आज
माहेश्वरी समाज में बहुत से लोग है जो नहीं जानते की माहेश्वरी समाज की
उत्पत्ति कैसे हुई……? हम सभी को पता होना चाहिए की माहेश्वरी का इतिहास
क्या हैं…..? क्यों माहेश्वरीयों में विवाह परंपरा को बहुत महत्वपूर्ण विधि
माना जाता है? क्यों विवाह की विधि में लड़का मोड़ और कट्यार धारण करता है? क्यों माहेश्वरियों मैं महेश नवमी को विवाह की सर्वश्रेष्ठ तिथि मानते है?
माहेश्वरी वंशउत्पत्ति :
खंडेला नगर में सूर्यवंशी राजाओं में चौव्हान जाती का राजा खड्गल सेन राज्य करता था. इसके राज्य में सारी प्रजा सुख और शांती से रहती थी. राजा धर्मावतार और प्रजाप्रेमी था, परन्तु राजा का कोई पुत्र नहीं था. राजा ने मंत्रियो से परामर्श कर पुत्रेस्ठी यज्ञ कराया. ऋषियों ने आशीवाद दिया और साथ-साथ यह भी कहा की तुम्हारा पुत्र बहुत पराक्रमी और चक्रवर्ती होगा पर उसे 16 साल की उम्र तक उत्तर दिशा की ओर न जाने देना. राजा ने पुत्र जन्म उत्सव बहुत ही हर्ष उल्लास से मनाया. ज्योतिषियों ने उसका नाम सुजानसेन रखा. सुजानसेन बहुत ही प्रखर बुद्धि का व समझदार निकला, थोड़े ही समय में वह विद्या और शस्त्र विद्या में आगे बढ़ने लगा. देवयोग से एक जैन मुनि खड़ेला नगर आए और सुजान कुवर ने जैन धर्म की शिक्षा लेकर उसका प्रचार प्रसार शुरू कर दिया. शिव व वैष्णव मंदिर तुडवा कर जैन मंदिर बनवाए, इससे सारे राज्य में जैन धर्मं का बोलबाला हो गया.
एक दिन राजकुवर 72 उमरावो को लेकर शिकार करने जंगल में उत्तर दिशा की और ही गया. सूर्य कुंड के पास जाकर देखा की वहाँ 6 ऋषि यज्ञ कर रहे थे ,वेद ध्वनि बोल रहे थे ,यह देख वह आग बबुला हो गया और क्रोधित होकर बोला इस दिशा में मुनि यज्ञ करते हे इसलिए पिताजी मुझे इधर आने से रोकते थे. उसी समय उमरावों को आदेश दिया की यज्ञ विध्वंस कर दो और यज्ञ सामग्री नष्ट कर दो.
इससे ऋषि भी क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया की सब पत्थर बन जाओ l श्राप देते ही राजकुवर सहित 72 उमराव पत्थर बन गए. जब यह समाचार राजा खड्गल सेन ने सुना तो अपने प्राण तज दिए. राजा के साथ 16 रानिया सती हुई.
राजकुवर की कुवरानी चन्द्रावती उमरावों की स्त्रियों को साथ लेकर ऋषियो की शरण में गई और श्राप वापस लेने की विनती की तब ऋषियो ने उन्हें बताया की हम श्राप दे चुके हे तुम भगवान गोरीशंकर की आराधना करो. यहाँ निकट ही एक गुफा है जहा जाकर भगवान महेश का अष्टाक्षर मंत्र का जाप करो. भगवान की कृपा से वह पुनः शुद्ध बुद्धि व चेतन्य हो जायेंगे. राजकुवरानी सारी स्त्रियों सहित गुफा में गई और तपस्या में लीन हो गई.
भगवान महेशजी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर वहा आये, पार्वती जी ने इन जडत्व मूर्तियों के बारे में भगवान से चर्चा आरम्भ की तो राजकुवरानी ने आकर पार्वतीजी के चरणों में प्रणाम किया. पार्वतीजी ने आशीर्वाद दिया की सौभाग्यवती हो, इस पर राजकुवरानी ने कहा हमारे पति तो ऋषियों के श्राप से पत्थरवत हो गए है अतः आप इनका श्राप मोचन करो. पार्वतीजी ने भगवान महेशजी से प्रार्थना की और फिर भगवान महेशजी ने उन्हें चेतन में ला दिया. चेतन अवस्था में आते ही उन्होंने पार्वती-महेश को घेर लिया. इसपर भगवान महेश ने कहा अपनी शक्ति पर गर्व मत करो और छत्रियत्व छोड़ कर वैश्य वर्ण धारण करो. 72 उमरावों ने इसे स्वीकार किया पर उनके हाथो से हथिहार नहीं छुटे. इस पर भगवान महेशजी ने कहा की सूर्यकुंड में स्नान करो ऐसा करते ही उनके हथिहार पानी में गल गए उसी दिन से लोहा गल (लोहागर) हो गया (लोहागर- सीकर के पास, राजस्थान). सभी स्नान कर भगवान महेश की प्रार्थ्रना करने लगे.
फिर भगवान महेशजी ने कहा की आज से तुम्हारे वंशपर (धर्मपर) हमारी छाप रहेगी यानि तुम वंश (धर्म) से “माहेश्वरी’’ और वर्ण से वैश्य कहलाओगे और अब तुम अपने जीवनयापन (उदर निर्वाह) के लिए व्यापार करो तुम इसमें खूब फुलोगे-फलोगे.
अब राजकुवर और उमरावों ने स्त्रियों (पत्नियोंको) को स्वीकार करनेसे मना किया, कहा की हम तो धर्म से “माहेश्वरी’’ और वर्ण से वैश्य बन गए है पर ये अभी क्षत्रानिया (राजपुतनियाँ) है. हमारा पुनर्जन्म हो चूका हे, हम इन्हें कैसे स्वीकार करे. तब माता पार्वती ने कहा तुम सभी स्त्री-पुरुष हमारी चार बार परिक्रमा करो जो जिसकी पत्नी है अपने आप गठबंधन हो जायेगा. इसपर राजकुवरानी ने पार्वति से कहा की पहले तो हमारे पति राजपूत-क्षत्रिय थे, हथियारबन्द थे तो हमारी और हमारे मान की रक्षा करते थे अब हमारी और हमारे मान की रक्षा ये कैसे करेंगे तब पार्वति ने सभी को दिव्य कट्यार दी और कहाँ की अब आपका पेशा युद्ध करना नहीं बल्कि व्यापार करना है लेकिन अपने स्त्रियों की और मान की रक्षा के लिए 'कट्यार' को हमेशा धारण करेंगे. मे शक्ति स्वयं इसमे बिराजमान रहूंगी. तब सब ने महेश-पार्वति की चार बार परिक्रमा की तो जो जिसकी पत्नी है उनका अपने आप गठबंधन हो गया (एक-दो जगह उल्लेख मिलता है की 13 स्त्रियों ने भी कट्यार धारण करके गठबंधन की परिक्रमा की). इस गठबंधन को 'मंगल कारज' कहा गया. [उस दिन से मंगल कारज (विवाह) में बिन्दराजा मोड़ (मान) और कट्यार धारण करके, 'महेश - पार्वती' की तस्बीर को विधिपूर्वक स्थापन करके उनकी चार बार परिक्रमा करता है इसे 'बारला फेरा' (बाहर के फेरे) कहा जाता है.) ये बात याद रहे इसलिए चार फेरे बाहर के लिए जाते है. सगाई में लड़की का पिता लडके को मोड़ और कट्यार भेंट देता है इसलिए की ये बात याद रहे - अब मेरे बेटीकी और उसके मान की रक्षा तुम्हे करनी है. जिस दिन महेश-पार्वति ने वरदान दिया उस दिन युधिष्टिर संवत 9 (विक्रम संवत ८) जेष्ट शुक्ल नवमी थी. तभी से माहेश्वरी समाज आज तक “महेश नवमी ’’ का त्यौहार बहुत धूम धाम से मनाता आ रहा है…..]
ऋषियों ने आकर भगवान से अनुग्रह किया की प्रभु इन्होने हमारे यज्ञ को विध्वंस किया और आपने इन्हें श्राप मोचन (श्राप से मुक्त) कर दिया इस पर भगवान महेशजी ने कहा - आजसे आप इनके (माहेश्वरीयोंके) गुरु है. ये तुम्हे गुरु मानेंगे. तुम्हे 'गुरुमहाराज' के नाम से जाना जायेगा. भगवान महेशजी ने कुवरानी चन्द्रावती को भी गुरु पद दिया. इन सबको दायित्व सौपा गया की, वह माहेश्वरियों को सत्य, प्रेम और न्यायके मार्गपर चलनेका मार्गदर्शन करते रहेंगे [माहेश्वरी स्वयं को भगवान महेश-पार्वती की संतान मानते है. माहेश्वरीयों में 'शिवलिंग' स्वरुप में पूजा का विधान नहीं है; माहेश्वरीयों में 'भगवान महेश-पार्वती-गणेशजी' की एकत्रित प्रतिमा / तसबीर के पूजा का विधान (रिवाज/परंपरा) है. कई शतकों तक गुरु मार्गदर्शित व्यवस्था बनी रही. तथ्य बताते है की प्रारंभ में 'गुरुमहाराज' द्वारा बताई गयी नित्य प्रार्थना, वंदना (महेश वंदना), नित्य अन्नदान, करसेवा, गो-ग्रास आदि नियमोंका समाज कड़ाई से पालन करता था. फिर मध्यकाल में भारत के शासन व्यवस्था में भारी उथल-पुथल तथा बदलाओंका दौर चला. दुर्भाग्यसे जिसका असर माहेश्वरियों की सामाजिक व्यवस्थापर भी पड़ा और जाने-अनजाने में माहेश्वरी अपने गुरूओंको भूलते चले गए. जिससे समाज की बड़ी क्षति हुई है और आज भी हो रही है.].
फिर भगवान महेशजी ने सुजान कुवर को कहा की तुम इनकी वंशावली रखो, ये तुम्हे अपना जागा मानेंगे. तुम इनके वंश की जानकारी रखोंगे, विवाह-संबन्ध जोड़ने में मदत करोगे और ये हर समय, यथा शक्ति द्रव्य देकर तुम्हारी मदत करेंगे.
जो 72 उमराव थे उनके नाम पर एक-एक जाती बनी जो 72 खाप (गोत्र ) कहलाई. फिर एक-एक खाप में कई नख हो गए जो काम के कारण गाव व बुजुर्गो के नाम बन गए है.
कहा जाता है की आज से लगभग 2500-2600 वर्ष पूर्व (इसवीसन पूर्व 600 साल) 72 खापो के माहेश्वरी मारवाड़ (डीडवाना) राजस्थान में निवास करते थे. इन्ही 72 खापो में से 20 खाप के माहेश्वरी परिवार धकगड़ (गुजरात) में जाकर बस गए. वहा का राजा दयालु, प्रजापालक और व्यापारियों के प्रति सम्मान रखने वाला था. इन्ही गुणों से प्रभावित हो कर और 12 खापो के माहेश्वरी भी वहा आकर बस गए. इस प्रकार 32 खापो के माहेश्वरी धकगड़ (गुजरात) में बस गए और व्यापर करने लगे. तो वे धाकड़ माहेश्वरी के नामसे पहचाने जाने लगे. समय व परिस्थिति के वशीभूत होकर धकगड़ के कुछ माहेश्वरियो को धकगड़ भी छोडना पड़ा और मध्य भारत में आष्टा के पास अवन्तिपुर बडोदिया ग्राम में विक्रम संवत 1200 के आस-पास आज से लगभग 810 वर्ष पूर्व, आकर बस गए. वहाँ उनके द्वारा निर्मित भगवान महेशजी का मंदिर जिसका निर्माण संवत 1262 में हुआ जो आज भी विद्यमान है एवं अतीत की यादो को ताज़ा करता है. माहेश्वरियो के 72 गोत्र में से 15 खाप (गोत्र ) के माहेश्वरी परिवार अलग होकर ग्राम काकरोली राजिस्थान में बस गए तो वे काकड़ माहेश्वरी के नामसे पहचाने जाने लगे (इन्होने घर त्याग करने के पहले संकल्प किया की वे हाथी दांत का चुडा व मोतीचूर की चुन्धरी काम में नहीं लावेंगे अतः आज भी काकड़ वाल्या माहेश्वरी मंगल कारज (विवाह) में इन चीजो का व्यवहार नहीं करते है.) इसी कारण माहेश्वरीयों में परस्पर रोटी तथा बेटी व्यवहार है. पुनः माहेश्वरी मध्य भारत और भारत के कई स्थानों पर जाकर व्यवसाय करने लगे.........
जन्म-मरण विहीन एक ईश्वर (महेश) में आस्था और मानव मात्र के कल्याण की कामना माहेश्वरी धर्म के प्रमुख सिद्धान्त हैं. माहेश्वरी समाज सत्य, प्रेम और न्याय के पथ पर चलता है. कर्म करना, बांट कर खाना और प्रभु का नाम जाप करना इसके आधार हैं. माहेश्वरी अपने धर्माचरण का पूरी निष्ठा के साथ पालन करते है तथा वह जिस स्थान / प्रदेश में रहते है वहां की स्थानिक संस्कृति का पूरा आदर-सन्मान करते है, इस बात का ध्यान रखते है; यह माहेश्वरी समाज की विशेष बात है. आज तकरीबन भारत के हर राज्य, हर शहर में माहेश्वरीज बसे हुए है और अपने अच्छे व्यवहार के लिए पहचाने जाते है.
* * * *
*माहेश्वरीयों की उत्पत्ति तथ्य; श्री शिवकरणजी दरक द्वारा लिखित इतिहास कल्पद्रुम माहेश्वरी कुलभूषण नामक ग्रन्थ, जागाजी के पास के कुछ पुराने हस्तलिखित, समाज के इतिहास में रूचि रखनेवाले कुछ जानकार, पुरानी माहेश्वरी समाज की किताबे आदिसे सन्दर्भ लेकर माहेश्वरी वंशउत्पत्ति को उद्धृत किया है. यदि किसी समाज बंधू को इसमें त्रुटी दिखाई पड़ती है तो मैं क्षमा चाहता हूँ. और हाँ उसमे और जानकारी लिख दे.....जिससे हम इसमे सुधार कर सकें….
माहेश्वरी वंशउत्पत्ति :
खंडेला नगर में सूर्यवंशी राजाओं में चौव्हान जाती का राजा खड्गल सेन राज्य करता था. इसके राज्य में सारी प्रजा सुख और शांती से रहती थी. राजा धर्मावतार और प्रजाप्रेमी था, परन्तु राजा का कोई पुत्र नहीं था. राजा ने मंत्रियो से परामर्श कर पुत्रेस्ठी यज्ञ कराया. ऋषियों ने आशीवाद दिया और साथ-साथ यह भी कहा की तुम्हारा पुत्र बहुत पराक्रमी और चक्रवर्ती होगा पर उसे 16 साल की उम्र तक उत्तर दिशा की ओर न जाने देना. राजा ने पुत्र जन्म उत्सव बहुत ही हर्ष उल्लास से मनाया. ज्योतिषियों ने उसका नाम सुजानसेन रखा. सुजानसेन बहुत ही प्रखर बुद्धि का व समझदार निकला, थोड़े ही समय में वह विद्या और शस्त्र विद्या में आगे बढ़ने लगा. देवयोग से एक जैन मुनि खड़ेला नगर आए और सुजान कुवर ने जैन धर्म की शिक्षा लेकर उसका प्रचार प्रसार शुरू कर दिया. शिव व वैष्णव मंदिर तुडवा कर जैन मंदिर बनवाए, इससे सारे राज्य में जैन धर्मं का बोलबाला हो गया.
एक दिन राजकुवर 72 उमरावो को लेकर शिकार करने जंगल में उत्तर दिशा की और ही गया. सूर्य कुंड के पास जाकर देखा की वहाँ 6 ऋषि यज्ञ कर रहे थे ,वेद ध्वनि बोल रहे थे ,यह देख वह आग बबुला हो गया और क्रोधित होकर बोला इस दिशा में मुनि यज्ञ करते हे इसलिए पिताजी मुझे इधर आने से रोकते थे. उसी समय उमरावों को आदेश दिया की यज्ञ विध्वंस कर दो और यज्ञ सामग्री नष्ट कर दो.
इससे ऋषि भी क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया की सब पत्थर बन जाओ l श्राप देते ही राजकुवर सहित 72 उमराव पत्थर बन गए. जब यह समाचार राजा खड्गल सेन ने सुना तो अपने प्राण तज दिए. राजा के साथ 16 रानिया सती हुई.
राजकुवर की कुवरानी चन्द्रावती उमरावों की स्त्रियों को साथ लेकर ऋषियो की शरण में गई और श्राप वापस लेने की विनती की तब ऋषियो ने उन्हें बताया की हम श्राप दे चुके हे तुम भगवान गोरीशंकर की आराधना करो. यहाँ निकट ही एक गुफा है जहा जाकर भगवान महेश का अष्टाक्षर मंत्र का जाप करो. भगवान की कृपा से वह पुनः शुद्ध बुद्धि व चेतन्य हो जायेंगे. राजकुवरानी सारी स्त्रियों सहित गुफा में गई और तपस्या में लीन हो गई.
भगवान महेशजी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर वहा आये, पार्वती जी ने इन जडत्व मूर्तियों के बारे में भगवान से चर्चा आरम्भ की तो राजकुवरानी ने आकर पार्वतीजी के चरणों में प्रणाम किया. पार्वतीजी ने आशीर्वाद दिया की सौभाग्यवती हो, इस पर राजकुवरानी ने कहा हमारे पति तो ऋषियों के श्राप से पत्थरवत हो गए है अतः आप इनका श्राप मोचन करो. पार्वतीजी ने भगवान महेशजी से प्रार्थना की और फिर भगवान महेशजी ने उन्हें चेतन में ला दिया. चेतन अवस्था में आते ही उन्होंने पार्वती-महेश को घेर लिया. इसपर भगवान महेश ने कहा अपनी शक्ति पर गर्व मत करो और छत्रियत्व छोड़ कर वैश्य वर्ण धारण करो. 72 उमरावों ने इसे स्वीकार किया पर उनके हाथो से हथिहार नहीं छुटे. इस पर भगवान महेशजी ने कहा की सूर्यकुंड में स्नान करो ऐसा करते ही उनके हथिहार पानी में गल गए उसी दिन से लोहा गल (लोहागर) हो गया (लोहागर- सीकर के पास, राजस्थान). सभी स्नान कर भगवान महेश की प्रार्थ्रना करने लगे.
फिर भगवान महेशजी ने कहा की आज से तुम्हारे वंशपर (धर्मपर) हमारी छाप रहेगी यानि तुम वंश (धर्म) से “माहेश्वरी’’ और वर्ण से वैश्य कहलाओगे और अब तुम अपने जीवनयापन (उदर निर्वाह) के लिए व्यापार करो तुम इसमें खूब फुलोगे-फलोगे.
अब राजकुवर और उमरावों ने स्त्रियों (पत्नियोंको) को स्वीकार करनेसे मना किया, कहा की हम तो धर्म से “माहेश्वरी’’ और वर्ण से वैश्य बन गए है पर ये अभी क्षत्रानिया (राजपुतनियाँ) है. हमारा पुनर्जन्म हो चूका हे, हम इन्हें कैसे स्वीकार करे. तब माता पार्वती ने कहा तुम सभी स्त्री-पुरुष हमारी चार बार परिक्रमा करो जो जिसकी पत्नी है अपने आप गठबंधन हो जायेगा. इसपर राजकुवरानी ने पार्वति से कहा की पहले तो हमारे पति राजपूत-क्षत्रिय थे, हथियारबन्द थे तो हमारी और हमारे मान की रक्षा करते थे अब हमारी और हमारे मान की रक्षा ये कैसे करेंगे तब पार्वति ने सभी को दिव्य कट्यार दी और कहाँ की अब आपका पेशा युद्ध करना नहीं बल्कि व्यापार करना है लेकिन अपने स्त्रियों की और मान की रक्षा के लिए 'कट्यार' को हमेशा धारण करेंगे. मे शक्ति स्वयं इसमे बिराजमान रहूंगी. तब सब ने महेश-पार्वति की चार बार परिक्रमा की तो जो जिसकी पत्नी है उनका अपने आप गठबंधन हो गया (एक-दो जगह उल्लेख मिलता है की 13 स्त्रियों ने भी कट्यार धारण करके गठबंधन की परिक्रमा की). इस गठबंधन को 'मंगल कारज' कहा गया. [उस दिन से मंगल कारज (विवाह) में बिन्दराजा मोड़ (मान) और कट्यार धारण करके, 'महेश - पार्वती' की तस्बीर को विधिपूर्वक स्थापन करके उनकी चार बार परिक्रमा करता है इसे 'बारला फेरा' (बाहर के फेरे) कहा जाता है.) ये बात याद रहे इसलिए चार फेरे बाहर के लिए जाते है. सगाई में लड़की का पिता लडके को मोड़ और कट्यार भेंट देता है इसलिए की ये बात याद रहे - अब मेरे बेटीकी और उसके मान की रक्षा तुम्हे करनी है. जिस दिन महेश-पार्वति ने वरदान दिया उस दिन युधिष्टिर संवत 9 (विक्रम संवत ८) जेष्ट शुक्ल नवमी थी. तभी से माहेश्वरी समाज आज तक “महेश नवमी ’’ का त्यौहार बहुत धूम धाम से मनाता आ रहा है…..]
ऋषियों ने आकर भगवान से अनुग्रह किया की प्रभु इन्होने हमारे यज्ञ को विध्वंस किया और आपने इन्हें श्राप मोचन (श्राप से मुक्त) कर दिया इस पर भगवान महेशजी ने कहा - आजसे आप इनके (माहेश्वरीयोंके) गुरु है. ये तुम्हे गुरु मानेंगे. तुम्हे 'गुरुमहाराज' के नाम से जाना जायेगा. भगवान महेशजी ने कुवरानी चन्द्रावती को भी गुरु पद दिया. इन सबको दायित्व सौपा गया की, वह माहेश्वरियों को सत्य, प्रेम और न्यायके मार्गपर चलनेका मार्गदर्शन करते रहेंगे [माहेश्वरी स्वयं को भगवान महेश-पार्वती की संतान मानते है. माहेश्वरीयों में 'शिवलिंग' स्वरुप में पूजा का विधान नहीं है; माहेश्वरीयों में 'भगवान महेश-पार्वती-गणेशजी' की एकत्रित प्रतिमा / तसबीर के पूजा का विधान (रिवाज/परंपरा) है. कई शतकों तक गुरु मार्गदर्शित व्यवस्था बनी रही. तथ्य बताते है की प्रारंभ में 'गुरुमहाराज' द्वारा बताई गयी नित्य प्रार्थना, वंदना (महेश वंदना), नित्य अन्नदान, करसेवा, गो-ग्रास आदि नियमोंका समाज कड़ाई से पालन करता था. फिर मध्यकाल में भारत के शासन व्यवस्था में भारी उथल-पुथल तथा बदलाओंका दौर चला. दुर्भाग्यसे जिसका असर माहेश्वरियों की सामाजिक व्यवस्थापर भी पड़ा और जाने-अनजाने में माहेश्वरी अपने गुरूओंको भूलते चले गए. जिससे समाज की बड़ी क्षति हुई है और आज भी हो रही है.].
फिर भगवान महेशजी ने सुजान कुवर को कहा की तुम इनकी वंशावली रखो, ये तुम्हे अपना जागा मानेंगे. तुम इनके वंश की जानकारी रखोंगे, विवाह-संबन्ध जोड़ने में मदत करोगे और ये हर समय, यथा शक्ति द्रव्य देकर तुम्हारी मदत करेंगे.
जो 72 उमराव थे उनके नाम पर एक-एक जाती बनी जो 72 खाप (गोत्र ) कहलाई. फिर एक-एक खाप में कई नख हो गए जो काम के कारण गाव व बुजुर्गो के नाम बन गए है.
कहा जाता है की आज से लगभग 2500-2600 वर्ष पूर्व (इसवीसन पूर्व 600 साल) 72 खापो के माहेश्वरी मारवाड़ (डीडवाना) राजस्थान में निवास करते थे. इन्ही 72 खापो में से 20 खाप के माहेश्वरी परिवार धकगड़ (गुजरात) में जाकर बस गए. वहा का राजा दयालु, प्रजापालक और व्यापारियों के प्रति सम्मान रखने वाला था. इन्ही गुणों से प्रभावित हो कर और 12 खापो के माहेश्वरी भी वहा आकर बस गए. इस प्रकार 32 खापो के माहेश्वरी धकगड़ (गुजरात) में बस गए और व्यापर करने लगे. तो वे धाकड़ माहेश्वरी के नामसे पहचाने जाने लगे. समय व परिस्थिति के वशीभूत होकर धकगड़ के कुछ माहेश्वरियो को धकगड़ भी छोडना पड़ा और मध्य भारत में आष्टा के पास अवन्तिपुर बडोदिया ग्राम में विक्रम संवत 1200 के आस-पास आज से लगभग 810 वर्ष पूर्व, आकर बस गए. वहाँ उनके द्वारा निर्मित भगवान महेशजी का मंदिर जिसका निर्माण संवत 1262 में हुआ जो आज भी विद्यमान है एवं अतीत की यादो को ताज़ा करता है. माहेश्वरियो के 72 गोत्र में से 15 खाप (गोत्र ) के माहेश्वरी परिवार अलग होकर ग्राम काकरोली राजिस्थान में बस गए तो वे काकड़ माहेश्वरी के नामसे पहचाने जाने लगे (इन्होने घर त्याग करने के पहले संकल्प किया की वे हाथी दांत का चुडा व मोतीचूर की चुन्धरी काम में नहीं लावेंगे अतः आज भी काकड़ वाल्या माहेश्वरी मंगल कारज (विवाह) में इन चीजो का व्यवहार नहीं करते है.) इसी कारण माहेश्वरीयों में परस्पर रोटी तथा बेटी व्यवहार है. पुनः माहेश्वरी मध्य भारत और भारत के कई स्थानों पर जाकर व्यवसाय करने लगे.........
जन्म-मरण विहीन एक ईश्वर (महेश) में आस्था और मानव मात्र के कल्याण की कामना माहेश्वरी धर्म के प्रमुख सिद्धान्त हैं. माहेश्वरी समाज सत्य, प्रेम और न्याय के पथ पर चलता है. कर्म करना, बांट कर खाना और प्रभु का नाम जाप करना इसके आधार हैं. माहेश्वरी अपने धर्माचरण का पूरी निष्ठा के साथ पालन करते है तथा वह जिस स्थान / प्रदेश में रहते है वहां की स्थानिक संस्कृति का पूरा आदर-सन्मान करते है, इस बात का ध्यान रखते है; यह माहेश्वरी समाज की विशेष बात है. आज तकरीबन भारत के हर राज्य, हर शहर में माहेश्वरीज बसे हुए है और अपने अच्छे व्यवहार के लिए पहचाने जाते है.
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*माहेश्वरीयों की उत्पत्ति तथ्य; श्री शिवकरणजी दरक द्वारा लिखित इतिहास कल्पद्रुम माहेश्वरी कुलभूषण नामक ग्रन्थ, जागाजी के पास के कुछ पुराने हस्तलिखित, समाज के इतिहास में रूचि रखनेवाले कुछ जानकार, पुरानी माहेश्वरी समाज की किताबे आदिसे सन्दर्भ लेकर माहेश्वरी वंशउत्पत्ति को उद्धृत किया है. यदि किसी समाज बंधू को इसमें त्रुटी दिखाई पड़ती है तो मैं क्षमा चाहता हूँ. और हाँ उसमे और जानकारी लिख दे.....जिससे हम इसमे सुधार कर सकें….
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