जय श्री कृष्णा, ब्लॉग में आपका स्वागत है यह ब्लॉग मैंने अपनी रूची के अनुसार बनाया है इसमें जो भी सामग्री दी जा रही है कहीं न कहीं से ली गई है। अगर किसी के कॉपी राइट का उल्लघन होता है तो मुझे क्षमा करें। मैं हर इंसान के लिए ज्ञान के प्रसार के बारे में सोच कर इस ब्लॉग को बनाए रख रहा हूँ। धन्यवाद, "साँवरिया " #organic #sanwariya #latest #india www.sanwariya.org/
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शुक्रवार, 20 जुलाई 2012
शांत होना अच्छी बात है... लेकिन..... इतने शांत भी मत बनो कि लोग आपको जीने न दे ##
शांत होना अच्छी बात है... लेकिन..... इतने शांत भी मत बनो कि लोग आपको जीने न दे ##
किसी गाँव के पास एक साँप रहता था वह बड़ा ही तेज था जो भी उधर से गुजरता वह उसे डस कर मार देता लोगों ने उस मार्ग से ही निकलना छोड़ दिया एक दिन एक साधु उस गाँव मे आए लोगों ने उन्हें साँप के बारे मे बताया`` साधु ने बातें सुनने के बाद उस साँप के पास जाने का निश्चय किया अगले दिन वह साँप के पास पहुँच गये उसे समझाते हुए कहा यह जन्म बार बार नही मिलता है ऐसा जीना किस कामका कि लोग गालियां दे साँप ने पूछा तो मे क्या करूँ ????
किसी गाँव के पास एक साँप रहता था वह बड़ा ही तेज था जो भी उधर से गुजरता वह उसे डस कर मार देता लोगों ने उस मार्ग से ही निकलना छोड़ दिया एक दिन एक साधु उस गाँव मे आए लोगों ने उन्हें साँप के बारे मे बताया`` साधु ने बातें सुनने के बाद उस साँप के पास जाने का निश्चय किया अगले दिन वह साँप के पास पहुँच गये उसे समझाते हुए कहा यह जन्म बार बार नही मिलता है ऐसा जीना किस कामका कि लोग गालियां दे साँप ने पूछा तो मे क्या करूँ ????
साधु बोले तुम हमला करना छोड़ दो
सबके साथ प्यार से रहो साँप ने उनकी बात मानली "उस दिन से" वह खुले मैदान मे चुपचाप पड़ा रहता लोगों के मनसे उसका डर दुर हो चुका था अब गाँव के बच्चे वहा इकठ्ठे हो जाते .. उसके उपर ईट पत्थर मारते लकड़ी चुभाते साँप सभ सहन करता संयोग से एक दिन वही साधु वहाँ आ गये और उसकी हालत देखकर चकित हो गये तब साँप ने सारा हाल दुखी होकर सुनाया
साधु बोले मैने "काटने" से रोका था " फुँफकारने" से तो मना नही किया .
>>>> जो अपने तेज को प्रकट नही करता उसे कोई जीने नही देता ||
सबके साथ प्यार से रहो साँप ने उनकी बात मानली "उस दिन से" वह खुले मैदान मे चुपचाप पड़ा रहता लोगों के मनसे उसका डर दुर हो चुका था अब गाँव के बच्चे वहा इकठ्ठे हो जाते .. उसके उपर ईट पत्थर मारते लकड़ी चुभाते साँप सभ सहन करता संयोग से एक दिन वही साधु वहाँ आ गये और उसकी हालत देखकर चकित हो गये तब साँप ने सारा हाल दुखी होकर सुनाया
साधु बोले मैने "काटने" से रोका था " फुँफकारने" से तो मना नही किया .
>>>> जो अपने तेज को प्रकट नही करता उसे कोई जीने नही देता ||
बुधवार, 18 जुलाई 2012
वृन्दावन के एक संत की कथा है.
वृन्दावन के एक संत की कथा है. वे श्री कृष्ण की आराधना करते थे. उन्होंने
संसार को भूलने की एक युक्ति की. मन को सतत श्री कृष्ण का स्मरण रहे, उसके
लिए महात्मा ने प्रभु के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ा की मै नन्द हु, बाल
कृष्णलाल मेरे बालक है, वे लाला को लाड लड़ते, यमुना जी स्नान करने जाते तो
लाला को साथ ले कर जाते. भोजन करने बैठते तो लाला को साथ लेकर बैठते. ऍसी
भावना करते की कन्हैया मेरी गोद में बैठा है. कन्हैया मेरे दाढ़ी खींच रहा है. श्री कृष्ण को पुत्र मानकर आनद करते. श्री कृष्ण के उपर इनका वात्सल्य भाव था.
महात्मा श्री कृष्ण की मानसिक सेवा करते थे. सम्पूर्ण दिवस मन को श्री कृष्ण लीला में तन्मय रखते, जिससे मन को संसार का चिंतन करने का अवसर ही ना मिले. निष्क्रय ब्रह्म का सतत ध्यान करना कठिन है, परन्तु लीला विशिष्ट ब्रह्म का सतत ध्यान हो सकता है, महात्मा परमात्मा के साथ पुत्र का सम्बन्ध जोड़ कर संसार को भूल गये, परमात्मा के साथ तन्मय हो गये, श्री कृष्ण को पुत्र मानकर लाड लड़ाने लगे . महात्मा ऍसी भावना करते की कन्हैया मुझसे केला मांग रहा है, बाबा! मुझे केला दो, ऐसा कह रहा है. महत्मा मन से ही कन्हैया को केला देते. महात्मा समस्त दिवस लाला की मानसिक सेवा करते और मन से भगवान को सभी वस्तुए देते. कन्हैया तो बहुत भोले है. मन से दो तो भी प्रसन्न हो जाते है. महत्मा कभी कभी शिष्यों से कहते की इस शरीर से गंगा स्नान कभी हुआ नहीं, वह मुझे एक बार कराना है. शिष्य कहते की काशी पधारो. महात्मा काशी जाने की तैयारी करते परन्तु वात्सल्य भाव से मानसिक सेवा में तन्मय हुए की कन्हैया कहले लगते - बाबा मै तुम्हारा बालक हु छोटा सा हु. मुझे छोड़कर काशी नहीं जाना. इस प्रकार महात्मा सेवा में तन्मय होते, उस समय उनको ऐसा आभास होता था की मेरा लाला जाने की मनाही कर रहा है. मेरा कान्हा अभी बालक है. मै कन्हैया को छोड़कर यात्रा करने कैसे जाऊ? मुझे लाला को छोड़कर जाना नहीं. महात्मा अति व्रद्ध हो गये. महात्मा का शरीर तो व्रद्ध हुआ परन्तु उनका कन्हैया तो छोटा ही रहा. वह बड़ा हुआ ही नहीं! उनका प्रभु में बाल - भाव हो स्थिर रहा और एक दिन लाला का चिन्तन करते - करते वे मृत्यु को प्राप्त हो गये.
शिष्य कीर्तन करते- करते महात्मा को श्मशान ले गये. अग्नि - संस्कार की तैयारी हुए. इतने ही में एक सात वर्ष का अति सुंदर बालक कंधे पर गंगाजल का घड़ा लेकर वहां आया. उसने शिष्यों से कहा - ये मेरे पिता है, मै इनका मानस - पुत्र हु. पुत्र के तौर पर अग्नि - संस्कार करने का अधिकार मेरा है. मै इनका अग्नि-संस्कार करूँगा. पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण करना पुत्र का धर्म है, मेरे पिता की गंगा-स्नान करने की इच्छा थी परन्तु मेरे कारण ये गंगा-स्नान करने नहीं जा सकते थे. इसलिए मै यह गंगाजल लाया हु. पुत्र जिस प्रकार पिता की सेवा करता है, इस प्रकार बालक ने महात्मा के शव को गंगा-स्नान कराया. संत के माथे पर तिलक किया, पुष्प की माला पहनाई और अंतिम वंदन करके अग्नि-संस्कार किया, सब देखते ही रह गये, अनेक साध-महात्मा थे परन्तु किसी की बोलने की हिम्मत ही ना हुई. अग्नि-संस्कार करके बालक एकदम अंतर्ध्यान हो गया. उसके बाद लोगो को ख्याल आया की महात्मा के तो पुत्र था ही नहीं
बालकृष्णलाल ही तो महात्मा के पुत्र रूप में आये थे. महात्मा की भावना थी की श्री कृष्ण मेरा पुत्र है, परमात्मा ने उनकी भावना पूरी की, परमात्मा के साथ जीव जैसा सम्बन्ध बांधता है, वैसा ही सम्बन्ध से परमात्मा उसको मिलते है.
अब बोलिए जय माता दी. जय राधा रानी की. जय राज रानी की. जय माँ वैष्णो रानी की
नोट : इस ब्लॉग पर प्रस्तुत लेख या चित्र आदि में से कई संकलित किये हुए हैं यदि किसी लेख या चित्र में किसी को आपत्ति है तो कृपया मुझे अवगत करावे इस ब्लॉग से वह चित्र या लेख हटा दिया जायेगा. इस ब्लॉग का उद्देश्य सिर्फ सुचना एवं ज्ञान का प्रसार करना है
महात्मा श्री कृष्ण की मानसिक सेवा करते थे. सम्पूर्ण दिवस मन को श्री कृष्ण लीला में तन्मय रखते, जिससे मन को संसार का चिंतन करने का अवसर ही ना मिले. निष्क्रय ब्रह्म का सतत ध्यान करना कठिन है, परन्तु लीला विशिष्ट ब्रह्म का सतत ध्यान हो सकता है, महात्मा परमात्मा के साथ पुत्र का सम्बन्ध जोड़ कर संसार को भूल गये, परमात्मा के साथ तन्मय हो गये, श्री कृष्ण को पुत्र मानकर लाड लड़ाने लगे . महात्मा ऍसी भावना करते की कन्हैया मुझसे केला मांग रहा है, बाबा! मुझे केला दो, ऐसा कह रहा है. महत्मा मन से ही कन्हैया को केला देते. महात्मा समस्त दिवस लाला की मानसिक सेवा करते और मन से भगवान को सभी वस्तुए देते. कन्हैया तो बहुत भोले है. मन से दो तो भी प्रसन्न हो जाते है. महत्मा कभी कभी शिष्यों से कहते की इस शरीर से गंगा स्नान कभी हुआ नहीं, वह मुझे एक बार कराना है. शिष्य कहते की काशी पधारो. महात्मा काशी जाने की तैयारी करते परन्तु वात्सल्य भाव से मानसिक सेवा में तन्मय हुए की कन्हैया कहले लगते - बाबा मै तुम्हारा बालक हु छोटा सा हु. मुझे छोड़कर काशी नहीं जाना. इस प्रकार महात्मा सेवा में तन्मय होते, उस समय उनको ऐसा आभास होता था की मेरा लाला जाने की मनाही कर रहा है. मेरा कान्हा अभी बालक है. मै कन्हैया को छोड़कर यात्रा करने कैसे जाऊ? मुझे लाला को छोड़कर जाना नहीं. महात्मा अति व्रद्ध हो गये. महात्मा का शरीर तो व्रद्ध हुआ परन्तु उनका कन्हैया तो छोटा ही रहा. वह बड़ा हुआ ही नहीं! उनका प्रभु में बाल - भाव हो स्थिर रहा और एक दिन लाला का चिन्तन करते - करते वे मृत्यु को प्राप्त हो गये.
शिष्य कीर्तन करते- करते महात्मा को श्मशान ले गये. अग्नि - संस्कार की तैयारी हुए. इतने ही में एक सात वर्ष का अति सुंदर बालक कंधे पर गंगाजल का घड़ा लेकर वहां आया. उसने शिष्यों से कहा - ये मेरे पिता है, मै इनका मानस - पुत्र हु. पुत्र के तौर पर अग्नि - संस्कार करने का अधिकार मेरा है. मै इनका अग्नि-संस्कार करूँगा. पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण करना पुत्र का धर्म है, मेरे पिता की गंगा-स्नान करने की इच्छा थी परन्तु मेरे कारण ये गंगा-स्नान करने नहीं जा सकते थे. इसलिए मै यह गंगाजल लाया हु. पुत्र जिस प्रकार पिता की सेवा करता है, इस प्रकार बालक ने महात्मा के शव को गंगा-स्नान कराया. संत के माथे पर तिलक किया, पुष्प की माला पहनाई और अंतिम वंदन करके अग्नि-संस्कार किया, सब देखते ही रह गये, अनेक साध-महात्मा थे परन्तु किसी की बोलने की हिम्मत ही ना हुई. अग्नि-संस्कार करके बालक एकदम अंतर्ध्यान हो गया. उसके बाद लोगो को ख्याल आया की महात्मा के तो पुत्र था ही नहीं
बालकृष्णलाल ही तो महात्मा के पुत्र रूप में आये थे. महात्मा की भावना थी की श्री कृष्ण मेरा पुत्र है, परमात्मा ने उनकी भावना पूरी की, परमात्मा के साथ जीव जैसा सम्बन्ध बांधता है, वैसा ही सम्बन्ध से परमात्मा उसको मिलते है.
अब बोलिए जय माता दी. जय राधा रानी की. जय राज रानी की. जय माँ वैष्णो रानी की
नोट : इस ब्लॉग पर प्रस्तुत लेख या चित्र आदि में से कई संकलित किये हुए हैं यदि किसी लेख या चित्र में किसी को आपत्ति है तो कृपया मुझे अवगत करावे इस ब्लॉग से वह चित्र या लेख हटा दिया जायेगा. इस ब्लॉग का उद्देश्य सिर्फ सुचना एवं ज्ञान का प्रसार करना है
मूर्खता छोड़ो और दिमाग चलाओ.
एक कम्पनी आयी. कहा, नमक, कोयला आदि खुरदुरे होते हैं और दांतों को खराब कर
देते हैं. हमारा पाउडर मुलायम है, सुरक्षित है. अब कहते हैं हमारा
टूथपेस्ट अच्छा है क्योंकि इसमें नमक है.. फिर कहा कि दातुन उबड-खाबड़ होती
है. हमारा ब्रश समतल है और दांतों की सफाई
समान रूप से करता है... अब कहते हैं कि हमारा ब्रश ज़िग-ज़ैग है इसलिए
दांतों के बीच भी ठीक से सफाई करता है.. फिर कहा कि हमारा ब्रश लचीला है,
कोने-कोने तक जाता है. अँगुली से ज्यादा लचीला है क्या? क्या आपके खाने में
आयोडाइज्ड नमक है? जबकि पहाड़ी क्षेत्र के अलावा कही भी अतिरिक्त आयोडीन
नमक की जरुरत नही होती
एक व्यक्ति को कितने तरीके से और कितनी बार मूर्ख बनाया जा सकता है, इन विदेशी कंपनियों से सीखिए. और हर बार कैसे तत्परता से मूर्ख बनना भारतीयों से सीखीये. ।
तो भाई मूर्खता छोड़ो और दिमाग चलाओ. सुंदर, स्वस्थ और चमकदार दांतों के लिये चौथाई चम्मच नमक में कुछ बूँद सरसों का तेल डालकर अँगुली से दाँत साफ़ कीजिये और नीम की दांतून मिले तो उसका उपयोग कीजिये । ये भी ना मिले तो …
डाबर ,विको या पंतजली के उत्पाद काम में लिजिये स्वदेशी है और आयुर्वेदिक भी ।
पोस्ट शेयर करे ,
समझे और समझाये , इन बहुराष्ट्रीय कंपनियो के झांसे में ना आये
नोट : इस ब्लॉग पर प्रस्तुत लेख या चित्र आदि में से कई संकलित किये हुए हैं यदि किसी लेख या चित्र में किसी को आपत्ति है तो कृपया मुझे अवगत करावे इस ब्लॉग से वह चित्र या लेख हटा दिया जायेगा. इस ब्लॉग का उद्देश्य सिर्फ सुचना एवं ज्ञान का प्रसार करना है
एक व्यक्ति को कितने तरीके से और कितनी बार मूर्ख बनाया जा सकता है, इन विदेशी कंपनियों से सीखिए. और हर बार कैसे तत्परता से मूर्ख बनना भारतीयों से सीखीये. ।
तो भाई मूर्खता छोड़ो और दिमाग चलाओ. सुंदर, स्वस्थ और चमकदार दांतों के लिये चौथाई चम्मच नमक में कुछ बूँद सरसों का तेल डालकर अँगुली से दाँत साफ़ कीजिये और नीम की दांतून मिले तो उसका उपयोग कीजिये । ये भी ना मिले तो …
डाबर ,विको या पंतजली के उत्पाद काम में लिजिये स्वदेशी है और आयुर्वेदिक भी ।
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आचार्य की परीक्षा
आचार्य की परीक्षा
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आचार्य विष्णु गुप्त, जो बाद में चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध हुए, उन दिनों तक्षशिला में पढ़ाते थे। वे सैद्धांतिक की तुलना में व्यवहारिक ज्ञान देना ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि व्यावहारिक ज्ञान के माध्यम से ही शिष्यों का व्यक्तित्व समग्र विकास पाता है। गुरुकुल का एक सत्र पूर्ण होने के पश्चात आचार्य अपने शिष्यों की अंतिम परीक्षा लेते थे। ऐसे ही एक सत्र पूर्ण होने पर आचार्य विष्णु गुप्त ने शिष्यों को बांस की टोकरियां देते हुए कहा- इनमें नदी से जल भर लाओ। उससे गुरुकुल की सफाई करनी है।
शिष्य आचार्य की आज्ञा सुनकर चकरा गए कि बांस की टोकरी में जल भरकर लाना असंभव है। मगर सभी ने नदी पर जाकर प्रयास किया। बांस की टोकरियों में जल भरने से वह छिद्रों में से रिस जाता। आखिर एक शिष्य को छोड़कर सभी लौट आए। उस शिष्य के मन में आचार्य के प्रति पूर्ण निष्ठा थी और वह यह सोचकर बार-बार जल भरता कि गुरुदेव ने सोच-समझकर ही ऐसी आज्ञा दी होगी। शाम तक वह जल भरने का प्रयास करता रहा।
बांस की टोकरी के सुबह से शाम तक जल में रहने के कारण बांस की तीलियां फूल गईं और छिद्र बंद हो गए। आखिर शाम को वह टोकरी में जल भरकर आचार्य के पास लौटा। तब आचार्य ने अन्य शिष्यों से कहा- मैंने तुम्हें दुरूह कार्य सौंपा था किंतु विवेक, धैर्य, लगन व निरंतर प्रयास से यह संभव था। कड़े परिश्रम और लगन से असंभव दिखाई देने वाला कार्य भी संभव हो जाता है, इसलिए कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
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आचार्य विष्णु गुप्त, जो बाद में चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध हुए, उन दिनों तक्षशिला में पढ़ाते थे। वे सैद्धांतिक की तुलना में व्यवहारिक ज्ञान देना ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि व्यावहारिक ज्ञान के माध्यम से ही शिष्यों का व्यक्तित्व समग्र विकास पाता है। गुरुकुल का एक सत्र पूर्ण होने के पश्चात आचार्य अपने शिष्यों की अंतिम परीक्षा लेते थे। ऐसे ही एक सत्र पूर्ण होने पर आचार्य विष्णु गुप्त ने शिष्यों को बांस की टोकरियां देते हुए कहा- इनमें नदी से जल भर लाओ। उससे गुरुकुल की सफाई करनी है।
शिष्य आचार्य की आज्ञा सुनकर चकरा गए कि बांस की टोकरी में जल भरकर लाना असंभव है। मगर सभी ने नदी पर जाकर प्रयास किया। बांस की टोकरियों में जल भरने से वह छिद्रों में से रिस जाता। आखिर एक शिष्य को छोड़कर सभी लौट आए। उस शिष्य के मन में आचार्य के प्रति पूर्ण निष्ठा थी और वह यह सोचकर बार-बार जल भरता कि गुरुदेव ने सोच-समझकर ही ऐसी आज्ञा दी होगी। शाम तक वह जल भरने का प्रयास करता रहा।
बांस की टोकरी के सुबह से शाम तक जल में रहने के कारण बांस की तीलियां फूल गईं और छिद्र बंद हो गए। आखिर शाम को वह टोकरी में जल भरकर आचार्य के पास लौटा। तब आचार्य ने अन्य शिष्यों से कहा- मैंने तुम्हें दुरूह कार्य सौंपा था किंतु विवेक, धैर्य, लगन व निरंतर प्रयास से यह संभव था। कड़े परिश्रम और लगन से असंभव दिखाई देने वाला कार्य भी संभव हो जाता है, इसलिए कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
नोट : इस ब्लॉग पर प्रस्तुत लेख या चित्र आदि में से कई संकलित किये हुए हैं यदि किसी लेख या चित्र में किसी को आपत्ति है तो कृपया मुझे अवगत करावे इस ब्लॉग से वह चित्र या लेख हटा दिया जायेगा. इस ब्लॉग का उद्देश्य सिर्फ सुचना एवं ज्ञान का प्रसार करना है
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