पुराणों में भारतवर्ष की महिमा -
ये पृथ्वी सप्तद्वीपा है । इनके नाम हैं - जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, तथा पुष्करद्वीप । सातों द्वीपों के मध्य जम्बूद्वीप है । जम्बूद्वीप के अधिपति महाराज आग्नीध्र के नौ पुत्र हुए - जिनके नाम थे - नाभि, किम्पुरूष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरू, भद्राश्व और केतुमाल । राजा आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के नौ खंड कर अपने प्रत्येक नौ पुत्रों को वहाँ का राजा बनाया । इन खंड़ो का विस्तार नौ नौ हजार योजन बताया गया है । इन्हीं पुत्रों के नाम से नौ वर्ष (अर्थात् खंड ) प्रसिद्ध हुये ।
राजा नाभि के नाम से ही एक वर्ष अर्थात् एक खंड का नाम अजनाभ वर्ष हुआ । राजा नाभि एवं उनकी पत्नी मेरूदेवी के एक पुत्र थे जिनका नाम था ऋषभदेव । ऋषभेदव जी के सबसे बड़े पुत्र का नाम था भरत ।
राजा भरत
वे अत्यंत प्रतापी तथा धर्मात्मा थे, अतः अजनाभ वर्ष का नाम हो गया भारतवर्ष ।
‘‘अजनाभं नामऐतद्भारात्वर्षं भारतमिति ।’’
क्या पृथ्वी का यही खंड जहाँ हम लोग रहते हैं , भारतवर्ष है ? इसका प्रमाण क्या है ?
शास्त्रों में बताया गया है की भारतवर्ष में नर-नारायण हैं | इसी भारतवर्ष में भगवान श्रीहरि नर-नारायण रूप में है । केदारनाथ, बद्रीनाथ के रास्ते में दो पर्वत नर और नारायण हैं ऐसा माना जाता है कि देवर्षि नारद जी भगवान की आराधना नर-नारायण के रूप में करते हैं ।
नर और नारायण पर्वत
विष्णु पुराण में भी भारतवर्ष की स्थिति के बारे में बताया गया है -
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेष्चैव दक्षिणम् ।
वर्शं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ।।
ऐसा भूखण्ड जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय से दक्षिण में स्थित है वही भारतवर्ष है और वहीं पर चक्रवर्ती भरत जी की संतति निवास करती है ।पुराणों के आधार पर इस भारतवर्ष का विस्तार 9000 योजन माना जाता है । एक योजन में 9 मील माना जाता है । अतः भारतवर्ष का विस्तार 81000 मील माना जा सकता है ।
भारतवर्ष अन्य वर्षों से श्रेष्ठ है क्यों कि यह कर्म भूमि है तथा अन्य वर्ष भोग भूमियाँ हैं -
‘यतो हि कर्मभूरेशा ह्यतो न्या भोगभूमयः’ (विष्णुपुराण) ।
ऐसा कहा जाता है कि मानव भगवान की सुन्दरतम रचना है और मानव को स्वतंत्रता है कर्मों को करने की । अच्छे कर्मों के द्वारा मानव अपना उद्धार कर सकता है । ऐसी स्वतंत्रता देवताओं को भी प्राप्त नहीं है क्योंकि वह भोगयोनि है । परंतु मनुष्यों में भी भारतवर्ष में जन्म लेने वाले को ही ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त है क्योंकि भारतवर्ष कर्मभूमि है तथा अन्य वर्ष भोगभूमि है । यही कारण है कि पृथ्वी पर भारतवर्ष के अतिरिक्त कहीं भी कर्म विधि नहीं है । उसका विधान हमारे वर्णाश्रम व्यवस्था में है । वर्णाश्रम व्यवस्था सनातन धर्म का मूल है । सभी वर्णांे तथा आश्रमों में पूर्णतया प्रतिष्ठित मनुष्य जीवन के सर्वोत्तम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का अधिकारी होता है । यहाँ पर पैदा होने वाले मनुष्य अपने-अपने कर्मों के आधार पर स्वर्ग तथा अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए संसार के किसी अन्य धर्मों में वर्णाश्रम व्यवस्था का विधान नहीं है । अन्य धर्म भोग को बढ़ावा देता है परंतु सनातन धर्म योग को बढावा देता है । अतः भारतवर्ष में पैदा होने वाले प्राणी अन्य जगहों पर पैदा होने वालों से अधिक प्रबुद्ध होता है । भारतवर्ष का कण-कण ऊर्जा से भरा हुआ तीर्थ है जिसने भी भारतवर्ष की पदयात्रा की है उन्हें नई ऊर्जा तथा दिषा मिली है । पाण्डवों ने भारतवर्ष की पदयात्रा की थी वनवास काल में तभी उन्हें नई ऊर्जा मिली और धर्मराज्य की स्थापना हुई । भगवान राम ने भी वनवास काल में भारतवर्ष की पदयात्रा की तभी वह रामराज्य स्थापित करने में सफल रहें । आदिशंकराचार्य ने भारतवर्ष की पदयात्रा कर दिग्विजय किया और भारतवर्ष के एकता के सूत्र को और भी मजबूत किया । वर्तमान काल में भी महात्मा गांधी ने पूरे भारतवर्ष की पदयात्रा की तभी वे ब्रिटिश साम्राज्य का नाश कर पाये ।
भारतवर्ष अपने आप में तीर्थ है जिस तरह तीर्थस्थानों की परिक्रमा से नई ऊर्जा मिलती है उसी तरह भारतवर्ष की परिक्रमा से भी नई ऊर्जा मिलती है । ये स्वयं प्रमाणित है । आप यहाँ पर किसी से भी भाग्य, भगवान, आत्मा, परमात्मा के बारे में बातें करके देख सकते हैं सभी के पास कुछ-न-कुछ अपने विचार होते हैं और वे विचार हमारे किसी-न-किसी शास्त्र में वर्णित होते हैं । हलाँकि वे उन शास्त्रों से हो सकता है अवगत नही हों । इसलिये यहाँ पर मनुष्य ही नहीं देवता भी जन्म लेकर यज्ञ यागादि अच्छे कर्मों के द्वारा पुण्य अर्जित कर अच्छे लोकों में जाना चाहते हैं । हमारे सनातन धर्म में ही भगवान के अवतार लेने की बात है । अन्य धर्मों मे नहीं क्योंकि सनातन धर्म भारतवर्ष में ही प्रचलित है और यह भारतवर्ष योगभूमि है । अतः यहाँ पर नये कर्म किये जा सकते है और अन्य खण्डों में नये कर्म नहीं हो सकते है - केवल पुरातन कर्मों का भोग ही हो सकता है । अतः देवगण भी यही गान करते हैं -
गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्ते तु भारतभूमि भागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ।।
(श्रीविष्णुपुराण 2/3/24)
अर्थात् जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्गभूत भारतवर्ष में जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य हैं ।
हिंदू संसार में सबसे अधिक राष्ट्र प्रेमी और राष्ट्रभक्त लोग हैं।ऐसी उत्कृष्ट और गहरी और व्यापक राष्ट्रभक्ति संसार में लगभग कहीं भी नहीं है क्योंकि इतना प्राचीन और स्वाभाविक राष्ट्र विश्व में और कोई नहीं हैं ।
परंतु अंग्रेजो के द्वारा भारतीय शिक्षा का सर्वनाश करके फिर अपने चेलों को सत्ता सौंपने के बाद उन लोगों ने जो भारतीय ज्ञान परंपरा का सर्वनाश किया है ,उसके बाद से हिन्दू लोगों के पास राजनीतिक चेतना बहुत अल्प है और वे तोतों की तरह से वे ही बातें करते रहते हैं जो हिंदू द्रोही सत्ताधीशो ने शोर मचाया है और जो उनके द्वारा प्रायोजित विद्यालय विद्या संस्थानों में पढ़ाया जाता है जो कि झूठ है, भयंकर झूठ। पर हिन्दू अब वही दुहराते रहते हैं।
भारत को एक राष्ट्र मानकर अन्य लघु राष्ट्रों जैसा एक मानना घोर अज्ञान है।
यह यूरोप के 37 राष्ट्रों के बराबर आज है।पहले यह समस्त यूरोप से बड़ा था।
50 से अधिक मुस्लिम देशों के बराबर है अकेले भारत।
इसके विषय में सोचते और बोलते समय सदा यह ध्यान रखें, कृपया।
✍🏻रामेश्वर मिश्रा पंकज
स्वाभाविक राष्ट्र है भारत
यह आज हमें पता है कि भारत का वर्तमान स्वरूप 15 अगस्त 1947 की देन है। आज अखंड भारत की कल्पना में हम केवल पाकिस्तान और बांग्लादेश को जोड़ते हैं। परंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बर्मा, श्रीलंका, अफगानिस्तान आदि भी भारत के ही भाग रहे हैं। यदि हम केवल 15 अगस्त 1947 के बाद के भारत को ही लें तो भी इस समय विश्व में केवल छह नेशन स्टेट या राष्ट्र ऐसे हैं जो आकार में भारत से बड़े हैं और ये छहों अस्वाभाविक राष्ट्र हैं। एक एक कर सभी पर विचार करते हैं।
पहला राष्ट्र है आस्ट्रेलिया। आस्ट्रेलिया क्या है? उसके केवल तटीय इलाकों में लोग बसे हैं। दिल्ली के बराबर आबादी है। इस नाम का भी कोई इतिहास नहीं है। यह बीसवीं शताब्दी में बना एक अस्वाभाविक राष्ट्र है। दूसरा बड़ा राष्ट्र है यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका। अमेरिका तो इस इलाके का नाम भी नहीं है। आज भी यूनाइटेड स्टेट्स किसी अमेरिगो नामक आदमी के नाम से जाना जाता है। इसे वेस्ट इंडिया ही कह दिया होता या वेस्ट इंडियन सबकोंटिनेंट ही कह दिया होता। यदि आपको किसी स्थान को उनके मूल नाम से नहीं बुलाना है तो कुछ पहचाना सा नाम तो रखना चाहिए था। किसी को पता ही नहीं है कि अमेरिगो कौन था। अमेरिका का मूल नाम तो टर्टल कोंटीनेंट यानी कि कच्छप महाद्वीप है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका तो उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में अस्तित्व में आया है। इसके टूटने का रुदन सैमुएल हंटिंगटन अपनी पुस्तक क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन में कर रहे हैं। भारत में इस पर काफी बहस चल रही है, परंतु बहस करने वालों ने ठीक से उसकी प्रस्तावना तक नहीं पढ़ी है। प्रस्तावना में ही वह कह रहा है कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका टूट रहा है। क्यों? क्योंकि उसके नीचे मैक्सिको उसे धक्का दे रहा है। मैक्सिको वहाँ का मूल है। वे वहाँ के मूलनिवासी हैं। उनका अपना क्षेत्र है। दीवाल बनाने से क्या होगा? दीवाल तो चीन ने भी बनाई थी। फिर भी उसे मंगोल, हूण, शक, मांचू सभी पराजित करते रहे।
तीसरा राष्ट्र है कैनेडा। संयुक्त राष्ट्र के ऊपर कैनेडा है। यहाँ कुछ फ्रांसीसी लोग हैं, कुछ अंग्रेज हैं और इन्होंने एक राष्ट्र बना लिया। यहां का पूरा इतिहास खंगाल डालिये, कैनेडा नाम नहीं मिलेगा। अस्वाभाविक राष्ट्र है। चौथा राष्ट्र है ब्राजील। यह नाम भी आपको इतिहास में नहीं मिलेगा। उन्नीसवीं शताब्दी तक ब्राजील का कोई अस्तित्व नहीं है। यह संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से भगाए गए कुछेक फ्रांसीसी, अंग्रेज और जर्मन लोगों की रचना है। ये कृत्रिम सीमाएं हैं।
पाँचवां बड़ा राष्ट्र है जिसे हम पहले यूएसएसआर के नाम से जानते रहे हैं सोवियत संघ। उससे टूट कर सोलह राष्ट्र अलग हो गए, अब बचा है रूस। रूस के तीन चौथाई हिस्से के बारे में उसे स्वयं ही उन्नीसवीं शताब्दी तक पता नहीं था। यह हिस्सा था रूस का एशियायी हिस्सा। यह तो प्राचीन काल से भारत का हिस्सा रहा है। साइबेरिया का उच्चारण बदलें तो सिबिरिया होता है यानी शिविर का स्थान। इतालवी लोग स्थानों को स्त्रीलिंग से बुलाते हैं। इसलिए शिविर शिविरिया बन गया जिसे हम आज साईबेरिया कहते हैं। यह रूस का हिस्सा नहीं था। यह हिस्सा रहा है भरतवंशी शकों का, भरतवंशी मंगोलों का। इसे आप नक्शों में आसानी से देख सकते हैं। कब तक रहा है? उन्नीसवीं शताब्दी तक। यह कोई प्राचीन इतिहास नहीं है, जिसे ढूंढना पड़े। यह आधुनिक इतिहास है। फ्रांसीसी क्रांति या पुनर्जागरण के काल के बाद के इतिहास को आधुनिक काल माना जाता है। परंतु यह तो उससे भी कहीं नई घटना है। उन्नीसवीं शताब्दी तक रूस इस इलाके को जानता भी नहीं है। वह स्वयं उसे क्या बतलाता है, इसे देख लीजिए। अ_ारहवीं शताब्दी तक रूस अपनी सीमाएं क्या बता रहा है, देख लीजिए। जैसे हम कहते हैं न कि हमारी सीमाएं गांधार तक रही हैं, रूस अपनी सीमाओं के बारे में क्या कहता है? इसलिए यह भी स्वाभाविक राष्ट्र नहीं है। कृत्रिम देश है। शीघ्र ही अपनी स्वाभाविक सीमाओं में आ जाएगा। इसकी स्वाभाविक सीमाएं क्या हैं? आज के यूक्रेन में एक स्थान है कीव। कीव के उत्तर में एक नदी चलती है। उस नदी के आस-पास का इलाका ही वास्तविक रूस है। और कीव सहित यूक्रेन आज रूस से बाहर है।
पाँच विशाल देशों के बाद अगला देश है चीन। चीन का वर्तमान आकार तो पंडित नेहरू का दिया हुआ है। तिब्बत तो कभी उसका था ही नहीं। जिसे भारत के यूरोपीय चश्मेवाले बुद्धिजीवी पूर्वी तूर्कीस्तान या फिर चीनी तूर्कीस्तान कहते हैं, वह भी उसका नहीं रहा है। इसे भी वर्ष 1949 में जवाहरलाल नेहरू ने चीन के लिए छोड़ दिया। यह तो महाकाल के उपासकों का स्थान रहा है। महाकाल के उपासक रहे महान मंगोल सम्राट कुबलाई खाँ ने चीन को पराजित किया था। चीन में मंगोलिया और मंचूरिया का हिस्सा मिला हुआ है। ये दोनों इलाके साम्यवादी चीन का हिस्सा 1949 के बाद रूस और चीन की सहमति से बने। रूस में लेनिन, स्टालिन जैसे कुछ तानाशाह लोग सत्ता में आ गए थे। उन्हें दुनिया भर में मित्र चाहिए था। कहा जाता है दुनिया भर में परंतु उसका वास्तविक अर्थ होता है यूरेशिया में। शेष चारों महादेश तो गिनती में होते ही नहीं हैं। तो साम्यवादी रूस को केवल एक सहयोगी मिला माओ के नेतृत्व वाला साम्यवादी चीन। साम्यवादी रूस ने मंगोलिया और मंचुरिया को चीन का हिस्सा मान लिया।
दूसरा विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की रचना हुई जिसमें यूएसएसआर स्थायी सदस्य था। दूसरा स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव भारत को मिला था, परंतु जवाहरलाल नेहरू ने कूटनीतिक मूर्खता में वह प्रस्ताव चीन को दिलवा दिया। इन दोनों साम्यवादी देशों ने मिल कर बंदरबाँट की। परंतु आज चीन टूट रहा है। तीन हिस्सों में। यह अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट है। मंचुरिया और मंगोलिया, दोनों ही चीन को अपने कब्जे में रखने वाले देश हैं। वर्ष 1914 तक मंचुरिया का गुलाम रहा है। यह तो हमें कहीं पढ़ाया नहीं जाता कि तेरहवीं शताब्दी से लेकर वर्ष 1914 तक चीन भरतवंशी मंगोलों तथा मंचुओं का गुलाम रहा है।
हमने देखा कि 15 अगस्त 1947 के भारत से दुनिया के छह नेशन-स्टेटों का क्षेत्रफल अधिक है और वे छहों अस्वाभाविक राष्ट्र हैं और ये छहों अतिशीघ्र टूट जाएंगे। आज के दिन भी भारत क्षेत्रफल की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा स्वाभाविक राष्ट्र है। हम जानते हैं कि पाकिस्तान और बांग्लादेश का जन्म कैसे हुआ है। अक्सर यह कहा जाता है कि हम पड़ोसी रोज नहीं बदल सकते। परंतु हमने हर रोज पड़ोसी ही तो बदला है। पाकिस्तान हमारा पड़ोसी कब था, वह तो हमारा घर था। हमारा पड़ोसी अफगानिस्तान भी कब था, वह भी हमारा घर ही था। चीन भी आपका पड़ोसी कब था, नेपाल कब था हमारा पड़ोसी? हमने तो घरवालों को ही पड़ोसी बना दिया है।
याद करें कि युद्ध अपराध के कारण संयुक्त राष्ट्र ने ट्रीटी ऑफ वर्साई के कारण जर्मनी के दो हिस्से कर दिए, वह जर्मनी एक हो गया। अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत एक हो गया। ऐसे में पाकिस्तान और भारत क्यों एक नहीं हो सकते? भारत का नक्शा देखिए, नीचे पेनिनसुलर भारत है, परंतु ऊपर विराट हिमालय है। अफगानिस्तान तो दुर्योधन का ननिहाल गाँधार ही तो था। शकुनि यहीं का था। और निकट इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह का राज्य गाँधार तक था। वर्ष 1905-10 में पंडित दीनदयालू शर्मा काबुल और कांधार में संस्कृत पर भाषण देने जाते हैं, सनातनधर्मरक्षिणी और गौरक्षिणी सभाएं करते हैं। गाँधी जी के जाने पर वायसराय खड़ा नहीं होता, पंरतु पंडित दीनदयालू शर्मा से मिलने के लिए इंग्लैंड का राजा भी खड़ा होता है। वर्ष 1910 में अफगानिस्तान नाम का कोई देश था ही नहीं। वर्ष 1922 में अंग्रेजों ने इसे बनाया रूस और उनके ब्रिटिश इंडिया के बीच बफर स्टेट के रूप में।
महाभारत में राजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ढेर सारे राजा आते हैं। वे राजा जो युधिष्ठिर को कर देते हैं, वे सभी आते हैं। जो प्रदेश भारत के चक्रवर्ती सम्राट को कर देते हैं, वे भारत ही कहलाएंगे न? यह भारत कहाँ से कहाँ तक है? यवन प्रांत जिसे आज ग्रीक कहते हैं। परंतु ग्रीक स्वयं को ग्रीक नहीं कहते। वे स्वयं को एलवंशीय कहते हैं। उनके देश का नाम आज भी ग्रीस नहीं एलेनिक रिपब्लिक है। एलवंश मतलब बुद्ध और इला की संतान। यह भारतीय ग्रंथों में मिल जाएंगे। राजसूय यज्ञ के बाद युद्ध के वर्णन में स्पष्ट वर्णन है कि कौन-कौन सी सेनाएं पांडवों के साथ हैं और कौन-कौन कौरवों के साथ। वहाँ 250 जनपदों का उल्लेख है जिसमें दरद, काम्बोज, गाँधार, यवन, बाह्लीक, शक सभी नाम आते हैं। जिसे आज हम इस्लामिक देश के रूप में जानते हैं, यह पूरा इलाका शिव. ब्रह्मा, दूर्गा का पूजक सनातन धर्मावलम्बी चक्रवर्तीं भारतीय सम्राट के जनपद रहे हैं।
यह एक रोचक सत्य है कि अंग्रेजों को वर्ष 1910 तक पता नहीं था कि अशोक, देवानां पियदासी कौन है? वे महाभारत को नकार देते हैं। यदि हम महाभारत को गलत भी मान लें तो वायुपुराण, विष्णुपुराण, रामायण, कालीदास का रघुवंश, पाणिनी के अष्टाध्यायी आदि में किए गए भारतसंबंधी वर्णनों को देखें। यदि इन भारतीय संदर्भों से हमारी तुष्टि न हो तो फिर एक मुस्लिम लेखक का संदर्भ देखिए। अल बिरुनी का भारत पुस्तक को पढि़ए। अल बिरुनी की पुस्तक में भारत की सीमाओं और लोगों का वर्णन है। इसमें एक वर्णन है कि भारत के लोगों ने चारों दिशाओं में चार नगरों से आकाशीय गणना की है। उसकी आज तो जाँच की जा सकती है। वह कह रहा है कि इन चारों स्थानों पर भारत के लोग रहते हैं। ये चारों स्थान हैं – उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव, और पूरब तथा पश्चिम के शहरों का अक्षांश और देशांतर गणना दी हुई है। अल बिरुनी का कहना है कि ये गणनाएं तभी सही हो सकती हैं, जब आप वहाँ लगातार जा रहे हों।
पिरी राइस का नक्शा दुनिया का एक नक्शा है। यह फटी-पुरानी अवस्था में किसी विद्वान को मिला। उसने उसे देखा। उस नक्शे की विशेषता है कि उसमें दक्षिणी ध्रुव दिखाया गया है। दक्षिणी ध्रुव पर दो किलोमीटर मोटी बर्फ की परत जमी हुई है। वर्ष 1966 में इंग्लैंड और स्वीडेन ने एक सिस्मोलोजिकल सर्वेक्षण किया और उसके आधार पर दक्षिणी ध्रुव का नक्शा बनाया। यह नक्शा पिरी राइस के नक्शे के एकदम समान है। तो प्रश्न उठा कि पिरी राइस का नक्शा इतना पहले कैसे बना? उस विद्वान ने उस नक्शे को अमेरिका के एयर फोर्स के टेक्नीकल डिविजन के स्क्वैड्रन लीडर को भेजा। स्क्वैड्रन लीडर ने उत्तर लिखा कि नक्शा तो सही है, परंतु उस समय जब बर्फ नहीं थी, जब जानने के लिए जो यंत्र और तकनीकी ज्ञान चाहिए, वह नहीं रहा होगा। वह कहता है कि इस दो किलोमीटर की बर्फ की तह जमने में कई दशक लाख वर्ष लगे। यह नक्शा लगभग तबका बना हुआ है। यह उद्धरण मैप्स ऑफ एनशिएंट सी किंग्स के हैं। पिरी राइस तूर्क का डकैत था। तूर्कों को आमतौर पर हम मुसलमान मान लेते हैं। परंतु ध्यान दें कि ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक इसे यूरोप अनातोलिया बोलते थे। तूर्क लोग जब वर्तमान तूर्किस्तान पहुँचे, तब उसका नाम तूर्किस्तान रखा। वे वास्तव में दूर्गा और शिव के उपासक रहे हैं।
पिरी राइस लिख रहा है कि उसने यह नक्शा पुराने नक्शों के आधार पर बनाया है। अमेरिकन नक्शा बनाने वाले विद्वान लिखते हैं कि इस रास्ते पर लगातार समुद्री यात्राएं होती रही हैं। दक्षिणी ध्रुव पर यात्राएं हो रही हैं व्यापारिक और सैन्य कारणों से। अलग-अलग हिमयुगों में नक्शे बनाए गए हैं। इसे बनाने वाले और यात्रा करने वाले वे लोग हैं, जिनके नाम से एक महासागर का नाम ही रख दिया गया है। हिंद महासागर। दूसरे किसी भी देश के नाम पर महासागर का नाम नहीं रखा गया है, क्यों? इस हिंद महासागर में हिंद का तटीय प्रदेश छोटा सा ही है। फिर भी इसका नाम हिंद महासागर इसलिए है कि इसमें भारतीय ऐसे चलते हैं जैसे कनॉट प्लेस में दिल्ली पुलिस और जनता चलती है। इसी प्रकार हिंद महासागर में भारतीय व्यापारी और उनकी रक्षा के लिए चतुर्गिंणी सेना चलती है। चतुर्गिंणी में चौथा अंग कौन है? चार प्रकार की सेना है नौसेना। इसका प्रमाण है अजंता में बड़े-बड़े जहाजों का चित्रण है जिसमें हाथी-घोड़े और हथियार लदे होते हैं। ऐसे ही भित्तिचित्र भारत के उत्तर में स्थित पाँच स्तानों में भी मिले हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि भारत एक स्वाभाविक राष्ट्र है और अत्यंत विशाल राष्ट्र रहा है। इसके ढेरों प्रमाण मिलते हैं। कुछ प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं।
✍🏻प्रो. कुसुमलता केडिया
(लेखिका धर्मपाल शोधपीठ, भोपाल की निदेशक हैं।)