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शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

शनिवार व्रत कथा

शनिवार व्रत कथा

एक समय स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न को लेकर सभी देवताओं में वाद-विवाद प्रारम्भ हुआ और फिर परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई. सभी देवता देवराज इंद्रके पास पहुंचे और बोले, देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि नौ ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए. और कुछ देर सोच कर बोले, देवगणों! मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं.पृथ्वीलोक में उज्ज्यिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य का राज्य है. हम राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं क्योंकि वह न्याय करने में अत्यंत लोकप्रिय हैं. उनके सिंहासन में अवश्य ही कोई जादू है कि उस पर बैठकर राजा विक्रमादित्य दूध का दूध और पानी का पानी अलग करने का न्याय करते हैं.देवराज इंद्र के आदेश पर सभी देवता पृथ्वी लोक में उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे. देवताओं के आगमन का समाचार सुनकर स्वयं राजा विक्रमादित्य ने उनका स्वागत किया. महल में पहुंचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे. क्योकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान शक्तिशाली थे. किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी.तभी राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, व लोहे के नौ आसन बनवाए. धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवा कर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा, सब देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा, आपका निर्णय तो स्वयं हो गया. जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वही सबसे बड़ा है. राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा, राजन! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है.तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो. मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा, सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष रहता हूं. बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है. राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा. उसके वंश का सर्वनाश हो गया. राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा. राजा विक्रमादित्य शनि देवता के प्रकोप से थोड़ा भयभीत तो हुए, लेकिन उन्होंने मन में विचार किया, मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, ज्यादा से ज्यादा वही तो होगा. फिर शनि के प्रकोप से भयभीत होने की आवश्यकता क्या है?उसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ वहां से चले गए, लेकिन शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए. राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे. उनके राज्य में सभी स्त्री पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे. कुछ दिन ऐसे ही बीत गए. उधर शनिदेवता अपने अपमान को भूले नहीं थे. विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे.राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा. अश्वपाल ने वहां जाकर घोड़ों को देखा तो बहुत खुश हुआ. लेकिन घोड़ों का मूल्य सुन कर उसे बहुत हैरानी हुई. घोड़े बहुत कीमती थे. अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया.घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुआ तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा. तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहां गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया. राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा. लेकिन उसे लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला. राजा को भूख-प्यास लग आई. बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला. राजा ने उससे पानी मांगा. पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी. फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से बाहर निकलकर पास के नगर में पहुंचा.राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया. उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्ज्यिनी से आया हूं. राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई. सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया. सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था. राजा को उस कमरे में अकेला छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया.तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी. राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई, सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का सन्देह राजा पर ही किया, क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था. सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो. राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूंटी ने हार को निगल लिया था.इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया, राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया. कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया. राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता. इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा. शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ॠतु प्रारम्भ हुई.राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी. उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गानेवाले को बुला लाने को कहा. दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया.राजकुमारी उसके मेघ मल्हार पर बहुत मोहित हुई थी. अत:उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया. राज कुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गये. राजा को लगा कि उसकी बेटी पागल हो गई है. रानी ने मोहिनी को समझाया, बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है. फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है?राजा ने किसी सुंदर राजकुमार से उसका विवाह करने की बात कही. लेकिन राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया. आखिर राजा, रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पडा. विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे. उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा, आज! तुमने मेरा प्रकोप देख लिया. मैंने तुम्हें अपने अपमान का दण्ड दिया है.राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की, हे शनिदेव! आपने जितना दु:ख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना, शनिदेव ने कुछ सोचते हुए कहा, अच्छा! मैं तेरी प्रार्थना स्वीकार करता हूं. जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत कर के मेरी कथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी. उसे कोई दुख नहीं होगा.शनिवार को व्रत करने और चींटियों को आटा डालने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी. प्रात:काल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई. उसने मन-ही-मन शनिदेव को प्रणाम किया. राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सही सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई. तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी कह सुना.सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा. राजा ने उसे क्षमा कर दिया, क्योकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था. सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया. भोजन करते समय वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी. सबके देखते-देखते उस खूंटी ने वह हार उगल दिया. सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया.राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्ज्यिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया. उस रात उज्ज्यिनी नगरी में दीप जलाकर लोगों ने दीवाली मनाई. अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा करवाई, च्शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं. प्रत्येक स्त्री पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रत कथा अवश्य सुनें. राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए. शनिवार का व्रत करने और कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं. सभी लोग आनन्दपूर्वक रहने लगे.

इस्लाम में गाय का महत्व

सच्चा मुसलमान अपने-आप में देखे क्या वो अपऩे मजहब के उसूलों को मानता है ?


इस्लाम में गाय का महत्व
1. “गाय चौपायों की सरदार है” – कुरान
2. ” गाय का दूध-घी शिफा (दवा) है और गौमांस बीमारी है” मोहम्मद साहब
3. “खुदा के पास खून और गोश्त नहीं पहुँचता – त्याग की भावना पहुँचती है”
4. एक धार्मिक महिला को बिल्ली को मारने के कारण दोजख मिला, एक बदनाम महिला को कुत्ते को पानी पिलाने के कारण जन्नत मिली.
5. जिस देश में रहते हो उसके कानून का पालन करो.
6. पडोसी को दुःख पहुँचाना पाप है.
7. बाबर से बहादुर शाह जफ़र तक के शासन काल में गोहत्या प्रतिबंधित थी.
8. बहादुर शाह जफर ने स्वयं मुनादी फिरवाई थी कि बकरीद पर गाय की कुर्बानी करने वाले को तोप से उड़ा दिया जायेगा
9. “गो हत्या करने वाले के विरुद्ध, क़यामत के दिन, मोहम्मद साहब गवाही देंगे” – देव बंद के फतवे का सार,
राष्ट्रीय मुस्लिम मंच
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश दिनांक 16-11-94 का सारांश
1. पश्चिम बंगाल पशु हत्या नियंत्रण अधिनियम 1950-गाय-भैंस सहित पशुओं की हत्या रोकने के उद्देश्य से बना है.
2. राज्य सरकार वैकल्पिक धार्मिक कृत्य हेतु धारा 12 के अंतर्गत छूट नहीं दे सकती.
3. धारा 5 के अनुसार - प्रमाण पत्र मिलने के बाद भी, केवल निर्धारित स्थान (कत्लखाने) के आलावा किसी अन्य स्थान पर पशु का वध नहीं हो सकता.
4. धारा 7 के अनुसार दोषी व्यक्ति को 6 माह का कारावास या 1000 का जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है.
5. धारा 9 के अनुसार अपराध करने का प्रयास करने या प्रोत्साहित करने पर भी दण्डित किया जा सकता है.
6. चूँकि बकरीद पर गाय की कुर्बानी आवश्यक धार्मिक कृत्य नहीं है अतः बकरीद समेत सभी दिनों के लिए गायों की हत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध, संविधान के अनुछेद 25 (1) के विरुद्ध नहीं है.
7, मुग़ल बादशाह बाबर, हुमायूं, अकबर, जहाँगीर एवं अहमद शाह ने भी गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगाया था.
8. कानून की चर्चा से स्थिर हो जाता है कि मुसलमानों को बकरीद पर स्वस्थ गायों की कुर्बानी हेतु आग्रह करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है.
9. चूँकि गायों की कुर्बानी एक आवश्यक धार्मिक कृत्य नहीं अतः राज्य सरकार के पास भी यह अधिकार नहीं कि वह धारा 12 के अंतर्गत छूट दे सके.
By: वन्दे गौमातरम
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'बिरसा भगवान्' के नाम से लोकप्रिय बिरसा मुंडा

बिरसा मुंडा/Birsa

'बिरसा भगवान्' के नाम से लोकप्रिय बिरसा मुंडा का जन्म सन 1875 में झारखण्ड राज्य के रांची जिले में हुआ था। उनका जन्म बृहस्पतिवार को हुआ था, इसलिए मुंडा जनजातियों की परंपरा के अनुसार उनका नाम 'बिरसा मुंडा' रखा गया। इनके पिता एक खेतिहर मजदूर थे। पिता के पास रहने के लिए कोई सुरक्षित स्थान नहीं था और वे बाँस से बनी एक छोटी सी झोंपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते थे।

बिरसा बचपन से ही बड़े प्रतिभाशाली थे। वे अन्य मुंडा बच्चों की तरह ही अपने साथियों के साथ मिट्टी और रेत में खेला करते थे। जैसे-जैसे वे बड़े होने लगे, उनका शरीर मजबूत और सुडौल बनने लगा। कुछ बड़ा होने पर वे अपने साथियों के साथ जंगल में भेड़-बकरियां चराने जाने लगे। जंगल में वें बाँसुरी बजाया करते थे। बाँसुरी बजाने में वे इतने प्रवीण हो गए थे कि उसकी मधुर तान सुनकर लोग उनके पास आकर इकठ्ठा हो जाते थे। बिरसा का परिवार अत्यंत गरीबी में जीवन-यापन कर रहा था। गरीबी के कारण ही बिरसा को उनके मामा के पास भेज दिया गया। वहीं पर वह एक स्कूल में जाने लगे। स्कूल के संचालक बिरसा की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिरसा को जर्मन मिशन स्कूल में पढने की सलाह दी। जर्मन मिशन स्कूल में पढने के लिए ईसाई धर्म स्वीकार करना अनिवार्य था। अतः बिरसा और उनके सभी परिवार वालों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। धर्मान्तरण के बाद मुंडा का नाम बदलकर 'बिरसा डेविड' रख दिया गया। उनके कुछ साथी उन्हें बिरसा दाउद कहकर बुलाने लगे। सन 1886 से 1890 तक का समय बिरसा ने जर्मन मिशन में बिताया। इसके बाद उन्होंने जर्मन मिशनरी की सदस्यता त्याग दी और प्रसिद्ध वैष्णव भक्त आनंद पांडे के संपर्क में आये।

बिरसा ने आनंद पांडे से धार्मिक शिक्षा ग्रहण की। आनंद पांडे के सत्संग से उनकी रूचि भारतीय दर्शन और संस्कृति के रहस्यों को जानने की ओर हो गयी। धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ उन्होंने रामायण, महाभारत, हितोपदेश, गीता आदि धर्मग्रंथों का भी अध्ययन किया। इसके बाद वे सत्य की खोज के लिए एकांत स्थान पर कठोर साधना करने लगे। लगभग चार वर्ष के एकांतवास के बाद जब बिरसा प्रकट हुए तो उनका रूप बिलकुल बदला हुआ था। वे एक हिन्दू महात्मा की तरह पीला वस्त्र, लकड़ी की खडाऊं और यज्ञोपवीत धारण करने लगे थे।

बिरसा ने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार करना शुरू कर दिया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले वनवासी बंधुओं को उन्होंने समझाया कि ईसाई धर्म हमारा अपना धर्म नहीं है। यह अंग्रेजों का धर्म है। वे हमारे देश पर शासन करतें हैं, इसलिए वे हमारे हिन्दू धर्म का विरोध और ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं। ईसाई धर्म अपनाने से हम अपने पूर्वजों की श्रेष्ठ परंपरा से विमुख होते जा रहे हैं। अब हमें जागना चाहिए। उनके विचारों से प्रभावित होकर बहुत से वनवासी उनके पास आने लगे और उनके शिष्य बन गए। धीरे-धीरे एक महात्मा और सुधारक के रूप में बिरसा मुंडा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। उन्होंने गौ-हत्या का विरोध किया और अपने शिष्यों को नित्य तुलसी की पूजा करने की प्रेरणा दी।

सन 1893-94 में सिंघभूमि, मानभूमि, पालामऊ आदि क्षेत्रों की भूमी को अंग्रेजी सरकार ने आरक्षित वन क्षेत्र घोषित कर दिया। इसके अंतर्गत जंगल में बसे गाँवों को छोटे-छोटे भागों में विभाजित कर दिया और वनवासियों के अधिकारों को बहुत कम कर दिया गया। वन अधिकारी वनवासियों के साथ ऐसा व्यवहार करते थे जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त कर दिए गए हों। वनवासियों ने इसका विरोध किया और अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने अपने पुराने पैतृक अधिकारों को बहाल करने की मांग की। इस याचिका पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। बिरसा मुंडा ने वनवासी किसानों को साथ लेकर स्थानियों अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध याचिका दायर की। इस याचिका का भी कोई परिणाम नहीं निकला।

बिरसा के विचारों का वनवासी बंधुओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी बनते गए। बिरसा उन्हें प्रवचन सुनाते और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा देते। इस प्रकार उन्होंने वनवासियों का संगठन बना लिया। बिरसा के बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर अंग्रेज मिशनरी चिंतित हो उठे। उन्हें डर था कि बिरसा द्वारा बनाया गया वनवासियों का यह संगठन आगे चलकर मिशनरियों और अंग्रेजी शासन के लिए खतरे की घंटी बन सकता है। अतः बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। बिरसा की चमत्कारी शक्ती और उनकी सेवाभावना के कारण वनवासी उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे थे। अतः उनकी गिरफ्तारी से सारे वनांचल में असंतोष फ़ैल गया। वनवासियों ने हजारों की संख्या में एकत्रित होकर पुलिस थाने का घेराव किया और उनको निर्दोष बताते हुए उन्हें छोड़ने की मांग की। अंग्रेजी सरकार ने वनवासी मुंडाओं पर भी राजद्रोह का आरोप लगाकर उन पर मुकदमा चला दिया। बिरसा को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी और फिर हजारीबाग की जेल में भेज दिया गया। बिरसा का अपराध यह था कि उन्होंने वनवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने हेतु संगठित किया था। जेल जाने के बाद बिरसा के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा और बढ़ गयी और उन्होंने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया।

दो वर्ष की सजा पूरी करने के बाद बिरसा को जेल से मुक्त कर दिया गया। उनकी मुक्ति का समाचार पाकर हजारों की संख्या में वनवासी उनके पास आये। बिरसा ने उनके साथ गुप्त सभाएं कीं और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें संगठित किया। अपने साथियों को उन्होंने शस्त्र संग्रह करने, तीर कमान बनाने और कुल्हाड़ी की धार तेज करने जैसे कार्यों में लगाकर उन्हें सशस्त्र क्रान्ति की तैयारी करने का निर्देश दिया। सन 1899 में इस क्रांति का श्रीगणेश किया गया। बिरसा के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रांची से लेकर चाईबासा तक की पुलिस चौकियों को घेर लिया और ईसाई मिशनरियों तथा अंग्रेज अधिकारियों पर तीरों की बौछार शुरू कर दी। रांची में कई दिनों तक कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी रही। घबराकर अंग्रेजों ने हजारीबाग और कलकत्ता से सेना बुलवा ली। अब बिरसा के नेतृत्व में वनवासियों ने अंग्रेज सेना से सीधी लड़ाई छेड़ दी। अंग्रेजों के पास बंदूक, बम आदि आधुनिक हथियार थे, जबकि वनवासी क्रांतिकारियों के पास उनके साधारण हथियार तीर-कमान आदि ही थे। बिरसा और उनके अनुनायियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। अंत में बिरसा के लगभग चार सौ अनुयायी मारे गए। बिरसा को गिरफ्तार करने का बहुत प्रयास किया गया लेकिन वें अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आये। इस घटना के कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने मौका पाकर बिरसा को जंगल से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें जंजीरों में जकड़कर रांची जेल में भेज दिया गया, जहाँ उन्हें कठोर यातनाएं दी गयीं। बिरसा हँसते-हँसते सब कुछ सहते रहे और अंत में 9 जून 1900 को उनका देहावसान हो गया। बिरसा ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नयी दिशा देकर भारतीयों, विशेषकर वनवासियों में स्वदेश प्रेम की भावना जाग्रत की।

बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने वनवासियों को संगठित कर उन्हें अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया । आज भी झारखण्ड, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के वनवासी लोग बिरसा को भगवान के रूप में पूजते हैं। अपने पच्चीस वर्ष के अल्प जीवनकाल में ही उन्होंने वनवासियों में स्वदेशी तथा भारतीय संस्कृति के प्रति जो प्रेरणा जगाई वह अतुलनीय है। धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे 'बिरसा मुंडा'।

संस्कृत पढने से हमारे शरीर का हर अंग काम करने लगता है

संस्कृत पढने से हमारे शरीर का हर अंग काम करने लगता है क्योंकि संस्कृत मे हर शब्द अलग ढंग से लिखा गया है जिससे सोचने की शक्ति बढती है जिसमे अपार ज्ञान है और पढने का असली मकसद और अपने कर्तव्य का पता लग जायेगा

=>सरस्वती मंत्र:

या कुंदेंदु तुषार हार धवला या शुभ्र वृस्तावता ।
या वीणा वर दण्ड मंडित करा या श्वेत पद्मसना ।।
या ब्रह्माच्युत्त शंकर: प्रभृतिर्भि देवै सदा वन्दिता ।
सा माम पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्या पहा ॥१॥

भावार्थ: जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह श्वेत वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर अपना आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती आप हमारी रक्षा करें।

=>सरस्वती मंत्र तन्त्रोक्तं देवी सूक्त से :

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेणसंस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
विद्या प्राप्ति के लिये सरस्वती मंत्र:
घंटाशूलहलानि शंखमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दघतीं धनान्तविलसच्छीतांशु तुल्यप्रभाम्‌।
गौरीदेहसमुद्भवा त्रिनयनामांधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वती मनुमजे शुम्भादि दैत्यार्दिनीम्‌॥

भावार्थ: जो अपने हस्त कमल में घंटा, त्रिशूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण को धारण करने वाली, गोरी देह से उत्पन्ना, त्रिनेत्रा, मेघास्थित चंद्रमा के समान कांति वाली, संसार की आधारभूता, शुंभादि दैत्य का नाश करने वाली महासरस्वती को हम नमस्कार करते हैं। माँ सरस्वती जो प्रधानतः जगत की उत्पत्ति और ज्ञान का संचार करती है।

=>अत्यंत सरल सरस्वती मंत्र प्रयोग:

प्रतिदिन सुबह स्नान इत्यादि से निवृत होने के बाद मंत्र जप आरंभ करें। अपने सामने मां सरस्वती का यंत्र या चित्र स्थापित करें । अब चित्र या यंत्र के ऊपर श्वेत चंदन, श्वेत पुष्प व अक्षत (चावल) भेंट करें और धूप-दीप जलाकर देवी की पूजा करें और अपनी मनोकामना का मन में स्मरण करके स्फटिक की माला से किसी भी सरस्वती मंत्र की शांत मन से एक माला फेरें।

सरस्वती मूल मंत्र:
ॐ ऎं सरस्वत्यै ऎं नमः।

सरस्वती मंत्र:
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महासरस्वती देव्यै नमः।

सरस्वती गायत्री मंत्र:
१ – ॐ सरस्वत्यै विधमहे, ब्रह्मपुत्रयै धीमहि । तन्नो देवी प्रचोदयात।
२ – ॐ वाग देव्यै विधमहे काम राज्या धीमहि । तन्नो सरस्वती: प्रचोदयात।
ज्ञान वृद्धि हेतु गायत्री मंत्र :

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
परीक्षा भय निवारण हेतु:

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वीणा पुस्तक धारिणीम् मम् भय निवारय निवारय अभयम् देहि देहि स्वाहा।

स्मरण शक्ति नियंत्रण हेतु:
ॐ ऐं स्मृत्यै नमः।
विघ्न निवारण हेतु:

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अंतरिक्ष सरस्वती परम रक्षिणी मम सर्व विघ्न बाधा निवारय निवारय स्वाहा।

=>स्मरण शक्ति बढा के लिए :
ऐं नमः भगवति वद वद वाग्देवि स्वाहा।

=>परीक्षा में सफलता के लिए :
१ – ॐ नमः श्रीं श्रीं अहं वद वद वाग्वादिनी भगवती सरस्वत्यै नमः स्वाहा विद्यां देहि मम ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा।
२ -जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी, कवि उर अजिर नचावहिं बानी।
मोरि सुधारिहिं सो सब भांती, जासु कृपा नहिं कृपा अघाती॥
हंसारुढा मां सरस्वती का ध्यान कर मानस-पूजा-पूर्वक निम्न मन्त्र का २१ बार जप करे-”

=>ॐ ऐं क्लीं सौः ह्रीं श्रीं ध्रीं वद वद वाग्-वादिनि सौः क्लीं ऐं श्रीसरस्वत्यै नमः।”
विद्या प्राप्ति एवं मातृभाव हेतु:

विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्तिः॥

अर्थातः- देवि! विश्वकि सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे हो।
उपरोक्त मंत्र का जप हरे हकीक या स्फटिक माला से प्रतिदिन सुबह १०८ बार करें, तदुपरांत एक माला जप निम्न मंत्र का करें।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं महा सरस्वत्यै नमः।

परंतु तुम्हारा शोषण कौन करेगा ये चुनना अब तुम लोगों के हाथ में हैं।

एक बहुत ही सम्पन्न जंगल था। नियम के अनुसार उस जंगल का कोई भी जानवर जंगल के किसी दुसरे जानवर को परेशान व उसका शिकार नहीं कर सकता था व बड़े व ताकतवर जानवरो को छोटे व कमजोर जानवरों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी दी गई थी। नियम तोड़ते हुए पकड़े जाने पर कड़ी सजा का प्रावधान था। उसी जंगल मे चूहों का बड़ा विशाल व धनी समूह भी रहता हैं। उनकी सुरक्षा के लिए एक बिल्ली को नियुक्त किया गया। सभी चूहे मिलकर उसे थोड़ा थोड़ा राशन पानी दिया करते थे। चूंकि प्राकर्तिक हैं कि बिल्ली चूहे का शिकार करती हैं सो वो भी कभी कभी चोरी छिपे 1-2 चूहों को खा जाती। बाद में चूहों ने सोचा कि यदि कभी इस बिल्ली का ईमान बदला तो ये हम सभी को खा जाएगी और हम इसका कुछ भी नहीं बिगड़ सकते, सो उन्होने राजा से कहा कि हमें एक और पहरेदार बिल्ली दीजिये ताकि एक का ईमान बिगड़ने पर दूसरा हमारी रक्षा कर सके। राजा ने कहा कि क्या तुम लोग दोनों को दाना-पानी दे सकते हो, तो चूहों ने कहा नहीं- हम बारी बारी से केवल एक को चुनेंगे और उसी को भोजन देंगे दूसरे को तो ऐसे ही रहना होगा। अब दोनों बिल्लियाँ वहाँ रहने लगी और बारी
बारी से चूहों के द्वारा दिये जा रहे भोजन के साथ साथ चोरी छिपे चूहों को भी खा रही थी। कुछ दिनों बाद एक तीसरी बिल्ली की नजर भी इस खजाने पर पड़ी, पर उसे पता था कि नियम के अनुसार मुझे चूहों की रखवाली करने को नहीं मिलेगी सो उसने उनसे सहानुभूति का नाटक प्रारम्भ कर दिया और बाकी की दोनों बिल्लियों पर जंगल का कानून तोड़ने का, चूहों का शोषण करने का और उन्हे मारने, ठगने जैसे कई आरोप लगाने शुरू कर दिये। चूहों को भी लगा की तीसरी बिल्ली सही कह रही हैं सो कुछ चूहें उसके साथ हो लिये। अब यहाँ 3 ग्रुप बन गए और रोज इसी तरह के आरोप प्रत्यारोप होने लगे, जिसके कारण चूहों के काम काज के साथ इनकी प्रगति भी रुकने लगी। किसे अपना रक्षक बनाए कुछ समझ मे नहीं आ रहा था सो समस्या बढ़ती देख चूहे राजा के पास गए और सब हाल बता दिया। राजा ने तीनों बिल्लियों को बुला कर पूछा तो पहली ने कहा जब में अकेली भी थी तो मैं सोचती थी मुझे ही खाना हैं सो थोड़ा थोड़ा खाती थी। मैंने तो दूसरे के आने के बाद ज्यादा खाना शुरू किया। दूसरी ने कहा कि पहली ने काफी कुछ खा रखा था इसलिए मैंने बराबर करने के लिय ज्यादा खाना शुरू कर दिया। तीसरी ने कहा कि जिस तरह से ये दोनों खा रही थी तो हमारे लिये कुछ बचता ही नहीं इसलिए मैंने ये सब बवाल किया। राजा ने इनकी दलीले सुन कर इन्हे वापस भेज दिया और चूहों को बुला कर कहा- चूंकि जंगल का नियम हैं इसलिए तुम्हें एक रक्षक तो रखना ही पड़ेगा, ये तुम्हारा शोषण भी करेंगे और तुम्हें खाएँगे भी क्योंकि ये इनका प्राकर्तिक स्वभाव हैं जो जाने वाला नहीं हैं। परंतु तुम्हारा शोषण कौन करेगा ये चुनना अब तुम लोगों के हाथ में हैं।

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