लेकर बड़ी योजनाये बनाये | अधिकाधिक जन सहभागिता सुनिश्चित करते हुवे प्रत्येक ग्रामवासी का दायित्व निर्धारण करे और उनकी व्यवस्थित परिणिति भी सुनिश्चित करे |
यदि आप युवा है अथवा नवनिर्वाचित जनप्रतिनिधि है, यदि आप अपने क्षेत्र के उत्थान के लिए हरसंभव प्रयास करना अपना दायित्व समझते है, तो आइये सबसे पहला कदम हम स्वयं उठाये, देश का सबसे पहला आत्मनिर्भर गाँव बनाने का तबगा अपने नाम करे | यदि आप ऐसा करने में सफल हो जाते है तो जाने अनजाने में, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से आप प्रकृति की, अपने देश की कितनी बड़ी सेवा करेंगे, कितनी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर देंगे, उनको शब्दों में बखान करना इस पोस्ट में संभव नहीं हो सकता | सच्चे अर्थो में यही राष्ट्र की सेवा होगी, मानवता की सेवा होगी, प्रकृति एवं स्वयं नारायण की पूजा होगी |
जितेन्द्र लड्ढा
स्वतंत्र विचारक, राजसमन्द