यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 21 जनवरी 2023

पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वास्तिक अपने आप में विलक्षण है।


#स्वस्तिक___
●■●■●■●■●■●


स्वस्तिक हिन्दू धर्म का पवित्र, पूजनीय चिह्न और प्राचीन धर्म प्रतीक है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है। पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वास्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है।

अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वास्तिक को ही अंकित किया जाता है।
किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। स्वस्तिक बनाने से हमारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं।
किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या ज़मीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है।
इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्योहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आयें वह पवित्र बनें।
देवपूजन, विवाह, व्यापार, बहीखाता पूजन, शिक्षारम्भ तथा मुण्डन-संस्कार आदि में भी स्वस्तिक-पूजन आवश्यक समझा जाता है। स्वस्तिक का चिह्न वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक अंकित करने से किसी की बुरी नज़र नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।
पूजा स्थल, तिज़ोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वास्तिक स्थापित करना चाहिए। महिलाएँ अपने हाथों में मेंहदी से स्वस्तिक चिह्व बनाती हैं। इसे दैविक आपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है।
कभी पूजा की थाली में, कभी दरवाज़े पर, वेदों-पुराणों में प्रयुक्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ पवित्र धर्मचिह्न के रूप में प्रयुक्त स्वस्तिक चिह्न आज फैशन की दुनिया में भी शुमार होता जा रहा है। अब यह पूजा की थाली से उठकर घर की दीवारों तथा सुंदरियों के परिधानों और आभूषणों में सजने लगा है।
स्वास्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरुण एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है।
स्वास्तिक का प्रयोग शुद्ध, पवित्र एवं सही ढंग से उचित स्थान पर करना चाहिए। इसके अपमान व ग़लत प्रयोग से बचना चाहिए। शौचालय एवं गन्दे स्थानों पर इसका प्रयोग वर्जित है। ऐसा करने वाले की बुद्धि एवं विवेक समाप्त हो जाता है। दरिद्रता, तनाव एवं रोग एवं क्लेश में वृद्धि होती है। स्वास्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशान्ति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा, चिन्ता रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता से मुक्ति भी दिलाता है।
ज्योतिष में इस मांगलिक चिह्न को प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, सफलता व उन्नति का प्रतीक माना गया है। मुख्य द्वार पर ६ .५ इंच का स्वास्तिक बनाकर लगाने से से अनेक प्रकार के वास्तु दोष दूर हो जाते हैं।
हल्दी से अंकित स्वास्तिक शत्रु शमन करता है। स्वास्तिक २७ नक्षत्रों का सन्तुलित करके सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यह चिह्न नकारात्मक ऊर्जा का सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसका भरपूर प्रयोग अमंगल व बाधाओं से मुक्ति दिलाता है।

१- स्वस्तिक का अर्थ
२- स्वस्तिक का आकृति
२ .१ स्वस्तिक की ऊर्जा
३- लाल रंग का स्वस्तिक
४- भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का पौराणिक महत्त्व
४ .१ स्वस्ति मंत्र
५- स्वस्तिक की प्राचीनता
५ .१ विश्वव्यापी प्रभाव
६- स्वस्तिक से वास्तु दोष निवारण
७- टीका टिप्पणी और संदर्भ
८- सम्बंधित लेख

★स्वस्तिक का अर्थ
****************

भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही स्वस्तिक को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। यूँ तो बहुत से लोग इसे हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिह्न ही मानते हैं । किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है। सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है --- शुभ और "अस्ति" का --- होना । संस्कृ्त व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है -- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो" ।

स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ सत्ता 'या' अस्तित्व और 'क' का अर्थ है कर्ता या करने वाला। इस प्रकार स्वस्तिक शब्द का अर्थ हुआ अच्छा या मंगल करने वाला। इसलिए देवता का तेज़ शुभ करनेवाला - स्वस्तिक करने वाला है और उसकी गति सिद्ध चिह्न 'स्वस्तिक' कहा गया है।

स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण। कल्याण शब्द का उपयोग तमाम सवालों के एक जवाब के रूप में किया जाता है। शायद इसलिए भी यह निशान मानव जीवन में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत में सु-अस धातु से स्वस्तिक शब्द बनता है। सु अर्थात् सुन्दर, श्रेयस्कर, अस् अर्थात् उपस्थिति, अस्तित्व। जिसमें सौन्दर्य एवं श्रेयस का समावेश हो, वह स्वस्तिक है।

स्वस्तिक का सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वस्तिक शब्द मूलभूत सु+अस धातु से बना हुआ है। सु का अर्थ है अच्छा, कल्याणकारी, मंगलमय और अस का अर्थ है अस्तित्व, सत्ता अर्थात कल्याण की सत्ता और उसका प्रतीक है स्वस्तिक। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिह्न ही स्वास्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।

अमरकोश में स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है, अर्थात सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो। इस प्रकार स्वस्तिक में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना निहित है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परंपरा थी, लेकिन आम आदमी के लिए मंगलाचरण लिखना सम्भव नहीं था, इसलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिह्न की परिकल्पना की, ताकि सभी के कार्य सानन्द सम्पन्न हों।

★स्वस्तिक का आकृति

स्वस्तिक का आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। ( या स्वास्तिक बनाने के लिए धन चिह्न बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वास्तिक बन जाता है। ) रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे दक्षिणावर्त स्वस्तिक (घडी की सूई चलने की दिशा) कहते हैं। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर (वामोन्मुख) मुडती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक (उसके विपरीत) कहते हैं। दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरुष के प्रतीक के रूप में भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है ।

ऊं एवं स्वास्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है। स्वस्तिक चिह्व की चार रेखाओं को चार प्रकार के मंगल की प्रतीक माना जाता है। वे हैं - अरहन्त-मंगल, सिद्ध-मंगल, साहू-मंगल और केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगल। कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि यह ॐ का ही विकृत रूप है। इन रेखाओं को आचार्य अभिनव गुप्त ने नाद ब्रह्म अथवा अक्षर ब्रह्म का परिचायक माना है। नाद के पश्यंती, मध्यमा तथा बैखरी-तीन रूप हैं। अत:स्वस्तिक ब्रह्म का प्रतीक है।

श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान हैं। दिशाएँ मुख्यत: चार हैं, खड़ी तथा सीधी रेखा खींचकर जो घन चिह्न (+) जैसा आकार बनता है यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक सर्वत्र और सदैव यही माना गया है।

प्राचीन काल में राजा महाराज द्वारा किलों का निर्माण स्वस्तिक के आकार में किया जाता रहा है ताकि किले की सुरक्षा अभेद्य बनी रहे। प्राचीन पारम्परिक तरीके से निर्मित किलों में शत्रु द्वारा एक द्वार पर ही सफलता अर्जित करने के पश्चात सेना द्वारा किले में प्रवेश कर उसके अधिकाँश भाग अथवा सम्पूर्ण किले पर अधिकार करने के बाद नर संहार होता रहा है । परन्तु स्वस्तिक नुमा द्वारों के निर्माण के कारण शत्रु सेना को एक द्वार पर यदि सफलता मिल भी जाती थी तो बाकी के तीनों द्वार सुरक्षित रहते थे । ऎसी मज़बूत एवं दूरगामी व्यवस्थाओं के कारण शत्रु के लिए किले के सभी भागों को एक साथ जीतना संभव नहीं होता था । यहाँ स्वस्तिक किला / दुर्ग निर्माण के परिपेक्ष्य में "सु वास्तु" था ।

★स्वस्तिक की ऊर्जा

स्वस्तिक का आकृति सदैव कुमकुम (कुंकुम), सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करना चाहिए। यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिह्नों की महता स्वीकार करने लगा है । आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु, पदार्थ इत्यादि के ऊर्जा को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है और इस ऊर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है -- बोविस । इस यंत्र का आविष्कार जर्मन और फ्रांस ने किया है। मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र ६ ,५०० बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से अंकित स्वस्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को १००००० बोविस यूनिट में नापा है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है। इसी स्वस्तिक को थोड़ा टेड़ा बना देने पर इसकी ऊर्जा मात्र १ ,००० बोविस रह जाती है। ऊं (७०००० बोविस) चिह्न से भी अधिक सकारात्मक ऊर्जा स्वस्तिक में है। इसके साथ ही विभिन्न धार्मिक स्थलों यथा मन्दिर, गुरुद्वारा इत्यादि का ऊर्जा स्तर काफ़ी उंचा मापा गया है जिसके चलते वहां जाने वालों को शांति का अनुभव और अपनी समस्याओं, कष्टों से मुक्ति हेतु मन में नवीन आशा का संचार होता है। यही नहीं हमारे घरों, मन्दिरों, पूजा पाठ इत्यादि में प्रयोग किए जाने वाले अन्य मांगलिक चिह्नों यथा ॐ इत्यादि में भी इसी तरह की ऊर्जा समाई है। जिसका लाभ हमें जाने अनजाने में मिलता ही रहता हैं।

★लाल रंग का स्वस्तिक

भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्त्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुंकुम के रूप में किया जाता है। सभी देवताओं की प्रतिमा पर रोली का टीका लगाया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल टीका तेजस्विता, पराक्रम, गौरव और यश का प्रतीक माना गया है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को दर्शाता है। यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह का है जो स्वयं ही साहस, पराक्रम, बल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं महत्त्वकांक्षा का प्रतीक है। नारी के जीवन में इसका विशेष स्थान है और उसके सुहाग चिह्न व श्रृंगार में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है। स्त्राी के मांग का सिन्दूर, माथे की बिन्दी, हाथों की चूड़ियां, पांव का आलता, महावर, करवाचौथ की साड़ी, शादी का जोड़ा एवं प्रेमिका को दिया लाल गुलाब आदि सभी लाल रंग की महत्ता है। नाभि स्थित मणिपुर चक्र का पर्याय भी लाल रंग है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लाल रंग से ही केसरिया, गुलाबी, मैहरुन और अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वास्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए।

★भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का पौराणिक महत्त्व

वेदों में स्वस्तिक चिह्न के बनावट की व्याख्या विभिन्न अर्थों में की गई है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्व को विष्णु, सूर्य, सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है। धार्मिक नजरिए से स्वस्तिक भगवान श्री गणेश का साकार रुप है। स्वस्तिक में बाएं भाग में गं बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसकी आकृति में चार बिन्दियां भी बनाई जाती है। जिसमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानि कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है। शिव के वरदान स्वरूप हर मांगलिक और शुभ कार्य पर सबसे पहले श्रीगणेश का पूजन किया जाता है। इसी वजह से किसी भी प्रकार का कोई भी मांगलिक कार्य, शुभ कर्म या विवाह आदि धर्म कर्म में स्वतिस्क बनाना अनिवार्य है। गणेश की प्रतिमा की स्वस्तिक चिह्न के साथ संगति बैठ जाती है। गणपति की सूंड, हाथ, पैर, सिर आदि को इस तरह चित्रित किया जा सकता है, जिसमें स्वस्तिक की चार भुजाओं का ठीक तरह समन्वय हो जाए।

ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सूर्य को समस्त देव शक्तियों का केंद्र और भूतल तथा अन्तरिक्ष में जीवनदाता माना गया है। स्वस्तिक को सूर्य की प्रतिमा मान कर इन्हीं विशेषताओं के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति जागृत करने का उपक्रम किया जाता है। ऋग्वेद में स्वस्तिक के देवता सवृन्त का उल्लेख है। सविन्त सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।

पुराणों में स्वस्तिक को विष्णु का सुदर्शन चक्र माना गया है। उसमें शक्ति, प्रगति, प्रेरणा और शोभा का समन्वय है। इन्हीं के समन्वय से यह जीवन और संसार समृद्ध बनता है। विष्णु की चार भुजाओं की संगति भी कहीं-कहीं सुदर्शन चक्र के साथ बिठाई गई है। स्वस्तिक विष्णु के सुदर्शन-चक्र का भी प्रतीक माना गया है। सूर्य का प्रतीक सदैव विष्णु के हाथ में घूमता है। दूसरे शब्दों में स्वस्तिक के चारों ओर मंडल हैं। वह भगवान विष्णु का महान सुदर्शन चक्र है जो समस्त लोक की सृजनात्मक एवं चालक सर्वोच्च सता है। स्वस्तिक की चार भुजाओं से विष्णु के चार भुजा के रूप में माना गया है जो विकास और विनाश के बीच संतुलन बनाकर सृष्टि को चला रहे हैं। भगवान श्रीविष्णु अपने चारों हाथों से दिशाओं का पालन करते हैं। स्वस्तिक का केन्द्र-बिन्दु है नारायण का नाभि-कमल, यानी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का उत्पत्ति-स्थल। इससे सिद्ध होता है कि स्वस्तिक सृजनात्मक है। स्वस्तिक शास्त्रीय दृष्टि से `प्रणय' का स्वरूप है।

वायवीय संहिता में स्वस्तिक को आठ यौगिक आसनों में एक बतलाया गया है। यास्काचार्य ने इसे ब्रह्म का ही एक स्वरूप माना है। कुछ विद्वान इसकी चार भुजाओं को हिन्दुओं के चार वर्णों की एकता का प्रतीक मानते हैं। इन भुजाओं को ब्रह्मा के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में भी स्वीकार किया गया है। स्वस्तिक की खडी रेखा को स्वयं ज्योतिर्लिंग का सूचन तथा आडी रेखा को विश्व के विस्तार का भी संकेत माना जाता है। इन चारों भुजाओं को चारों दिशाओं के कल्याण की कामना के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, जिन्हें बाद में इसी भावना के साथ रेडक्रॉस सोसायटी ने भी अपनाया।

ॐ को स्वस्तिक के रूप में लिया जा सकता है। लिपि विज्ञान के आरंभिक काल में गोलाई के अक्षर नहीं, रेखा के आधार पर उनकी रचना हुई थी। ॐ को लिपिबद्ध करने के आरंभिक प्रयास में उसका स्वरूप स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता ॐ की है। उसको उच्चारण से जब लिपि लेखन में उतारा गया, तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई। जिस प्रकार ऊँ में उत्पत्ति, स्थिति, लय तीनों शक्तियों का समावेश होने के कारण इसे दिव्य गुणों से युक्त, मंगलमय, विघ्नहारक माना गया है, उसी प्रकार स्वस्तिक में भी इसी निराकार परमात्मा का वास है, जिसमें उत्पत्ति, स्थिति, लय की शक्ति है। अन्तर केवल इतना ही है कि, अंकित करने की कला निम्न है। देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभा-मंडल का चिह्न ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है और यह मान्यता श्रुति द्वारा प्रतिपादित तथा युक्तिसंगत भी दिखाई देती है।

★उत्तर पश्चिमी बुल्गारिया में ७००० साल पुराने स्वस्तिक

स्वस्तिक को इण्डो-यूरोपीय प्राचीन देवता, वायु देवता, अग्नि पैदा करने का यंत्र नारी और पुरुष का मिलन, नारी, गणपति एवं सूर्य का प्रतीक माना गया है। यास्क ने स्वस्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी है। अमर कोश में उसे पुण्य, मंगल, क्षेम एवं आशीर्वाद के अर्थ में लिया है। सिद्धान्तसार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। इस प्रकार स्वस्तिक छोटा-सा प्रतीक है, पर उसमें विराट सम्भावनाएं समाई हैं। हम उसका महत्त्व समझें और उसे समुचित श्रद्धा मान्यता प्रदान करते हुए अभीष्ट प्रेरणा करें, यही उचित है।

★स्वस्ति मंत्र

स्वस्तिक में भगवान गणेश का रुप होने का प्रमाण दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेदों में आए शांति पाठ से भी होती है, जो हर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों में बोला जाता है। स्वस्ति वाचन के प्रथम मन्त्र में लगता है स्वस्तिक का ही निरूपण हुआ है। उसकी चार भुजाओं को ईश्वर की चार दिव्य सत्ताओं का प्रतीक माना गया है। किसी भी मंगल कार्य के प्रारम्भ में स्वस्ति मंत्र बोलकर कार्य की शुभ शुरुआत की जाती है। यह मंत्र है -

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥
महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो। इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन किया गया है। इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं स्वस्तिक का वास होता है सरल शब्दों में जहां परिवार, समाज या रिश्तों में प्यार, सुख, श्री, उमंग, उल्लास, सद्भाव, सुंदरता और विश्वास का भाव हो। वहीं सुख और सौभाग्य होता है। इसे ही जीवन पर श्री गणेश की कृपा माना जाता है यानि श्री गणेश वहीं बसते हैं। इसलिए श्रीगणेश को मंगलकारी देवता माना गया है।

★स्वस्तिक की प्राचीनता

स्वस्तिक आर्यत्व का चिह्न माना जाता है। वैदिक साहित्य में स्वस्तिक की चर्चा नहीं हैं। यह शब्द ई॰ सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है जिसे हड़प्पा से पहले का माना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।स्टाइन की दृष्टि से स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले-पहल एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान में प्रकट होता है।
स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई में और अल्लीन-देपे में पाये गये हैं।और उनका समय २३०० -२००० ई॰ पू॰ है।

शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग श्राद्ध वाले बरतनों पर होता था, और १२०० ई॰ पू॰ के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें क़ब्र की जगह पर इस प्रकार का चिह्न मिलता है। `मैकेंजी' ने इस समस्या का विषद् रूप से विवेचन किया है और बताया है कि विभिन्न देशों में स्वस्तिक अनेक प्रतीकार्यों को निर्देशित करता है। उन्होंने स्वस्तिक को पजनन प्रतीक उर्वरता का प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न अलंकरण का चिह्न एवं अलंकरण का चिह्न माना है।

ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्त्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ों, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिला लेखों, रामायण, हरवंश पुराण महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। भारत में आज तक लगभग जितनी भी पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे प्राप्त पुरावशेषों में स्वस्तिक का अंकन बराबर मिलता है। सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में प्राप्त बर्तन और मुद्राओं पर हमें स्वस्तिक की आकृतियाँ खुदी मिली हैं, जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त प्रमाण है तथा जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग २ -४ हज़ार वर्ष पूर्व में भी मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। सिन्धु-घाटी सभ्यता के लोग सूर्य-पूजक थे और स्वस्तिक चिह्व, सूर्य का भी प्रतीक माना जाता रहा है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से ऐसी अनेक मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर स्वस्तिक अंकित है। मोहन-जोदड़ों की एक मुद्रा में हाथी स्वस्तिक के सम्मुख झुका हुआ दिखलाया गया है। अशोक के शिला-लेखों में स्वस्तिक का प्रयोग अधिकता से हुआ है। पालि अभिलेखों में भी इस प्रतीक का अंकन है। पश्चिम भारत के अनेक गुहा-मंदिरों यथा -- कुंडा, कार्ले, जूनर और शेलारवाड़ी में यह प्रतीक विशेष अवलोकनीय है। साँची, भरहुत और अमरावती के स्तूपों में यह स्वतंत्र रूप से अंकित नहीं है, पर सांची स्तूप के प्रवेश द्वार पर वृत्ताकार चतुष्पथ के रूप में प्रदर्शित है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी की खण्डगिरि, उदयगिरि की रानी की गुफ़ा में भी स्वस्तिक चिह्व मिले हैं। मत्स्य पुराण में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वस्तिक की चर्चा की गयी है। पाणिनी की व्याकरण में भी स्वस्तिक का उल्लेख है। पाली भाषा में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से पुकारा गया, जो बाद में साखी या साकी कहलाये जाने लगे। जैन परम्परा में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकृत अष्टमंगल द्रव्यों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोपरि है। प्रागैतिहासिक मानव के मूल रूप में गुफा भित्तियों पर चित्रकला के जो बीज उकेरे थे उनमें `सीधी, तिरछी या आड़ी रेखाएँ, त्रिकोणात्मक आकृतियाँ थीं। यही आकृतियाँ उस युग की लिपि थी। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।

ईसा पूर्व में स्वस्तिक आकृति के दायें और बायें पक्ष से आदमी लापरवाह थे। उस समय इस रहस्यमय आकृति की गंभीरता से लोग बेखबर थे। तब यह धार्मिक रूप से दो सिद्धान्तों के विकास और विनाश को दर्शाता था। स्वस्तिक का महत्त्व समाज और धर्म दोनों ही स्थानों में है। भारतवर्ष में एक विशाल जनसमूह स्वस्तिक निशान का उपयोग करता है। कोई इसे सजाने के तौर पर तो कोई इसका उपयोग धर्म और आत्मा को जोड़कर करता है। दक्षिण भारत में जहां इसका उपयोग दीवारों और दरवाजों को सजाने में किया जाता है, वहीं पूर्वोत्तर राज्यों में इस आकृति को तंत्र-मंत्र से जोड़कर देखा जाता है। भारत के पूर्वी क्षेत्रों में इस आकृति को एक पवित्र धार्मिक चिह्न के रूप में माना जाता है।

★विभिन्न धर्मों में स्वस्तिक विश्वव्यापी प्रभाव

हमारे मांगलिक प्रतीकों में स्वस्तिक एक ऐसा चिह्व है, जो अत्यन्त प्राचीन काल से लगभग सभी धर्मों और सम्प्रदायों में प्रचलित रहा है। भारत में तो इसकी जडें गहरायी से पैठी हुई हैं ही, विदेशों में भी इसका काफ़ी अधिक प्रचार प्रसार हुआ है। अनुमान है कि व्यापारी और पर्यटकों के माध्यम से ही हमारा यह मांगलिक प्रतीक विदेशों में पहुँचा। भारत के समान विदेशों में भी स्वस्तिक को शुभ और विजय का प्रतीक चिह्व माना गया। इसके नाम अवश्य ही अलग-अलग स्थानों में, समय-समय पर अलग-अलग रहे। स्वस्तिक संस्कृत का शब्द है। स्वस्तिक शब्द स्वस्ति से बना है। यह हम सभी जानते हैं कि भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। संभवत:यहीं से विश्व के अनेक देशों में स्वस्तिक का विस्तार हुआ होगा। स्वस्तिक शब्द का प्रयोग पश्चिमी देशों में भी होता है। विभिन्न देशों में इसका अर्थ भिन्न-भिन्न है। स्वस्तिक चिह्न का डिजाइन इजिप्सन क्रास, चाइनीज ताउ, रोसीक्रूसियंस और क्रिश्चियन क्रास से मिलता जुलता है। विभिन्न आकृतिओं से मिलने वाला यह चिह्न हर युग में अपना अलग-अलग महत्त्व भी रखता है। सनातन धर्म और जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म, हर धर्म और युग में अपनी महत्ता के साथ स्वस्तिक उपस्थित है।

स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन, अमरीका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन है। स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ तथा पीपल की दो लकड़ियाँ मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के लोग स्वस्तिक को निर्विवाद, रूप से काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते हैं। यज्ञ में अग्नि मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि स्वस्तिक सूर्य का प्रतीक है। जैन धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न बनाकर तीन बिन्दु बनाते हैं। पारसी उसे चतुर्दिक दिशाओं एवं चारों समय की प्रार्थना का प्रतीक मानते हैं। व्यापारी वर्ग इसे शुभ-लाभ का प्रतीक मानते हैं। बहीखातों में ऊपर की ओर 'श्री' लिखा जाता है। इसके नीचे स्वस्तिक बनाया जाता है। इसमें न और स अक्षर अंकित किया जाता है जो कि नौ निधियों तथा आठों सिद्धियों का प्रतीक माना जाता है।

स्वास्तिक का प्रयोग अनेक धर्म में किया जाता है। आर्य धर्म और उसकी शाखा-प्रशाखाओं में स्वस्तिक का समान रूप से सम्मान है। बौद्ध, जैन, सिख धर्मो में उसकी समान मान्यता है। बौद्ध और जैन लेखों से सम्बन्धित प्राचीन गुफाओं में भी यह प्रतीक मिलता है। जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य धर्मों में प्रायः लाल, पीले एवं श्वेत रंग से अंकित स्वास्तिक का प्रयोग होता रहा है। महात्मा बुद्ध की मूर्तियों पर और उनके चित्रों पर भी प्रायः स्वस्तिक चिह्व मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। अमरावती के स्तूप पर स्वस्तिक चिह्व हैं। विदेशों में इस मंगल-प्रतीक के प्रचार-प्रसार में बौद्ध धर्म के प्रचारकों का भी काफ़ी योगदान रहा है। दूसरे देशों में स्वस्तिक का प्रचार महात्मा बुद्ध की चरण पूजा से बढ़ा है। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण ही जापान में प्राप्त महात्मा बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों पर स्वस्तिक चिह्व अंकित हुए मिले हैं। जापानी लोग स्वस्तिक को मन जी कहते हैं और धर्म-प्रतीकों में उसका समावेश करते हैं। मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक चिह्न मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता रहा है। नेपाल में हेरंब तथा बर्मा में महा पियेन्ने के नाम से पूजित हैं। मिस्र में सभी देवताओं के पहले कुमकुम से क्रॉस की आकृति बनाई जाती है। वह एक्टोन के नाम से पूजित है। यूरोप और अमेरिका की प्राचीन सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग होते रहने के प्रमाण मिलते हैं। ईरान, यूनान, मिश्र, मैक्सिको और साइप्रस में की गई खुदाइयों में जो मिट्टी के प्राचीन बर्तन मिले हैं, उनमें से अनेक पर स्वस्तिक चिह्व हैं। आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासियों द्वारा आदिकाल से स्वस्तिक को मंगल प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा हैं। ऑस्ट्रिया के राष्ट्रीय संग्रहालय में अपोलो देवता की एक प्रतिमा है, जिस पर स्वस्तिक चिह्व बना हुआ है। टर्की में ईसा से २२०० वर्ष पूर्व के ध्वज-दण्डों में अंकित स्वस्तिक चिह्व मिले हैं। एथेन्स में शत्रागार के सामने यह चिह्व बना हुआ है। स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड में अनेक ऐसे प्राचीन पत्थर मिले हैं, जिन पर स्वस्तिक चिह्व अंकित हैं। प्रारम्भिक ईसाई स्मारकों पर भी स्वस्तिक चिह्व देखे गये हैं। कुछ ईसाई पुरातत्त्ववेत्ताओं का विचार है कि ईसाई धर्म के प्रतीक क्रॉस का भी प्राचीनतम रूप स्वस्तिक ही है। छठी शताब्दी में चीनी राजा वू ने स्वस्तिक को सूर्य के प्रतीक के रूप में मानने की घोषणा की थी। तिब्बती स्वस्तिक को अपने शरीर पर गुदवाते हैं तथा चीन में इसे दीर्घायु एवं कल्याण का प्रतीक माना जाता है। विभिन्न देशों की रीति-रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में परिवर्तन होता रहता है। सुख समृद्धि एवं रक्षित जीवन के लिए ही स्वस्तिक पूजा का विधान है।

बेल्जियम में नामूर संग्रहालय में एक ऐसा उपकरण है जो हड्डी से बना हुआ है। उस पर क्रॉस के कई चिह्न बने हुए हैं तथा उन चिह्नों के बीच में एक स्वस्तिक चिह्न भी है। इटली के अनेक प्राचीन अस्थि कलशों पर भी स्वस्तिक चिह्व हैं। इटली के संग्रहालय में रखे एक भाले पर भी स्वस्तिक का चिह्न हैं। वहाँ के अनेक प्राचीन अस्थिकलशों पर भी स्वस्तिक का चिन्ह है ।🕉️💐🌹💐🌹💐🌹💐🌹🕉️

योगबल से प्राप्त दिव्य शक्तियों पर आम लोगों का विश्वास नहीं होता



 योगबल से प्राप्त दिव्य शक्तियों पर आम लोगों का विश्वास नहीं होता। केवल रिलिजन मानने वाले ही चमत्कार को नमस्कार करके चमत्कारियों को चर्च से सर्टिफिकेट देकर सेंट घोषित करते हैं। आप अगर रोजमर्रा के जीवन में देखेंगे तो पाएंगे कि इन्द्रियों पर नियंत्रण करने के लिए कई योगीजन ऐसी सिद्धियों का नित्य प्रयोग करते हैं। आपको पता ही है कि देखना बंद करने के लिए आसानी से आँखें बंद की जा सकती हैं। इससे दिखना बंद हो जाएगा। ऐसा सुनने के साथ नहीं किया जा सकता। सिद्ध योगी सुनना भी बंद कर सकते हैं। कई विवाहित पुरुष नेपथ्य से कोई भी ध्वनि आना आरंभ होते ही इसी सिद्धि का प्रयोग करके सुनना बंद कर देते हैं। आपको विश्वास न हो तो आस-पड़ोस की विवाहित स्त्रियों से पूछकर देख लें, आपको कई सिद्ध पुरुषों का पता चलेगा।

ऐसी सिद्धियों की प्राप्ति मुश्किल से होती है इसलिए हमेशा उनका प्रयोग नहीं किया जाता। एक दो दिन पहले हमसे भी इस सिद्धि का प्रयोग न करने की गलती हुई। उस समय पड़ोस में बैठे कोई सज्जन शायद लल्लनटॉप का यू-ट्यूब चैनल चलाये बैठे थे। इयर फोन इत्यादि के प्रयोग की अपेक्षा तो शुद्ध मूर्खता है ही। वो भी इयरफोन लगाने के बदले फुल वॉल्यूम में सबको प्रवचन सुना रहे थे। पता नहीं कौन सा इंटरव्यू था, लेकिन कमर बीस-बाईस, क्षमा कीजियेगा, कुमार विश्वास की आवाज स्पष्ट आ रही थी। अपनी औपनिवेशिक गुलामी वाली मानसिकता से ग्रस्त बेचारे “आई एम स्पिरिचुअल, नॉट रिलीजियस” की उक्ति को वो हिंदी में समझाने का मूर्खतापूर्ण प्रयास कर रहे थे।

उन्होंने समझाना शुरू किया कि दुनिया के जितने झगड़े हैं, हिंसा है, नफरत है वो धार्मिक होने की वजह से है। जो भी प्रेम है, सद्भाव है, करुणा है वो सब आध्यात्म है। और आगे बढ़ते हुए उन्होंने आध्यात्मिक होने और धार्मिक होने का अंतर बताना भी शुरू किया। धार्मिक होने की तुलना वो मूर्ती पूजा से करने लगे और कहा कि किसी भगवान के बारे में आपको बताया जाता है कि उनका सोने का मुकुट इतने किलो का है। कुमार विश्वास का मानना था कि ये भगवान हम मनुष्यों द्वारा ही गढ़े हुए हैं। पूजा में बैठने जैसे आयोजनों को वो धार्मिक बताते हुए कहने लगे कि इसमें कुछ बुरा नही है। उनके घर में भी मंदिर है और वो भी पूजा में बैठते हैं। उनका कहना था कि उनकी इस तरह के कर्म-कांडों में आस्था नहीं। उन्हें किसी कविता में एक अच्छा सा शब्द सूझ जाये तब जो अनुभव आता है, उसमें रूचि है। वो उनके हिसाब से आध्यात्म है।

मेकॉले मॉडल में पढ़ाई करने के बाद अंग्रेजी के प्रति जो दास भाव जागता है, उसके कारण “आई एम नॉट रिलीजियस, आई एम स्पिरिचुअल” जैसे वाक्यों में आस्था हो जाना स्वाभाविक है। विचार और निर्णय करने की क्षमता, जिसके कारण हिन्दुओं में मनुष्यों को दूसरे जीव-जंतुओं से श्रेष्ठ माना जाता है, उस क्षमता का प्रयोग करते ही आपको इस तर्क का कमजोर होना दिख जायेगा। जिन मजहब-रिलिजन में ईश्वर साकार नहीं, उन्होंने ही जिहाद-क्रूसेड के नाम पर सर्वाधिक हिंसा की है। इसकी तुलना में हिन्दुओं में शैव कहीं वैष्णवों का गला काट रहे हों, इसके उदाहरण ढूँढने पर भी मिलने मुश्किल हैं। तो कुमार विश्वास जो आध्यात्मिक हैं, धार्मिक नहीं, उनका मूल वाक्य ही गलत सिद्ध हो जाता है।

आसान तरीके से मूर्ती पूजा और मंदिरों की स्थापना को समझना हो तो मनुष्य और पशुओं का पानी पीना देख लीजिये। नदियों, तालाबों में वही जल उपलब्ध है। पशु उसे सीधे मुंह लगाकर पी लेते हैं। मनुष्यों में विवेक थोड़ा अधिक है तो वो ग्लास, लोटा, घड़ा, बाल्टी जैसे कई बर्तन बनाते हैं। इनमें पानी संग्रह भी किया जा सकता है। मूर्ती-मंदिर आवश्यक ही है, हिन्दू ऐसा भी नहीं मानते। जैसे पाचन क्षमता ठीक हो, रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा हो तो सीधे नदी-तालाब से भी पानी पी ही सकते हैं। कुछ उपलब्ध न हो, तब भी ऐसा किया जा सकता है। कुछ वैसे ही किसी साधू-ऋषि-मुनि के लिए बर्तन की आवश्यकता, मूर्ती-मंदिर की आवश्यकता नहीं रह गयी हो, ये संभव है। हम-आप जैसे सामान्य मनुष्यों के लिए एकाग्रता की दिशा तय करने में मूर्ती-मंदिर से सहायता होती है।

अगर भगवद्गीता पर चलें तो सत्रहवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में शरीर सम्बन्धी तप की बात की गई है –

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14

मोटे तौर पर इस श्लोक का अर्थ है - देवता, द्विज, गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शौच, आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा, इन सबको शरीर संबंधी तप कहा जाता है।

इसमें देवता यानी श्लोक का पहला ही शब्द महत्वपूर्ण है। बाकि शब्दों में आर्जव का अर्थ सरलता है और अन्य के बारे में आप संस्कृत ना समझने पर भी जानते हैं। यहाँ देव शब्द मुख्य रूप से विष्णु, शंकर, गणेश, शक्ति (दुर्गा) और सूर्य, इन पाँच ईश्वर कोटि के देवताओं के लिये आया है। इन पाँचों में जो अपना इष्ट है, जिसपर अधिक श्रद्धा है, उसका निष्काम भाव से पूजन करना चाहिये। ऐसा स्वामी रामसुखदास जी मानते हैं। करीब-करीब यही अर्थ आदिशंकराचार्य भी देते हैं। यानि कि ये कहा जा सकता है कि साकार रूप वाले देवताओं का अवसर के अनुसार पूजन करने के लिये शास्त्रों की आज्ञा है। स्वामी रामसुखदास जी ये भी जोड़ते हैं कि शास्त्रमर्यादा को सुरक्षित रखने के लिये अपना कर्तव्य समझकर इनका पूजन करना है।

बाकी सकाम भाव से पूजन करें या निष्काम भाव से, सगुण की उपासना करें या निर्गुण की, ये सब मार्गों का भेद है, लक्ष्य का भेद नहीं है, ऐसा भगवद्गीता (9.25) में ही लिखा है, वो आप स्वयं पढ़कर देख सकते हैं।

वैसे तो सत्रहवीं सदी के ख्यातिप्राप्त ब्लेज़ पास्कल एक वैज्ञानिक और गणितज्ञ के तौर पर जाने जाते हैं, लेकिन उनका काम दर्शनशास्त्र में भी रहा है। उनकी ईश्वर में आस्था से सम्बंधित एक परिकल्पना, एक सिद्धांत को पास्कल्स वेजर (Pascal’s wager) के नाम से जाना जाता है। इसे समझने के लिए पहले डिसिशन थ्योरी को समझना पड़ता है। डिसिशन थ्योरी गणित के संभाव्यता (probability) के अंतर्गत आता है। प्रोबेब्लिटी के बाकी कई सिद्धांतों की तरह ही इसे समझने के लिए भी ताश और लाटरी जैसे उदाहरण ही इस्तेमाल किये जाते हैं।

पहली स्थिति के लिए मान लीजिये कहीं सौ लाटरी टिकट बिक रहे हैं, जिनपर एक बम्पर इनाम १००० रुपये का है। हर टिकट का मूल्य एक रुपये रखा गया है। अगर आपके पास सौ रुपये हों तो क्या इस लाटरी पर दाँव लगाना समझदारी भरा होगा ? अगर इस लाटरी में खर्चे और जीत का हिसाब देखें तो समझ में आता है कि सौ की सौ टिकट खरीद लेने पर तो इनाम पक्का है। यानि सौ रुपये लगा कर आप हज़ार जीतेंगे और नौ सौ रुपये का फायदा होगा। जबकि अगर आप नहीं खेलते तो आपके सौ रुपये नहीं लगेंगे, लेकिन आप कुछ भी जीतेंगे भी नहीं।

अब इसकी एक दूसरी लाटरी से तुलना कीजिये। इसमें हज़ार टिकट हैं और हरेक का दाम दो रुपये है। इसमें एक बम्पर इनाम १००० रुपये का और एक सांत्वना पुरस्कार ५०० रुपये का दिया जा रहा है। इसे खेलने पर क्या होगा ? अगर यहाँ आप हरेक टिकट खरीद लेते हैं, ताकि पक्का जीता जा सके तो आपका इनाम होगा १००० का बम्पर और ५०० का सांत्वना यानि कुल पंद्रह सौ रुपये। टिकट खरीदने में आपका खर्च हुआ दो प्रति टिकट यानि २००० रुपये। इस हिसाब से इसे खेलना, पांच सौ रुपये का घाटा है, मतलब इस तरीके से खेलना बेवकूफी होगी।

डिसिजन थ्योरी को मोटे तौर पर परिभाषित करना हो तो आप कह सकते हैं की हर कर्म (जैसे लाटरी टिकट खरीदना) का एक निश्चित प्रतिफल होगा ही (जैसे बम्पर इनाम जीतना, सांत्वना, या फिर हार जाना); हर नतीजे का हमारे लिए एक मूल्य होता है जो कर्म के लिए किये गए प्रयास के बराबर, उस से ज्यादा या कम हो सकता है। हमारी संभावित नतीजों की ‘अपेक्षा’ का मान, उसेक मूल्य को संभाव्यता से गुणा कर के निकाला जा सकता है। यहाँ अपेक्षाओं का मोल, कर्मफल की सभी संभावनाओं का कुल जोड़ होता है। कर्म के जिस मार्ग में अपेक्षाओं का मूल्य कम से कम हो, उसे ही चुनना समझदारी का फैसला माना जाएगा, उसमें आपके नुकसान की संभावना कम हो जाती है। यही डिसिजन थ्योरी है।

पास्कल ने इसी डिसिजन थ्योरी का इस्तेमाल कर के एक २ X २ का मैट्रिक्स बनाया : या तो ईश्वर हैं, या फिर ईश्वर नहीं होते, आप ईश्वर में आस्था रखते हैं, या आप ईश्वर में आस्था नहीं रखते।

                                          ईश्वर होते हैं ईश्वर नहीं होते
आप ईश्वर में आस्था रखते हैं (a) अतुलनीय फल (c) 250 लाभ
आप ईश्वर में आस्था नहीं रखते हैं(b) अतुलनीय दंड (d) 200 लाभ

अब अगर भगवान होते हैं तो आस्तिक को तो अतुलनीय लाभ मिलेगा मगर नास्तिक बहुत सा दंड भोगेगा, लेकिन अगर भगवान नहीं होते तो आस्तिक अपने जीवनकाल में खुश रहेगा (मान लें कि जीवन में ख़ुशी का मोल २५० है), और नास्तिक भी जीवन काल में खुश होगा (लेकिन उसकी ख़ुशी का मोल २०० ही होगा)। नास्तिक कम खुश इसलिए होगा क्योंकि धर्म की छत्रछाया के बदले उसके पास नाराजगी होगी। इस पास्कल के सिद्धांत के हिसाब से आस्तिकों को नास्तिकों की तुलना में ज्यादा फायदा हो रहा है। इसलिए पास्कल के हिसाब से आस्तिक होना फायदे का सौदा है, वही करना चाहिए।

अब अगर आप इस आलेख को दोबारा देखेंगे तो आपको हिन्दुओं की मान्यता के तीन गुण सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण नजर आ जायेंगे। जब हम शुरू करते हैं तो हम आस्था के विषय को एक वैज्ञानिक के सिद्धांत के जरिये समझाने की कोशिश कर रहे हैं। ये सिद्धांत आम तौर पर हिंदी में कोई नहीं लिखता और हमने इसे बिना आर्थिक लाभ के लालच के लिखा है इसलिए ये सतोगुणी प्रवृति थी। विज्ञान और गणित के डिसिजन थ्योरी और प्रोबेब्लिटी जैसे विषयों पर हिंदी में हमसे मुक़ाबला करना लगभग नामुमकिन होगा, ये भी हमें पता है। तो अकाट्य या कठिन तर्क का अपने पक्ष से इस्तेमाल करना जिस से जीत सुनिश्चित हो, वो रजोगुण का लक्षण है। इस पूरे के पीछे मेरा मकसद कुछ और था, यानि हिडन एजेंडा भी था। ये धूर्तता तमोगुणी प्रवृति है।

अब जब बता दिया है कि धूर्तता की है, तो आपको समझ में आ गया होगा कि हमने आपको धोखे से भगवद्गीता का एक और अध्याय पढ़ा डाला है। दरअसल ये तीन गुण ही भगवद्गीता के चौदहवें अध्याय ‘गुणत्रयविभागयोग’ का मुख्य विषय हैं। अगर आप रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का शुरूआती हिस्सा भी पढ़ते हैं तो आपको ये तीन गुण दिखेंगे। सुन्दरकाण्ड में हनुमान जब लंका के लिए रवाना होने वाले होते हैं तो वो वानरों को कंद-मूल खाने और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने की सलाह देकर निकलते हैं। वहां वो सतोगुणी हैं। थोड़ी ही देर में समुद्र पार करते समय उनका सामना नागमाता सुरसा से होता है। तरह तरह के तर्क देकर, तिकड़म भिड़ा कर हनुमान उनसे बच निकलते हैं। वहां वो रजोगुणी हैं। फिर जब आगे वो सिंहिका का वध कर देते हैं, तो वो तमोगुणी भी हैं।

एक ही व्यक्ति में ये तीन गुण कैसे निवास करते हैं, कैसे इनका कर्मों पर प्रभाव पड़ता है, कैसे इनके असर से मनुष्य की प्रवृति तय हो जाती है यही गुणत्रयविभागयोग का विषय है। बाकी ये जो बताया वो नर्सरी के लेवल का है, और पीएचडी के लिए आपको खुद ही पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा ?
✍🏻आनन्द कुमार

माघ महीने में गुप्त नवरात्रि इस वर्ष 22 जनवरी, 2023 को है। गुप्त नवरात्रि में करें दस महाविद्याओं की पूजा,

 

गुप्त नवरात्रि में करें दस महाविद्याओं की पूजा, जानिए कौन है ये विद्याएं!

Gupt Navratri

नवरात्रि का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व होता है। शास्त्रों के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। लेकिन मुख्य रूप से शरद नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि व्यापक रूप से मनाया जाता है। इसके अलावा माघ और आषाढ़ में नवरात्रि होती है, जिसे गुप्त नवरात्रि के रूप में जाना जाता है। आमतौर पर गुप्त नवरात्रि में तांत्रिक क्रियाएं होती है। माता को प्रसन्न करने के लिए आम श्रदालु भी गुप्त नवरात्रि में पूजा पाठ कर सकते हैं। गुप्त नवरात्रि के पांचवें दिन बसंत पंचमी मनाई जाएगी।

गुप्त नवरात्रि कब है

माघ महीने में गुप्त नवरात्रि इस वर्ष 22 जनवरी, 2023 को है।

गुप्त नवरात्रि शुभ मुहूर्त (Gupt Navratri Shubh Muhurat)

नवरात्रि प्रारम्भ: रविवार, 22 जनवरी 2023
नवरात्रि समाप्त: सोमवार, 30 जनवरी 2023
कलश स्थापना मुहूर्त: 06:42 ए एम से 10:37 ए एम – जनवरी 22, 2023 को
अभिजीत मुहूर्त: 12:10 पी एम से 12:57 पी एम

गुप्त नवरात्रि का महत्व

गुप्त नवरात्रि मुख्य रूप से तांत्रिकों, और साधुओं द्वारा मां दुर्गा को प्रसन्न करने की लिए किया जाता है। मान्यता है कि इस नवरात्रि में तांत्रिक 10 महाविद्याओं को प्रसन्न करने के लिए पूजा करते हैं। इसे गुप्त सिद्धियां और तांत्रिक सिद्धियां प्राप्त करने का समय भी माना जाता है और ये भी कहा जाता है कि मां दुर्गा की पूजा जितनी गुप्त रखी जाती है, उसका फल उतना ज्यादा मिलता है।

गुप्त नवरात्रि में पूजे जाने वाली 10 महाविद्याएं

मां काली

ऐसी कथा प्रचलित है कि महिषासुर से युद्ध के समय माता का क्रोध अपनी चरम सीमा को पार कर गया था। उनका क्रोध उनके मस्तक से 10 भुजाओं वाली काली के रूप में प्रकट हुआ। दुर्गा के क्रोध से जन्मी काया का रंग काला होने के कारण, उन्हें काली नाम दिया गया।

तारा देवी

माता तारादेवी को तांत्रिक शक्तियों की देवी माना जाता है। सभी कष्टों से तारने वाली देवी के रूप में देवी तारा की पूजा की जाती है। जब देवी सती के मृतदेह को श्री नारायण ने अपने चक्र से भंग किया था, उनके नेत्र पश्चिम बंगाल के जहां गिरे थे, आज वहां तारापीठ है। तारापीठ को नयनतारा के नाम से भी जाना जाता है और वहां माता की पूजा देवी तारा के रूप में होती है।

त्रिपुर सुंदरी

देवासुर संग्राम के समय त्रिपुर सुंदरी ने अपनी सुंदरता से सभी असुरों को अपने वश में कर लिया था। कहते हैं कि इनके आराधना से अलौकिक शक्तियां भक्तों को प्राप्त होती है। त्रिपुर सुंदरी की शक्ति के बारे में देवी पुराण में काफी व्याख्या मिलती है।

भुवनेश्वरी

मां भुवनेश्वरी की साधना से शक्ति, लक्ष्मी, वैभव और उत्तम विद्याएं प्राप्त होती हैं। तीनों लोकों को तारने वाली मां भुवनेश्वरी के तीन नेत्र हैं, जिसके तेज से सम्पूर्ण सृष्टि कीर्तिमान है ऐसा माना जाता है। मां भुवनेश्वरी की साधना के लिए कालरात्रि, ग्रहण, होली, दीपावली, महाशिवरात्रि, कृष्ण पक्ष की अष्टमी अथवा चतुर्दशी का समय शुभ माना गया है।

माता छिन्नमस्ता

दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ झारखण्ड में स्थित देवी छिन्नमस्ता का मंदिर है। देवी ने अपने लोगों की भूख शांत करने के लिए अपनी मस्तक काट दिया था, इसलिए इन्हें माता छिन्नमस्ता के नाम से जाना जाता है।

त्रिपुर भैरवी

माता त्रिपुर भैरवी के चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इनकी भक्ति से युक्ति और मुक्ति दोनों की प्राप्ति होती है। त्रिपुर भैरवी देवी की साधना से काम, आजीविका, सौभाग्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है।

मां धूमावती

माता पार्वती ने एक बार क्रोध में भगवान शिव को निगल लिया था। तब से उनका विधवा रूप प्रचलित हुआ जिसका नाम मां धूमावती है। मां धूमावती मानव जाति में बसे इच्छा और कामनाओं का प्रतीक है जो कभी भी खतम नहीं होता है।

माता बगलामुखी

संस्कृत शब्द वल्गा, जिसका अर्थ दुल्हन होता है को दूसरे शब्दों में बगला कहा गया है। माता के अलौकिक रूप के कारण उन्हें बगलामुखी का नाम प्राप्त हुआ है। इनकी उत्पत्ति गुजरात के सौराष्ट्र में हल्दी के जल से हुई थी। इसलिए इन्हें पीताम्बरा देवी के नाम से भी जाना जाता है।

मातंगी

देवी मातंगी, मातंग तंत्र की देवी मानी जाती हैं। इन्हें जूठन का भोग लगाया जाता है। जब माता पार्वती को कोई स्त्री अपने जूठन का भोग लगा रही थी तब शिवजी और गणों ने माना किया, परन्तु उन स्त्रियों की भक्ति को मान देने के लिए माता ने मातंगी का रूप धारण कर लिया।

कमला देवी

माता कमला देवी, मां लक्ष्मी का ही स्वरुप हैं। जो भक्त सच्चे मन से मां को याद करते हैं उन्हें धन- धान्य, ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं होती है। लक्ष्मी हमेशा कमल के पुष्प पर आसीन रहती है। इसी कारण उनका नाम कमला पड़ा।

गुप्त नवरात्रि की पूजा कैसे करें

शरद नवरात्रि और चैत्री नवरात्रि की तरह ही गुप्त नवरात्रि में कलश की स्थापना की जाती है। कलश की स्थापना के साथ दोनों समय दुर्गा चालीसा या दुर्गा सप्तशती का पाठ जरूर करना चाहिए। मां को भोग लगाए और पाठ के बाद मां की आरती अवश्य करें। गुप्त नवरात्रि में माता को लौंग और बताशे का भोग लगाना बहुत शुभ माना जाता है। मां दुर्गा को लाल फूल और चुनरी जरूर अर्पित करें। माना जाता है कि गुप्त नवरात्रि के दौरान तांत्रिक और अघोरी मां दुर्गा की पूजा आधी रात में करते हैं, जिससे उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है।

मां दुर्गा के पूजा का मंत्र


दीपक जलाकर ‘ॐ दुं दुर्गायै नमः’ मंत्र का जाप करें

हरसिंगार का पौधा किस दिशा में लगायें, कैसे लगायें

हरसिंगार का पौधा किस दिशा में लगायें, कैसे लगायें



हरसिंगार का पौधा कैसा होता है | Harsingar ka Paudha –
हरसिंगार खुशबूदार फूलों वाला पौधा है जोकि बड़ा होकर करीब 20-30 फुट ऊंचा पेड़ बन सकता है। हरसिंगार के पौधे में सफेद रंग के छोटे-छोटे सुगंधित फूल खिलते हैं जिसकी डंडी नारंगी (Orange) रंग की होती है। हरसिंगार का पौधा पारिजात, शेफाली, प्राजक्ता, शिउली नाम से भारत में जाना जाता है। इसे इंग्लिश में Night blooming Jasmine या Indian Coral Jasmine भी कहते हैं। हरसिंगार का बोटैनिकल नाम Nyctanthes Arbortristis होता है।


हरसिंगार के फूल रात में खिलते हैं और सुबह होते तक गिरने लगते हैं। हरसिंगार के फूल में अच्छी भीनी-भीनी खुशबू आती है जिससे आस-पास का वातावरण महकने लगता है। हरसिंगार की पत्तियां, फूल, जड़ आदि का कई रोगों के इलाज में प्रयोग किया जाता है।

Q: हरसिंगार का पौधा किस दिशा में लगाना चाहिए ?
A: वास्तु शास्त्र के अनुसार घर या आँगन में पूर्व दिशा (east direction) में हरसिंगार या पारिजात लगाना चाहिए या गमले को रखना चाहिए।

Q: हरसिंगार का पौधा किस दिन लगाना चाहिए ?
A: सोमवार या गुरुवार के दिन लगाना चाहिए।

Q: हरसिंगार के फूल कब आते हैं
A: अगस्त से दिसंबर तक

Q: हरसिंगार के पत्ते कैसे होते हैं
A: हरसिंगार के पत्ते छूने में खुरदुरे, 2.5 से 4.5 इंच लंबे, गाढ़े हरे रंग के होते हैं।

Q: हरसिंगार का पेड़ कितना बड़ा होता है
A: 10-20 फीट औसत लंबाई होती है।

पारिजात या हरसिंगार का पौधा कैसे लगायें |
How to grow Harsingar plant in hindi

हरसिंगार लगाने के 2 तरीके हैं। हरसिंगार की कलम (cutting) लगायें या हरसिंगार के बीज से पौधा तैयार करें। हरसिंगार के कम से कम 4-5 साल पुराने पेड़ में ही बीज लगना शुरू होते हैं जिससे नए पौधे लगा सकते हैं। चूंकि हरसिंगार के पौधे या हरसिंगार के फूल आने का मौसम अगस्त से दिसंबर तक रहता है, इसलिए अगर आप हरसिंगार के बीज से पौधा तैयार करना चाहते हैं तो अप्रैल के महीने में लगायें।

Harsingar ke phool

हरसिंगार या पारिजात का कलम कैसे लगाएं
हरसिंगार (पारिजात) की कलम / कटिंग लगाने के लिए हरसिंगार के पेड़ से हाथ की छोटी उंगली जितनी मोटी डाल तोड़ लें। नयी डाल का रंग हरा सा होता है और पुरानी डाल का रंग कुछ सफेद, भूरा होता है। हमें हरसिंगार की कलम लगाने के लिए पुरानी डाल ही चाहिए। इस डाल से करीब 8-10 इंच लंबी कलम काट लें। कलम का वो सिरा जिसे गमले में दबाना है उसे तिरछा कट लगाएं। कलम में 2-3 से ज्यादा पत्तियां नहीं होनी चाहिए। कलम को बोने के बाद 1/2 चम्मच एप्सम साल्ट (Magnesium Sulfate) 1 गिलास पानी में घोलकर पौधे में डाल दें। एप्सम साल्ट डालने से कलम को बढ़ने में मदद मिलती है और पौधा शॉक में नहीं आता।

कलम (Harsingar Cutting) को पहले किसी छोटे करीब 6-8 इंच के गमले में लगायें और छाँव में रखें। दिन में एक बार पानी का छिड़काव कर दें जिससे मिट्टी नम बनी रहे। कलम को ऐसे तब रखें जब तक कि उसमें 2-3 नयी पत्तियां न निकलने लगे। उसके बाद पौधे को ऐसी जगह रख सकते हैं जहाँ दिन में कुछ घंटे धूप आती हो लेकिन सीधी तेज धूप न लगे।

हरसिंगार का पौधा कम से कम 16 से 22 इंच के गमले में लगायें, जिससे खूब फूल और अच्छी बढ़त मिले। गमले की मिट्टी में 50% मिट्टी + 30% गोबर की खाद/वर्मी काम्पोस्ट + 20% कोकोपीट मिलाएं। आप इसके साथ में थोड़ा सा नीम की खली भी मिला सकते हैं। नीम की खली पौधे को माइक्रो-न्यूट्रीएंट्स देती है और पौधे पर लगने वाले रोगों, कीड़ों से बचाव करती है। हो सके तो साल भर में 1 बार गमले की मिट्टी खाली करके नयी मिट्टी और खाद मिलाकर भर दें, नहीं तो गमले में ऊपर से ही कुछ खाद मिक्स कर दें।

Q: पारिजात या हरसिंगार का पेड़ कहां मिलता है ?

A: यह पौधा आपको किसी भी नर्सरी से मिल जाएगा। आप हरसिंगार के बीज ऑनलाइन खरीद सकते हैं या फिर हरसिंगार के किसी बड़े पौधे से कलम काटकर लगा सकते हैं। हरसिंगार का पेड़ पूरे भारत में मिलता है।

 
हरसिंगार के पौधे की देखभाल कैसे करे |
Harsingar Plant Care in hindi

पानी – गर्मी में पौधे को दिन में 2 बार हलका पानी दें, जिससे पौधे की मिट्टी नम हो जाए लेकिन जड़ों में पानी रुके नहीं। ये ध्यान रखें कि गमले की मिट्टी से एक्स्ट्रा पानी निकल जाए क्योंकि रुके हुए पानी से पौधे की जड़ खराब होने लगती है। ठंड के मौसम में दिन में 1 बार पानी दें।

धूप – हरसिंगार का पौधा ऐसी जगह लगायें जहाँ 6-8 घंटे धूप आए। सही धूप लगने से यह पौधा अच्छे से बढ़ता जाता है। अगर पौधा 5-6 फुट से ज्यादा बड़ा है तो तेज धूप से कोई दिक्कत नहीं है। हरसिंगार का पौधा घर के अंदर (indoor) नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि वहाँ इसे धूप नहीं मिलेगी। एक बार बढ़ जाने के बाद हरसिंगार के पौधे को बहुत ज्यादा मेंटीनेंस (देखभाल) की जरूरत नहीं होती।

नोट – अगर आप हरसिंगार गमले में लगाना चाहते हैं तो यह ध्यान रखें कि गमला साइज़ में जितना बड़ा होगा, पौधे की ग्रोथ (वृद्धि) वैसी ही होगी। हरसिंगार का पौधा गमले में लगाने पर भी फूल देता है लेकिन पौधे की ग्रोथ एक लिमिट से ज्यादा नहीं बढ़ती है। पौधे की जड़ को जितना ज्यादा फैलने की जगह मिलेगी, पौधा उसी अनुपात (ratio) में ऊंचाई और वृद्धि प्राप्त करता है। हरसिंगार का पौधा बढ़कर एक बड़ा पेड़ बन जाता है इसलिए अगर आप इसे जमीन में लगायें तो बेस्ट है।
हरसिंगार के फायदे | Harsingar Benefits in hindi

हरसिंगार के फूलों से खशबुदार तेल, एसेंशियल ऑइल आदि बनाए जाते हैं जिनका प्रयोग सेन्ट, कॉस्मेटिक, अरोमाथेरेपी आदि में प्रयोग होता है। भारत के कुछ भागों में हरसिंगार के सूखे फूल या ताजे फूल खाये भी जाते हैं। हरसिंगार के फूल (Harsingar flower) को रगड़ने पर पीला रंग मिलता है जिसे ऑर्गैनिक कलर बनाने में प्रयोग किया जाता है।

हरसिंगार की पत्ती, फूल कई तरह के दर्द, आर्थ्राइटिस, सूजन, खांसी, फीवर, जुकाम-खांसी, कब्ज, पेट की समस्या ठीक करने में फायदा करता है। हरसिंगार तेल (Harsingar oil) की महक से स्ट्रेस, टेंशन से आराम मिलता है और अच्छी नींद आने में सहायता करती है।


हरसिंगार का पौधा (Harsingar plant) लगाने की जानकारी की अपने ऐसे मित्रों-परिचितों के साथ व्हाट्सप्प जरूर शेयर करें जिन्हे बागवानी (gardening), पौधे लगाने का शौक है।


एप्सम साल्ट क्या है, एप्सम साल्ट पौधों के लिए कैसे प्रयोग करें

 

एप्सम साल्ट पौधों में डालने के 8 फायदे |
Epsom salt for plants in hindi

आइए जाने एप्सम साल्ट क्या है,
एप्सम साल्ट पौधों के लिए कैसे प्रयोग करें और
एप्सम साल्ट में क्या है जो पौधों के लिए इतना फायदेमंद है। 

एप्सम साल्ट किसे कहते है | What is Epsom Salt in hindi

एप्सम साल्ट का रासायनिक नाम MgSo4 (Hydrated Magnesium Sulfate) है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि ये एक तरह का साल्ट (नमक) है लेकिन यह खाने वाले नमक (सोडियम क्लोराइड) से काफी अलग होता है।

कई लोग एप्सम साल्ट और सेंधा नमक को एक समझ लेते हैं लेकिन इनके केमिकल कॉम्पोजिशन बिल्कुल अलग हैं। अगर आप एप्सम साल्ट की जगह कोई और साल्ट (सेंधा नमक, साधारण नमक) पौधों में डाल देंगे तो पौधों को नुकसान हो सकता है।

एप्सम साल्ट पौधों के लिए डालने के फायदे | Epsom salt benefits for plants in hindi

एप्सम साल्ट पौधों (Plants) में डालने के कई सारे फायदे हैं क्योंकि इसका मैग्नेशियम और सल्फर ये दोनों तत्व पौधे के लिए जरूरी पोषण प्रदान करते हैं। पौधों में एप्सम साल्ट डालने से पौधे की वृद्धि तेज होती है और नए फूल, फल-सब्जी आने जैसे कई फायदे मिलते हैं।

मिट्टी से पोषक तत्व सोखने में मदद करे –

1) एप्सम साल्ट में पाए जाने वाला मैग्नीशियम पौधे में फूल, फल पैदा करने की शक्ति बढ़ाता है, इसके अलावा मैग्नीशियम पौधे को मिट्टी से सबसे जरूरी तत्व नाइट्रोजन (Nitrogen) और फॉस्फोरस (Phosphorus) सोखने में मदद करता है।

फूल और फल न आने की समस्या एप्सम साल्ट दूर करे –

2) अक्सर लोग इस बात से परेशान रहते हैं कि उनके फूल के पौधे जैसे गुलाब में फूल नहीं आ रहे। इसका कारण ये है कि कुछ पौधों को मैग्नीशियम की बहुत ज्यादा जरूरत होती है जैसे गुलाब, टमाटर आदि। गुलाब के पौधे की मिट्टी में एप्सम साल्ट डालने से या एप्सम साल्ट पानी में मिलाकर स्प्रे करने से गुलाब में खूब फूल आने लगते हैं। पेड़-पौधों में नए फल आने के सीजन से पहले और फल आने के बाद भी एप्सम साल्ट का छिड़काव करने से अच्छे, स्वादिष्ट फल तैयार होते हैं।

बीज, कलम (Cutting) की ग्रोथ तेज करे –

3) अगर आपने किसी पेड़ की नयी कलम (Cutting) लगाई है या कोई बीज बो रहे हैं तो पौधे में एप्सम साल्ट जरूर डालें। इससे बीज अच्छी तरह से अंकुरित (Germination) होता है और नयी कलम से जड़, पत्ती निकलने की प्रक्रिया तेज होती है। कलम को लगाने से पहले एप्सम साल्ट के घोल में डुबाकर निकालें फिर मिट्टी में दबायें।

पौधों में पत्ती न आने की समस्या ठीक करे –

4) अगर आपके पौधे में नई पत्तियां नहीं आ रही हैं तो एप्सम साल्ट के प्रयोग से नयी पत्तियां आने लगती हैं और पौधा हरा-भरा, खूब घना (Bushier) होने लगता है। एप्सम साल्ट पौधे को हरा रंग देने वाले क्लोरोफिल को बनाने में सहायता करता है, क्लोरोफिल से ही पौधे अपना भोजन प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) के माध्यम से बनाते हैं।

Paudhe me epsom salt ke fayde
Epsom Salt for Plants in hindi

एप्सम साल्ट पौधे को रूट शॉक (Root Shock) से बचाए –

5) कई बार देखा गया है कि किसी पौधे को एक जगह से निकालकर दूसरी नयी जगह पर लगाने से या कोई नया पौधा लगाने पर उसकी पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं या पत्तियां कमजोर सी दिखने लगती हैं, गिरने लगती हैं। ये पौधे को रूट शॉक लगने की वजह से होता है।

पौधे में भी जान (Life) होती है और वो बदलाव के प्रति संवेदनशील होते हैं। इसलिए कई बार नयी जगह के बदलाव से पौधे को शॉक लगता है और वो मुरझाने लगता है। इस तरह की स्थिति में पौधे को रोपते समय मिट्टी में एप्सम साल्ट डालना पौधे को रूट शॉक लगने से बचाता है।

मिट्टी में मैग्नीशियम, सल्फर की कमी पूरी करे –

6) मिट्टी में अगर मैग्नीशियम की मात्रा कम हो जाए तो एप्सम साल्ट डालने से यह पूरी हो जाती है। एप्सम साल्ट मिट्टी में सल्फर की कमी भी पूरी करता है। पौधों को सल्फर की बहुत ज्यादा आवश्यकता नहीं होती लेकिन इसके न होने से भी पौधे का स्वास्थ्य और शक्ति कमजोर होती है।

Epsom Salt मिट्टी और पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं –

7) अगर कोई रासायनिक खाद (Chemical Fertilizer) पौधे में ज्यादा डाल दें तो पौधों को नुकसान पहुंचेगा लेकिन एप्सम साल्ट के साथ ऐसा नहीं है। अगर गलती से एप्सम साल्ट पौधों में थोड़ा-बहुत ज्यादा भी पड़ जाए तो भी नुकसान नहीं होता है। यह अन्य केमिकल फर्टलाइज़र की तरह मिट्टी को दूषित करने का काम नहीं करता।

पौधों में कीट लगने की समस्या दूर करे –

8) एप्सम साल्ट पौधों में आमतौर पर लगने वाले कीट-पतंगों, घोंघे (Snail), इल्ली लगने की दिक्कत दूर करता है। इसके लिए 1 कप एप्सम साल्ट करीब 1 बाल्टी पानी में मिलाकर पौधे के ऊपर, पत्तियों पर छिड़काव, स्प्रे कर दें। पौधे की जड़ को कीट से बचाने के लिए सूखा एप्सम साल्ट पौधे की जड़ के पास छिड़क दें।

एप्सम साल्ट पौधों में डालने का तरीका और पौधों में एप्सम साल्ट कब डालना चाहिए –

पौधों में एप्सम साल्ट डालने के कई तरीके है। किसी पौधे के लिए ऊंचाई के हिसाब से हर 1 फुट हाइट के लिए 1 छोटा चम्मच (teaspoon) एप्सम साल्ट प्रयोग करना पर्याप्त है।

a) बीज रोपते समय – कोई बीज बो रहे हैं तो बीज बोने के लिए खोदे गए गड्ढे में 1 छोटा चम्मच एप्सम साल्ट दें।

b) पौधे के लिए – महीने में 1-2 बार 1 लीटर पानी में 1 चम्मच एप्सम साल्ट मिलाकर डाल दें या इस पानी को पौधे पर छिड़काव (स्प्रे) कर दें। एप्सम साल्ट पानी में मिलाकर पौधों में डालने से पौधे इसे सही से ऐब्सॉर्ब कर लेते हैं।

c) पेड़ों के लिए – किसी पेड़ में साल में 3 बार करीब 1 कप जितना एप्सम साल्ट जड़ों में डाल दें।

d) लॉन या झाड़ी के लिए – अपने लॉन की घास हरी-भरी करने और बढ़ाने के लिए आप एप्सम साल्ट मिले पानी का छिड़काव कर सकते हैं या एप्सम साल्ट छिड़ककर पानी से तराई कर दें।

e) नयी कलम या पौधे लगाते समय – नये पौधों को लगाते समय पौधे की जड़ में 1-2 चम्मच एप्सम साल्ट छिड़क दें या 1 मग पानी में एप्सम साल्ट घोलकर डाल दें।

f) एप्सम साल्ट कब डालें – जब पौधे में नयी पत्तियां, फूल, फल आने का सीजन हो तो उसके पहले पौधे में एप्सम साल्ट घोल का छिड़काव करें। जैसे कि गुलाब के पौधे में वसंत (spring) के मौसम में एप्सम साल्ट स्प्रे करें क्योंकि इस मौसम में गुलाब पर नयी पत्तियां, फूल आते हैं। गुलाब पर फूल आने के बाद भी एप्सम साल्ट का छिड़काव करें जिससे कि खूब फूल निकलते रहें और नए फूल निकालने के लिए पौधे में मैग्नीशियम की कमी न होने पाए।

एप्सम साल्ट कब नहीं प्रयोग करना चाहिए –

अगर आपके यहाँ की मिट्टी बहुत अम्लीय (Acidic) है तो एप्सम साल्ट डालने से प्रॉब्लेम हो सकती है। एप्सम साल्ट एक लाभदायक खाद है लेकिन सिर्फ इसे ही पौधे में डालने से फायदा नहीं होगा। पौधे के लिए मुख्यतः नाइट्रोजन, फॉसफोरस, पोटैशियम सबसे ज्यादा जरूरी है जिसके लिए NPK खाद या गोबर की खाद, वर्मी काम्पोस्ट, कोकोपीट आदि भी पौधे की मिट्टी डालना चाहिए।

फली वाली सब्जियां और हरे-पत्तेदार सब्जियां मिट्टी में कम मैग्नीशियम हो तो भी अच्छे से फलती-फूलती है। ऐसे ही कुछ पौधे होते हैं जिनको एप्सम साल्ट की बहुत आवश्यकता नहीं होती है। आप पौधे की मिट्टी में एप्सम साल्ट डालने के पहले मिट्टी का टेस्ट (Soil test) भी करवा सकते हैं जिससे आपको पता चल जाए कि आपके मिट्टी में मैग्नीशियम की मात्रा सही है या नहीं।

function disabled

Old Post from Sanwariya