योगबल से प्राप्त दिव्य शक्तियों पर आम लोगों का विश्वास नहीं होता। केवल रिलिजन मानने वाले ही चमत्कार को नमस्कार करके चमत्कारियों को चर्च से सर्टिफिकेट देकर सेंट घोषित करते हैं। आप अगर रोजमर्रा के जीवन में देखेंगे तो पाएंगे कि इन्द्रियों पर नियंत्रण करने के लिए कई योगीजन ऐसी सिद्धियों का नित्य प्रयोग करते हैं। आपको पता ही है कि देखना बंद करने के लिए आसानी से आँखें बंद की जा सकती हैं। इससे दिखना बंद हो जाएगा। ऐसा सुनने के साथ नहीं किया जा सकता। सिद्ध योगी सुनना भी बंद कर सकते हैं। कई विवाहित पुरुष नेपथ्य से कोई भी ध्वनि आना आरंभ होते ही इसी सिद्धि का प्रयोग करके सुनना बंद कर देते हैं। आपको विश्वास न हो तो आस-पड़ोस की विवाहित स्त्रियों से पूछकर देख लें, आपको कई सिद्ध पुरुषों का पता चलेगा।
ऐसी सिद्धियों की प्राप्ति मुश्किल से होती है इसलिए हमेशा उनका प्रयोग नहीं किया जाता। एक दो दिन पहले हमसे भी इस सिद्धि का प्रयोग न करने की गलती हुई। उस समय पड़ोस में बैठे कोई सज्जन शायद लल्लनटॉप का यू-ट्यूब चैनल चलाये बैठे थे। इयर फोन इत्यादि के प्रयोग की अपेक्षा तो शुद्ध मूर्खता है ही। वो भी इयरफोन लगाने के बदले फुल वॉल्यूम में सबको प्रवचन सुना रहे थे। पता नहीं कौन सा इंटरव्यू था, लेकिन कमर बीस-बाईस, क्षमा कीजियेगा, कुमार विश्वास की आवाज स्पष्ट आ रही थी। अपनी औपनिवेशिक गुलामी वाली मानसिकता से ग्रस्त बेचारे “आई एम स्पिरिचुअल, नॉट रिलीजियस” की उक्ति को वो हिंदी में समझाने का मूर्खतापूर्ण प्रयास कर रहे थे।
उन्होंने समझाना शुरू किया कि दुनिया के जितने झगड़े हैं, हिंसा है, नफरत है वो धार्मिक होने की वजह से है। जो भी प्रेम है, सद्भाव है, करुणा है वो सब आध्यात्म है। और आगे बढ़ते हुए उन्होंने आध्यात्मिक होने और धार्मिक होने का अंतर बताना भी शुरू किया। धार्मिक होने की तुलना वो मूर्ती पूजा से करने लगे और कहा कि किसी भगवान के बारे में आपको बताया जाता है कि उनका सोने का मुकुट इतने किलो का है। कुमार विश्वास का मानना था कि ये भगवान हम मनुष्यों द्वारा ही गढ़े हुए हैं। पूजा में बैठने जैसे आयोजनों को वो धार्मिक बताते हुए कहने लगे कि इसमें कुछ बुरा नही है। उनके घर में भी मंदिर है और वो भी पूजा में बैठते हैं। उनका कहना था कि उनकी इस तरह के कर्म-कांडों में आस्था नहीं। उन्हें किसी कविता में एक अच्छा सा शब्द सूझ जाये तब जो अनुभव आता है, उसमें रूचि है। वो उनके हिसाब से आध्यात्म है।
मेकॉले मॉडल में पढ़ाई करने के बाद अंग्रेजी के प्रति जो दास भाव जागता है, उसके कारण “आई एम नॉट रिलीजियस, आई एम स्पिरिचुअल” जैसे वाक्यों में आस्था हो जाना स्वाभाविक है। विचार और निर्णय करने की क्षमता, जिसके कारण हिन्दुओं में मनुष्यों को दूसरे जीव-जंतुओं से श्रेष्ठ माना जाता है, उस क्षमता का प्रयोग करते ही आपको इस तर्क का कमजोर होना दिख जायेगा। जिन मजहब-रिलिजन में ईश्वर साकार नहीं, उन्होंने ही जिहाद-क्रूसेड के नाम पर सर्वाधिक हिंसा की है। इसकी तुलना में हिन्दुओं में शैव कहीं वैष्णवों का गला काट रहे हों, इसके उदाहरण ढूँढने पर भी मिलने मुश्किल हैं। तो कुमार विश्वास जो आध्यात्मिक हैं, धार्मिक नहीं, उनका मूल वाक्य ही गलत सिद्ध हो जाता है।
आसान तरीके से मूर्ती पूजा और मंदिरों की स्थापना को समझना हो तो मनुष्य और पशुओं का पानी पीना देख लीजिये। नदियों, तालाबों में वही जल उपलब्ध है। पशु उसे सीधे मुंह लगाकर पी लेते हैं। मनुष्यों में विवेक थोड़ा अधिक है तो वो ग्लास, लोटा, घड़ा, बाल्टी जैसे कई बर्तन बनाते हैं। इनमें पानी संग्रह भी किया जा सकता है। मूर्ती-मंदिर आवश्यक ही है, हिन्दू ऐसा भी नहीं मानते। जैसे पाचन क्षमता ठीक हो, रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा हो तो सीधे नदी-तालाब से भी पानी पी ही सकते हैं। कुछ उपलब्ध न हो, तब भी ऐसा किया जा सकता है। कुछ वैसे ही किसी साधू-ऋषि-मुनि के लिए बर्तन की आवश्यकता, मूर्ती-मंदिर की आवश्यकता नहीं रह गयी हो, ये संभव है। हम-आप जैसे सामान्य मनुष्यों के लिए एकाग्रता की दिशा तय करने में मूर्ती-मंदिर से सहायता होती है।
अगर भगवद्गीता पर चलें तो सत्रहवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में शरीर सम्बन्धी तप की बात की गई है –
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14
मोटे तौर पर इस श्लोक का अर्थ है - देवता, द्विज, गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शौच, आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा, इन सबको शरीर संबंधी तप कहा जाता है।
इसमें देवता यानी श्लोक का पहला ही शब्द महत्वपूर्ण है। बाकि शब्दों में आर्जव का अर्थ सरलता है और अन्य के बारे में आप संस्कृत ना समझने पर भी जानते हैं। यहाँ देव शब्द मुख्य रूप से विष्णु, शंकर, गणेश, शक्ति (दुर्गा) और सूर्य, इन पाँच ईश्वर कोटि के देवताओं के लिये आया है। इन पाँचों में जो अपना इष्ट है, जिसपर अधिक श्रद्धा है, उसका निष्काम भाव से पूजन करना चाहिये। ऐसा स्वामी रामसुखदास जी मानते हैं। करीब-करीब यही अर्थ आदिशंकराचार्य भी देते हैं। यानि कि ये कहा जा सकता है कि साकार रूप वाले देवताओं का अवसर के अनुसार पूजन करने के लिये शास्त्रों की आज्ञा है। स्वामी रामसुखदास जी ये भी जोड़ते हैं कि शास्त्रमर्यादा को सुरक्षित रखने के लिये अपना कर्तव्य समझकर इनका पूजन करना है।
बाकी सकाम भाव से पूजन करें या निष्काम भाव से, सगुण की उपासना करें या निर्गुण की, ये सब मार्गों का भेद है, लक्ष्य का भेद नहीं है, ऐसा भगवद्गीता (9.25) में ही लिखा है, वो आप स्वयं पढ़कर देख सकते हैं।
वैसे तो सत्रहवीं सदी के ख्यातिप्राप्त ब्लेज़ पास्कल एक वैज्ञानिक और गणितज्ञ के तौर पर जाने जाते हैं, लेकिन उनका काम दर्शनशास्त्र में भी रहा है। उनकी ईश्वर में आस्था से सम्बंधित एक परिकल्पना, एक सिद्धांत को पास्कल्स वेजर (Pascal’s wager) के नाम से जाना जाता है। इसे समझने के लिए पहले डिसिशन थ्योरी को समझना पड़ता है। डिसिशन थ्योरी गणित के संभाव्यता (probability) के अंतर्गत आता है। प्रोबेब्लिटी के बाकी कई सिद्धांतों की तरह ही इसे समझने के लिए भी ताश और लाटरी जैसे उदाहरण ही इस्तेमाल किये जाते हैं।
पहली स्थिति के लिए मान लीजिये कहीं सौ लाटरी टिकट बिक रहे हैं, जिनपर एक बम्पर इनाम १००० रुपये का है। हर टिकट का मूल्य एक रुपये रखा गया है। अगर आपके पास सौ रुपये हों तो क्या इस लाटरी पर दाँव लगाना समझदारी भरा होगा ? अगर इस लाटरी में खर्चे और जीत का हिसाब देखें तो समझ में आता है कि सौ की सौ टिकट खरीद लेने पर तो इनाम पक्का है। यानि सौ रुपये लगा कर आप हज़ार जीतेंगे और नौ सौ रुपये का फायदा होगा। जबकि अगर आप नहीं खेलते तो आपके सौ रुपये नहीं लगेंगे, लेकिन आप कुछ भी जीतेंगे भी नहीं।
अब इसकी एक दूसरी लाटरी से तुलना कीजिये। इसमें हज़ार टिकट हैं और हरेक का दाम दो रुपये है। इसमें एक बम्पर इनाम १००० रुपये का और एक सांत्वना पुरस्कार ५०० रुपये का दिया जा रहा है। इसे खेलने पर क्या होगा ? अगर यहाँ आप हरेक टिकट खरीद लेते हैं, ताकि पक्का जीता जा सके तो आपका इनाम होगा १००० का बम्पर और ५०० का सांत्वना यानि कुल पंद्रह सौ रुपये। टिकट खरीदने में आपका खर्च हुआ दो प्रति टिकट यानि २००० रुपये। इस हिसाब से इसे खेलना, पांच सौ रुपये का घाटा है, मतलब इस तरीके से खेलना बेवकूफी होगी।
डिसिजन थ्योरी को मोटे तौर पर परिभाषित करना हो तो आप कह सकते हैं की हर कर्म (जैसे लाटरी टिकट खरीदना) का एक निश्चित प्रतिफल होगा ही (जैसे बम्पर इनाम जीतना, सांत्वना, या फिर हार जाना); हर नतीजे का हमारे लिए एक मूल्य होता है जो कर्म के लिए किये गए प्रयास के बराबर, उस से ज्यादा या कम हो सकता है। हमारी संभावित नतीजों की ‘अपेक्षा’ का मान, उसेक मूल्य को संभाव्यता से गुणा कर के निकाला जा सकता है। यहाँ अपेक्षाओं का मोल, कर्मफल की सभी संभावनाओं का कुल जोड़ होता है। कर्म के जिस मार्ग में अपेक्षाओं का मूल्य कम से कम हो, उसे ही चुनना समझदारी का फैसला माना जाएगा, उसमें आपके नुकसान की संभावना कम हो जाती है। यही डिसिजन थ्योरी है।
पास्कल ने इसी डिसिजन थ्योरी का इस्तेमाल कर के एक २ X २ का मैट्रिक्स बनाया : या तो ईश्वर हैं, या फिर ईश्वर नहीं होते, आप ईश्वर में आस्था रखते हैं, या आप ईश्वर में आस्था नहीं रखते।
ईश्वर होते हैं ईश्वर नहीं होते
आप ईश्वर में आस्था रखते हैं (a) अतुलनीय फल (c) 250 लाभ
आप ईश्वर में आस्था नहीं रखते हैं(b) अतुलनीय दंड (d) 200 लाभ
अब अगर भगवान होते हैं तो आस्तिक को तो अतुलनीय लाभ मिलेगा मगर नास्तिक बहुत सा दंड भोगेगा, लेकिन अगर भगवान नहीं होते तो आस्तिक अपने जीवनकाल में खुश रहेगा (मान लें कि जीवन में ख़ुशी का मोल २५० है), और नास्तिक भी जीवन काल में खुश होगा (लेकिन उसकी ख़ुशी का मोल २०० ही होगा)। नास्तिक कम खुश इसलिए होगा क्योंकि धर्म की छत्रछाया के बदले उसके पास नाराजगी होगी। इस पास्कल के सिद्धांत के हिसाब से आस्तिकों को नास्तिकों की तुलना में ज्यादा फायदा हो रहा है। इसलिए पास्कल के हिसाब से आस्तिक होना फायदे का सौदा है, वही करना चाहिए।
अब अगर आप इस आलेख को दोबारा देखेंगे तो आपको हिन्दुओं की मान्यता के तीन गुण सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण नजर आ जायेंगे। जब हम शुरू करते हैं तो हम आस्था के विषय को एक वैज्ञानिक के सिद्धांत के जरिये समझाने की कोशिश कर रहे हैं। ये सिद्धांत आम तौर पर हिंदी में कोई नहीं लिखता और हमने इसे बिना आर्थिक लाभ के लालच के लिखा है इसलिए ये सतोगुणी प्रवृति थी। विज्ञान और गणित के डिसिजन थ्योरी और प्रोबेब्लिटी जैसे विषयों पर हिंदी में हमसे मुक़ाबला करना लगभग नामुमकिन होगा, ये भी हमें पता है। तो अकाट्य या कठिन तर्क का अपने पक्ष से इस्तेमाल करना जिस से जीत सुनिश्चित हो, वो रजोगुण का लक्षण है। इस पूरे के पीछे मेरा मकसद कुछ और था, यानि हिडन एजेंडा भी था। ये धूर्तता तमोगुणी प्रवृति है।
अब जब बता दिया है कि धूर्तता की है, तो आपको समझ में आ गया होगा कि हमने आपको धोखे से भगवद्गीता का एक और अध्याय पढ़ा डाला है। दरअसल ये तीन गुण ही भगवद्गीता के चौदहवें अध्याय ‘गुणत्रयविभागयोग’ का मुख्य विषय हैं। अगर आप रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का शुरूआती हिस्सा भी पढ़ते हैं तो आपको ये तीन गुण दिखेंगे। सुन्दरकाण्ड में हनुमान जब लंका के लिए रवाना होने वाले होते हैं तो वो वानरों को कंद-मूल खाने और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने की सलाह देकर निकलते हैं। वहां वो सतोगुणी हैं। थोड़ी ही देर में समुद्र पार करते समय उनका सामना नागमाता सुरसा से होता है। तरह तरह के तर्क देकर, तिकड़म भिड़ा कर हनुमान उनसे बच निकलते हैं। वहां वो रजोगुणी हैं। फिर जब आगे वो सिंहिका का वध कर देते हैं, तो वो तमोगुणी भी हैं।
एक ही व्यक्ति में ये तीन गुण कैसे निवास करते हैं, कैसे इनका कर्मों पर प्रभाव पड़ता है, कैसे इनके असर से मनुष्य की प्रवृति तय हो जाती है यही गुणत्रयविभागयोग का विषय है। बाकी ये जो बताया वो नर्सरी के लेवल का है, और पीएचडी के लिए आपको खुद ही पढ़ना होगा, ये तो याद ही होगा ?
✍🏻आनन्द कुमार
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