5000 साल पहले ब्राह्मणों ने हमारा बहुत शोषण किया ब्राह्मणों ने हमें पढ़ने से रोका। यह बात बताने वाले महान इतिहासकार यह नहीं बताते कि 500 साल पहले मुगलों ने हमारे साथ क्या किया। 100 साल पहले अंग्रेजो ने हमारे साथ क्या किया।हमारे देश में शिक्षा नहीं थी लेकिन 1897 में शिवकर बापूजी तलपडे ने हवाई जहाज बनाकर उड़ाया था मुंबई में जिसको देखने के लिए उस टाइम के हाई कोर्ट के जज महा गोविंद रानाडे और मुंबई के एक राजा महाराज गायकवाड के साथ-साथ हजारों लोग मौजूद थे जहाज देखने के लिए।
उसके बाद एक डेली ब्रदर नाम की इंग्लैंड की कंपनी ने शिवकर बापूजी तलपडे के साथ समझौता किया और बाद में बापू जी की मृत्यु हो गई यह मृत्यु भी एक षड्यंत्र है हत्या कर दी गई और फिर बाद में 1903 में राइट बंधु ने जहाज बनाया।
आप लोगों को बताते चलें कि आज से हजारों साल पहले की किताब है महर्षि भारद्वाज की विमान शास्त्र जिसमें 500 जहाज 500 प्रकार से बनाने की विधि है उसी को पढ़कर शिवकर बापूजी तलपडे ने जहाज बनाई थी।
लेकिन यह तथाकथित नास्तिक लंपट ईसाइयों के दलाल जो है तो हम सबके ही बीच से लेकिन हमें बताते हैं कि भारत में तो कोई शिक्षा ही नहीं था कोई रोजगार नहीं था।
अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन 14 दिसंबर 1799 को आये थे। सर्दी और बुखार की वजह से उनके पास बुखार की दवा नहीं थी। उस टाइम भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी और अंग्रेज प्लास्टिक सर्जरी सीख रहे थे हमारे गुरुकुल में अब कुछ वामपंथी लंपट बोलेंगे यह सरासर झूठ है।
तो वामपंथी लंपट गिरोह कर सकते है ऑस्ट्रेलियन कॉलेज ऑफ सर्जन मेलबर्न में ऋषि सुश्रुत ऋषि की प्रतिमा "फादर ऑफ सर्जरी" टाइटल के साथ स्थापित है।
महर्षि सुश्रुत: ये शल्य चिकित्सा विज्ञान यानी सर्जरी के जनक व दुनिया के पहले शल्यचिकित्सक (सर्जन) माने जाते हैं। वे शल्यकर्म या आपरेशन में दक्ष थे। महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखी गई ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के बारे में कई अहम ज्ञान विस्तार से बताया है। इनमें सुई, चाकू व चिमटे जैसे तकरीबन 125 से भी ज्यादा शल्यचिकित्सा में जरूरी औजारों के नाम और 300 तरह की शल्यक्रियाओं व उसके पहले की जाने वाली तैयारियों, जैसे उपकरण उबालना आदि के बारे में पूरी जानकारी बताई गई है।
जबकि आधुनिक विज्ञान ने शल्य क्रिया की खोज तकरीबन चार सदी पहले ही की है। माना जाता है कि महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद पथरी हड्डी टूटना जैसे पीड़ाओं के उपचार के लिए शल्यकर्म यानी आपरेशन करने में माहिर थे। यही नहीं वे त्वचा बदलने की शल्यचिकित्सा भी करते थे।
भास्कराचार्य: आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।
आचार्य कणाद: कणाद परमाणु की अवधारणा के जनक माने जाते हैं। आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।
उनके अनासक्त जीवन के बारे में यह रोचक मान्यता भी है कि किसी काम से बाहर जाते तो घर लौटते वक्त रास्तों में पड़ी चीजों या अन्न के कणों को बटोरकर अपना जीवनयापन करते थे। इसीलिए उनका नाम कणाद भी प्रसिद्ध हुआ।
गर्गमुनि: गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार। ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के बारे में नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ। कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।
आचार्य चरक: ‘चरकसंहिता’ जैसा महत्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ रचने वाले आचार्य चरक आयुर्वेद विशेषज्ञ व ‘त्वचा चिकित्सक’ भी बताए गए हैं। आचार्य चरक ने शरीर विज्ञान, गर्भविज्ञान, औषधि विज्ञान के बारे में गहन खोज की। आज के दौर में सबसे ज्यादा होने वाली बीमारियों जैसे डायबिटीज, हृदय रोग व क्षय रोग के निदान व उपचार की जानकारी बरसों पहले ही उजागर कर दी।
पतंजलि: आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को भी रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।
बोधायन: भारतीय त्रिकोणमितिज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। कई सदियों पहले ही तरह-तरह के आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बोधायन ने खोजी। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी, उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में बदलना, इस तरह के कई मुश्किल सवालों का जवाब बोधायन ने आसान बनाया।
15 साल साल पहले का 2000 साल पहले का मंदिर मिलते हैं जिसको आज के वैज्ञानिक और इंजीनियर देखकर हैरान में हो जाते हैं कि मंदिर बना कैसे होगा अब हमें इन वामपंथी लंपट लोगो से हमें पूछना चाहिए कि मंदिर बनाया किसने
ब्राह्मणों ने हमें पढ़ने नहीं दिया यह बात बताने वाले महान इतिहासकार हमें यह नहीं बताते कि सन 1835 तक भारत में 700000 गुरुकुल थे इसका पूरा डॉक्यूमेंट Indian house में मिलेगा।
भारत गरीब देश था चाहे है तो फिर दुनिया के तमाम आक्रमणकारी भारत ही क्यों आए हमें अमीर बनाने के लिए।
भारत में कोई रोजगार नहीं था। भारत में पिछड़े दलितों को गुलाम बनाकर रखा जाता था लेकिन वामपंथी लंपट आपसे यह नहीं बताएंगे कि हम 1750 में पूरे दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा 24 परसेंट था और सन उन्नीस सौ में एक परसेंट पर आ गया आखिर कारण क्या था।
अगर हमारे देश में उतना ही छुआछूत थे हमारे देश में रोजगार नहीं था तो फिर पूरे दुनिया के व्यापार में हमारा 24 परसेंट का व्यापार कैसे था।
यह वामपंथी लंपट यह नहीं बताएंगे कि कैसे अंग्रेजों के नीतियों के कारण भारत में लोग एक ही साथ 3000000 लोग भूख से मर गए कुछ दिन के अंतराल में
एक बेहद खास बात वामपंथी लंपट या अंग्रेज दलाल कहते हैं इतना ही भारत समप्रीत था इतना ही सनातन संस्कृति समृद्ध थी तो सभी अविष्कार अंग्रेजों ने ही क्यों किए हैं भारत के लोगों ने कोई भी अविष्कार क्यों नहीं किया।
उन वामपंथी लंपट लोगों को बताते चलें कि किया तो सब आविष्कार भारत में ही लेकिन उन लोगों ने चुरा करके अपने नाम से पेटेंट कराया नहीं तो एक बात बताओ भारत आने से पहले अंग्रेजों ने कोई एक अविष्कार किया हो तो उसका नाम बताओ और थोड़ा अपना दिमाग लगाओ कि भारत आने के बाद ही यह लोग आविष्कार कैसे करने लगे उससे पहले क्यों नहीं करते थे।
साभार सोशल मीडिया।
आदरणीय अरुण कुमार उपाध्याय जी ने पुराणों के आधार पर राजवंशों पर लिखा है, किन्तु उससे पूर्व आनन्द कुमार जी की पोस्ट से भूमिका स्पष्ट कर रहा हूँ, कल की पोस्ट के बाद बहुत से मित्रों के कई प्रश्न आए हैं, तो उनका समाधान भी आवश्यक है-
गुजरात में गिरनार की पहाड़ियों के पास जूनागढ़ है, जहाँ से गिर वन शुरू होते हैं वहां से थोड़ा ही दूर है | यहाँ अशोक का एक शिलालेख है | इसमें बताया गाय है की चन्द्रगुप्त मौर्य के एक सामंत पुष्यगुप्त ने यहाँ एक झील बनवाई थी, अशोक के समय तुशास्पा (जो की शायद ग्रीक था) उसने इस झील का काम पूरा करवाया | इसके नीचे शक (Scythian) राजा रूद्रदमन का लेख जोड़ा गया है | रूद्रदमन ने अपने शिलालेख में लिखवाया है की 72 वें साल ( शायद 150 AD) में एक बाढ़ और तूफ़ान से झील के नष्ट हो जाने के बाद उन्होंने इसका पुनः निर्माण करवाया | रुद्रदमन बड़े गर्व से बताते हैं की इसके लिए उन्होंने अतिरिक्त कर या जबरन किसी से मजदूरी नहीं करवाई | कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती | इसके नीचे तीन सौ साल बाद गुप्त वंश के स्कंदगुप्त लिखवाते हैं कि 455-56 AD के दौरान इस झील को फिर से ठीक करवाने का काम उन्होंने करवाया |
दरअसल जूनागढ़ का शाब्दिक अर्थ ही पुराना किला होता है | माना जाता है की कृष्ण की सेना ने यहाँ किला बनवाया था | बाद में शक, राजपूत, मुस्लिम कई राजाओं ने यहाँ राज किया | 1947 में भारत की आजादी के समय भी जूनागढ़ के अनोखे किस्से हैं | उन्हें कभी बाद में देखेंगे |
यहाँ सबसे मजेदार होता है अशोक का शिलालेख | अपने किसी भी शिलालेख में अशोक अपना नाम अशोक नहीं लिखवाते थे | उनका नाम प्रियदर्शी लिखा होता है | लगभग सारे ही उस काल के शिलालेख पाली में लिखे होते हैं | अब इतिहासकारों के लिए बड़ी समस्या हुई | प्रियदर्शी नाम समझ आये, पाली लिपि से मौर्य वंश का काल भी समझ आता था | मगर ये राजा कौन सा था ये पता नहीं चल पाता था | रोमिला थापर ने कई शिलालेखों का अनुवाद तो किया मगर अब भी अशोक को स्थापित करने में दिक्कत थी | नाम और वंशावली तो कहीं लिखी ही नहीं थी | ऐसे में पुराण काम आये |
जी हाँ वही हिन्दुओं वाले धर्मग्रन्थ पुराण | मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण और वायु पुराण में मौर्य वंश की पूरी वंशावली ही लिखी थी | तो उनके जरिये ये पक्का किया जा सका की ये जो प्रियदर्शी है वही अशोक है |
अच्छा हाँ, पुराण जो हैं वो मिथक हैं, इतिहास नहीं है???
✍🏻आनन्द कुमार
नेपाल राजवंश-
यह पूर्ण रूप में उपलब्ध है क्योंकि नेपाल स्वाधीन रहा है। यह गुह्यक स्थान था जहां विक्रमादित्य ने तपस्या की थी। नेमिनाथ (युधिष्ठिर का संन्यास नाम) का शिष्य बनने पर यह नेपाल बना। यह इण्डियन ऐण्टिकुअरी, खण्ड १३ में प्रकाशित हुई थी जिसके आधार पर पं. कोटा वेंकटाचलम ने नेपाल कालक्रम (अंग्रेजी, १९५३) लिखा।
गोपाल वंश- १. भुक्तमानगत गुप्त (४१५९-४०७१ ई.पू.), २. जय गुप्त (४०७१-३९९९), ३. परम गुप्त (३९९९-३९१९), ४. हर्षगुप्त (३०१०-३८२५), ५. भीमगुप्त (३८२६-३७८८), ६. मणिगुप्त (३७८८-३७५१), ७. विष्णुगुप्त (३७५१-३७०९), ८. यक्षगुप्त (निस्सन्तान, भारत से अहीर वंश बुलाया)-(३७०९-३६३७)
अहीर वंश-३राजा २०० वर्ष तक (३६३७-३४३७ ई.पू.)-९. वरसिंह, १०. जयमतसिंह, ११. भुवनसिंह।
किरात वंश-७ राजा महाभारत काल तक ३०० वर्ष (३४३७-३१३७ ई.पू.), उसके बाद २२ राजा ८१८ वर्ष (३१३८-२३१९ ई.पू.)
१२. यलम्बर, १३. पवि, १४. स्कन्दर, १५. वलम्ब, १६. हृति, १७. हुमति-पाण्डवों के साथ वन गया।, १८. जितेदास्ति-महाभारत में पाण्डव पक्ष से युद्ध कर मारा गया। १९. गलि (महाभारत के बाद ३६३७ ई.पू. में राजा), २०. पुष्क, २१. सुयर्म, २२. पर्भ, २३. ठूंक, २४. स्वानन्द, २५. स्तुंक, २६. घिघ्री, २७. नाने, २८. लूक, २९. थोर, ३०. ठोको, ३१. वर्मा, ३२. गुज, ३३. पुष्कर, ३४. केसु, ३५. सूंस, ३६. सम्मु, ३७. गुणन, ३८. किम्बू, ३९. पटुक, ४०. गस्ती।
सोमवंश-१२ राजा ६०७ वर्ष (२३१९-१७२ ई.पू.)-४१. निमिष, ४२. मानाक्ष, ४३. काकवर्मन्, ४४-४८-लुप्त नाम, ४९. पशुप्रेक्षदेव-१८६७ ई.पू. में इसने भारत से कुछ व्यक्ति बुलाये। पशुअतिनाथ मन्दिर का पुनः निर्माण। (महावीर, सिद्धार्थ बुद्ध का काल)-४१-४९, ये ९ राजा ४६४ वर्ष (२३१९-१८५५ ई.पू.) ५०-५१. अज्ञात, ५२. भास्करवर्मन् (३ राजा १८५५-१७१२ ई.पू.)-इसने भारत को जीता। निस्सन्तान होने के कारण सूर्यवंशी राजा भूमिवर्मन को गोद लिया।
सूर्यवंश-३१ राजा १६१२ वर्ष (१७१२-१०० ई.पू.)-५३. भूमिवर्मन (१७१२-१६४५ ई.पू.), ५४. चन्द्रवर्मन (१६४५-१५८४), ५५. जयवर्मन (१५८४-१५०२), ५६. वर्षवर्मन (१५०४-१४४१), ५७. सर्ववर्मन (१४४१-१३६३), ५८. पृथ्वीवर्मन (१३६३-१२८७), ५९. ज्येष्ठवर्मन (१२८७-१२१२), ६०. हरिवर्मन (१२१२-११३६), ६१. कुबेरवर्मन (११३६-१०४८), ६२. सिद्धिवर्मन (१०४८-९८७), ६३. हरिदत्तवर्मन (९८७-९०६), ६४. वसुदत्तवर्मन (९०६-८४३),६५. पतिवर्मन (८४३-७९०), ६६. शिववृद्धिवर्मन (७९०-७३६), ६७. वसन्तवर्मन (७३६-६७५), ६८. शिववर्मन (६७५-६१३), ६९. रुद्रवर्मन (६१३-५४७), ७०. वृषदेववर्मन (५४७-४८६)-इस कालमें (४८७ ई.पू.) शंकराचार्य यहां आये थे तथा १२ बोधिसत्त्वों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। नेपाल राजा को पुरी राजा के समान राजा रूप में श्रीजगन्नाथ पूजा का अधिकार। अपने पुत्र का नाम शंकराचार्य के नाम पर शंकर रखा। ७१. शंकरदेव (४८६-४६१), ७२. धर्मदेव (४६१-४३७), ७३. मानदेव (४३७-४१७), ७४. महिदेव (४१७-३९७), ७५. वसन्तदेव (३९७-३८२), ७६. उदयदेव वर्मन (३८२-३७७), ७७. मानदेव वर्मन (३७७-३४७), ७८. गुणकामदेव वर्मन (३४७-३३७), ७९. शिवदेव वर्मन (३३७-२७६), ८०. नरेन्द्रदेव वर्मन (२७६-२३४), ८१. भीमदेव वर्मन (२३४-१९८), ८२. विष्णुदेव वर्मन (१९८-१५१), ८३. विश्वदेव वर्मन (१५१-१०१)-इसका पुत्र नहीं था। अपनी पुत्री का विवाह ठाकुरी वंश के अंशुवर्मन से कर उसको राजा बनाया।
ठाकुरी वंश-२१ राजा ८९९ वर्ष (१०१ ई.पू. से ७९८ ई. तक)-८४. अंशुवर्मन (१०१-३३ ई.पू.)-इनकी व्याकरण की पुस्तक विख्यात थी जिसका उल्लेख चीनी यात्री हुएनसांग (६४२ ई.) ने किया है। इस काल में उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य यहां आये तथा ५७ ई.पू. में पशुपतिनाथ में चैत्र शुक्ल से विक्रम संवत् आरम्भ किया। अंशुवर्मन के कई दानपत्र चाहमानशक में, विक्रमादित्य के आने पर विक्रम सम्वत् में हैं। इनके पुत्र जिष्णुगुप्त कुछ काल तक राजा रहने के बाद विक्रमादित्य राज्य में ज्योतिष का अध्ययन करते थे, वराहमिहिर के समकालीन। इनके पुत्र ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के लेखक ब्रह्मगुप्त जिष्णुसुत के रूप में विख्यात।
८५. कृतवर्मन् (३३ ई.पू.-५४ ई.), ८६. भीमार्जुन (५४-१४७ ई.), ८७. नन्ददेव (१४७-१७२), ८८-अज्ञात (१७२-२३२), ८९-अज्ञात (२३२-२९९), ९०. वीरदेव (२९९-३९४), ९१. चन्द्रकेतुदेव (३९४-४६०), ९२. नरेन्द्रदेव (४६०-५१६), ९३. वरदेव (५१६-५७०)-इनके शासन में एक शंकराचार्य तथा अवलोकितेश्वर ५२२ ई. में आये थे। ९४. नरमुदि (५७०-६१५), ९५. शंकरदेव (६१५-६२७), ९६. वर्धमानदेव (६२७-६४०), ९७. बलिदेव (६४०-६५३), ९८. जयदेव (६५३-६६८), ९९. बलार्जुनदेव (६६८-६८५), १००. विक्रमदेव (६८५-६९७), १०१. गुणकामदेव (६९७-७४८), १०२. भोजदेव (७४८-७५६), १०३. लक्ष्मीकामदेव (७५६-७७८), १०४. जयकामदेव (७७८-७९८)
नवकोट ठाकुरी वंश-१.भास्करदेव, २. बलदेव, ३. पद्मदेव, ४. नागार्जुनदेव, ५. शंकरदेव-इनके राज्य में २४५ सम्वत् में प्रज्ञा पारमिता पुस्तक स्वर्ण अक्षरों में लिखी गयी थी। इनकी मृत्यु के बाद अंशुवर्मन परिवार के एक वंशज वामदेव ने द्वितीय ठाकुरी वंश का शासन आरम्भ किया।
द्वितीय ठाकुरी वंश-अंशुवर्मन् के वंशज (७२०-९४५ ई.)-१. वामदेव, २. हर्षदेव, ३. सदाशिवदेव ने ७५० ई. में पशुपतिनाथ मन्दिर के लिये सोने की छत दी तथा उसके दक्षिण-पश्चिम में कीर्तिपुर बनाया। उनके लौह-ताम्र सिक्के हैं जिन पर सिंह चिह्न है। ४. मानदेव (१० वर्ष)-चक्रविहार में सन्यासी हो गया। ५. नरसिंहदेव (२२ वर्ष), ६. नन्ददेव (२१ वर्ष), ७. रुद्रदेव (१९ वर्ष)-बौद्ध सन्यासी, ८. मित्रदेव (२१ वर्ष), ९. अत्रिदेव (२२ वर्ष), १०. अभयमल्ल, ११. जयदेवमल्ल(१० वर्ष), १२. आनदमल्ल (२५ वर्ष)-भक्तपुर आदि ७ नगर बनाये।
कर्नाटक वंश-१. नान्यदेव- नेपाल सम्वत् ९ या शालिवाहन शक ८११, श्रावन सुदी ७ को कर्नाटक के नान्यदेव नेपाल के राजा बने, भाटगाम में ५० वर्ष शासन। मिथिला पर भी शासन। २. गंगदेव (४१ वर्ष), ३. नरसिंहदेव (३१ वर्ष), ४. शक्तिदेव (३९ वर्ष), ५. रामसिंहदेव (५८ वर्ष), ६. हरिदेव (४१ वर्ष)
✍🏻अरुण कुमार उपाध्याय