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बुधवार, 18 जुलाई 2012

वृन्दावन के एक संत की कथा है.

वृन्दावन के एक संत की कथा है. वे श्री कृष्ण की आराधना करते थे. उन्होंने संसार को भूलने की एक युक्ति की. मन को सतत श्री कृष्ण का स्मरण रहे, उसके लिए महात्मा ने प्रभु के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ा की मै नन्द हु, बाल कृष्णलाल मेरे बालक है, वे लाला को लाड लड़ते, यमुना जी स्नान करने जाते तो लाला को साथ ले कर जाते. भोजन करने बैठते तो लाला को साथ लेकर बैठते. ऍसी भावना करते की कन्हैया मेरी गोद में बैठा है. कन्हैया मेरे दाढ़ी खींच रहा है. श्री कृष्ण को पुत्र मानकर आनद करते. श्री कृष्ण के उपर इनका वात्सल्य भाव था.

महात्मा श्री कृष्ण की मानसिक सेवा करते थे. सम्पूर्ण दिवस मन को श्री कृष्ण लीला में तन्मय रखते, जिससे मन को संसार का चिंतन करने का अवसर ही ना मिले. निष्क्रय ब्रह्म का सतत ध्यान करना कठिन है, परन्तु लीला विशिष्ट ब्रह्म का सतत ध्यान हो सकता है, महात्मा परमात्मा के साथ पुत्र का सम्बन्ध जोड़ कर संसार को भूल गये, परमात्मा के साथ तन्मय हो गये, श्री कृष्ण को पुत्र मानकर लाड लड़ाने लगे . महात्मा ऍसी भावना करते की कन्हैया मुझसे केला मांग रहा है, बाबा! मुझे केला दो, ऐसा कह रहा है. महत्मा मन से ही कन्हैया को केला देते. महात्मा समस्त दिवस लाला की मानसिक सेवा करते और मन से भगवान को सभी वस्तुए देते. कन्हैया तो बहुत भोले है. मन से दो तो भी प्रसन्न हो जाते है. महत्मा कभी कभी शिष्यों से कहते की इस शरीर से गंगा स्नान कभी हुआ नहीं, वह मुझे एक बार कराना है. शिष्य कहते की काशी पधारो. महात्मा काशी जाने की तैयारी करते परन्तु वात्सल्य भाव से मानसिक सेवा में तन्मय हुए की कन्हैया कहले लगते - बाबा मै तुम्हारा बालक हु छोटा सा हु. मुझे छोड़कर काशी नहीं जाना. इस प्रकार महात्मा सेवा में तन्मय होते, उस समय उनको ऐसा आभास होता था की मेरा लाला जाने की मनाही कर रहा है. मेरा कान्हा अभी बालक है. मै कन्हैया को छोड़कर यात्रा करने कैसे जाऊ? मुझे लाला को छोड़कर जाना नहीं. महात्मा अति व्रद्ध हो गये. महात्मा का शरीर तो व्रद्ध हुआ परन्तु उनका कन्हैया तो छोटा ही रहा. वह बड़ा हुआ ही नहीं! उनका प्रभु में बाल - भाव हो स्थिर रहा और एक दिन लाला का चिन्तन करते - करते वे मृत्यु को प्राप्त हो गये.

शिष्य कीर्तन करते- करते महात्मा को श्मशान ले गये. अग्नि - संस्कार की तैयारी हुए. इतने ही में एक सात वर्ष का अति सुंदर बालक कंधे पर गंगाजल का घड़ा लेकर वहां आया. उसने शिष्यों से कहा - ये मेरे पिता है, मै इनका मानस - पुत्र हु. पुत्र के तौर पर अग्नि - संस्कार करने का अधिकार मेरा है. मै इनका अग्नि-संस्कार करूँगा. पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण करना पुत्र का धर्म है, मेरे पिता की गंगा-स्नान करने की इच्छा थी परन्तु मेरे कारण ये गंगा-स्नान करने नहीं जा सकते थे. इसलिए मै यह गंगाजल लाया हु. पुत्र जिस प्रकार पिता की सेवा करता है, इस प्रकार बालक ने महात्मा के शव को गंगा-स्नान कराया. संत के माथे पर तिलक किया, पुष्प की माला पहनाई और अंतिम वंदन करके अग्नि-संस्कार किया, सब देखते ही रह गये, अनेक साध-महात्मा थे परन्तु किसी की बोलने की हिम्मत ही ना हुई. अग्नि-संस्कार करके बालक एकदम अंतर्ध्यान हो गया. उसके बाद लोगो को ख्याल आया की महात्मा के तो पुत्र था ही नहीं

बालकृष्णलाल ही तो महात्मा के पुत्र रूप में आये थे. महात्मा की भावना थी की श्री कृष्ण मेरा पुत्र है, परमात्मा ने उनकी भावना पूरी की, परमात्मा के साथ जीव जैसा सम्बन्ध बांधता है, वैसा ही सम्बन्ध से परमात्मा उसको मिलते है.

अब बोलिए जय माता दी. जय राधा रानी की. जय राज रानी की. जय माँ वैष्णो रानी की

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