भारंगी (भाङ्गी ब्राह्मययष्टिका) -क्लेरोडेण्ड्रान सेरेटम
यह झाड़ीदार क्षुप सारे भारत में होता है । इसका पौधा अधिक नमी पंसद करता है । उसी कारण यह घास के मैदानों एवं नदी-नालों के आसपास विशेषकर हिमालय की तराई में नेपाल, कुमाऊँ, बंगाल, बिहार में 4000 फीट की ऊँचाई तक अधिक पाया जाता है । गढ़वाल-देहरादून की पहाड़ियों में भी यह प्रचुरता से मिलता है ।
वानस्पतिक परिचय-
बहुवर्षीय गुल्म रूपी क्षुप 5 से 8 फीट ऊँचे होते हैं । ये शाखा रहित अथवा कम शाखाओं वाले होते हैं । शाखाएँ अनियमित क्रम में फैली पीले रंग की होती हैं । तना 1 से 2 मीटर तक लंबा होता है । पत्तियाँ 5 से 6 इंच लम्बी लगभग इतनी ही चौड़ी-नोकदार, तीखी, ऊपर की ओर काली धब्बों से युक्त होती हैं । पिछला भाग रोम युक्त होता है । फूलों की मंजरी रोम युक्त 6 इंच लंबी व एक इंच चौड़ी होती है । इनकी पृष्ठ शाखाओं पर सफेद या नीले सुगंधित पुष्प आते हैं । फल गोल, मांसल आधे इंच व्यास के जामुनी रंग के होते हैं । अप्रैल से नवम्बर तक पुष्प व फल आते हैं । वर्षा में पक जाते हैं । इसकी जड़ ग्रंथियुक्त होती है । इस अंग मूल को ही प्रयुक्त करते हैं ।
मिलावट-
इस औषधि के गुण धर्म इस जाति की अन्य औषधियों से बिल्कुल ही भिन्न हैं । इसी कारण अग्निमंथा या क्लेरोडेण्ट्रान, फ्लोमिडस, इण्डिकस तथा बभनहाटी (प्रेमला इर्वोसिया) से अलग पहचानना बहुत अनिवार्य है, क्योंकि एक से दिखने के कारण इनमें मिलावट बहुधा की जाती है । अग्निमंथा का प्रयोग वृहत् पंचमूल तथा दशमूल में होता है एवं श्वांस संस्थान पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता । पिक्राज्मा की छाल भी भारंगी के नाम से बेची जाती है । इन्हें परस्पर पहचानना वानस्पतिक परिचय से ही संभव है ।
रोपड़-
इसके तने या शाखाओं की 3 से 6 इंच लंबी कलमें जमीन में विशेषकर रेत प्रधान भूमि में शीघ्र ही जड़ पकड़ लेती है । 'डिक्सनरी ऑफ गार्डनिंग' के अनुसार भारंगी धूप, गर्मी और जल प्रचुरता से चाहती है ।
संग्रह तथा संरक्षण-
शीत ऋतु में भारंगी की जड़ का संग्रह कर छाया में सुखा लेते हैं तथा सूखे मुखबंद पात्रों में सुरक्षित कर लेते हैं ।
कालावधि-
6 माह से एक वर्ष तक इस औषधि का प्रयुक्त किया जा सकता है ।
गुण कर्म संबंधी मत-
इस औषधि को श्वांस रोगों में अत्यंत लाभकारी बताया गया है । भाव प्रकाश ने शोथ, कास, कफ, श्वांस, पीनस, ज्वर में इसे प्रयुक्त करने का विधान बताया है तथा इससे शत प्रतिशत लाभ होने की बात कही है । इसका प्रधान कर्म कफ वाल शमन, शोथ हरण, स्वेद जनन, कफघ्न तथा श्वांस-कास हरण माना गया है ।
डॉ. खोरी ने भारंगी को फुफ्फुसीय श्लेष्म रोगों को हरनेवाला माना है तथा डॉ. कोमान के अनुसार भारंगी अनेकानेक कारणों से उत्पन्न फेफड़ों की विकृति मिटाने के लिए उपयोग में लाई जाती है । श्री नादकर्णी मानते हैं कि भारंगी की जड़ का क्वाथ दमा, एक्यूट व क्रानिक ब्रोंकाइटिस तथा फेफड़ों के अन्य श्लेष्म स्रावी रोगों में तुरंत लाभ पहुँचाता है ।
यूनानी चिकित्सा पद्धति में इसका प्रयोग मुख्यतः कफयुक्त रोगों में तथा दमे में होता है । इस औषधि के विषय में अधिक शास्रीय व आधुनिक मत नहीं मिलते, परन्तु आधुनिक समय के वैद्यों ने प्रयोग कर पाया है कि श्वांस का वेग शान्त करने की यह एक अति लाभकारी औषधि है । वैसे अरुचि अग्निमंदता में पाचक दीपक वात शामक होने के अपने गुण के कारण प्रयुक्त तो होती रही है पर श्वांस संस्थान पर इसकी कार्य करने की विधि क्या होती है, यह एक शोध का विषय है ।
रासायनिक संगठन-
प्रयोज्य अंग मूल की छाल में अनेक जैव सक्रिय पदार्थ पाए जाते हैं । इनमें प्रमुख हैं-मैनिटॉल एवं ग्लाइकोसाइड्स । केलकटा स्कूल ऑफ 'ट्रॉपिकल मेडीसिन के शोध कार्यों के अनुसार (डॉ. वासवद्, बुलेटिम-15, 61, 1962) भारंगी की जड़ की छाल में लगभग १10.9 प्रतिशत डी-मैनिटॉल होता है ।'
ग्लाइकोसाइड्स की रचना काफी जटिल है । इनमें से ओलियानोलिक अम्ल, क्वेरेटेरोइक अम्ल और एक नवीनतम सिरोटोजेनिक अम्ल होता है । यह अंतिम घटक अपनी क्रिया द्वार 'एलर्जी' के लिए उत्तरदायी रसस्रावों के प्रभाव को कम करता है तथा विशिष्ट स्थानों पर उन्हें प्रभावहीन बनाता है । यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार होती है जैसी कि पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति की एण्टी हिस्टामिनिक औषधियों की होती है । कोलीनेस्टरेज नामक रसायन भी एलर्जी प्रक्रिया द्वारा छीकें लाने तथा दमे जैसी स्थिति उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है । पौधे के सैपोनिन्स में इस रसायन की प्रतिरोधी क्रिया जैसे गुण धर्म पाए गए हैं ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
आधुनिक शोधों ने यह प्रमाणित कर दिखाया है कि इस औषधि के प्रधान भेषजीय गुण फेफड़ों पर इसकी क्रिया के कारण है । मेडीसिनल प्लांट्स ऑफ इण्डिया के अनुसार भारंगी के जड़ की छाल का निष्कर्ष फेफड़ों से हिस्टामिन उत्सर्जित करता है । हिस्टामिन रहित फेफड़ों के टारगेट अंग काफी सीमा तक 'एनाफाइलेक्सिस' या एलर्जी जैसी स्थिति से बच जाते हैं । गिनीषियों पर इस प्रकार के प्रयोग सफलतापूर्वक किए गए हैं । श्री सचदेव आदि के अनुसार (इण्डियन जनरल ऑफ फर्मेकालॉजी-26, 105, 1964) भारंगी की जड़ के जल निष्कर्ष में तीव्र एण्टीएलर्जिक गुण होते हैं ।
इसी प्रकार श्री मोधे व गुप्ता जैसे वैज्ञानिकों ने भारंगी से निकाले गए सैपोनिन को रक्त में स्यूडो कोलीनेस्टरेस की सक्रियता बढ़ाते तथा मांस कोषों को प्रभावित करते पाया है । बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में श्वांस रोगियों पर किए गए एक कण्ट्रोल ट्रायल से सिद्ध हो गया है कि भारंगी के रसायनिक घटक रक्त में घुलकर श्वसन रोकने की अवधि को बढ़ाते हैं रक्त कोषिकाओं के बैठने की गति (ई.एस.आर.) कम करते हैं तथा श्वेत कणों में वृद्धि करते हैं । इससे रक्त में दौड़ रहे हिस्टामिन एन्जाइम के स्तर में कमी आती है, जिससे श्वांस की गहराई बढ़ जाती है । (गुजरात आयुर्वेदिक यूनीवर्सिटी जामनगर-सेमीनार, नवम्बर 1977)
ग्राह्य अंग-
जड़-पूर्ण अथवा छाल ।
मात्रा-
3 से 6 ग्राम प्रत्येक बार । दिन में 2 या 6 बार रोगी की स्थिति के अनुसार ।
निर्धारणानुसार उपयोग-
सूखी खांसी में भारंगी जड़ का स्वरस 2 भाग तथा दही 4 भाग मिलाकर देते हैं । श्वांस रोग में मूल का कपड़छन चूर्ण 3 ग्राम आधे घंटे से 2 या 3 बार इतनी मात्रा शहद के साथ देते हैं । भारंगी का कल्प व शरबत भी प्रयुक्त होता है । परंतु चूर्ण व शहद का अनुपान श्रेयस्कर माना गया है । हिचकियों में भी मूल का चूर्ण मधु के साथ तुरंत लाभ पहुँचाता है । डॉ. प्रियव्रत शर्मा के अनुसारमूल का स्वरस अदरक के स्वरस में मिलाकर देने से श्वांस का वेग शांत हो जाता है तथा कफ निकल कर तुरंत राहत मिलती है । शोथ नाशक होने के नाते फेफड़ों की श्लेष्मा सूजन-प्रतिश्याय आदि में यह अति लाभकारी पाया गया है । फेफड़ों के व्रणों के साथ ज्वर होने पर यह तुरंत उसे शांत करता है तथा रोगाणुओं के फैलने की गति को रोकता है ।
अन्य उपयोग-
बाह्य प्रयोग में इसकी पत्तियों का लेप व्रणों को पकाने तथा थायराइड के गण्डमाला रोगों में किया जाता है । अरुचि, अग्निमंदता, क्रानिक गेस्ट्राइटिस, रक्त विकारों तथा हर प्रकार के शोथ युक्त ज्वरों में भी इसका प्रयोग करते हैं ।
इस औषधि पर अभी प्रयोग चल रहे हैं । बहुसंख्यक वैद्य परम्परागत रूप से श्वांस संस्थान के रोगों में अन्य औषधियों का प्रयोग करते आए हैं, परन्तु अब इसकी उपयोगिता व आधुनिक प्रयोगों के निष्कर्ष से इसके प्रयोगों की श्रंखला चल पड़ी है । इस औषधि का भविष्य उज्जवल है व यह मानकर चलना चाहिए कि एकौषधि प्रयोग से एक नया ही अध्याय आयुर्विज्ञान में और जुड़ेगा
यह झाड़ीदार क्षुप सारे भारत में होता है । इसका पौधा अधिक नमी पंसद करता है । उसी कारण यह घास के मैदानों एवं नदी-नालों के आसपास विशेषकर हिमालय की तराई में नेपाल, कुमाऊँ, बंगाल, बिहार में 4000 फीट की ऊँचाई तक अधिक पाया जाता है । गढ़वाल-देहरादून की पहाड़ियों में भी यह प्रचुरता से मिलता है ।
वानस्पतिक परिचय-
बहुवर्षीय गुल्म रूपी क्षुप 5 से 8 फीट ऊँचे होते हैं । ये शाखा रहित अथवा कम शाखाओं वाले होते हैं । शाखाएँ अनियमित क्रम में फैली पीले रंग की होती हैं । तना 1 से 2 मीटर तक लंबा होता है । पत्तियाँ 5 से 6 इंच लम्बी लगभग इतनी ही चौड़ी-नोकदार, तीखी, ऊपर की ओर काली धब्बों से युक्त होती हैं । पिछला भाग रोम युक्त होता है । फूलों की मंजरी रोम युक्त 6 इंच लंबी व एक इंच चौड़ी होती है । इनकी पृष्ठ शाखाओं पर सफेद या नीले सुगंधित पुष्प आते हैं । फल गोल, मांसल आधे इंच व्यास के जामुनी रंग के होते हैं । अप्रैल से नवम्बर तक पुष्प व फल आते हैं । वर्षा में पक जाते हैं । इसकी जड़ ग्रंथियुक्त होती है । इस अंग मूल को ही प्रयुक्त करते हैं ।
मिलावट-
इस औषधि के गुण धर्म इस जाति की अन्य औषधियों से बिल्कुल ही भिन्न हैं । इसी कारण अग्निमंथा या क्लेरोडेण्ट्रान, फ्लोमिडस, इण्डिकस तथा बभनहाटी (प्रेमला इर्वोसिया) से अलग पहचानना बहुत अनिवार्य है, क्योंकि एक से दिखने के कारण इनमें मिलावट बहुधा की जाती है । अग्निमंथा का प्रयोग वृहत् पंचमूल तथा दशमूल में होता है एवं श्वांस संस्थान पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता । पिक्राज्मा की छाल भी भारंगी के नाम से बेची जाती है । इन्हें परस्पर पहचानना वानस्पतिक परिचय से ही संभव है ।
रोपड़-
इसके तने या शाखाओं की 3 से 6 इंच लंबी कलमें जमीन में विशेषकर रेत प्रधान भूमि में शीघ्र ही जड़ पकड़ लेती है । 'डिक्सनरी ऑफ गार्डनिंग' के अनुसार भारंगी धूप, गर्मी और जल प्रचुरता से चाहती है ।
संग्रह तथा संरक्षण-
शीत ऋतु में भारंगी की जड़ का संग्रह कर छाया में सुखा लेते हैं तथा सूखे मुखबंद पात्रों में सुरक्षित कर लेते हैं ।
कालावधि-
6 माह से एक वर्ष तक इस औषधि का प्रयुक्त किया जा सकता है ।
गुण कर्म संबंधी मत-
इस औषधि को श्वांस रोगों में अत्यंत लाभकारी बताया गया है । भाव प्रकाश ने शोथ, कास, कफ, श्वांस, पीनस, ज्वर में इसे प्रयुक्त करने का विधान बताया है तथा इससे शत प्रतिशत लाभ होने की बात कही है । इसका प्रधान कर्म कफ वाल शमन, शोथ हरण, स्वेद जनन, कफघ्न तथा श्वांस-कास हरण माना गया है ।
डॉ. खोरी ने भारंगी को फुफ्फुसीय श्लेष्म रोगों को हरनेवाला माना है तथा डॉ. कोमान के अनुसार भारंगी अनेकानेक कारणों से उत्पन्न फेफड़ों की विकृति मिटाने के लिए उपयोग में लाई जाती है । श्री नादकर्णी मानते हैं कि भारंगी की जड़ का क्वाथ दमा, एक्यूट व क्रानिक ब्रोंकाइटिस तथा फेफड़ों के अन्य श्लेष्म स्रावी रोगों में तुरंत लाभ पहुँचाता है ।
यूनानी चिकित्सा पद्धति में इसका प्रयोग मुख्यतः कफयुक्त रोगों में तथा दमे में होता है । इस औषधि के विषय में अधिक शास्रीय व आधुनिक मत नहीं मिलते, परन्तु आधुनिक समय के वैद्यों ने प्रयोग कर पाया है कि श्वांस का वेग शान्त करने की यह एक अति लाभकारी औषधि है । वैसे अरुचि अग्निमंदता में पाचक दीपक वात शामक होने के अपने गुण के कारण प्रयुक्त तो होती रही है पर श्वांस संस्थान पर इसकी कार्य करने की विधि क्या होती है, यह एक शोध का विषय है ।
रासायनिक संगठन-
प्रयोज्य अंग मूल की छाल में अनेक जैव सक्रिय पदार्थ पाए जाते हैं । इनमें प्रमुख हैं-मैनिटॉल एवं ग्लाइकोसाइड्स । केलकटा स्कूल ऑफ 'ट्रॉपिकल मेडीसिन के शोध कार्यों के अनुसार (डॉ. वासवद्, बुलेटिम-15, 61, 1962) भारंगी की जड़ की छाल में लगभग १10.9 प्रतिशत डी-मैनिटॉल होता है ।'
ग्लाइकोसाइड्स की रचना काफी जटिल है । इनमें से ओलियानोलिक अम्ल, क्वेरेटेरोइक अम्ल और एक नवीनतम सिरोटोजेनिक अम्ल होता है । यह अंतिम घटक अपनी क्रिया द्वार 'एलर्जी' के लिए उत्तरदायी रसस्रावों के प्रभाव को कम करता है तथा विशिष्ट स्थानों पर उन्हें प्रभावहीन बनाता है । यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार होती है जैसी कि पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति की एण्टी हिस्टामिनिक औषधियों की होती है । कोलीनेस्टरेज नामक रसायन भी एलर्जी प्रक्रिया द्वारा छीकें लाने तथा दमे जैसी स्थिति उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है । पौधे के सैपोनिन्स में इस रसायन की प्रतिरोधी क्रिया जैसे गुण धर्म पाए गए हैं ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
आधुनिक शोधों ने यह प्रमाणित कर दिखाया है कि इस औषधि के प्रधान भेषजीय गुण फेफड़ों पर इसकी क्रिया के कारण है । मेडीसिनल प्लांट्स ऑफ इण्डिया के अनुसार भारंगी के जड़ की छाल का निष्कर्ष फेफड़ों से हिस्टामिन उत्सर्जित करता है । हिस्टामिन रहित फेफड़ों के टारगेट अंग काफी सीमा तक 'एनाफाइलेक्सिस' या एलर्जी जैसी स्थिति से बच जाते हैं । गिनीषियों पर इस प्रकार के प्रयोग सफलतापूर्वक किए गए हैं । श्री सचदेव आदि के अनुसार (इण्डियन जनरल ऑफ फर्मेकालॉजी-26, 105, 1964) भारंगी की जड़ के जल निष्कर्ष में तीव्र एण्टीएलर्जिक गुण होते हैं ।
इसी प्रकार श्री मोधे व गुप्ता जैसे वैज्ञानिकों ने भारंगी से निकाले गए सैपोनिन को रक्त में स्यूडो कोलीनेस्टरेस की सक्रियता बढ़ाते तथा मांस कोषों को प्रभावित करते पाया है । बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में श्वांस रोगियों पर किए गए एक कण्ट्रोल ट्रायल से सिद्ध हो गया है कि भारंगी के रसायनिक घटक रक्त में घुलकर श्वसन रोकने की अवधि को बढ़ाते हैं रक्त कोषिकाओं के बैठने की गति (ई.एस.आर.) कम करते हैं तथा श्वेत कणों में वृद्धि करते हैं । इससे रक्त में दौड़ रहे हिस्टामिन एन्जाइम के स्तर में कमी आती है, जिससे श्वांस की गहराई बढ़ जाती है । (गुजरात आयुर्वेदिक यूनीवर्सिटी जामनगर-सेमीनार, नवम्बर 1977)
ग्राह्य अंग-
जड़-पूर्ण अथवा छाल ।
मात्रा-
3 से 6 ग्राम प्रत्येक बार । दिन में 2 या 6 बार रोगी की स्थिति के अनुसार ।
निर्धारणानुसार उपयोग-
सूखी खांसी में भारंगी जड़ का स्वरस 2 भाग तथा दही 4 भाग मिलाकर देते हैं । श्वांस रोग में मूल का कपड़छन चूर्ण 3 ग्राम आधे घंटे से 2 या 3 बार इतनी मात्रा शहद के साथ देते हैं । भारंगी का कल्प व शरबत भी प्रयुक्त होता है । परंतु चूर्ण व शहद का अनुपान श्रेयस्कर माना गया है । हिचकियों में भी मूल का चूर्ण मधु के साथ तुरंत लाभ पहुँचाता है । डॉ. प्रियव्रत शर्मा के अनुसारमूल का स्वरस अदरक के स्वरस में मिलाकर देने से श्वांस का वेग शांत हो जाता है तथा कफ निकल कर तुरंत राहत मिलती है । शोथ नाशक होने के नाते फेफड़ों की श्लेष्मा सूजन-प्रतिश्याय आदि में यह अति लाभकारी पाया गया है । फेफड़ों के व्रणों के साथ ज्वर होने पर यह तुरंत उसे शांत करता है तथा रोगाणुओं के फैलने की गति को रोकता है ।
अन्य उपयोग-
बाह्य प्रयोग में इसकी पत्तियों का लेप व्रणों को पकाने तथा थायराइड के गण्डमाला रोगों में किया जाता है । अरुचि, अग्निमंदता, क्रानिक गेस्ट्राइटिस, रक्त विकारों तथा हर प्रकार के शोथ युक्त ज्वरों में भी इसका प्रयोग करते हैं ।
इस औषधि पर अभी प्रयोग चल रहे हैं । बहुसंख्यक वैद्य परम्परागत रूप से श्वांस संस्थान के रोगों में अन्य औषधियों का प्रयोग करते आए हैं, परन्तु अब इसकी उपयोगिता व आधुनिक प्रयोगों के निष्कर्ष से इसके प्रयोगों की श्रंखला चल पड़ी है । इस औषधि का भविष्य उज्जवल है व यह मानकर चलना चाहिए कि एकौषधि प्रयोग से एक नया ही अध्याय आयुर्विज्ञान में और जुड़ेगा
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