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सोमवार, 6 फ़रवरी 2023
कुछ देने के लिए आदमी की हैसियत नहीं , दिल बड़ा होना चाहिए, हमारे पास क्या है ? और कितना है ? यह कोई मायने नहीं रखता
ब्राह्मणों की आंख खोलने वाली जानकारी जो स्वयं केन्द्र मंत्री नितीन गडकरी जी ने ट्विटर पर पोस्ट की है पढ़े और महत्व को समझें*
रविवार, 5 फ़रवरी 2023
कौनसा शब्द शुद्ध है 'चिहन' या 'चिन्ह' ?
कौनसा शब्द शुद्ध है 'चिहन' या 'चिन्ह' ?
देखा जाए तो अधिकतर लोग चिन्ह को सही मानते हैं। गूगल पर ढूंढने पर भी कई जगह चिन्ह लिखा हुआ दिखाई देता है।
लेकिन आपने जो पूछा है, उनमें से कोई भी सही नहीं है।
सही लिखना है तो "चिह्न " लिखना सही होता है। जिसमें ह् और न दोनों मिलकर संयुक्ताक्षर बन जाते हैं।
च + ह्रस्व ई + ह् + न क्रमशः लिखने पर चिह्न लिखा जा सकता है।
इसलिए चिह्न लिखना सही है।
देखिए ऊपर अशोक चिह्न और विराम चिह्न कैसे लिखा हुआ है ? अत: चिह्न को ऐसे लिखना ही सही है।
चित्र - गूगल पर उपलब्ध, जिनका अधिकार इनके मालिकों के पास सुरक्षित हैं।
ऊद्धव शुद्ध होगा ।ब्रिज भाषा मे-ऊधौ इतनी कहियो जाय।
कौनसा शब्द शुद्ध है 'आशीर्वाद' या 'आर्शीवाद' ?
आशीर्वाद शब्द शुद्ध रूप हैं. क्योंकी "आशिष" शब्दके साथ "वाद" शब्द की संधी या जोड किया गया हैं. इसीलिये संधी पश्चात "ष"अक्षर रफार यानी "र" में परिवर्तित हो गया हैं.
>आशिष + वाद =आशीर्वाद
इन चारो में संगृहीत शुद्ध है।
हिंदी वर्तनी में शुद्ध और अशुद्ध शब्दों की सूची में 'संगृहीत' को ही शुद्ध मान कर लिखा गया है।
नीचे लिखे गए शब्द शुद्ध - अशुद्ध की तरह देखें, जिसका लिंक उत्तर के अंत में दिया गया है।
संग्रहीत, संगृहित, संग्रहित या संगृहीत इन चारो का मतलब एक ही है।
लेखन की दृष्टि से संगृहीत सही है।
'संगृहीत' का समानअर्थी शब्द 'संग्रहित' को कहा जाता है।
संगृहीत का मतलब:-
- संग्रह किया हुआ
- एकत्र किया हुआ
- जमा किया हुआ
- संचित किया हुआ
उदाहरण -
- प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथशोध विभाग के तत्वावधान में अब तक कई हजार प्राचीन पांडुलिपियाँ संगृहीत हुई हैं।
- संग्रहालय में पुरातन जमाने की कई वस्तुएँ संग्रहित करके रखी हुई हैं।
- हमारे कॉलेज के पुस्तकालय में अच्छे लेखकों की बहुत सारी रचनाएँ संग्रहित की गयी हैं।
- मेरे बेटे को विभिन्न देश की मुद्राओं को संग्रहित करने का शौक है।
उम्मीद है इस उत्तर से दुविधा दूर हो गयी होगी।
फुटनोट -हिन्दी व्याकरण : अशुद्ध वर्तनी,
यह संस्कृत का शब्द है।
हि धातु में तुन् प्रत्यय लगाकर इसकी व्युत्पत्ति सिद्ध होती है। इसका अर्थ होता है कारण, निमित्त, प्रयोजन,उद्देश्य।
संस्कृत में इसका रूप चलता है—हेतुः, हेतू, हेतवः अर्थात्
हेतुः =(एक)कारण,
हेतू =(दो)कारण,
हेतवः =(बहुत)कारण।
किन्तु संस्कृत की वाक्य रचना एवं अन्य भाषाओं की वाक्य रचना में बहुत अन्तर है। अतः यह स्पष्ट है कि हेतु ही सही है, हेतू नहीं।
शुद्ध शब्द में "वि" उपसर्ग लगाकर प्रयोग करने से विशुद्ध शब्द का निर्माण होता है। "वि" उपसर्ग का अर्थ है "विशेष" । इस प्रकार विशुद्ध शब्द का अर्थ है विशेष रूप से शुद्ध । अंग्रेजी भाषा में शुद्ध का अर्थ Pure और विशुद्ध का आशय Refined से है।
वाक्य प्रयोग :
- शुद्ध घी का उपयोग स्वास्थ्य के लिए उत्तम है।
- विशुद्ध काली गाय का घी सर्वोत्तम है।
- पं. रामचन्द्र शुक्ल ने अपने निबंधों में विशुद्ध हिंदी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया है।
कुछ अन्य शब्दों के साथ उपसर्ग" वि " का प्रयोग देखिये :
नम्र : विनम्र (विशेष रूप से नम्र)
ज्ञान : विज्ञान (विशेष ज्ञान)
जय : विजय (विशेष रूप से जीतना )
इसके अतिरिक्त वि उपसर्ग लगाने से शब्दों के अर्थ में इस प्रकार का परिवर्तन भी हो जाता है।
वि + माता = विमाता : सौतेली माता
वि + फल = विफल : निष्फल, व्यर्थ, बेकार
वि + शिष्ट = विशिष्ट : विशेष, खास।
अनुल्लंघनीय और अनुलंघनीय में क्या शुद्ध ,क्या अर्थ और प्रयोग:—
________________________________________________
उत्तर—
पहले इस शब्द का संधि- विग्रह करके इसके मूल शब्द और उसके अर्थ को समझा जाए—
अनुल्लंघनीय——
अन्,+ उत् (उपसर्ग) +लंघन(मूल शब्द) +ईय
उपसर्गों, मूल शब्द एवं प्रत्यय का अलग-अलग अर्थ देखें—
अन्=नहीं
उत्=ऊपर
लंघन =लांघना, ऊपर से निकल जाना, आगे निकल जाना|
ईय =योग्य, होना चाहिए
अब इन सभी को पुनः संधि करके एक शब्द बनने की प्रक्रिया को समझते हैं—
अन् के न् में कोई स्वर नहीं है इसलिए उसके बाद आने वाले उत् का उ मात्रा के रूप में जुड़ गया|
उत् के त् के बाद लंघन के ल के आने से व्यंजन संधि का एक नियम लागू हुआ, जिसके अनुसार यदि त् के बाद ल आया हो तो, पहले आया हुआ त्, ल् में परिवर्तित हो जाता है|
उदाहरण= उत्+लेख =उल्लेख
उत् +लास =उल्लास आदि |
सूत्र-- तोर्लि (पाणिनीय अष्टाध्यायी) इस सूत्र द्वारा इस नियम का विधान होता है|
अब शब्द बना— अनुल्लंघन
पुनः अनुल्लंघन में ईय प्रत्यय जुड़कर बना—
अनुल्लंघनीय
अर्थ होगा— जिसे लांघ सकना असंभव हो/जो अवहेलना या उपेक्षा योग्य न हो/ जिसके आगे न जाया जा सके!
__________________________________________
• यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि--
प्रत्यय के जुड़ने पर संधि का नियम नहीं लगता!
अन्यथा—
अ+ई =ए, जो कि गुण स्वर संधि का नियम है, लागू होता तो---
समाज+ इक=सामाजिक न हो कर सामाजेक आदि बनता.. पर ऐसा नहीं होता!
_______________________________________________
अब बात करते हैं— अनुलंघनीय की|
जैसा विश्लेषण ऊपर बताया गया है कि —
उत् के त् का ल् होता है… तो आधा ल् आना ही आना है!
क्योंकि उ अकेला उपसर्ग नहीं होता… तो उत् के त् का ल् ल के साथ आना ज़रूरी है!
अत: यह सिद्ध हुआ कि अनुलंघनीय शब्द व्याकरण की कसौटी पर शुद्ध नहीं , अतः यह अशुद्ध है|
________________________________________________
अब वाक्य-प्रयोग--
• गुरुओं की आज्ञा अनुल्लंघनीय होती है|
• कैलाश पर्वत-शिखर अनुल्लंघनीय है|
• सामने एक अनुल्लंघनीय नाला पड़ा|
सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूँगी कि 'वर्ना' और 'वरना' दोनों में कोई अंतर नहीं है।
हिंदी वर्तनी के अनुसार क्या लिखना सही है; पहले यह देखिए।
वरना = सही वर्तनी
वर्ना = ग़लत वर्तनी
हिंदी भाषा में वरना का मतलब 'नहीं तो'(else) होता है।
वरना का दूसरा मतलब अन्यथा (otherwise) होता है।
यह एक फारसी शब्द है। वाक्य के रूप में वरना का उदाहरण इस प्रकार होगा।
- आप खाना खा लीजिए वरना (नहीं तो) मैं भी खाना नहीं खाऊँगी।
- अपने टेनिस खेल प्रतियोगिता की तैयारी अच्छे से करो वरना (अन्यथा) जीत नहीं पाओगे।
- वरना का एक मतलब यह भी होता है किसी को वरण करना( स्वीकार या अंगीकार करना)। जैसे- माता सीता ने श्री राम को अपने पति के रूप में वरण(स्वीकार या अंगीकार) किया।
मेरी जानकारी यही कहती है।
क्या प्रश्नकर्ता उस हिंदी शब्दकोष का स्क्रीन शॉट साझा कर सकते हैं, जहाँ दोनों शब्द वरना और वर्ना हों, क्योंकि शब्दकोष में तो मतलब भी लिखा रहता है।
भाषा में शब्दों की शुद्धता एक जटिल विषय है। एक वर्तनी जो इस समय गलत भविष्य में शुद्ध हो सकती है यदि उसका प्रयोग भाषा के जानकारों , समाचार पत्रों प्रत्रिकाओं और पुस्तकों में व्यापक हो जाए और और लम्बे समय तक प्रचलित रहे।
वर्तनी की शुद्धता अंतत: शिक्षित समाज तय करता है . अंग्रेजी के Colour शब्द का उदाहरण लेते हैं जिसको अमरीका में color लिखा जाता है। इंग्लैंड के लोग अमरीका वालो से ये नही कह सकते कि color को colour लिखो क्योंकि colour शुद्ध है . कहा भी तो माना नही जाएगा . सब जानते हैं कि color अमेरिकन अपभ्रंश वर्तनी है और colour ही मूल रूप है। लेकिन लम्बे समय के प्रयोग से और शिक्षित समाज के अपनाने के बाद अमरीकी शब्दकोशों ने भी इसको स्थान दे दिया है , अंततः color मान्य वर्तनी है। संस्कृत के अतिरिक्त अन्य सभी भाषाओँ का चलन व्यवहार ही निर्धारित करता है। संस्कृत में भी उदाहरण है जहाँ व्यवहार व्याकरण से भिन्न हो गया है , कमल शब्द का पुलिंग के रूप में प्रयोग होना इसका उदाहरण है। यहाँ पर अन्य प्रश्न भी है यदि मूल पर जाने लगे तो मूल का मूल क्या होगा ? अर्थात यदि color का मूल colour है तो colour का मूल क्या है ? क्या उसी मूल को नहीं अपनाया जाना चाहिए ? ये तो अंतहीन प्रक्रिया हो जायेगी। इतने मूल ढूँढ पाना असंभव है।
फिर भी भाषा में ये बदलाव इतने अनियंत्रित ना हों की समझ पाना मुश्किल हो जाए इसलिए समाज को सही वर्तनियों की सूची शब्दकोशों के माध्यम से रखनी चाहिए , जिसके समय समय पर नए संस्करण प्रकाशित होते रहने चाहिए। ( प्रकाशन से बाहर शब्दकोशों को विदेशी विश्वविद्यालय ऑनलाइन प्रकाशित करा रहें हैं ये सुखद बात है। पुराने शब्दकोश बजार में फिर से उपलब्ध हो रहे हैं. )
अभिप्राय ये है कि शब्दकोश ही वर्तनी शुद्धता प्रथम आधार है , यद्यपि कुछ भी तर्क से परे नहीं है और टंकण त्रुटि इत्यादि को भी देखना होता है।
"अथवा" और "या" में क्या अंतर है?
"अथवा" और "या" दोनों ही शब्द एक से अधिक विकल्पों में चयन करने के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। किन्तु सामान्य परिस्थितियों में "अथवा" से आरम्भ कर चयन करने के तात्पर्य में वाक्य रचना नहीं की जा सकती है, जो कि "या" के प्रयोग से हो सकती है। यथा निर्भय हाथरसी की यह कविता :
"या तो मुझसे भजन करा ले या कमरा खाली करवा दे!"
इसमें पहली बार जो "या" शब्द प्रयुक्त है उसका "अथवा" में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। अंग्रेजी भाषा में यह वाक्य रचना "Either… or…" वाली है, जिसके समरूप वाक्य रचना में "either" के स्थान पर "या" का प्रयोग हो सकता है, किन्तु "अथवा" का नहीं।
"या" हिन्दी भाषा में फ़ारसी भाषा के इसी शब्द (یا) के समरूप में आयातित है। वहीं "अथवा" संस्कृत भाषा से हिन्दी में तत्सम रूप में लिया गया है।
हम हिन्दी में कहते हैं कि "या आज या कल" इसे फ़ारसी में "یا امروز یا فردا" (या इमरोज़ या फर्दा) कहेंगे। इस रूप में यह भारोपीय मूल का शब्द है।
"या" शब्द का सम्बोधनवाचक रूप में प्रयोग भी प्रयोग किया जाता है, यथा "या! अल्ला!"। इस रूप में यह अरबी भाषा से (फ़ारसी के माध्यम से) आयातित शब्द है।
"या" का चयन के अर्थ में पार्थियन भाषा के 𐫀𐫃𐫀𐫖 (आग़ाम्) से फ़ारसी भाषा में "या" के रूप में परिवर्तित होकर हिन्दी में आना हुआ है। इस शब्द का मूल अर्थ "(अथवा) इस विधि से" प्रतीत होता है। इसकी तुलना वैदिक भाषा के शब्द "अया" से की जा सकती है।
धियं वो अप्सु दधिषे स्वर्षां ययातरन्दश मासो नवग्वाः ।
अया धिया स्याम देवगोपा अया धिया तुतुर्यामात्यंहः ॥
— ऋग्वेदः ५.४५.११॥
संस्कृत में "वा" का भी प्रयोग भी "या" के अर्थ में होता है, तथा "अथवा" शब्द की व्याख्या इस प्रकार है :
अथवा¦ अव्य॰ अथेति वायते अथ + वा--का। पक्षान्तरे
“अथवा कृतवाग्द्वारे इति”
“अथवा मृदु वस्तु हिंसितु-मिति” च रघुः।
“अथ वा हेतुमान्निष्ठविरहाप्रतियोगि-नेति” भाषा॰।
— वाचस्पत्यम्
"अथवा" (वा) का प्रयोग विकल्प, सदृश्यता तथा समुच्चय ("भी", "एवं"), पुष्टिकरण में वाक्य रचना के लिए हो सकता है। तथा "वा" का एक वाक्य में "या" के समान ही दोहराव कर "Either… or…" के समरूप वाक्य रचे जा सकते हैं। यथा :
सर्वपापहरां देवि! सौभाग्यारोग्यवर्धिनीम्।
न चैनां वित्तशाठ्येन कदाचिदपि लङ्घयेत्॥
नरो वा यदि वा नारी वित्तशाठ्यात् पतत्यधः॥
— मत्स्यपुराणम् ६२.३४ ॥
प्राण कुल दस होते हैं; जिन्हें सम्मिलित रूप से संक्षेप में भी प्राण कह देते हैं। इसलिए प्राण शब्द बहुवचन है।
मुख्य प्राण ५ हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
१. प्राण,
२. अपान,
३. समान,
४. उदान, और
५. व्यान
और उपप्राण भी पाँच हैं:
१. नाग,
२. कुर्म,
३. कृकल,
४. देवदत,
५. धनञ्जय
मुख्य प्राण :-
१. प्राण :- इसका स्थान नासिका से ह्रदय तक है। नेत्र, श्रोत्र, मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते हैं. यह सभी प्राणों का राजा है। जैसे राजा अपने अधिकारियों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है, वैसे ही यह भी अन्य अपान आदि प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है।
२. अपान :- इसका स्थान नाभि से पाँव तक है। यह गुदा इन्द्रिय द्वारा मल व वायु, उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) द्वारा मूत्र व वीर्य तथा योनी द्वारा रज व गर्भ का कार्य करता है।
३. समान :- इसका स्थान ह्रदय से नाभि तक बताया गया है। यह खाए हुए अन्न को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस, रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है।
४. उदान :- यह कण्ठ से सिर (मस्तिष्क) तक के अवयवों में रहता है। शब्दों का उच्चारण, वमन (उल्टी) को निकालना आदि कार्यों के अतिरिक्त यह अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को अच्छे लोक (उत्तम योनि) में, बुरे कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक (अर्थात सूअर, कुत्ते आदि की योनि) में तथा जिस आत्मा ने पाप – पुण्य बराबर किए हों, उसे मनुष्य लोक (मानव योनि) में ले जाता है।
५. व्यान :- यह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। ह्रदय से मुख्य १०१ नाड़ीयाँ निकलती है, प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ हैं तथा प्रत्येक शाखा की भी ७२००० उपशाखाएँ है । इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी शाखा- उपशाखाओं में यह रहता है। समस्त शरीर में रक्त-संचार, ,प्राण-संचार का कार्य यही करता है तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है ।
उपप्राण :-
१. नाग :- यह कण्ठ से मुख तक रहता है। उदगार (डकार), हिचकी आदि कर्म इसी के द्वारा होते हैं।
२. कूर्म :- इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है। यह नेत्र गोलकों में रहता हुआ उन्हे दाएँ -बाएँ, ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने की किया करता है। आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है।
३. कूकल :- यह मुख से ह्रदय तक के स्थान में रहता है तथा जृम्भा (जंभाई=उबासी), भूख, प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है।
४. देवदत्त :- यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है। इसका कार्य छींक, आलस्य, तन्द्रा, निद्रा आदि को लाने का है ।
५. धनज्जय :- यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है। इसका कार्य शरीर के अवयवों को खींचे रखना, माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है। शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी बाहर निकल जाता है, फलतः इस प्राण के अभाव में शरीर फूल जाता है ।
अधिक जानकारी के लिए देखें:
प्राण क्या है?
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