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सोमवार, 16 जनवरी 2023
भाषा की दरिद्रता : नाम हिन्दूओं के एक बहुत बड़े वर्ग को न जाने हो क्या गया है?
कीकर और बबूल का गोंद सेहत के लिए फायदेमंद माना जाता है।
कहा जाता हैं कि सर्दियों में गर्म तासीर वाली चीजें खानी चाहिए, इससे ठंड नहीं लगती है और सीजनल बीमारियां भी दूर रहती हैं। यही वजह है कि सर्दियों में लहसुन,अदरक और काली मिर्च का खूब सेवन किया जाता है। सर्दियों में तो गोंद के लड्डू भी बड़े चाव से खाए जाते हैं। बबूल गोंद को अक्सर लोग साधारण पेड़ समझ लेते हैं, लेकिन इसके हर हिस्से का इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवा और घरेलू उपचार में किया जाता है। लेकिन गोंद सेवन से आपकी ढलती उम्र में भी कमसिन नजर आएंगे। ये चीज है बबूल की गोंद, बबूल के तने को चीर लगाने पर जो रस निकलता है। वो सूखने पर ठोस और भूरा हो जाता है, इसे ही गोंद कहते हैं। लेकिन यह भी जानने की जरूरत है कि हर पेड़ का गोंद खाने लायक नहीं होता। कीकर और बबूल का गोंद सेहत के लिए फायदेमंद माना जाता है। मार्केट में आपको खाने वाला गोंद आसानी से मिल जाएगा।
गोंद खाने का तरीका:
बबूल का एक चम्मच गोंद मिश्री मिले दूध के साथ लेने से शरीर में ताकत का संचार होता है, बबूल की गोंद को मुंह में रखकर चूसने से खांसी ठीक हो जाती है, बबूल की गोंद, फली और छाल को बराबर मात्रा में लेने से कमर दर्द से छुटकारा मिलता है।
-सर्दियों में गोंद का सेवन दिमागी तरावट और जोड़ों में दर्द व जोड़ों की अन्य समस्याओं के लिए काफी फायदेमंद होता है।
-गोंद खाने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता सुधरती है। इसीलिए सर्दियों में गोंद के लड्डू खाए जाते हैं।
गोंद में बहुत औषधीय गुण होते हैं साथ ही ये रक्त को शुद्ध करता है,जिससे कील मुंहासे आदि से छुटकारा मिल जाता है।
-गोंद हड्डियों को मजबूत करने में मदद करता है। यह डिप्रेशन से भी बचाव करता है और मांसपेशियों को मजबूत बनाता है।
-गोंद स्किन के लिए भी बेहद फायदेमंद है। यह एक स्किन केयर एजेंट के तौर पर काम करता है।
-जिन लोगों को फेफड़ों से संबंधित समस्या है, कमजोरी और थकान महसूस होती है, उन लोगों के लिए गोंद बड़े ही काम की चीज है।
स्त्रियों के लिए शारीरिक थकावट और बदन दर्द दूर करने का एक सामान्य परंतु कारगर तरीका
स्त्रियों के लिए बड़ी अजीब सी बात है कि दिन भर खटने के बाद जब महिलाए रात में बिस्तर पर पहुंचती हैं तो आधे घंटे तक दर्द से कराहती रहती हैं ।
इसके कई कारण हैं ।
1 युवावस्था में दो फुल्के खाकर काम चला लेना ।
2 जंक फ़ूड ज्यादा मात्रा मे सेवन करना।
4 पानी बहुत कम पीना ।
5 छोटी छोटी बीमारियों को नज़रअंदाज करना ।
5 कास्मेटिक्स का ज्यादा मात्रा में प्रयोग करना ।
6 खान-पान मे लापरवाही करना ।
शारीरिक थकावट और बदन दर्द दूर करने का एक सामान्य परंतु कारगर तरीका :-
एक किलो मेथी दाने घी में भूनकर पीस लीजिए । अब इसमें 250 ग्राम बबूल का गोंद घी
में भून कर और पीस कर मिला दीजिए । सुबह शाम 1-1 चम्मच यानी 5-5 ग्राम पानी से निगल लीजिए । जब तक यह पूरी दवा खत्म होगी आप अपने आपको अधिक सुन्दर,
ताकतवर महसूस करेंगी । पूरे बदन में दर्द का कहीं नामोनिशान नहीं रहेगा और एक नयी
स्फूर्ति का अनुभव होगा ।
मातृभूमि से बढ़कर कोई और देश नही हो सकता,भारत मे जो अपनापन है वो किसी भी देश मे नही मिल सकता।
डा. मीनाक्षी दो साल बाद लंदन से भारत लौटी हैं। वहाँ हर तरीके से सब कुछ बढ़िया होते हुए भी वो चैन से नही थी। विदेशी भूमि को उनका परिवार कभी अपना नहीं पाया। अब पटना लौट कर चैन की सांस आई है।
दीपावली की कुछ शॉपिंग करने अपने प्रिय पटना मार्केट आई थीं।
तभी एक संभ्रांत महिला ने टोका, "मैडम, बहुत दिनों के बाद देखा आपको। आप शायद इंग्लैंड चली गई थीं...कितने दिनों के लिए आई हैं"।
वो बहुत अभिभूत सी थीं। वहां लंदन में कोई पहचानता भी नही था...किसी को किसी से कोई मतलब ही नही होता था और यहाँ इस महिला ने देखते ही पहचान लिया और रोक कर स्नेहप्रदर्शन भी किया। उन्होने भी उतनी ही कोमलता से उस महिला से बात की।
अभी थोड़ा आगे बढ़ी ही थीं कि एक बड़े साड़ी शोरूम से एक सज्जन निकले और उनका अभिवादन किया,
"आप मैडम मीनाक्षी! बहुत दिनों के बाद दिखाई दी हैं। कहां रही इतने दिन?"
वो भी राकेश बाबू को पहचान कर बड़ी खुश हो गई, "अरे भाईसाहब, आपने हमें पहचान लिया। हमारी ननद के विवाह की काफ़ी खरीदारी आपके यहां से ही तो की गई थी"।
वो भी बहुत आत्मीयता से बोले, "जी बिल्कुल याद है। आपने तो मेरे पोते को नया जीवन दिया था। मेरा परिवार तो आपका सदा ही ऋणी रहेगा।"
उन्होने उनको शोरूम के अंदर आकर कॉफी़ पीने का आग्रह किया। वो उस स्नेही आग्रह को ठुकरा नहीं सकीं...सारे कामों की लिस्ट उनके मन में उछलकूद मचा रही थी पर उस स्नेह...उस आत्मीयता... उस प्यार भरी मनुहार को कैसे टाल दें जिसके लिए वहाँ सुदूर इंग्लैंड में वो हर पल...हर क्षण तड़पती रही थीं।
कॉफी़ पीते पीते उन्हें बुआजी की याद आ गई। आज सुबह ही तो वो कितना अचरज कर रही थी, "अरे मीनू, इतना बढ़िया जॉब, इतना ठाठबाट... सबसे बढ़ कर इतना सुंदर देश...सब छोड़छाड़ कर तुम लोग यहाँ वापस कैसे आ गए? जो एक बार जाता है.. बस वहीं का होकर रह जाता है।"
उस समय तो वो सिर्फ मुस्कुरा कर रह गई थीं पर अब बुआजी की बात का...उनके अचरज का जवाब देने का मन हो रहा था...देखिए बुआजी... यही अपनापन...यही अपनी पहचान ...जो शायद वहां की चमकदमक में कहीं ओझल सी हो गई थी...वहाँ की सुंदर राजसी सड़कों पर कोई पहचानने वाला नहीं था...यहाँ तो कदम कदम पर अपने लोग हैं...अपनापन है।
उसके बाद डॉ मीनाक्षी ने मुड़कर लंदन नही देखा और यही रख कर लोगो का कम पैसे में इलाज किया ताकि जरूरतमन्दों का सफल इलाज कर सकें।
💐💐शिक्षा💐💐
दोस्तों, अपनी मातृभूमि से बढ़कर कोई और देश नही हो सकता,भारत मे जो अपनापन है वो किसी भी देश मे नही मिल सकता।
शनिवार, 14 जनवरी 2023
पूरे देश की रजिस्ट्री अपने नाम। शर्म भी नहीं आई?
साल में बारह संक्रातियाँ पड़ती हैं किन्तु मकर संक्रांति का इतना महत्व क्यों है !
मकर ♑
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अन्तरिक्ष को भी समुद्र कहा गया है। समुद्र में जलजीवों का वास होता है, जलजीव , पोत, नाव आदि की कल्पना आकाश के तारों में भी की गई।
मकर राशि का उल्लेख महाभारत में स्पष्टतया किया गया है। (कुछ लोग यह अवश्य कहेंगे कि अमुक अमुक छापाखाना में छपी, अमुक की टीका में यह उल्लेख नहीं प्राप्त होता।
ऐसे व्यक्तियों से प्रश्न है कि क्या उनमें 'शतसाहस्री संहिता' सञ्ज्ञा को सार्थक करने हेतु एक लाख श्लोक हैं? क्या किसी टीकाकार को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि वह पूरे एक लाख श्लोकों की टीका पूर्ण कर पाता? किसी प्रेस को प्राप्त सामग्री ही अन्तिम नहीं होती)
अनेक पाण्डुलिपियों में ये श्लोक हैं और ये महाभारतकार ने नहीं लिखे ऐसा अकाट्य साक्ष्य किसी के पास नहीं है।
झषानां मकरश्चास्मि । श्रीमद्भगवद्गीता
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अयनं चैव मासश्च ऋतुः पक्षस्तथा तिथिः ।
करणं च मुहूर्तं च लग्नसंपत्तथैव च ॥
विवाहस्य विशालाक्षि प्रशस्तं चोत्तरायणम् ।
वैशाखश्चैव मासानां पक्षाणां शुक्ल एव च ॥
नक्षत्राणां तथा हस्तस्तृतीया च तिथिष्वपि ।
लग्नो हि मकरः श्रेष्ठः करणानां बवस्तथा ॥
मैत्रो मुहूर्तो वैवाह्य आवयोः शुभकर्मणि ।
सर्वसंपदियं भद्रे अद्य रात्रौ भविष्यति ॥
{ महाभारत आदिपर्व }
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'झष' शब्द शतपथब्राह्मण में भी है।
अन्य समुद्री जीवों के नाम एकत्र ही प्राप्त होते हैं देखें ब्राह्मण ग्रन्थ और अथर्ववेद।
मकर संक्रांति का महत्व
मकर संक्रांति का भारतीय जन जीवन में जितना महत्वपूर्ण स्थान है, वह बनते-बनते हजारों सालों का वक्त लगा है। एक मिथक है कि आदमी की आंखों को आसमान पर लगे-लगे कई दिन हो गए। आंखें देखती रही कि सूरज बर्फ को पिघलाकर बहते जल को देखते देखते समंदर तक जाता है... जब भाप बनती है तो बादलों का खोल ओढे फिर अपनी जगह लौटता है मगर पानी उसे फिर समंदर की ओर लेकर जाता है...।
याद कीजिएगा कि इसी से उत्तरायण और दक्षिणायन की धारणा बनी। अयन माने रास्ता, जैसा कि छांदोग्योपनिषद (4, 15, 5) में आया है, यही अर्थ ऋग्वेद (3, 33, 7) में मिलता है। संक्रमण से मतलब है रास्ते को लांघना। इधर का उधर होना अयन माना गया, यह छह-छह महीने का वक्त है। जब आदमी ने बारह महीनों को जान लिया तो इस संक्रमण को भी बारह तरह से जाना गया। इसमें दो अयन की संक्रांतियां मानी गई जिनका नाम राशियों के आधार पर रखा गया, जो कि अनेकों के अनुसार मेसोपोटामियां की उपज बताई गई हैं और भारत में यहां के नामों से ख्यात हुईं।
अयन की संक्रांतियां मकर (उत्तरायण) और कर्क (दक्षिणायन) के नाम से जानी गई। दो संक्रांतियां जब दिन और रात बराबर होते हैं, विषुव के नाम से जानी गई, मेष् और तुला की। अन्य चार के नाम षडशीति हैं जब मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशियां होती हैं और चार वे जो विष्णुपदी हैं, वृषभ, सिंह, वृश्चिक और कुंभ राशि वाली हैं।
छह-छह मासों का विवरण शतपथ ब्राह्मण में संक्षेप में आया है, किंतु तब तक राशियां अनजान ही थीं। सूर्य का धनु से मकर पर आना बहुत पहले से शुभ मान लिया गया था। इस घटना को धरतीवासी पत्थर के तीन चक्र एक दूसरे पर जमाकर गेंद से नीचे गिराते हुए देखते दिखाते अपना बल बताते थे।
यही खेल 'सतोलिया' का बना, खासकर पश्चिम भारत में यह खेल शुरु हुआ, यह आज भी है और संयोग से संक्रांति पर खेला भी जाता है। पहाडी प्रदेशों में पेडों की लकडियो से गेंद् को घुडाते हुए पारे या सीमा को लांघने का खेल विकसित हुआ। यह आज भी गीडा डोट के नाम से ख्यात है।
सुनाया जाता है कि फाहयान के साथ जो अन्य लोग इधर आए, पतंग जैसा खेल लेकर आए। पतंग से आशय सूर्य होता है, जिसके नाम से पश्चिम भारत वाले भली भांति परिचित थे। ये खेल आज भी इधर लोकप्रिय हैं...। रही बात दान-पुण्य की वह तो उपज निपज के कारण कृषि प्रधान समाज में था ही, जलीय प्रदेशों में यह स्नान के पर्व के रूप में ख्यात हुआ और इस तरह एक मिला जुला पर्व बना मकर संक्रांति।
मध्यकाल में, खासकर 10वीं सदी के आसपास सक्रांति को देवी का रूप मान लिया गया और उसके बनाव, शृंगार सहित खान-पान, देखने, चलने आदि की क्रियाओं पर विचार करके मौसम और साल भर के लेखा जोखा पर विचार हुआ और फिर संहिता तथा मुहूर्त ग्रंथों में उन सबको लिखा गया और लिखा ही जाता रहा। लगभग तीन सौ सालों तक, भविष्यपुराण भी इससे न्यारा नहीं है।
*
अभी तो आपके शब्दों में मकर मंगलम...
*
पौषमासे मकरे च यदा सूर्यायनं भवेत् |
चत्वारिंशद्घटिका वै पुण्यकालो विशेषतः||
दानस्नानार्चनाद्यं तु कर्तव्यं तिललड्डुकाः|
मिष्टान्नानि च देयानि ह्यनाथेभ्यो विशेषतः|
गवां ग्रासादि देयं च श्राद्धं पुण्यप्रदं तथा||
जय जय।
साल में बारह संक्रातियाँ पड़ती हैं किन्तु मकर संक्रांति का इतना महत्व क्यों है !
अभी मकर रेखा पर यानी ऑस्ट्रेलिया और आर्जेंटीना आदि में भगवान भास्कर एकदम बीचोबीच आकाश में सिर के ऊपर चमक रहे होंगे । मकर संक्रांति के बाद धीरे धीरे सूर्योदय उत्तर की ओर खिसकेगा और वहाँ आदमी की परछाईं तिरछी होती जायेगी । सूर्य की सीधी खड़ी किरणें अपने साथ गर्मी का मौसम लेकर चलती हैं । अब मकर रेखा से सूर्य की यात्रा उत्तर में अर्थात् भारत में कर्क रेखा की ओर चल पड़ी है ।
भारत के लिये सूर्य का उत्तरायण में आना बहुत ही महत्वपूर्ण घटना होती है । भारतीय प्रायद्वीप की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण सूर्य की यात्रा जब कर्क रेखा के आस पास पहुँच कर अपनी सीधी किरणों से पूरे प्रायद्वीप को तप्त कर देती है तब हिंद महासागर से तेज़ हवायें अपने साथ वर्षाजल से भरे मेघों को लेकर भारतभूमि को तृप्त करने निकल पड़ती हैं । इस दक्षिण पश्चिमी मानसून का एक भाग पश्चिमी घाट के सहारे केरल से गुजरात तक पश्चिम भारत को भिगोता है तो दूसरा भाग बंगाल खाड़ी पार करता हुआ हिमालय के दक्षिण में भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग को जीवन प्रदान करता है ।
हिमालय के बर्फ से भरे हुये हिमनद , उत्तर भारत की सदानीरा नदियाँ और प्रायद्वीप का फसल चक्र सब सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते हैं और इन्हीं सब पर भारतीय सभ्यता टिकी है । इसीलिये प्राचीन काल से ही मकर संक्राति का भारत में अत्यधिक महत्व रहा है । उत्तराखंड में तो उत्तरायणी एक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है । देश भर में कहीं पोंगल कहीं बिहू कहीं लोहड़ी कहीं खिचड़ी के रूप में इस संक्रांति का जोर शोर से स्वागत होता है । भारत में सूर्य की गति का इतना महत्व होने के कारण ही सौर वर्ष के आधार पर पंचांग और संवत्सर आदि विकसित हुए । यूँ तो मॉनसूनी वर्षा पश्चिम अफ्रीका, मेक्सिको और दक्षिण पूर्व एशिया में भी होती है लेकिन भारत में मॉनसून और हिमालय मिल कर एक विशेष जलवायु को जन्म देते हैं । और यह सब संभव होता है खरमास की शीतलता से निकल कर सूर्य के पुन: देदीप्यमान हो कर कर्क राशि को संचरण के कारण ।
ॐ विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव ।
यद् भद्रं तन्न आ सुव ॥
मकर संक्रांति की आप सभी को ढेरों शुभकामनायें
संस्कृत प्रार्थना के अनुसार "हे सूर्यदेव, आपका दण्डवत प्रणाम, आप ही इस जगत की आँखें हो। आप सारे संसार के आरम्भ का मूल हो, उसके जीवन व नाश का कारण भी आप ही हो।" सूर्य का प्रकाश जीवन का प्रतीक है। चन्द्रमा भी सूर्य के प्रकाश से आलोकित है। वैदिक युग में सूर्योपासना दिन में तीन बार की जाती थी। पितामह भीष्म ने भी सूर्य के उत्तरायण होने पर ही अपना प्राणत्याग किया था। हमारे मनीषी इस समय को बहुत ही श्रेष्ठ मानते हैं। इस अवसर पर लोग पवित्र नदियों एवं तीर्थस्थलों पर स्नान कर आदिदेव भगवान सूर्य से जीवन में सुख व समृद्धि हेतु प्रार्थना व याचना करते हैं।
रंग-बिरंगा त्योहार मकर संक्रान्ति प्रत्येक वर्ष जनवरी महीने में समस्त भारत में मनाया जाता है। इस दिन से सूर्य उत्तरायण होता है, जब उत्तरी गोलार्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है। परम्परा से यह विश्वास किया जाता है कि इसी दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। यह वैदिक उत्सव है। इस दिन खिचड़ी खाई जाती है। गुड़–तिल, रेवड़ी, गजक का प्रसाद बांटा जाता है।
माघ मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 'मकर संक्रान्ति' पर्व मनाया जाता है। जितने समय में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाती है, उस अवधि को "सौर वर्ष" कहते हैं। पृथ्वी का गोलाई में सूर्य के चारों ओर घूमना "क्रान्तिचक्र" कहलाता है। इस "परिधि चक्र" को बाँटकर बारह राशियाँ बनी हैं। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना "संक्रान्ति" कहलाता है। इसी प्रकार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने को "मकरसंक्रान्ति" कहते हैं।
सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण तथा कर्क रेखा से दक्षिणी मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन है। उत्तरायण में दिन बड़े हो जाते हैं तथा रातें छोटी होने लगती हैं। दक्षिणायन में ठीक इसके विपरीत होता है। शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन देवताओं की रात होती है। वैदिक काल में उत्तरायण को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा जाता था । इसलिए यह आलोक का अवसर माना जाता है। इस दिन पुण्य, दान, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अनन्य महत्व है और सौ गुणा फलदायी होकर प्राप्त होता है। मकर संक्रान्ति प्रत्येक वर्ष प्रायः 14 जनवरी को पड़ती है।
आभार प्रकट करने का दिन
पंजाब, बिहार व तमिलनाडु में यह समय फ़सल काटने का होता है। कृषक मकर संक्रान्ति को आभार दिवस के रूप में मनाते हैं। पके हुए गेहूँ और धान को स्वर्णिम आभा उनके अथक मेहनत और प्रयास का ही फल होती है और यह सम्भव होता है, भगवान व प्रकृति के आशीर्वाद से। विभिन्न परम्पराओं व रीति–रिवाज़ों के अनुरूप पंजाब एवं जम्मू–कश्मीर में "लोहड़ी" नाम से "मकर संक्रान्ति" पर्व मनाया जाता है। सिन्धी समाज एक दिन पूर्व ही मकर संक्रान्ति को "लाल लोही" के रूप में मनाता है। तमिलनाडु में मकर संक्रान्ति पोंगल के नाम से मनाया जाता है, तो उत्तर प्रदेश और बिहार में खिचड़ी के नाम से मकर संक्रान्ति मनाया जाता है। इस दिन कहीं खिचड़ी तो कहीं चूड़ादही का भोजन किया जाता है तथा तिल के लड्डु बनाये जाते हैं। ये लड्डू मित्र व सगे सम्बन्धियों में बाँटें भी जाते हैं।
खिचड़ी संक्रान्ति
चावल व मूंग की दाल को पकाकर खिचड़ी बनाई जाती है। इस दिन खिचड़ी खाने का प्रचलन व विधान है। घी व मसालों में पकी खिचड़ी स्वादिष्ट, पाचक व ऊर्जा से भरपूर होती है। इस दिन से शरद ऋतु क्षीण होनी प्रारम्भ हो जाती है। बसन्त के आगमन से स्वास्थ्य का विकास होना प्रारम्भ होता है।
पंजाब में लो़ढ़ी
मकर संक्रान्ति भारत के अन्य क्षेत्रों में भी धार्मिक उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है। पंजाब में इसे लो़ढ़ी कहते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में नई फ़सल की कटाई के अवसर पर मनाया जाता है। पुरुष और स्त्रियाँ गाँव के चौक पर उत्सवाग्नि के चारों ओर परम्परागत वेशभूषा में लोकप्रिय नृत्य भांगड़ा का प्रदर्शन करते हैं। स्त्रियाँ इस अवसर पर अपनी हथेलियों और पाँवों पर आकर्षक आकृतियों में मेहन्दी रचती हैं।
बंगाल में मकर-सक्रांति
पश्चिम बंगाल में मकर सक्रांति के दिन देश भर के तीर्थयात्री गंगासागर द्वीप पर एकत्र होते हैं , जहाँ गंगा बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। एक धार्मिक मेला, जिसे गंगासागर मेला कहते हैं, इस समारोह की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस संगम पर डुबकी लगाने से सारा पाप धुल जाता है।
कर्नाटक में मकर-सक्रांति
कर्नाटक में भी फ़सल का त्योहार शान से मनाया जाता है। बैलों और गायों को सुसज्जित कर उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है। नये परिधान में सजे नर-नारी, ईख, सूखा नारियल और भुने चने के साथ एक दूसरे का अभिवादन करते हैं। पंतगबाज़ी इस अवसर का लोकप्रिय परम्परागत खेल है।
गुजरात में मकर-सक्रांति
गुजरात का क्षितिज भी संक्रान्ति के अवसर पर रंगबिरंगी पंतगों से भर जाता है। गुजराती लोग संक्रान्ति को एक शुभ दिवस मानते हैं और इस अवसर पर छात्रों को छात्रवृतियाँ और पुरस्कार बाँटते हैं।
केरल में मकर-सक्रांति
केरल में भगवान अयप्पा की निवास स्थली सबरीमाला की वार्षिक तीर्थयात्रा की अवधि मकर संक्रान्ति के दिन ही समाप्त होती है, जब सुदूर पर्वतों के क्षितिज पर एक दिव्य आभा ‘मकर ज्योति’ दिखाई पड़ती है।
✍🏻साभार
आपको एवं आपके पूरे परिवार को लोहड़ी और मकर संक्राति की हार्दिक शुभकामनाएं ll
ईश्वर से यही कामना है कि आने वाला प्रत्येक नया दिन आपके जीवन में अनेकानेक सफलताएँ एवं अपार खुशियाँ लेकर आये ll
इस अवसर पर ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह वैभव, ऐश्वर्य, उन्नति, प्रगति, आदर्श, स्वास्थ्य, प्रसिद्धि और समृद्धि के साथ साथ आजीवन आपको जीवन पथ पर गतिमान रखे ll
लोहड़ी, मकर संक्राति की हार्दिक शुभकामनायें ll ✨💐💐
मंगलवार, 10 जनवरी 2023
किसी को जन्म तारीख पता ही नहीं हो तो उसकी कुंडली कैसे देखी जाती है?
किसी को जन्म तारीख पता ही नहीं हो तो उसकी कुंडली कैसे देखी जाती है?
जी हां वास्तुशास्त्र ओर हस्तरेखा से हम किसी की जन्म कुंडली निकाल सकते है परंतु ध्यान रहे ज्योतिषि में हस्तरेखा का सही ज्ञान होना बहुत जरूरी है अन्यथा परिणाम गलत होंगे ओर पता भी नहीं चलेगा।
मुग़लों की सत्ता किसने खत्म की?
ये बहुत दिलचस्प सवाल है अगर आप एनसीईआरटी पढ़ोगे तो आपको लगेगा कि मुगलों ने तो 1857 तक राज्य किया था और उनकी सत्ता तो अंग्रेजो ने खत्म की थी लेकिन ये धोखा है गुरु , जब आप कॉलेज में जाके अलग अलग इतिहासकारों की किताब पढ़ोगे तो पाओगे की मुगलों की सत्ता तो 1857 से कोई 100-150 साल पहले ही खत्म हो गई थी ।
अगर आप इतिहास देखोगे तो पाओगे कि मुगलों का राज्य और प्रभाव उत्तर भारत तक ही सीमित था । हां , ये अलग बात है कि उन्होंने दक्कन और दक्षिण भारत को जीतने की कोशिश की लेकिन वो कभी वहां उत्तर भारत के जैसे प्रभाव नहीं जमा पाए थे इसलिए हम आज भी देखते है कि साऊथ इंडिया के मन्दिर और संस्कृति काफी हद तक सुरक्षित हैं नॉर्थ इंडिया की तुलना में।
और उत्तर भारत में भी उनका राज्य और प्रभाव बना रहा था क्योंकि उन्हें " राजपूतों का समर्थन " था जो कि उत्तर भारत के अधिकांश भाग पर अपने राज्यों में राज करते थे ।
औरंगजेब के समय मुगल सत्ता अपने चरम पर थी और उसने हिंदुओं को उन्हीं के देश में सेकंड क्लास सिटीजन बनाने की कोशिश की । उसने जैसे ही जजिया लगाया और मन्दिर तोड़ने शुरु किए तो सारे सोए हुऐ हिंदु जाग गए और ये कोई राजा महाराजा नहीं थे इनमें आम लोग भी शामिल थे
और इसका उदाहरण हैं _ " जाट विद्रोह " वो किसान थे जो दिल्ली के आस पास भरतपुर मथुरा में रहते थे। उन्होंने जजिया और मथुरा के मन्दिर तोड़ने के गुस्से में विद्रोह किया ।
ऐसे ही विद्रोह सिक्ख , सतनामी , राजपूत , मराठों ने किए और औरंगजेब की जिंदगी इन्हीं विद्रोहाें को दबाते हुऐ निकली ।
यहां सबसे इंटरेस्टिंग हिस्सा है "
"राजपूतों का विद्रोह "
अगर मैं मेवाड को न शामिल करूं तो वो राजपूत ही थे जिन्होंने मुगल शासन को भारत में मजबूत किया। उसे फैलाया और उसकी रक्षा की और इसमें उनका स्वार्थ था _ वो सत्ता के भागीदार थे।
लेकिन औरंगजेब के आते ही सब बदल गया
उसने सबसे पहले टारगेट किया जोधपुर को जहां उसने अजीत सिंह को मुस्लिम बनाने की कोशिश लेकिन यहां महाराणा राजसिंह ने फिर से अपने वंश का गौरव बढ़ाया और जोधपुर की रक्षा के लिए उन्होंने दुर्गादास राठौड़ के साथ मिलकर जोधपुर और मेवाड को एक साथ संगठित किया और मुगलों को रोक दिया ।
ये राजपूतों के विद्रोह की शुरुआत थी लेकिन दुर्भाग्य ये था कि असमय महाराणा राजसिंह का १६८० में निधन हो गया और ये विद्रोह कमजोर पड़ गया और फिर अजीत सिंह के दुर्गादास के प्रति शक ने इसे और कमजोर किया ।
लेकिन यहां से इतना साबित हो चुका था कि अब राजपूतों और मुगलों के रिश्तों की जड़ कमज़ोर हो चुकी हैं।
इसी विद्रोह का दूसरा भाग शुरू होता है औरंगजेब की मौत के तुरंत बाद जब बहादुर शाह को दिल्ली मिली तो उसने राजपूतों को निशाना बनाया और घटनाक्रम में उसने वहां टारगेट किया जो राजपूतों को मुगलों से जोड़ता था - जयपुर के कचवाह
ये उसकी सबसे बडी भूल थी । उसने जय सिंह से जयपुर छीन लिया और उसे एक मामूली जागीर बना दिया और फिर उसने जोधपुर को घेर लिया ।
इससे वो हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ _ राजपूताना के तीन सबसे बडे़ राज्य मुगलों के खिलाफ़ एक संघटन में आ गए मेवाड, जोधपुर और जयपुर । इसके लिए महाराणा की बेटी की शादी जय सिंह से हुई जिसका बेटा जयपुर का शासक होगा ऐसी संधि हुई । विद्रोह की अगुवाई की दुर्गादास राठौड़ और जय सिंह ने
इसके बाद इनकी सेना एक साथ आकर मुगलों पर टूट पड़ी और एक के बाद एक जोधपुर और आमेर को वापस से जीत लिया गया ।
इसी दौर मुगलों की तरफ़ से संघ को तोड़ने की और लालच देने की कोशिश की गई लेकिन इस बार जय सिंह ने पीठ नहीं दिखाई ।
मुगलों ने फिर से सैयद हुसैन और चूड़ामन जाट के साथ सेना भेजी ( ये इंटरेस्टिंग है कि कैसे जाट विद्रोही किसानों से शासक बने )
लेकिन जयसिंह चूड़ामण को अलग करने में सफल रहा और राजपूतों ने सांभर में मुगलों पर हमला कर सांभर में मुगलों के खजाने को लूट लिया ।
फिर सांभर का युद्ध ( इनके बारे में आपको एनसीईआरटी में नहीं मिलेगा ) हुआ जिसमें राजपूतों में मुगल सेना को एक निर्णायक हार दी और फौजदारों समेत पूरी मुगल सेना का सफाया कर दिया और इसमें ३००० से ज्यादा मुगल सैनिक मारे गए । ( इस विद्रोह में कई लड़ाइयां हुई सबको एक उत्तर में लिखना संभव नहीं )
राजपूतों ने आगे बढ़कर कर रेवाड़ी और नारनौल में अपनी चौकी बैठा दी और राजपूतों ने मुगलों को नीचा दिखाने के लिए दिल्ली , आगरा तक रैड की ।
जय सिंह ने इसी दौरान मराठों , बुंदेलों को भी पत्र लिखे विद्रोह को हर राज्य में फैलाने के लिए ( जो कि सबसे दिलचस्प है )
जब मुगल बादशाह को अपनी हार का पता लगा तो उसने राजपूतों की मांग मान ली और औरंगजेब के कब्जे किए क्षेत्र और उनके राज्य लौटा दिए ।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से ये बात साफ हो गई अन्य राज्यो के लिए कि जो राजपूत इनकी जड़ और आधार थे इनके राज्य के वो अब इनसे दूर हो चूके हैं और इसी के बाद मराठों ने रही सही कसर पूरी कर दी ।
मेरा मानना ये ही है कि ये ही विद्रोह था जिसने मुगलों को खत्म किया वरना अगर राजपूत इनसे जुड़े रहते तो कभी भी उत्तर भारत में इनका प्रभाव कम नहीं होता ।
इति।
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