बिरसा मुंडा/Birsa
'बिरसा भगवान्' के नाम से लोकप्रिय बिरसा मुंडा का जन्म सन 1875 में झारखण्ड राज्य के रांची जिले में हुआ था। उनका जन्म बृहस्पतिवार को हुआ था, इसलिए मुंडा जनजातियों की परंपरा के अनुसार उनका नाम 'बिरसा मुंडा' रखा गया। इनके पिता एक खेतिहर मजदूर थे। पिता के पास रहने के लिए कोई सुरक्षित स्थान नहीं था और वे बाँस से बनी एक छोटी सी झोंपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते थे।
बिरसा बचपन से ही बड़े प्रतिभाशाली थे। वे अन्य मुंडा बच्चों की तरह ही अपने साथियों के साथ मिट्टी और रेत में खेला करते थे। जैसे-जैसे वे बड़े होने लगे, उनका शरीर मजबूत और सुडौल बनने लगा। कुछ बड़ा होने पर वे अपने साथियों के साथ जंगल में भेड़-बकरियां चराने जाने लगे। जंगल में वें बाँसुरी बजाया करते थे। बाँसुरी बजाने में वे इतने प्रवीण हो गए थे कि उसकी मधुर तान सुनकर लोग उनके पास आकर इकठ्ठा हो जाते थे। बिरसा का परिवार अत्यंत गरीबी में जीवन-यापन कर रहा था। गरीबी के कारण ही बिरसा को उनके मामा के पास भेज दिया गया। वहीं पर वह एक स्कूल में जाने लगे। स्कूल के संचालक बिरसा की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिरसा को जर्मन मिशन स्कूल में पढने की सलाह दी। जर्मन मिशन स्कूल में पढने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार करना अनिवार्य था। अतः बिरसा और उनके सभी परिवार वालों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। धर्मान्तरण के बाद मुंडा का नाम बदलकर 'बिरसा डेविड' रख दिया गया। उनके कुछ साथी उन्हें बिरसा दाउद कहकर बुलाने लगे। सन 1886 से 1890 तक का समय बिरसा ने जर्मन मिशन में बिताया। इसके बाद उन्होंने जर्मन मिशनरी की सदस्यता त्याग दी और प्रसिद्ध वैष्णव भक्त आनंद पांडे के संपर्क में आये।
बिरसा ने आनंद पांडे से धार्मिक शिक्षा ग्रहण की। आनंद पांडे के सत्संग से उनकी रूचि भारतीय दर्शन और संस्कृति के रहस्यों को जानने की ओर हो गयी। धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ उन्होंने रामायण, महाभारत, हितोपदेश, गीता आदि धर्मग्रंथों का भी अध्ययन किया। इसके बाद वे सत्य की खोज के लिए एकांत स्थान पर कठोर साधना करने लगे। लगभग चार वर्ष के एकांतवास के बाद जब बिरसा प्रकट हुए तो उनका रूप बिलकुल बदला हुआ था। वे एक हिन्दू महात्मा की तरह पीला वस्त्र, लकड़ी की खडाऊं और यज्ञोपवीत धारण करने लगे थे।
बिरसा ने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार करना शुरू कर दिया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले वनवासी बंधुओं को उन्होंने समझाया कि ईसाई धर्म हमारा अपना धर्म नहीं है। यह अंग्रेजों का धर्म है। वे हमारे देश पर शासन करतें हैं, इसलिए वे हमारे हिन्दू धर्म का विरोध और ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं। ईसाई धर्म अपनाने से हम अपने पूर्वजों की श्रेष्ठ परंपरा से विमुख होते जा रहे हैं। अब हमें जागना चाहिए। उनके विचारों से प्रभावित होकर बहुत से वनवासी उनके पास आने लगे और उनके शिष्य बन गए। धीरे-धीरे एक महात्मा और सुधारक के रूप में बिरसा मुंडा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। उन्होंने गौ-हत्या का विरोध किया और अपने शिष्यों को नित्य तुलसी की पूजा करने की प्रेरणा दी।
सन 1893-94 में सिंघभूमि, मानभूमि, पालामऊ आदि क्षेत्रों की भूमी को अंग्रेजी सरकार ने आरक्षित वन क्षेत्र घोषित कर दिया। इसके अंतर्गत जंगल में बसे गाँवों को छोटे-छोटे भागों में विभाजित कर दिया और वनवासियों के अधिकारों को बहुत कम कर दिया गया। वन अधिकारी वनवासियों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त कर दिए गए हों। वनवासियों ने इसका विरोध किया और अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने अपने पुराने पैतृक अधिकारों को बहाल करने की मांग की। इस याचिका पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। बिरसा मुंडा ने वनवासी किसानों को साथ लेकर स्थानियों अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध याचिका दायर की। इस याचिका का भी कोई परिणाम नहीं निकला।
बिरसा के विचारों का वनवासी बंधुओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी बनते गए। बिरसा उन्हें प्रवचन सुनाते और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा देते। इस प्रकार उन्होंने वनवासियों का संगठन बना लिया। बिरसा के बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर अंग्रेज मिशनरी चिंतित हो उठे। उन्हें डर था कि बिरसा द्वारा बनाया गया वनवासियों का यह संगठन आगे चलकर मिशनरियों और अंग्रेजी शासन के लिए खतरे की घंटी बन सकता है। अतः बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। बिरसा की चमत्कारी शक्ती और उनकी सेवाभावना के कारण वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे थे। अतः उनकी गिरफ्तारी से सारे वनांचल में असंतोष फ़ैल गया। वनवासियों ने हजारों की संख्या में एकत्रित होकर पुलिस थाने का घेराव किया और उनको निर्दोष बताते हुए उन्हें छोड़ने की मांग की। अंग्रेजी सरकार ने वनवासी मुंडाओं पर भी राजद्रोह का आरोप लगाकर उन पर मुकदमा चला दिया। बिरसा को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी और फिर हजारीबाग की जेल में भेज दिया गया। बिरसा का अपराध यह था कि उन्होंने वनवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने हेतु संगठित किया था। जेल जाने के बाद बिरसा के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और बढ़ गयी और उन्होंने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया।
दो वर्ष की सजा पूरी करने के बाद बिरसा को जेल से मुक्त कर दिया गया। उनकी मुक्ति का समाचार पाकर हजारों की संख्या में वनवासी उनके पास आये। बिरसा ने उनके साथ गुप्त सभाएं कीं और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें संगठित किया। अपने साथियों को उन्होंने शस्त्र संग्रह करने, तीर कमान बनाने और कुल्हाड़ी की धार तेज करने जैसे कार्यों में लगाकर उन्हें सशस्त्र क्रान्ति की तैयारी करने का निर्देश दिया। सन 1899 में इस क्रांति का श्रीगणेश किया गया। बिरसा के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रांची से लेकर चाईबासा तक की पुलिस चौकियों को घेर लिया और ईसाई मिशनरियों तथा अंग्रेज अधिकारियों पर तीरों की बौछार शुरू कर दी। रांची में कई दिनों तक कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी रही। घबराकर अंग्रेजों ने हजारीबाग और कलकत्ता से सेना बुलवा ली। अब बिरसा के नेतृत्व में वनवासियों ने अंग्रेज सेना से सीधी लड़ाई छेड़ दी। अंग्रेजों के पास बंदूक, बम आदि आधुनिक हथियार थे, जबकि वनवासी क्रांतिकारियों के पास उनके साधारण हथियार तीर-कमान आदि ही थे। बिरसा और उनके अनुनायियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। अंत में बिरसा के लगभग चार सौ अनुयायी मारे गए। बिरसा को गिरफ्तार करने का बहुत प्रयास किया गया लेकिन वें अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आये। इस घटना के कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने मौका पाकर बिरसा को जंगल से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें जंजीरों में जकड़कर रांची जेल में भेज दिया गया, जहाँ उन्हें कठोर यातनाएं दी गयीं। बिरसा हँसते-हँसते सब कुछ सहते रहे और अंत में 9 जून 1900 को उनका देहावसान हो गया। बिरसा ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नयी दिशा देकर भारतीयों, विशेषकर वनवासियों में स्वदेश प्रेम की भावना जाग्रत की।
बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने वनवासियों को संगठित कर उन्हें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया । आज भी झारखण्ड, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के वनवासी लोग बिरसा को भगवान के रूप में पूजते हैं। अपने पच्चीस वर्ष के अल्प जीवनकाल में ही उन्होंने वनवासियों में स्वदेशी तथा भारतीय संस्कृति के प्रति जो प्रेरणा जगाई वह अतुलनीय है। धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे 'बिरसा मुंडा'।
'बिरसा भगवान्' के नाम से लोकप्रिय बिरसा मुंडा का जन्म सन 1875 में झारखण्ड राज्य के रांची जिले में हुआ था। उनका जन्म बृहस्पतिवार को हुआ था, इसलिए मुंडा जनजातियों की परंपरा के अनुसार उनका नाम 'बिरसा मुंडा' रखा गया। इनके पिता एक खेतिहर मजदूर थे। पिता के पास रहने के लिए कोई सुरक्षित स्थान नहीं था और वे बाँस से बनी एक छोटी सी झोंपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते थे।
बिरसा बचपन से ही बड़े प्रतिभाशाली थे। वे अन्य मुंडा बच्चों की तरह ही अपने साथियों के साथ मिट्टी और रेत में खेला करते थे। जैसे-जैसे वे बड़े होने लगे, उनका शरीर मजबूत और सुडौल बनने लगा। कुछ बड़ा होने पर वे अपने साथियों के साथ जंगल में भेड़-बकरियां चराने जाने लगे। जंगल में वें बाँसुरी बजाया करते थे। बाँसुरी बजाने में वे इतने प्रवीण हो गए थे कि उसकी मधुर तान सुनकर लोग उनके पास आकर इकठ्ठा हो जाते थे। बिरसा का परिवार अत्यंत गरीबी में जीवन-यापन कर रहा था। गरीबी के कारण ही बिरसा को उनके मामा के पास भेज दिया गया। वहीं पर वह एक स्कूल में जाने लगे। स्कूल के संचालक बिरसा की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिरसा को जर्मन मिशन स्कूल में पढने की सलाह दी। जर्मन मिशन स्कूल में पढने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार करना अनिवार्य था। अतः बिरसा और उनके सभी परिवार वालों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। धर्मान्तरण के बाद मुंडा का नाम बदलकर 'बिरसा डेविड' रख दिया गया। उनके कुछ साथी उन्हें बिरसा दाउद कहकर बुलाने लगे। सन 1886 से 1890 तक का समय बिरसा ने जर्मन मिशन में बिताया। इसके बाद उन्होंने जर्मन मिशनरी की सदस्यता त्याग दी और प्रसिद्ध वैष्णव भक्त आनंद पांडे के संपर्क में आये।
बिरसा ने आनंद पांडे से धार्मिक शिक्षा ग्रहण की। आनंद पांडे के सत्संग से उनकी रूचि भारतीय दर्शन और संस्कृति के रहस्यों को जानने की ओर हो गयी। धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ उन्होंने रामायण, महाभारत, हितोपदेश, गीता आदि धर्मग्रंथों का भी अध्ययन किया। इसके बाद वे सत्य की खोज के लिए एकांत स्थान पर कठोर साधना करने लगे। लगभग चार वर्ष के एकांतवास के बाद जब बिरसा प्रकट हुए तो उनका रूप बिलकुल बदला हुआ था। वे एक हिन्दू महात्मा की तरह पीला वस्त्र, लकड़ी की खडाऊं और यज्ञोपवीत धारण करने लगे थे।
बिरसा ने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार करना शुरू कर दिया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले वनवासी बंधुओं को उन्होंने समझाया कि ईसाई धर्म हमारा अपना धर्म नहीं है। यह अंग्रेजों का धर्म है। वे हमारे देश पर शासन करतें हैं, इसलिए वे हमारे हिन्दू धर्म का विरोध और ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं। ईसाई धर्म अपनाने से हम अपने पूर्वजों की श्रेष्ठ परंपरा से विमुख होते जा रहे हैं। अब हमें जागना चाहिए। उनके विचारों से प्रभावित होकर बहुत से वनवासी उनके पास आने लगे और उनके शिष्य बन गए। धीरे-धीरे एक महात्मा और सुधारक के रूप में बिरसा मुंडा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। उन्होंने गौ-हत्या का विरोध किया और अपने शिष्यों को नित्य तुलसी की पूजा करने की प्रेरणा दी।
सन 1893-94 में सिंघभूमि, मानभूमि, पालामऊ आदि क्षेत्रों की भूमी को अंग्रेजी सरकार ने आरक्षित वन क्षेत्र घोषित कर दिया। इसके अंतर्गत जंगल में बसे गाँवों को छोटे-छोटे भागों में विभाजित कर दिया और वनवासियों के अधिकारों को बहुत कम कर दिया गया। वन अधिकारी वनवासियों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त कर दिए गए हों। वनवासियों ने इसका विरोध किया और अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने अपने पुराने पैतृक अधिकारों को बहाल करने की मांग की। इस याचिका पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। बिरसा मुंडा ने वनवासी किसानों को साथ लेकर स्थानियों अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध याचिका दायर की। इस याचिका का भी कोई परिणाम नहीं निकला।
बिरसा के विचारों का वनवासी बंधुओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी बनते गए। बिरसा उन्हें प्रवचन सुनाते और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा देते। इस प्रकार उन्होंने वनवासियों का संगठन बना लिया। बिरसा के बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर अंग्रेज मिशनरी चिंतित हो उठे। उन्हें डर था कि बिरसा द्वारा बनाया गया वनवासियों का यह संगठन आगे चलकर मिशनरियों और अंग्रेजी शासन के लिए खतरे की घंटी बन सकता है। अतः बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। बिरसा की चमत्कारी शक्ती और उनकी सेवाभावना के कारण वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे थे। अतः उनकी गिरफ्तारी से सारे वनांचल में असंतोष फ़ैल गया। वनवासियों ने हजारों की संख्या में एकत्रित होकर पुलिस थाने का घेराव किया और उनको निर्दोष बताते हुए उन्हें छोड़ने की मांग की। अंग्रेजी सरकार ने वनवासी मुंडाओं पर भी राजद्रोह का आरोप लगाकर उन पर मुकदमा चला दिया। बिरसा को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी और फिर हजारीबाग की जेल में भेज दिया गया। बिरसा का अपराध यह था कि उन्होंने वनवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने हेतु संगठित किया था। जेल जाने के बाद बिरसा के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और बढ़ गयी और उन्होंने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया।
दो वर्ष की सजा पूरी करने के बाद बिरसा को जेल से मुक्त कर दिया गया। उनकी मुक्ति का समाचार पाकर हजारों की संख्या में वनवासी उनके पास आये। बिरसा ने उनके साथ गुप्त सभाएं कीं और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें संगठित किया। अपने साथियों को उन्होंने शस्त्र संग्रह करने, तीर कमान बनाने और कुल्हाड़ी की धार तेज करने जैसे कार्यों में लगाकर उन्हें सशस्त्र क्रान्ति की तैयारी करने का निर्देश दिया। सन 1899 में इस क्रांति का श्रीगणेश किया गया। बिरसा के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रांची से लेकर चाईबासा तक की पुलिस चौकियों को घेर लिया और ईसाई मिशनरियों तथा अंग्रेज अधिकारियों पर तीरों की बौछार शुरू कर दी। रांची में कई दिनों तक कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी रही। घबराकर अंग्रेजों ने हजारीबाग और कलकत्ता से सेना बुलवा ली। अब बिरसा के नेतृत्व में वनवासियों ने अंग्रेज सेना से सीधी लड़ाई छेड़ दी। अंग्रेजों के पास बंदूक, बम आदि आधुनिक हथियार थे, जबकि वनवासी क्रांतिकारियों के पास उनके साधारण हथियार तीर-कमान आदि ही थे। बिरसा और उनके अनुनायियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। अंत में बिरसा के लगभग चार सौ अनुयायी मारे गए। बिरसा को गिरफ्तार करने का बहुत प्रयास किया गया लेकिन वें अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आये। इस घटना के कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने मौका पाकर बिरसा को जंगल से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें जंजीरों में जकड़कर रांची जेल में भेज दिया गया, जहाँ उन्हें कठोर यातनाएं दी गयीं। बिरसा हँसते-हँसते सब कुछ सहते रहे और अंत में 9 जून 1900 को उनका देहावसान हो गया। बिरसा ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नयी दिशा देकर भारतीयों, विशेषकर वनवासियों में स्वदेश प्रेम की भावना जाग्रत की।
बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने वनवासियों को संगठित कर उन्हें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया । आज भी झारखण्ड, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के वनवासी लोग बिरसा को भगवान के रूप में पूजते हैं। अपने पच्चीस वर्ष के अल्प जीवनकाल में ही उन्होंने वनवासियों में स्वदेशी तथा भारतीय संस्कृति के प्रति जो प्रेरणा जगाई वह अतुलनीय है। धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे 'बिरसा मुंडा'।
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