मैं..मेरा वैचारिक ‘वाद’ और समय….by sudhirvyas |
मेरा हीरो मैं खुद हूँ ,
मेरा अपना वैचारिक 'वाद' है ...जिंदा हूँ ना, अंधा नहीं.. सोच बाकी है, थोप के पीछे नहीं...
" हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट "
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट "
छोटे मोटों को मैं कभी घास नहीं डालता,'बड़े बड़े' मुझे घास नहीं डालते...कारण...डर..!!
' ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय '
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय '
पर डर तो हमेशा हर जगह हर समय कायम था, कायम है,,कायम रहेगा,क्योंकि ...
" तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय '
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय '
मित्रों
,, मैं तो रमता जोगी हूँ, मेरी अपनी स्वीकार्यता है, भीड़ भले पीछे नहीं
पर बोल, विचार ही अपने में संपूर्ण सक्षम हैं, फैलते रहते हैं यही कम है..?
यह तो प्रभु आशीर्वाद है, मेरे लिये तो यही सच्चा क्रांतिकारी कदम है...
" जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम "
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम "
किंतु मेरा समय अभी नहीं, यहाँ नहीं, अभी झुंड और मानसिकताऐं उहापोह में ही बटीं पड़ी हैं,सब ओर शांति है,, अभी सबको आनंद करने दो...
" जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास "
" जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास "
कही,
सुनाई मेरी जब समझ आ जायेगी ,तब ना शांति होगी, ना निर्लिप्तता और ना ही
ठूंसे विचारों की विचारधाराएं ..तब राष्ट्र ही सर्वप्रथम होगा और आक्रमण ही
बचाव का सशक्त साधन ....
" सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह "
" सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह "
समय है, अभी समय है, बहुत समय है ..
बृहस्पतिवार को ही अवकाश घोषित होनें में बहुत समय है,क्योंकि अभी
राष्ट्रधर्म सिर्फ भाईचारा और वसुधैव कुटुंबकम से बडे शाश्वत झूठ से घिरा
है ..पर राष्ट्रवाद और राष्ट्रधर्म तो प्रकृति की भांति कड़ा है, कठोर है,
लचीला नहीं..सो प्राकृतिक न्याय में समय है, धीरज धरो...मैं भी धीरज का ही
ग्राही हूँ .. समय लिख रहा है सबका हिसाब....!!
" फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम "
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम "
जब मेरी बात 'आत्मप्रशंसा' और आलोचना के बिल्लौरी चश्में उतर जाने के बाद पढो तो समझ आ जायेगा कि हम कहां खड़े है ही.. वन्दे मातरम्
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय....!!
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे..!!
Posted By Dr. Sudhir Vyas at sudhirvyas's blog in WordPress
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